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कन्यापक्ष

विमल मित्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1994
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2390
आईएसबीएन :00000

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विमल बाबू ने अपने प्रारम्भिक जीवन में देखे कुछ उर्वशी-चरित्रों का चित्रण ‘कन्या पक्ष’ में किया है।

Kanyapaksha

सोना दीदी कहती थी : उर्वशी की तरह किसी नारी का चित्रण कर जो किसी की माँ नहीं, बेटी नहीं, पत्नी नहीं-लेकिन सब कुछ है। ‘विक्रमोर्वशीय’ पढ़ा है न ?
लगता था, सोना दीदी मानो अपने ही बारे में कह रही हों। लेकिन मैंने जिनको देखा था, वे सब तो साधारण लड़कियाँ थीं। मुझे बड़ा घमंड था कि मैंने अनेक विचित्र नारी-चरित्र देखे हैं। लेकिन सोना दीदी की बातों से लगा कि जो सचमुच उर्वशी को देख सका है, उसके लिए तो अन्य नारियाँ तुच्छ हैं।
विमल बाबू ने अपने प्रारम्भिक जीवन में देखे ऐसे ही कुछ उर्वशी-चरित्रों का चित्रण ‘कन्या पक्ष’ में किया है।


‘कन्यापक्ष’ उपन्यास नहीं है। उपन्यास की जो परिभाषा प्रचलित है, उसके घेरे में यह नहीं आता। लेकिन छोटी कहानियों की किताब भी यह नहीं है। क्यों नहीं है, यह समझाकर बताना जरूरी है। सब कुछ मिलाकर जो समग्र और अखंड प्रभाव उपन्यास का अन्यतम लक्षण है, वह इस ग्रंथ में है।
इसके अलावा एक और भी कारण है। जीवन में, विभिन्न समय कुछ विचित्र चरित्रों से मेरा साक्षात्कार हुआ था। चित्रकार की भाँति सावधानी से तभी उनके कुछ स्केच बना रखे थे। उद्देश्य था, वृहत् पटभूमि में उनका वृहत्तर उपयोग करूँगा। लेकिन इस बीच एक दिन उनमें ऐक्य, सामञ्जस्य और क्रमिक परिणति का आभास लक्ष्य किया। इसलिए उनके कुछ अंशों को एकत्र कर अब ग्रंथ का रूप दिया। फिर मेरे साहित्य जीवन के एक पुराने अध्याय के तौर पर मेरे लिए इसकी उपयोगिता भी है।

एक लेखक के जीवन की सबसे बड़ी ट्रेजडी यह है कि उसे जीवन भर लिखना पड़ता है। आजीवन उसे बढ़िया चीज लिखने की विवशता होती है। कोई एक अच्छी किताब लिखकर रुक जाने से काम नहीं चलता। यदि एक अच्छी किताब वह लिख चुका है, तो दूसरी किताब अच्छी न होने पर उसे कोई माफ नहीं करेगा। सिर्फ अच्छा लिखना होगा, यही नहीं। और अच्छा। और, और भी अच्छा। हमेशा अच्छा।

ये सब मेरी अपनी बात नहीं है। इतनी बातें मैं समझता नहीं था। ये सब बातें जिन्होंने मुझे बतायी थीं, उनको मैंने कभी अपनी कहानी में नहीं घसीटा। अपने जीवन की अन्तिम कहानी शायद मैं उन्हीं पर लिखूँगा। अभी उस बात को रहने दिया जाय।
अलका पाल, सुधा सेन, मीठी दीदी, मिछरी भाभी, मेरी सगी मौसी, जामुन दीदी अथवा मिली मल्लिक—किसके बारे में मैं ठीक से जानता हूँ ! किसको अच्छी तरह पहचान पाया हूँ ! मेरे जीवन के संग कौन सबसे अधिक घुल-मिल गयी है ! बचपन से ही जगह-जगह घूमता रहा। कितना कुछ देखा ! क्या सबको याद रखना आसान है ! जबलपुर का वह नैपियर टाउन, विसालपुर का सनीचरी बाजार, कलकत्ते का हंगरफोर्ट स्ट्रीटवाला मीठी दीदी का वह मकान, पलाशपुर को मिली मल्लिक—जितनी जगहें, कितने ही लोग मैंने देखे हैं, अपनी नोटबुक में मैंने सब की सब कहानियाँ लिख कर नहीं रखी हैं।
सोना दी याने सोना दीदी कहती थीं, जो कुछ देख रहा है, नोट कर ले। जैसे आर्टिस्ट लोग कापी में स्केच किया करते हैं, वैसे ही। फिर जब उपन्यास लिखेगा तब यह तेरे काम आयेगा।’

वह सब कभी उपन्यास लिखने के काम आयेगा या नहीं, यह मैं नहीं जानता; फिर भी बहुत दिनों तक जहाँ जो कुछ देखा, उसके बारे में थोड़ा बहुत लिखता रहा। एक-एक मनुष्य देखा है, और मानो एक-एक महाद्वीप के अन्वेषण के आनन्द से उज्जवल हो उठा हूँ। एक-एक इन्सान मानो एक-एक ताजमहल हो। वैसा ही सुन्दर, वैसा ही विस्मयजनक, वैसा ही अश्रु-करुण।

इच्छा थी कभी एक उपन्यास लिखूँगा। ऐसा उपन्यास, जिसमें संसार का हर मनुष्य अपना प्रतिबिम्ब देख लेगा। वह अगणित चरित्रों का जुलूस जैसा होगा। हजारों हजार लोगों की मर्म कथा उस उपन्यास में मुखर हो उठेगी। वह जैसे दूसरा महाभारत होगा। लेकिन मेरी वह आशा सफल नहीं हुई; होगी भी नहीं, यह मैं जानता हूँ। फिर भी सोना दीदी हौसला बढ़ाया करतीं, ‘तुझसे क्यों नहीं होगा ? जरूर होगा—नकद प्राप्ति का लोभ अगर तू त्याग सका तो। पुजारी होकर अगर तूने पूजा का नवैद्य नहीं चुराया तो एक दिन देवता का प्रसाद तू अवश्य पायेगा।’

याद है लड़कपन में जो कुछ उत्साह मिला था वह एक मात्र सोना दीदी से ही। जब चोरी-छिपे लिख-लिखकर मैंने पन्ने भर डाले, तब पिता जी ने देखकर डाँटा, यार-दोस्तों ने मजाक उड़ाया, लेकिन सोना दीदी नहीं हँसी !
सोना दीदी कहती थीं, ‘स्त्रियों के बारे में लिखना ही ज्यादा मुश्किल है। इसलिए स्त्रियों को अच्छी तरह देखना। स्त्रियाँ मानो मंगल ग्रह की तरह हैं। मंगल ग्रह कितनी दूर है, फिर भी पृथ्वी के लोगों के मन में उसके बारे में जिज्ञासा का अन्त नहीं है। उस ग्रह पर पहुँचने के लिए मनुष्य ने क्या कम प्रयास किया है, कम लगन दिखाई है ? लेकिन, अगर कभी वह वहाँ पहुँच गया तो--’
मैं पूछ बैठता था, ‘तो क्या होगा सोना दीदी ?’

‘यह कैसे बताऊँ ! शायद कोई ठगा जायेगा और कोई बाजी मार लेगा। हार-जीत से ही तो यह दुनिया बनी है। लेकिन जो मनुष्य दूर नहीं है उसके बारे में किसी के मन में कोई कुतूहल नहीं है। स्त्रियों को रहस्यमय बनाकर गढ़ने का यही तो कारण है।’

लेकिन सुधा सेन को जब पहली बार मैंने देखा तब सचमुच कोई कुतूहल, कोई रहस्य मुझे आकृष्ट नहीं कर सका था। इसलिए बाद में जब एक दिन सुधा सेन का पत्र मिला, तब सचमुच मैं चौंक पड़ा था।
याद है, सुधा सेन को साथ लिए जिस दिन पहली बार सड़क पर निकला था, उस दिन मैंने न जाने क्यों स्वयं को लज्जित अनुभव किया था।

सुधा सेन कोई ऐसी लड़की नहीं थी जिसे साथ लेकर सड़क पर निकला जाय।
ट्राम वाली सड़क के मोड़ पर किसी से भेंट हो जाय ऐसी तनिक भी इच्छा मेरी उस दिन नहीं थी। सुधा सेन कोई हसीना नहीं थी जिसे साथ लेकर घूमने पर लोगों के मन में ईर्ष्या होती। बल्कि बात उलटी ही थी। बाइस साल की वह लड़की इतनी मरियल और स्वास्थ्यहीन कैसे हुई ? उसके दोनों कंधे तो ब्लाउज से ढँके थे लेकिन बाँहों का जितना हिस्सा दिखाई पड़ रहा था, उतने में सौंदर्य की छटा या यौवन का माधुर्य जरा ढूँढ़े नहीं मिलता था। गले के नीचे दोनों तरफ हँसली की हड्डियाँ मानो ललकार कर अपने अस्तित्व की घोषणा कर रही थीं। जो दृष्टि कम से कम उसके युवती होने का अहसास कराती, मन के किसी एकान्त कोने में जरा भी हलचल मचाती, वह उसकी आँखों में नहीं थीं।

यह दृश्य मुझे आज भी याद है। मानो सुधा सेन मेरी बगल में खड़ी है। नितान्त घनिष्ठ सी मेरे बायीं तरफ खड़ी है। हाथ में वैनिटी बैग है; पाँवों में साधारण की चप्पलें और हाथों दो-दो चूड़ियाँ। दोनों भौहों के बीच उसने सिन्दूर की बिन्दी लगाई है। चमचमाती रंगीन साड़ी भी देह पर है। याने सजने-धजने का दारुण आग्रह भले ही न हो, लेकिन इसमें इन्कार की तनिक गुंजाइश नहीं है कि सुधा सेन ने साज-ऋंगार नहीं किया है।

इसलिए ऐसी एक लड़की को साथ लेकर चलने में उस दिन मुझे शर्म महसूस हो रही थी। यह मुझे याद है।
लेकिन बदकिस्मती भी खूब रही कि उसी वक्त मोहित से मुलाकात हो गयी।
बच निकलना मुमकिन होता तो जरूर बच निकलता। लेकिन मोहित ने मुझे देख लिया। आगे बढ़कर उसने कहा, ‘क्यों भई, किधर ?’

मैं बोला, ‘मेरा एक उपकार कर सकते हो ?’
फिर सुधा सेन से उसका परिचय करा देने के बाद मैंने कहा, ‘मेरी भाभी की खास परिचिता हैं, बड़ी मुश्किल में पड़ी हैं। इन्हें रहने के लिए एक कमरे की सख्त जरूरत है। लड़कियों का बोर्डिंग या मेस, जहाँ कहीं भी हो सके। इनकी हालत, इस समय कहना चाहिए, एकदम निराश्रित सी है। किसी ठिकाने की खबर दे सकते हो ?’

मोहित बीसियों चक्कर में फँसा रहने वाला जीव था। उसे तरह-तरह की जरूरतें पड़ती रहती थीं। इसलिए वह हर जगह जाता था। उसने सिगरेट को होंठों में दबाकर दो कश लिये। माथा सिकोड़ कर एक बार न जाने क्या सोचा फिर कहा, ‘फिलहाल तो कुछ याद नहीं पड़ रहा है, लेकिन एक बार पोस्ट ग्रैजुएट बोर्डिंग में कोशिश करके देखो न।’

कोशिश करके देखने में कोई हर्ज नहीं था। सीधी बात यह थी कि उस दिन सूरज ढलने से पहले ही कहीं न कहीं किराये के कमरे का इन्तजाम करना था। भाभी ने सुधा सेन को मेरे जिम्मे कर दिया था। सुधा सेन के कहीं रहने का इन्तजाम उसी दिन न करने से काम नहीं चलने वाला था, क्योंकि उतने बड़े शहर कलकत्ते में सुधा एकदम असहाय थी। एक रात भी कहीं उसके लिए सिर छुपाने की जगह नहीं थी।

सुधा सेन के चेहरे की तरफ देखा। वह मुझे बड़ी दयनीय लगी। पता नहीं, ऐसा स्वास्थ्य लेकर उसने कैसे बी.ए. पास किया, इतने दिन तक सप्लाई दफ्तर के एकाउंट्स सेक्शन में अस्सी रुपये की नौकरी की। सुना था, उसका बचपन बीता है गाँव-देहात में। बचपन याने मैट्रिक तक उसने गाँव में रहकर पढ़ाई की थी। भाभी ने कहा था, ‘बड़ी कंजूस लड़की है, किसी तरह पैसा खर्च नहीं करेगी, दिन भर में सात-आठ बार चाय पीकर काम चला लेगी।’

मोहित बोला, ‘हाँ, एक और जगह याद आयी। गोआबगान में लड़कियों का एक बोर्डिंग है, एक बार वहाँ कोशिश करके देख सकते हो, शायद जगह मिल जाय—’
ट्राम में बैठकर, जेब से नोट-बुक निकालकर उसमें पता लिख लिया। कहाँ बालीगंज, कहाँ गोआबगान और कहाँ हैरिसन रोड। अन्त तक अगर कहीं जगह न मिली तो मुझे क्या करना होगा, मैं समझ नहीं पाया। लेकिन सुधा सेन के चेहरे की तरफ देखकर सचमुच दया आ रही थी।

एक दिन भाभी कह रही थीं, ‘ऑफिस में कभी कुछ नहीं खायेगी, जब बहुत भूख लगेगी तब सिर्फ एक कप चाय—इसी लिए तो ऐसी सेहत है।’
बैठने की जगह मिल गयी थी। सुधा सेन खिड़की से सटकर बैठी थी।
मैंने कहा, ‘भाभी कह रही थीं कि आपके एक भाई कलकत्ते में रहते हैं—

सुधा सेन बोली, ‘एक नहीं, दो भाई—दोनों दो जगह रहते हैं।’
‘आपके सगे भाई ? तो आप उनके पास किसी तरह—’
सुधा सेन बाहर की तरफ देखती हुई बोली, ‘ट्यूशन छूट जाने के बाद से मैं दोनों भाइयों के पास हूँ !’
‘क्या आप ट्यूशन भी करती थीं ?’

सुधा सेन बोली, ‘वहीं तो कई साल रहती रही। मेरा सूटकेस अभी तक उस घर में पड़ा है। एक छोटे बच्चे को पढ़ाती थी। लेकिन उन लोगों ने नोटिस दे दी। लड़का बड़ा हो गया है, अब उसे मर्द ट्यूटर पढ़ाया करेगा वे आदमी बड़े भले हैं। मुझे उन लोगों ने एक महीने की नोटिस दी थी। कहा था, इस एक महीने में आप कहीं कोई कमरा ढूँढ़ लीजिए।
‘फिर ?’
‘फिर क्या, एक महीना देखते-देखते बीत गया। कमरा मिला न हो, ऐसी बात नहीं है। लेकिन वे कमरे औरतों के रहने लायक नहीं थे। फिर किसी-किसी मकान मालिक ने इतना किराया माँगा कि क्या बताऊँ ! मुझे तो अस्सी रुपये तनख्वाह मिलती है, उसमें से गाँव में माँ को क्या भेजती और अपना खर्च कैसे चलाती ?’

अंदाजा लगाया, सुधा सेन दिन भर दफ्तर में नौकरी और सुबह शाम ट्यूशन करने के बाद कमरा ढूँढ़ने निकलती है—श्यामबाजार, बहूबाजार, टाला और टालीगंज। जहाँ भी थोड़ी जान-पहचान की गुंजाइश होती, वहीं पता लगाती। फिर ट्राम में कैसी भयानक भीड़ रहती है ! उस भीड़ में मर्दों का दम घुटने लगता है, सुधा सेन को तो दब कर मर जाना चाहिए ! धक्का खाकर सड़क पर लुढ़क जाना चाहिए। शायद अनेक बार ऐसा हो भी चुका होगा। सौन्दर्य का आभिजात्य रहने पर लोग फिर भी जरा इज्जत करते हैं, खातिर करते हैं। सुधा सेन को वह भी नसीब नहीं है। अभी उस दिन देखा था, भरी बस में चढ़ते समय एक आँखों का सनग्लास छिटककर सड़क पर गिर पड़ा और चूर-चूर हो गया। सड़क की भीड़ में लड़कियों को कितना अपमान सहना पड़ता है, उसके बारे में सुधा सेन क्या जबान खोल पायेगी ?

मैंने कहा, ‘मान लीजिए, आज अगर कोई इंतजाम नहीं हुआ तो क्या होगा ?’
‘तो क्या होगा ?—’ कहकर सुधा सेन सोचने लगी।
‘आप मेरे लिए कोई न कोई इंतजाम कर दीजिए। आप जरूर कोई इंतजाम कर सकेंगे। आपकी भाभी से सुना है कि बहुत सारे लोगों से आपकी जान-पहचान है।’ सुधा सेन ने मेरी आँखों में आँखें डालकर कहा।
हम लेडीस सीट पर बैठे थे। इस बीच एक महिला के आ जाने से मुझे जगह छोड़कर खड़ा होना पड़ा ! मुझे जैसे राहत मिल गयी।

भाभी ने कहा था, ‘बड़ी चंचल लड़की है, आज इस दफ्तर की नौकरी छोड़ेगी तो कल उस दफ्तर की। इसे तो बस तरक्की कैसे होगी, ज्यादा रुपये कैसे इकट्ठा कर सकेगी, इसी की फिक्र लगी रहती है। खायेगी कुछ नहीं। पसा मानों इसके बदन का खून है।

सुधा सेन की बगल में जो लड़की आकर बैठी वह पंजाबी थी। सुधा सेन उसके मुकाबले में बहुत छोटी लग रही थी। सुधा सेन को देखकर सचमुच मन में दया नहीं आती, दुःख नहीं होता, हँसी छूटती है। सप्लाई दफ्तर की दूसरी लड़कियाँ भी मैंने देखी हैं। बहुत सी शादी-शुदा औरतें हैं, पाँच-छः बच्चों की माएँ, सभी तो नौकरी करती हैं। किसी-किसी के लिए नौकरी की जरूरत नहीं, सिर्फ शौक होती है—उन्हें भी देखा है। साज-सिंगार, कपड़े-लत्ते से लेकर सिनेमा-थियेटर-रेस्तराँ, सब उस पैसे से चलता है। धरमतल्ले के उस होटल में दोपहर को लड़कियों की भीड़ के मारे जाया नहीं जाता। लेकिन सुधा सेन जैसी लड़की सचमुच पहले कभी नहीं दिखाई पड़ी। वैसी मरियल लड़की मैंने कभी नहीं देखी थी।

एक बाईस साल की लड़की की सेहत ऐसी कैसे हो गयी थी ? सुधा सेन जब चलती थी, तब लगता था मानो वह अपने कान के हलके झुमके की तरह तिर-तिर हिल रही है। उसे चलना कभी नहीं कहा जा सकता।
दो जनों के लिए दो टिकट मैंने ही खरीदे थे। लेकिन सुधा सेन को इस बारे में कोई खास परेशानी नहीं थी। टिकट खरीदे गये या नहीं, यह सवाल उसके मन में पैदा हो ही नहीं सकता था।

धरमतल्ले के मोड़ पर ट्राम से उतरना पड़ा। यहाँ दूसरी ट्राम में चढ़ना था। श्यामबाजार वाली ट्राम में चढ़कर मैंने पूछा, ‘पहले कहाँ चलेगी ? गोआबागान या पोस्टग्रैजुएट बोर्डिंग ?’
सुधा सेन ने कहा, ‘पहले स्यालदा चला जाय। सुना है, वहाँ मेरे छोटे भैया रहते हैं।’
मैंने पूछा, ‘और आपके बड़े भैया ? वे कहाँ रहते हैं ?’

सुधा सेन बोली, ‘बड़े भैया के घर ही तो रात को सोती हूँ, लेकिन वहाँ रात के बारह बजे से पहले जाने का हुक्म नहीं है, फिर रात का धुँधलका रहते-रहते सब की नींद खुलने से पहले ही उठकर बाहर निकल जाना पड़ता है।’
‘क्यों !’ सुधा सेन की बात सुनकर स्वभावतः हैरत हुई।
तथा सुधा सेन ने जो कुछ बताया था, वह सुनकर मैं और भी आश्चर्य में पड़ गया था। सुधा सेन के बड़े भाई ने शादी के बाद बीबी को लेकर फड़ेपोखर में घर बसाया था। वहाँ रहने लायक जगह काफी थी। एक कमरा हमेशा खाली पड़ा रहता था। बड़े भैया बड़े सीधे थे। लेकिन किसी के मुँह पर कुछ कह नहीं सकते थे।

शुरू-शुरू में बड़े भाई सुधा सेन के दफ्तर में जाकर बहन का हाल-चाल पूछते थे। रुपये-पैसे की मदद की जरूरत सुधा सेन को कभी नहीं पड़ी। फिर भी भाभी अपने घर में उसे किसी तरह कदम रखने नहीं देती थी। लेकिन बड़े भाई छोटी बहन को बहुत प्यार करते थे। जब भाभी सो जाती थी, तब रात के बारह बजे के बाद बड़े भाई चुपके से उठकर दरवाजा खोल देते थे। दबे पाँव, बत्ती जलाये बिना सुधा सेन अपने कमरे में लेट जाती थी। फिर दूसरे दिन तड़के ही, सबके जागने से पहले ही उसे चुपचाप सड़क पर निकल जाना पड़ता था।

मैंने पूछा, ‘उसके बाद नहाना, खाना, यह सब ?’
सुधा सेन ने कहा, ‘इतने दिन छोटे भैया के यहाँ नहाती थी। छोटे भैया अपने दोस्तों के साथ रहते थे। उनके कई दोस्त बहू बाजार में एक मेस बनाकर रहते हैं। इतने दिन वही लोग एतराज करते आ रहे थे। सबेरे सबको दफ्तर जाने की जल्दी रहती और उस समय मैं बाथरूम में जाती तो उन लोगों को दिक्कत होती थी।’
मैंने पूछा, ‘सोना, नहाना, यह सब तो हुआ—लेकिन खाना ?

‘खाने के लिए क्या जिक्र करना ? खाये बिना चल सकता है !’ सुधा सेन मुस्करायी।
भाभी ने ठीक कहा था—लड़की है बड़ी कंजूस। कुछ नहीं खायेगी, और खाने के नाम पर सिर्फ चाय पियेगी। एक कप चाय के बाद फिर दूसरा कप। ऐसे खा खूब सकती है। लेकिन खायेगी तो ज्यादा से ज्यादा समोसा, कचौड़ी, नहीं तो बैंगनी और तेल में तली पकौड़ी। कभी-कभी वह सब तेलों में तली चीजें खाकर पूरा दिन बिता देती है। किसी-किसी दिन कुछ खाती भी नहीं। पहले-पहल उसको तकलीफ होती थी, लेकिन अब आदत पड़ गयी है।

बड़े भैया के घर रात के बारह बजे से पहले कदम नहीं रख सकती, और दफ्तर में छुट्टी पाँच बजे हो जाती है। ये सात घंटे का समय बिताना बड़ा तकलीफदेह होता है। कर्जन पार्क के जिस हिस्से में चहल-पहल रहती है वहीं बैठकर वक्त काटना सबसे निरापद है। ट्राम में बैठकर एक बार डलहौजी तो दूसरी ओर बालीगंज स्टेशन भी जाया जा सकता है, लेकिन इससे बिला वजह कुछ पैसे निकल जाते हैं। कर्जन पार्क की खुली हवा में घास पर बैठे-बैठे दो-चार पैसे की मूँगफली खरीदकर चबाने से पेट भी भरता है, साफ हवा भी मिलती है और मुफ्त में समय भी कटता है।
सुधा सेन बोली, ‘बड़े भैया या छोटे भैया, कोई माँ को रुपये नहीं भेजते। वहाँ मेरा एक और छोटा भाई है, उसका भी खर्च मुझे देना पड़ता है।’

शादी करने से पहले सुधा सेन का बड़ा भाई माँ को रुपया भेजता था। लेकिन इधर भाभी ने मना कर दिया। ससुराल के किसी व्यक्ति को भाभी फूटी आँखों नहीं देख सकती। छोटा भाई बड़े भाई से कोई मतलब नहीं रखता। सुधा सेन मजबूरन रात को बड़े भाई के घर सोने जाती है, लेकिन कहीं भाभी को पता चल जाय तो भैया की खूब खबर ले।
सुधा सेन बोली, ‘इतने दिन छोटे भैया मेस में रहते थे, इसलिए सबेरे नहाना या कपड़े धोना हो जाता था। लेकिन दो दिन से वह भी नहीं हो पाया—आज दूसरा दिन है, मैं नहा नहीं सकी।

‘क्यों ?’
‘छोटे भैया मेस छोड़कर स्यालदा के किसी बड़े होटल में चले गये हैं। इसलिए कह रही हूँ, पहले स्यालदा जाकर छोटे भैया का पता लगाऊँ।’
आखिर स्यालदा के मोड़ पर ट्राम से उतरा। सुधा सेन को साथ लिये उस होटल में प्रवेश करते समय मुझे लज्जा और संकोच का अनुभव हुआ।
मैनेजर सुधा सेन के छोटे भैया को पहचान नहीं पाया। बोला, ‘अमलेन्दु सेन ? नहीं जनाब, इस नाम का यहाँ कोई नहीं रहता।’

सुधा सेन मानो मायूस हो गयी। छोटे भैया के मेस में जाकर उसने सुना था कि वह यहीं ठहरा है।
मैंने कहा, ‘क्या यहाँ कोई कमरा मिलेगा ? याने एक अलग कमरा, ये रहेंगी।’
मैनेजर ने सुधा सेन की तरफ देखा। न जाने कैसी तिरछी नजर। कम से कम सुधा सेन को कोई तिरछी नजर से देख सकता है, यह अनुभव मेरे लिए नया था। इस बीच एक वो वेटर, चपरासी, कैशियर वगैरह भी आकर आसपास खड़े हो गये थे। सुधा सेन और मेरे बीच उन सबने मानो एक सम्पर्क की कल्पना कर ली हो। यह एहसास मुझे अच्छा नहीं लगा।

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