धर्म एवं दर्शन >> भक्ति काव्य यात्रा भक्ति काव्य यात्रारामस्वरूप चतुर्वेदी
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कबीर-जायसी-सूर-तुलसी मीरा के संदर्भ में.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भक्ति-काव्य को हिन्दी कविता का स्वर्ण युग कहने का सीधा तात्पर्य होता है
कि यहाँ काव्य की रचनात्मक क्षमता अपने श्रेष्ठतम रूप में है। पर इस काव्य
का एक अन्य स्तर पर जो वैशिष्ट्य है, उस की ओर ध्यान प्रायः
नहीं
जाता। भक्ति काव्य हिंदी समाज की उदारतम चेतना का दस्तावेज है।
कबीर-जायसी-सूर-तुलसी-मीराँ इस युग के श्रेष्ठ कवि हैं, यह मान्यता
सर्वस्वीकृति है। इस का निहितार्थ है कि यहाँ हिंदू-मुसलमान,
ब्राह्मण-दलित, पुरुष-स्त्री-समाज के सभी वर्गों का यह साझा-रचना कर्म है,
भले वे वर्ग सामान्य तौर पर समाज में कहीं अपना अलगाव बनाये रखते हों। यों
हिंदी जीवन की व्यापक समरसता का अन्यतम प्रमाण है हिंदी भक्ति-काव्य !
फिर यह भी संयोग से कुछ अधिक है कि ये पाँचों कवि मिल कर समूचे हिंदी प्रदेश के विविध जनपदों अथवा बोली-क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं-पूर्व में भोजपुरी (कबीर) से लेकर अवधी (जायसी-तुलसी)–ब्रज (सूर-तुलसी) होते हुए पश्चिम में राजस्थानी (मीराँबाई) तक।
आधुनिक युग में भारतेंदु के बाद, निराला से लेकर बच्चन, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, लक्ष्मीकांत वर्मा-विद्रोह, जवानी, सौंदर्य और अनर्थक के कवि-अपने उत्तर-काव्य में भक्ति की ओर उन्मुख हैं। ये भक्ति कवि नहीं, पर भक्ति-काव्य इन्होंने लिखा है। हिन्दी भक्ति-काव्य परंपरा को समझने के लिए इस समूचे प्रवाह को एकबारगी देखना उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से अध्ययन का अंतिम अध्याय आधुनिक कवियों के भक्ति-काव्य पर केन्द्रित किया गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति-काव्य के शीर्षस्थ समीक्षक हैं। फिर डॉ. रामविलास शर्मा का थिराया उत्तरकालीन दृष्टिकोण है तुलसी तथा अन्य भक्त कवियों के विवेचन में। अब पढ़िए रामस्वरूप चतुर्वेदी को जिनके आधुनिक भाव-बोध में समूची भक्ति-काव्य परंपरा नये सिरे से जीवंत हो उठी है।
भक्ति-काव्य पर हिंदी में सर्वाधिक विवेचन हुआ है। पर आधुनिक दृष्टि-बिंदु से पड़ताल अपेक्षया कम है। प्रस्तुत अध्ययन में भक्ति-कवियों का विवेचन इसी रूप में हुआ हैः व्याख्या-विवेचन-अर्थ संवर्द्धन। स्पष्ट ही यह पूरी प्रक्रिया एक, और अंतर्ग्रथित है। अर्थ संवर्द्धन की सीमा वहीं तक है जहाँ तक व्याख्या अतिव्याख्या न हो जाए। व्याख्या वह है जिसे मूल रचना वापस अपने में धारण करती है,
आत्मसात् करके जैसे स्वयं भी कहीं विस्तृत, प्रशस्त, समृद्धतर हो जाती है। जहाँ से आगे अर्थ-प्रक्रिया इस रूप में नहीं चल पाती, कौतूहल क्षेत्र बन जाती है, वहीं से अतिव्याख्या का वर्जित प्रदेश आरंभ हो जाता है। अर्थ संवर्द्धन में मूल रचना, रचनाकार का देश-काल, और भावक/आलोचक का देश-काल एक-दूसरे में घुल-मिल कर सक्रिय हो उठते हैं। कहना न होगा, कबीर-जायसी-तुलसी-मीराँ जैसे बड़े कवियों की समझ बनाने-फैलाने में यह प्रक्रिया कितनी फलप्रद है ! रामस्वरूप चतुर्वेदी के लेखन से भक्ति-काव्य के संदर्भ में इस नयी प्रक्रिया का सूत्रपात होता है तो यह हर दृष्टि से उचित है।
फिर यह भी संयोग से कुछ अधिक है कि ये पाँचों कवि मिल कर समूचे हिंदी प्रदेश के विविध जनपदों अथवा बोली-क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं-पूर्व में भोजपुरी (कबीर) से लेकर अवधी (जायसी-तुलसी)–ब्रज (सूर-तुलसी) होते हुए पश्चिम में राजस्थानी (मीराँबाई) तक।
आधुनिक युग में भारतेंदु के बाद, निराला से लेकर बच्चन, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, लक्ष्मीकांत वर्मा-विद्रोह, जवानी, सौंदर्य और अनर्थक के कवि-अपने उत्तर-काव्य में भक्ति की ओर उन्मुख हैं। ये भक्ति कवि नहीं, पर भक्ति-काव्य इन्होंने लिखा है। हिन्दी भक्ति-काव्य परंपरा को समझने के लिए इस समूचे प्रवाह को एकबारगी देखना उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से अध्ययन का अंतिम अध्याय आधुनिक कवियों के भक्ति-काव्य पर केन्द्रित किया गया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति-काव्य के शीर्षस्थ समीक्षक हैं। फिर डॉ. रामविलास शर्मा का थिराया उत्तरकालीन दृष्टिकोण है तुलसी तथा अन्य भक्त कवियों के विवेचन में। अब पढ़िए रामस्वरूप चतुर्वेदी को जिनके आधुनिक भाव-बोध में समूची भक्ति-काव्य परंपरा नये सिरे से जीवंत हो उठी है।
भक्ति-काव्य पर हिंदी में सर्वाधिक विवेचन हुआ है। पर आधुनिक दृष्टि-बिंदु से पड़ताल अपेक्षया कम है। प्रस्तुत अध्ययन में भक्ति-कवियों का विवेचन इसी रूप में हुआ हैः व्याख्या-विवेचन-अर्थ संवर्द्धन। स्पष्ट ही यह पूरी प्रक्रिया एक, और अंतर्ग्रथित है। अर्थ संवर्द्धन की सीमा वहीं तक है जहाँ तक व्याख्या अतिव्याख्या न हो जाए। व्याख्या वह है जिसे मूल रचना वापस अपने में धारण करती है,
आत्मसात् करके जैसे स्वयं भी कहीं विस्तृत, प्रशस्त, समृद्धतर हो जाती है। जहाँ से आगे अर्थ-प्रक्रिया इस रूप में नहीं चल पाती, कौतूहल क्षेत्र बन जाती है, वहीं से अतिव्याख्या का वर्जित प्रदेश आरंभ हो जाता है। अर्थ संवर्द्धन में मूल रचना, रचनाकार का देश-काल, और भावक/आलोचक का देश-काल एक-दूसरे में घुल-मिल कर सक्रिय हो उठते हैं। कहना न होगा, कबीर-जायसी-तुलसी-मीराँ जैसे बड़े कवियों की समझ बनाने-फैलाने में यह प्रक्रिया कितनी फलप्रद है ! रामस्वरूप चतुर्वेदी के लेखन से भक्ति-काव्य के संदर्भ में इस नयी प्रक्रिया का सूत्रपात होता है तो यह हर दृष्टि से उचित है।
आमुख
भक्ति-काव्य को हिन्दी कविता का स्वर्ण युग कहने का सीधा तात्पर्य होता है
कि यहाँ काव्य की रचनात्मक क्षमता अपने श्रेष्ठतम रूप में है। पर इस काव्य
का एक अन्य स्तर पर जो वैशिष्ट्य है, उस की ओर ध्यान प्रायः नहीं जाता।
भक्ति-काव्य हिंदी समाज की उदारतम चेतना का दास्तावेज़
कबीर-जायसी-सूर-तुलसी-मीराँ इस युग के श्रेष्ठ कवि हैं, यह मान्यता
सर्वस्वीकृत है। इस का निहितार्थ है कि यहाँ हिंदू-मुसलमान,
ब्राह्मण-दलित, पुरुष-स्त्री-समाज के सभी वर्गों का यह साझा रचना-कर्म है,
भले वे वर्ग सामान्य तौर पर समाज में अपना अलगाव बनाए रखते हों। यों हिंदी
जीवन की व्यापक
समरसता का अन्यतम प्रमाण है हिंदी भक्ति-काव्य ! तब आधुनिक युग में नये-नये प्रचलित ‘दलित साहित्य’ या कि ‘स्त्री साहित्य’ जैसे पद हिंदी की अपनी परंपरा से बेमेल बैठते हैं। भक्ति-काव्य वस्तुतः हिंदी समाज की अनेक रूढ़ियों के बावजूद उस की प्रबल जीवनी शक्ति का गतिशील और उज्ज्वल साक्ष्य है। फिर यह भी संयोग से कुछ अधिक है कि ये पाँचों कवि मिल कर समूचे हिंदी प्रदेश के विविध जनपदों अथवा बोली-क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं- पूर्व में भोजपुरी (कबीर) से लेकर अवधी (जायसी-तुलसीदास)-ब्रज (सूरदास) होते हुए पश्चिम में राजस्थान (मीराँबाई) तक। सर्जनात्मक क्षेत्र में समग्रता-समरसता की यह भारतीय परंपरा पहले से चली आती है।
स्त्रियां वैदिक सूक्तों की रचयिता हैं। आदि कवियों में एक बर्बर जनजातियों में पोषित हैं, दूसरे दासी-पुत्र। तुलसी के प्रयोग में ‘बाजपेयी’ तो कोई नहीं। यह महज संयोग नहीं, यह प्रतिभा की सर्वतंत्र स्वाधीनता का उद्घोष है, जो किसी क्षेत्र-वर्ण-संप्रदाय-लिंग के अधीन नहीं। तब बात समझ में आती है कि समूचे भारतीय परिदृश्य पर, और हिंदी क्षेत्र में विशेषतः संत कहे जाने वाले कवि अधिकतर तथाकथित निम्न जातियों से उठ कर ऊपर आए थे। उन की प्रतिभा को किसी प्रकार के आरक्षण की उपेक्षा नहीं थी।
हिंदी समाज की उदारता भी यहाँ ध्यातव्य है कि उसने रचनाकार के प्रसंग में किसी तरह का भेद-भाव नहीं बरता। राम तथा कृष्ण हमारे देश में युग-युग से चली आने पर भी हर युग का रचनाकार अपना संदर्भ उस में तलाश लेता है, उन की अक्षय अर्थ-क्षमता का प्रमाण है। ‘महाभारत’ से ‘कृष्णचरित्र’ (बंकिम) और ‘अंधा युग’ या कि ‘मृत्युंजय (शिवाजी सावंत), और आगे तक, रचना-यात्रा ऐसे ही चलती है।
यह प्रक्रिया आलोचक के लिए भी प्रेरणाप्रद है। ‘रामचरितमानस’ ‘राम की शक्ति-पूजा के रचनाकार अपने-अपने राम की सर्जना करते हैं तो आलोचक भी ‘रामायण’ ‘रामचरितमानस’ या कि ‘शक्ति-पूजा’ का अपने ढंग से पुनर्सजन करते हैं। अन्यथा रामचन्द्र शुक्ल हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद भक्ति-काव्य के विवेचना का किसी के भी द्वारा क्या औचित्य होता है ! प्रस्तुत विवेचन से यह औचित्य प्रमाणिक कहाँ तक होता है, यह विचार कर पाना स्पष्ट ही मेरे लिए संभव नहीं।इतिहास समय के अनुक्रम में पीछे से आगे बढ़ता है,
पर देखना बहुत बार इस के उल्टे क्रम में होता है, क्योंकि वैसे ही सहज परिप्रेक्ष्य बनता है। ‘आधुनिक कविता-यात्रा’ (1998) के बाद इस ‘भक्ति काव्य-यात्रा’ में दृष्टि-बिंदु यों आधुनिक होगा परिदृश्य अतीत का। तभी वह अतीत हमारे वर्तमान से ठीक-ठीक जुड़ेगा। रचना-क्रम में आधुनिक काल आता है भक्ति-काल के बाद, आलोचन-कर्म में यह क्रम उलट जाए तो इस का अपना औचित्य है।
इस प्रसंग में कहना होगा कि लगभग तीन दशक पूर्व मध्यकालीन काव्यभाषा का अध्ययन प्रस्तुत किया था। तब दृष्टि कविता बनने की प्रक्रिया पर अधिक थी। अब कविता पर ही है। अर्थात् सीधे पक्षी पर; न गुरु पर, न पास खड़े सहपाठियों पर, और न वृक्ष पर ही। आधुनिक संरक्षणप्रधान दृष्टि से ध्यान अब पक्षी के लक्ष्य-भेद नहीं, उसे मन में उतार लेने पर है कि अन्य भी उसे देख सकें। यों, कुल मिला कर, देखना-दिखाना ही यहाँ मुख्य उद्देश्य है। सत्तर पार कर लेने पर रुचि इधर हो जाए, तो यह भी समझ में आने वाली बात है। देखना-दिखाना फिर एक स्तर पर दृश्य के अर्थ-सर्वद्धर्न में परिणत होता है, और आप कहते हैं कि आलोचना ‘की है’।
आधुनिक युग में निराला से लेकर बच्चन, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, लक्ष्मीकांत वर्मा तक-विद्रोह, जवानी, सौंदर्य और अनर्थक के कवि-अपने उत्तर-काव्य में भक्ति की ओर उम्मुख हैं। ये भक्त कवि, नहीं पर भक्ति-काव्य इन्होंने लिखा है। हिंदी भक्ति-काव्य-परंपरा को समझने के लिए इसे समूचे प्रवाह को एकबारगी देखना उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से अध्ययन का अंतिम अध्याय आधुनिक भक्ति-काव्य पर केन्द्रित किया गया है। प्रक्रिया की दृष्टि से संस्कृति में धर्म का सत उतरता है। भक्ति काव्य धर्म को संस्कृति से जोड़ने वाली ऐसी प्रक्रिया है साहित्य के स्तर पर। एक ओर आलोचक से अपेक्षित है कि वह धर्म-भक्ति-संस्कृति की इस अंतर-क्रिया को स्पष्ट करे,
तो दूसरी ओर ‘विचार-धारा’ में बंद किए गये, और विशेषतः पुराने, रचनाकारों को मुक्त कराना, उस का एक मुख्य दायित्व है। कहना न होगा, इस दुहरे दायित्व-निर्वाह की ओर भी आलोचना का प्रस्तुत विवेचन में ध्यान रहा है। लेखक की पिछली कृति ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ (1966) के कुछ अंश यहां आ गए हैं; मिलते-जुलते संदर्भों में इतनी आत्म-तस्करी अपरिहार्य हो जाती है। बड़े लेखकों को अपने उपयोग के लिए हस्तगत करने का एक माध्यम क्षेपक रहे हैं, जो मध्यकालीन काव्य के पसारे में अनिवार्यतः मिलते हैं।
क्षेपक, स्पष्ट ही, किसी रचनाकार की व्यापक समाज में बहुग्राह्यता में से उपजते हैं। वे अनेक छोटे-मझोले कवि, जो किसी बड़े कवि की अनुकृति में रचना करके, उस की छाप से, अपनी इन रचनाओं को चला देते हैं, बड़ा त्याग करते हैं; स्वेच्छा से अपनी रचना अपने प्रिय कवि के वाङ्मय में विलीन कर देते हैं। उन की ये रचनाएँ साहित्यिक स्तर पर विलोम जारज संतान कही जा सकती हैं। सामान्यतः तो रचनाकार अपने श्रोता-पाठक-भावक के मन में अपनी रचना के माध्यम से कुछ भावनाएँ, कुछ विचार संक्रमित करके उन्हें वर्द्धित करता है। यहाँ क्षेपककार उल्टे अपने से बड़े लेखक के वाङ्मय में अपनी भावनाएँ और विचार उपजाता है।
इसीलिए क्षेपक को कहा गया विलोम जारज संतान। सभी बड़े भक्त कवियों के पाठ में इन क्षेपकों की समस्या आती है। यह संतोष का विषय है कि मध्यकालीन कवियों में से अनेक के वैज्ञानिक रीति से संपादित पाठ अब सुलभ हैं। यह ठीक है कि इन पाठों को भी शत-प्रतिशत शुद्ध-निर्भ्रांत नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः पाठों का शुद्धीकरण एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया है। भक्ति कवियों के अध्येता से अपेक्षित यही है
कि वह अपने विवेचन में यथासंभव इन प्रामाणिक पाठों को आधार बनाए। तभी वह कबीर जायसी-सूर-तुलसी-मीराँ की रचनाओं का मर्म ठीक-ठीक ग्रहण कर सकेगा। ऐसा करने में एक ओर मूल रचनाकार के मंतव्य के प्रति न्याय हो सकेगा, दूसरी ओर पाठ-संपादकों के श्रम और मनोयोग के प्रति। यदि पाठ ही अशुद्ध हुआ तो उस का विवेचन, अर्थ-संवर्द्धन आप दूषित होता जाएगा। प्रस्तुत अध्ययन में प्रामाणिक पाठों के चुनाव के प्रति पूरी सजगता रक्खी गई है। राष्ट्रीयता को हम हिंदी क्षेत्र में आधुनिक भाव बोध की मुख्य पहिचान मानते हैं क्योंकि यह वृत्ति यत्नज और स्वचेतन है। इसीलिए भारतेन्दु को आधुनिक चेतना का अग्रदूत कहा जाता है।
भक्ति काव्य में स्पष्ट ही राष्ट्रीयता की कोई ऐसी चेतना नहीं है। पर भक्ति-काव्य हमारी राष्ट्रीयता का एक प्रमुख अंतः साक्ष्य अवश्य है। आलवारों के काव्य से लेकर मध्यकाल में समूची भारतीय सर्जनात्मक क्षमता को उत्प्रेरित करनेवाली वृत्ति भक्ति ही रही है। और इस स्तर पर संतों-सूफियों-सगुण भक्ति कवियों का काव्य अखिल भारतीय स्तर पर सामान्य जन के लिए शक्ति-स्त्रोत रहा है। काव्य का ऐसा विराट् विस्तृत शिवरूप अन्यत्र आसानी से देखने में नहीं आता। साथ ही यह भी स्मरणीय है
कि अद्वैत और भक्ति का ऐसा समन्वय अन्य परंपराओं में संभव नहीं हुआ। यह हिंदी भक्ति-काव्य का वैशिष्ट्य है, जहाँ निर्गुण कहे जाने वाले कबीर एक के बाद एक सगुण संदर्भों को उठाते हैं, सगुणोपासक सूर निर्गुण की महिमा बखानते हैं-‘तातैँ सूर सगुन –पद गावै।’ सैमेटिक सभ्यताओं के अंतर्गत कल्पना-प्रधान रचना-रूपों में सगुण लीला का चित्रण त्याज्य है। प्रसिद्ध शायर और विचारग अली सरदार जाफ़री ‘कबीर बानी’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘‘मुसलमान सूफ़ी रसूले –इस्लाम का नाम लेने में बहुत सतर्क हैं।
उन का उसूल है कि‘बा-खुदा दीवाना बास ओ बा- मुहम्मद होशियार’। (खुदा के साथ तो दीवानापन कर सकते हो लेकिन रसूल का नाम लेते वक्त सावधान रहना चाहिए।)’’ (राजकमल संस्करण, पृ० 28)। ईसा मसीह के कल्पना-प्रधान चित्रण प्रायः अनिवार्य रूप से विवादग्रस्त रहे हैं। यों, सैमेटिक परंपराएँ अपने ईश्वर और उन के प्रतिनिधियों चरित्र की पवित्र भाव-भूमि के प्रति बराबर सतर्क-सावधान रही हैं। स्वयं हिंदी भक्ति-काव्य में राम चरित्र को लेकर कल्पनाशीलता कहीं वैसे उत्साहित नहीं दिखती, जैसे कृष्ण के चरित्र को लेकर दिखती है। तब यह अकारण नहीं कि ‘मुसलमान हरिजनन’ ने जब भक्ति-काव्य लिखा तो प्रायः कृष्ण चरित्र को केन्द्र में रखकर।
कृष्ण की तुलना में राम के चरित्र की तितिक्षा पर हल्का व्यंग करते हुए जयंशकर प्रसाद लिखते हैं, ‘‘इस पौराणिक धर्म के युग में विवेकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक रामचंद्र के रूप में अवतरित हुआ, जो अपनी मर्यादा में और दुःखसहिष्णुता में महान् रहे। किंतु पौराणिक युग के सब से बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था।’’
(रहस्यवाद) इस प्रसंग में रोचक तथ्य यह है कि राम-कथा का विस्तार देश में और उसके बाहर दूर पूर्व तक, कृष्ण-कथा की तुलना में कुछ अधिक ही हुआ है। हमारे देश में कहा जाता है कि अलग-अलग भाषाओं में लिखे जाने पर भी भारतीय साहित्य एक है। यह उक्ति जहाँ सर्वाधिक चरितार्थ होती है वहाँ प्रसार है भक्ति-काव्य का तब भक्ति काव्य का अध्येता भी भारतीय चेतना से सर्वाधिक यहीं अनुभव करता-कराता है।
अपनी केन्द्रीय भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक परंपरा के कारण इस समूची प्रक्रिया में हिंदी भक्ति-काव्य की विशिष्ट भूमिका रही है, जहाँ हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण-दलित, पुरुष-स्त्री के भेद-भाव एकबारगी विलीन हो गए हैं। यह स्पष्ट ही काव्य की श्रेष्ठतम भाव-भूमि है
काव्य-संगीत सामान्यतः और भक्ति-काव्य विशेषतः, वह विशाल सुरसरिधारा है जिस में पाठक-श्रोता अपने क्षुद्र मनोविकारों को विलीन करता इस प्रक्रिया में स्वतः स्वस्थ-शान्त अनुभव करता है। यों यह प्रवाह सभ्यता आरंभ से, बिना स्वयं प्रदूषित हुए, अवगाहन करने वालों को निर्मल बनाता है। व्यापक पर्यावरण प्रदूषण के युग में इस की नितांत व्यावहारिक उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है, उच्चतर लक्ष्यों की बात अभी न भी की जाए तो।
समरसता का अन्यतम प्रमाण है हिंदी भक्ति-काव्य ! तब आधुनिक युग में नये-नये प्रचलित ‘दलित साहित्य’ या कि ‘स्त्री साहित्य’ जैसे पद हिंदी की अपनी परंपरा से बेमेल बैठते हैं। भक्ति-काव्य वस्तुतः हिंदी समाज की अनेक रूढ़ियों के बावजूद उस की प्रबल जीवनी शक्ति का गतिशील और उज्ज्वल साक्ष्य है। फिर यह भी संयोग से कुछ अधिक है कि ये पाँचों कवि मिल कर समूचे हिंदी प्रदेश के विविध जनपदों अथवा बोली-क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं- पूर्व में भोजपुरी (कबीर) से लेकर अवधी (जायसी-तुलसीदास)-ब्रज (सूरदास) होते हुए पश्चिम में राजस्थान (मीराँबाई) तक। सर्जनात्मक क्षेत्र में समग्रता-समरसता की यह भारतीय परंपरा पहले से चली आती है।
स्त्रियां वैदिक सूक्तों की रचयिता हैं। आदि कवियों में एक बर्बर जनजातियों में पोषित हैं, दूसरे दासी-पुत्र। तुलसी के प्रयोग में ‘बाजपेयी’ तो कोई नहीं। यह महज संयोग नहीं, यह प्रतिभा की सर्वतंत्र स्वाधीनता का उद्घोष है, जो किसी क्षेत्र-वर्ण-संप्रदाय-लिंग के अधीन नहीं। तब बात समझ में आती है कि समूचे भारतीय परिदृश्य पर, और हिंदी क्षेत्र में विशेषतः संत कहे जाने वाले कवि अधिकतर तथाकथित निम्न जातियों से उठ कर ऊपर आए थे। उन की प्रतिभा को किसी प्रकार के आरक्षण की उपेक्षा नहीं थी।
हिंदी समाज की उदारता भी यहाँ ध्यातव्य है कि उसने रचनाकार के प्रसंग में किसी तरह का भेद-भाव नहीं बरता। राम तथा कृष्ण हमारे देश में युग-युग से चली आने पर भी हर युग का रचनाकार अपना संदर्भ उस में तलाश लेता है, उन की अक्षय अर्थ-क्षमता का प्रमाण है। ‘महाभारत’ से ‘कृष्णचरित्र’ (बंकिम) और ‘अंधा युग’ या कि ‘मृत्युंजय (शिवाजी सावंत), और आगे तक, रचना-यात्रा ऐसे ही चलती है।
यह प्रक्रिया आलोचक के लिए भी प्रेरणाप्रद है। ‘रामचरितमानस’ ‘राम की शक्ति-पूजा के रचनाकार अपने-अपने राम की सर्जना करते हैं तो आलोचक भी ‘रामायण’ ‘रामचरितमानस’ या कि ‘शक्ति-पूजा’ का अपने ढंग से पुनर्सजन करते हैं। अन्यथा रामचन्द्र शुक्ल हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद भक्ति-काव्य के विवेचना का किसी के भी द्वारा क्या औचित्य होता है ! प्रस्तुत विवेचन से यह औचित्य प्रमाणिक कहाँ तक होता है, यह विचार कर पाना स्पष्ट ही मेरे लिए संभव नहीं।इतिहास समय के अनुक्रम में पीछे से आगे बढ़ता है,
पर देखना बहुत बार इस के उल्टे क्रम में होता है, क्योंकि वैसे ही सहज परिप्रेक्ष्य बनता है। ‘आधुनिक कविता-यात्रा’ (1998) के बाद इस ‘भक्ति काव्य-यात्रा’ में दृष्टि-बिंदु यों आधुनिक होगा परिदृश्य अतीत का। तभी वह अतीत हमारे वर्तमान से ठीक-ठीक जुड़ेगा। रचना-क्रम में आधुनिक काल आता है भक्ति-काल के बाद, आलोचन-कर्म में यह क्रम उलट जाए तो इस का अपना औचित्य है।
इस प्रसंग में कहना होगा कि लगभग तीन दशक पूर्व मध्यकालीन काव्यभाषा का अध्ययन प्रस्तुत किया था। तब दृष्टि कविता बनने की प्रक्रिया पर अधिक थी। अब कविता पर ही है। अर्थात् सीधे पक्षी पर; न गुरु पर, न पास खड़े सहपाठियों पर, और न वृक्ष पर ही। आधुनिक संरक्षणप्रधान दृष्टि से ध्यान अब पक्षी के लक्ष्य-भेद नहीं, उसे मन में उतार लेने पर है कि अन्य भी उसे देख सकें। यों, कुल मिला कर, देखना-दिखाना ही यहाँ मुख्य उद्देश्य है। सत्तर पार कर लेने पर रुचि इधर हो जाए, तो यह भी समझ में आने वाली बात है। देखना-दिखाना फिर एक स्तर पर दृश्य के अर्थ-सर्वद्धर्न में परिणत होता है, और आप कहते हैं कि आलोचना ‘की है’।
आधुनिक युग में निराला से लेकर बच्चन, दिनकर, अज्ञेय, शमशेर, लक्ष्मीकांत वर्मा तक-विद्रोह, जवानी, सौंदर्य और अनर्थक के कवि-अपने उत्तर-काव्य में भक्ति की ओर उम्मुख हैं। ये भक्त कवि, नहीं पर भक्ति-काव्य इन्होंने लिखा है। हिंदी भक्ति-काव्य-परंपरा को समझने के लिए इसे समूचे प्रवाह को एकबारगी देखना उपयुक्त होगा। इस दृष्टि से अध्ययन का अंतिम अध्याय आधुनिक भक्ति-काव्य पर केन्द्रित किया गया है। प्रक्रिया की दृष्टि से संस्कृति में धर्म का सत उतरता है। भक्ति काव्य धर्म को संस्कृति से जोड़ने वाली ऐसी प्रक्रिया है साहित्य के स्तर पर। एक ओर आलोचक से अपेक्षित है कि वह धर्म-भक्ति-संस्कृति की इस अंतर-क्रिया को स्पष्ट करे,
तो दूसरी ओर ‘विचार-धारा’ में बंद किए गये, और विशेषतः पुराने, रचनाकारों को मुक्त कराना, उस का एक मुख्य दायित्व है। कहना न होगा, इस दुहरे दायित्व-निर्वाह की ओर भी आलोचना का प्रस्तुत विवेचन में ध्यान रहा है। लेखक की पिछली कृति ‘हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास’ (1966) के कुछ अंश यहां आ गए हैं; मिलते-जुलते संदर्भों में इतनी आत्म-तस्करी अपरिहार्य हो जाती है। बड़े लेखकों को अपने उपयोग के लिए हस्तगत करने का एक माध्यम क्षेपक रहे हैं, जो मध्यकालीन काव्य के पसारे में अनिवार्यतः मिलते हैं।
क्षेपक, स्पष्ट ही, किसी रचनाकार की व्यापक समाज में बहुग्राह्यता में से उपजते हैं। वे अनेक छोटे-मझोले कवि, जो किसी बड़े कवि की अनुकृति में रचना करके, उस की छाप से, अपनी इन रचनाओं को चला देते हैं, बड़ा त्याग करते हैं; स्वेच्छा से अपनी रचना अपने प्रिय कवि के वाङ्मय में विलीन कर देते हैं। उन की ये रचनाएँ साहित्यिक स्तर पर विलोम जारज संतान कही जा सकती हैं। सामान्यतः तो रचनाकार अपने श्रोता-पाठक-भावक के मन में अपनी रचना के माध्यम से कुछ भावनाएँ, कुछ विचार संक्रमित करके उन्हें वर्द्धित करता है। यहाँ क्षेपककार उल्टे अपने से बड़े लेखक के वाङ्मय में अपनी भावनाएँ और विचार उपजाता है।
इसीलिए क्षेपक को कहा गया विलोम जारज संतान। सभी बड़े भक्त कवियों के पाठ में इन क्षेपकों की समस्या आती है। यह संतोष का विषय है कि मध्यकालीन कवियों में से अनेक के वैज्ञानिक रीति से संपादित पाठ अब सुलभ हैं। यह ठीक है कि इन पाठों को भी शत-प्रतिशत शुद्ध-निर्भ्रांत नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः पाठों का शुद्धीकरण एक निरंतर विकासशील प्रक्रिया है। भक्ति कवियों के अध्येता से अपेक्षित यही है
कि वह अपने विवेचन में यथासंभव इन प्रामाणिक पाठों को आधार बनाए। तभी वह कबीर जायसी-सूर-तुलसी-मीराँ की रचनाओं का मर्म ठीक-ठीक ग्रहण कर सकेगा। ऐसा करने में एक ओर मूल रचनाकार के मंतव्य के प्रति न्याय हो सकेगा, दूसरी ओर पाठ-संपादकों के श्रम और मनोयोग के प्रति। यदि पाठ ही अशुद्ध हुआ तो उस का विवेचन, अर्थ-संवर्द्धन आप दूषित होता जाएगा। प्रस्तुत अध्ययन में प्रामाणिक पाठों के चुनाव के प्रति पूरी सजगता रक्खी गई है। राष्ट्रीयता को हम हिंदी क्षेत्र में आधुनिक भाव बोध की मुख्य पहिचान मानते हैं क्योंकि यह वृत्ति यत्नज और स्वचेतन है। इसीलिए भारतेन्दु को आधुनिक चेतना का अग्रदूत कहा जाता है।
भक्ति काव्य में स्पष्ट ही राष्ट्रीयता की कोई ऐसी चेतना नहीं है। पर भक्ति-काव्य हमारी राष्ट्रीयता का एक प्रमुख अंतः साक्ष्य अवश्य है। आलवारों के काव्य से लेकर मध्यकाल में समूची भारतीय सर्जनात्मक क्षमता को उत्प्रेरित करनेवाली वृत्ति भक्ति ही रही है। और इस स्तर पर संतों-सूफियों-सगुण भक्ति कवियों का काव्य अखिल भारतीय स्तर पर सामान्य जन के लिए शक्ति-स्त्रोत रहा है। काव्य का ऐसा विराट् विस्तृत शिवरूप अन्यत्र आसानी से देखने में नहीं आता। साथ ही यह भी स्मरणीय है
कि अद्वैत और भक्ति का ऐसा समन्वय अन्य परंपराओं में संभव नहीं हुआ। यह हिंदी भक्ति-काव्य का वैशिष्ट्य है, जहाँ निर्गुण कहे जाने वाले कबीर एक के बाद एक सगुण संदर्भों को उठाते हैं, सगुणोपासक सूर निर्गुण की महिमा बखानते हैं-‘तातैँ सूर सगुन –पद गावै।’ सैमेटिक सभ्यताओं के अंतर्गत कल्पना-प्रधान रचना-रूपों में सगुण लीला का चित्रण त्याज्य है। प्रसिद्ध शायर और विचारग अली सरदार जाफ़री ‘कबीर बानी’ की भूमिका में लिखते हैं, ‘‘मुसलमान सूफ़ी रसूले –इस्लाम का नाम लेने में बहुत सतर्क हैं।
उन का उसूल है कि‘बा-खुदा दीवाना बास ओ बा- मुहम्मद होशियार’। (खुदा के साथ तो दीवानापन कर सकते हो लेकिन रसूल का नाम लेते वक्त सावधान रहना चाहिए।)’’ (राजकमल संस्करण, पृ० 28)। ईसा मसीह के कल्पना-प्रधान चित्रण प्रायः अनिवार्य रूप से विवादग्रस्त रहे हैं। यों, सैमेटिक परंपराएँ अपने ईश्वर और उन के प्रतिनिधियों चरित्र की पवित्र भाव-भूमि के प्रति बराबर सतर्क-सावधान रही हैं। स्वयं हिंदी भक्ति-काव्य में राम चरित्र को लेकर कल्पनाशीलता कहीं वैसे उत्साहित नहीं दिखती, जैसे कृष्ण के चरित्र को लेकर दिखती है। तब यह अकारण नहीं कि ‘मुसलमान हरिजनन’ ने जब भक्ति-काव्य लिखा तो प्रायः कृष्ण चरित्र को केन्द्र में रखकर।
कृष्ण की तुलना में राम के चरित्र की तितिक्षा पर हल्का व्यंग करते हुए जयंशकर प्रसाद लिखते हैं, ‘‘इस पौराणिक धर्म के युग में विवेकवाद का सबसे बड़ा प्रतीक रामचंद्र के रूप में अवतरित हुआ, जो अपनी मर्यादा में और दुःखसहिष्णुता में महान् रहे। किंतु पौराणिक युग के सब से बड़ा प्रयत्न श्रीकृष्ण के पूर्णावतार का निरूपण था।’’
(रहस्यवाद) इस प्रसंग में रोचक तथ्य यह है कि राम-कथा का विस्तार देश में और उसके बाहर दूर पूर्व तक, कृष्ण-कथा की तुलना में कुछ अधिक ही हुआ है। हमारे देश में कहा जाता है कि अलग-अलग भाषाओं में लिखे जाने पर भी भारतीय साहित्य एक है। यह उक्ति जहाँ सर्वाधिक चरितार्थ होती है वहाँ प्रसार है भक्ति-काव्य का तब भक्ति काव्य का अध्येता भी भारतीय चेतना से सर्वाधिक यहीं अनुभव करता-कराता है।
अपनी केन्द्रीय भौगोलिक स्थिति और सांस्कृतिक परंपरा के कारण इस समूची प्रक्रिया में हिंदी भक्ति-काव्य की विशिष्ट भूमिका रही है, जहाँ हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण-दलित, पुरुष-स्त्री के भेद-भाव एकबारगी विलीन हो गए हैं। यह स्पष्ट ही काव्य की श्रेष्ठतम भाव-भूमि है
काव्य-संगीत सामान्यतः और भक्ति-काव्य विशेषतः, वह विशाल सुरसरिधारा है जिस में पाठक-श्रोता अपने क्षुद्र मनोविकारों को विलीन करता इस प्रक्रिया में स्वतः स्वस्थ-शान्त अनुभव करता है। यों यह प्रवाह सभ्यता आरंभ से, बिना स्वयं प्रदूषित हुए, अवगाहन करने वालों को निर्मल बनाता है। व्यापक पर्यावरण प्रदूषण के युग में इस की नितांत व्यावहारिक उपयोगिता स्वतः स्पष्ट है, उच्चतर लक्ष्यों की बात अभी न भी की जाए तो।
इलाहाबाद
8 अगस्त, 2002
8 अगस्त, 2002
रामस्वरूप चतुर्वेदी .
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