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हिमालय

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :193
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2371
आईएसबीएन :9788180319884

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इसमें हिमालय की सुन्दरता पर प्रकाश डाला गया है....

Himalaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

अस्त्युत्तरम्यां दिशि देवतात्मा,
     हिमालयो नाम नगाधिराजः।
     पूर्वापरौ तोयनिधोवगाह्यस्थितः,
     पृथिव्या इव मानदण्डः।।


हमारे राष्ट्र के उन्नत शुभ मस्तक हिमालय पर जब संघर्ष की नीललोहित आग्नेय घटाएँ छा गई, तब देश की चेतना-केन्द्र ने आसन्न संकट की तीव्रानुभूति देश के कोने में पहुँचा दी।
धरती की आत्मा के शिल्पी होने के कारण साहित्यकारों और चिन्तकों पर विशेष दायित्व आ जाना स्वाभाविक ही था। इतिहास ने अनेक बार प्रमाणित किया है कि जो मानव समूह अपनी धरती से जिस सीमा तक तादात्म्य कर सका है, वह उसी सीमा तक अपनी धरती पर अपराजेय रहा है।

 

प्रकृति परिवेश और संस्कृति

जड़ जगत अपने आदमि रूप में चाहे जल का अनन्त विस्तार रहा हो, चाहे अग्नि का ज्वलित विराट पिण्ड, उसमें जैवी प्रकृति को उत्पन्न करने की क्षमता रहना निश्चित है।
अणु परमाणुओं ने किस अज्ञात ऋत से आकर्षित विकर्षित होकर जीवसृष्टि में अपने आपको आविष्कृत होने दिया, यह तो अनुमान का विषय है, परन्तु  प्रत्यक्ष यही है कि प्रकृति की किसी ऊर्जा से उत्पन्न जीवन फिर उसी से संघर्षरत रहता हुआ, स्वयं परिष्कृत होता चला आ रहा है।
यह परिष्कार-क्रम मानव जीवन के समान ही वनस्पति और शेष जीव-जगत में भी व्यक्त होता रहता है। मरुभूमि में उत्पन्न होने वाली वनस्पति, अपनी रक्षा के लिए, विशेष प्रकार के कांटे-फूल और रंग-रेखा में अपनी जीवन-ऊष्मा को व्यक्त करती है और पर्वत, जल आदि की वनस्पतियां भी अपने अनेक प्राकृतिक परिवेश की अनुरूपता ग्रहण करके ही विकास कर पाती हैं।

प्राणि-जगत में भी यह परिष्कार-क्रम विविध और रहस्यमय हैं। इस प्रकार इस विकास-पद्धति को ऐसा जैवी धर्म कहा जा सकता है, जिसके द्वारा सृष्टि अपने प्राकृतिक परिवेश से कुछ संघर्ष, कुछ समझौते करके कभी उसके अनुकूल बनती कभी उसे अपने अनुकूल बनाती विकास की स्थिति उत्पन्न करती रहती है।
प्राकृतिक परिवेश से जीवप्रकृति का सम्बन्ध केवल ऐसा नहीं है, जैसा सीप के सम्पुट और मोती में होता है। मोती सीप के भीतर उसके द्रव से बनता अवश्य है, परन्तु उसके बनने का क्रम किसी विजातीय सिकताकण से आरम्भ होता है, दो किसी प्रकार सम्पुट के भीतर प्रवेश पा लेने पर उसकी कोमलता में चुभ चुभ कर उसे द्रवित करता रहता है।
वस्तुतः प्राकृतिक परिवेश के साथ जैवी प्रकृति की स्थिति धरती और बीज की स्थिति है, जो एक का, दूसरे के रूप में परिवर्तन है और जिसमें आदि से अन्त तक बीज को अपने नित्य के पोषण-परिवर्धन के लिए ही नहीं, अपनी स्थिति के लिए भी धरती की आवश्यकता रहती है।

मोती सीप में ढलकर बनकर भी उससे भिन्न हो जाता है और यह पृथकता ही उसकी महार्घता का कारण है। शुक्ति-सम्पुट में बन्द रहकर अतल समुद्र में न उसे संज्ञा मिलती है न मूल्य। इसके विपरीत बीज की, धरती के अन्धकार से बाहर आकर और वृक्ष के रूप में परिणत होकर भी, धरती के अतिरिक्त कोई स्थिति नहीं है। वह तो जिससे जन्म और पोषण पाता है, उसी से संघर्ष-रत रहकर बढ़ता है। शुक्ति से बाहर आकर मोती का महार्घ जीवन आरम्भ होता है और धरती छोड़ कर वृक्ष की निश्चित मृत्यु आरम्भ होती है।

यह नियम मानव-जीवन और उसके प्राकृतिक परिवेश के सम्बन्ध में और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि वह भूतप्रकृति में जैवी प्रकृति का श्रेष्ठतम रूप है। विकास की दृष्टि से महाकायता की गति लघुता की ओर और स्थूलता की सूक्ष्मता की ओर रही है। इसी नियम से किसी युग के विशालकाय जीव आज चिन्हशेष भी नहीं रह गए हैं।
मानव-जीवन जड़ और चेतन का ऐसा स्थायी सन्धिपत्र है, जिसमें पार्थिवता से वलयित चेतना ही को विशेषाधिकार प्राप्त है। शरीर से रहित चेतना चाहे आत्मभाव हो चाहे परमभाव, परन्तु, उसमें प्राण-स्पन्दन का अभाव ही रहेगा और चेतना रहित शरीर चाहे वज्र हो चाहे मिट्टी, परन्तु विकासोन्मुख गति सम्भव नहीं रहेगी।
वौद्धिक होने के कारण मनुष्य ने कभी महाकायता को जीवन का गन्तव्य नहीं बनाया। अतः प्रकृति को कभी छेनी हथौड़ी लेकर उसे छोटा करने के लिए तराशना नहीं पड़ा, अन्यथा महाकाय जीवनों के समान वह भी खण्ड खण्ड होकर बिखर जाता है।

हृदयवान होने के कारण उसने अपने आदिम जीवन में ही जीवन से अधिक प्रिय मूल्यों का अविष्कार कर लिया इस प्रकार अपने प्राप्त ही नहीं, सम्भाव्य मूल्यों के लिए भी वह बार-बार जीवन देने लगा। परिणामतः अपने अन्नमत सृजन का निरन्तर संहार करने वाली प्रकृति ने यदि उसे मिटाने का श्रम व्यर्थ समझा, तो आश्चर्य नहीं।
प्रकृति ने मानव के निर्माण के लिए यदि अपनी जैवी सृष्टि में असंख्य प्रयोग किये हैं तो मानव भी, उसे देवता बनाने के लिए अपनी मनोभूमि में भावसृष्टि द्वारा अन्नत प्रयोग करता आ रहा है। आज, ‘पुत्रों अहं पृथ्विया’ कहने वाले पुत्र के सम्बन्ध में धरती की स्थिति ‘पुत्रात् इच्छेत् पराजयम्’ द्वारा ही व्यक्त ही जी सकती है।

मानव जाति कब उत्पन्न हुई, वह एक केन्द्र में उत्पन्न होकर पृथ्वी के भिन्न भिन्न खण्डों में फैल गई या भिन्न भू-भागों में उत्पन्न होकर सामान्य विशेषताओं के कारण जाति की संज्ञा में बंध गई, आदि प्रश्न जीवन के समान ही रहस्यमय हैं और नृतत्वशास्त्री कभी इनका समाधान पा सकेंगे, यह संदिग्ध है।
संस्कृत भाषा में जाति शब्द का, इतना व्यापक और गहरा अर्थ है, जिसका पर्याय किसी अन्य भाषा में खोजना कठिन होगा। जाति न किसी देश विशेष से सम्बद्ध है और न किसी कुल वंश की संज्ञा है।

सामान्यतः वह उन जन्मगत विशेषताओं का संश्लिष्ट बोध है, जो बाह्य गठन से अन्तर्जगत तक फैली रहती हैं। मानव यदि जीव-जगत में, कुछ निश्चित शारीरिक और मानसिक विशेषताओं का संघात है, तो जाति शब्द शरीर और मानसिक दृष्टि से, उसी स्तर, श्रेणी या कक्षा के जीवों की समाविष्ट का संकेत देता है।

जहां तक बाह्य विशेषताओं का प्रश्न है, प्रकृति कभी आवृत्तिप्रिय नहीं रही है। व्यक्ति तो क्या, दो तृण तक बाह्य रूप में एक दूसरे से भिन्न मिलेंगे। परन्तु जैसे दो तरंगे अपने-अपने उद्वेलन में भिन्न जान पड़ने पर भी, अपनी मूल जलीयता में एक रहती हैं, वैसे ही पुष्पों में पुष्पत्व और तृणों में तृणत्व एक रहेगा। मनुष्य जाति भी भिन्न भिन्न प्राकृतिक परिवेश से प्रभाव ग्रहण कर वर्ण, गठन आदि में विशेष होकर भी मानवीयता में सामान्य रहेगी। एक उष्ण भू-भाग का कृष्णवर्ग मनुष्य, एक शीत भू-भाग के गौर वर्ण वाले से, भिन्न जान पड़ने पर भी, मानव-सामान्य विशेषताओं में उसी जाति का सदस्य माना जायगा।

परिष्कार-क्रम तो जीवन की शपथ है, अतः प्रत्येक भूमिखण्ड के निवासी मानवों ने ज्ञात अज्ञात रूप से अपने विकास की ओर यात्रा आरम्भ की होगी, यह तो निश्चित है; परन्तु सबकी यात्रा के परिणामों का एक बिन्दु मिलना सन्दिग्ध रहेगा। नदियों का उद्गम एक हो सकता है, उनकी गतिशीलता भी निश्चित हो सकती है, परन्तु गन्तव्य और दिशा का, तटों से सीमित रहना अनिवार्य है। इसी कारण सभी भू-खण्डों की मानव-जाति एक साथ, बुद्धि और हृदय के संस्कार के एक ही स्तर पर नहीं पहुंच सकी।

संस्कृति शब्द से हमें जिसका बोध होता है, वह वस्तुतः ऐसी जीवन-पद्धति है, जो एक विशेष प्राकृतिक परिवेश में मानव निर्मित परिवेश सम्भव कर देती है और फिर दोनों परिवेशों की संगति में निरन्तर स्वयं आविष्कृत होती रहती है। यह जीवनपद्धति न केवल बाह्य, स्थूल और पार्थिव है और न मात्र आन्तरिक, सूक्ष्म और अपार्थिव। वस्तुतः उसकी ऐसी दोहरी स्थिति है, जिसमें मनुष्य के सूक्ष्म विचार, कल्पना, भावना आदि का संस्कार उसकी चेष्टा, आचरण, कर्म आदि के परिष्कार में व्यक्त होता है और फिर चेष्टा, आचरण आदि बाह्यचार की परिष्कृति उसके अन्तर्जगत पर प्रभाव डालती है।

सभ्यता, संस्कृति का पर्याय नहीं है, क्योंकि वह किसी मनुष्य के मात्र भद्राचार या सभा के उपयुक्त आचार को ही व्यक्त करती है। प्रकारान्त से यह विशेषता मनुष्य के अन्तर्जगत को स्पर्श कर सकती है, परन्तु प्रसाधनतः इसके क्षेत्र, मनुष्य का बाह्य आचरण है। प्रायः ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं, जिनमें बाह्य रूप से शिष्ट व्यक्ति, हृदय और बुद्धि के संस्कार की दृष्टि से, असंस्कृत माना जा सकता है। कारण स्पष्ट है। संस्कृति मनुष्य की सहज प्रकृति के परिमार्जन से सम्बन्ध रखने के कारण मात्र बाह्याचार में सीमित नहीं हो पाती। अनेक बार जिसे हम ग्रामीण और सभ्य समाज के अनुपयुक्त समझते हैं, वह अपने अन्तर्जगत के परिष्कार की दृष्टि से संस्कृत मानवों की कोटि में आ जाता है।

मनुष्य की सहज प्रकृति और उसकी स्वार्जित संस्कृति में ऐसा अविच्छिन्न सम्बन्ध है, जिसमें एक की परिस्थिति में दूसरे की गति निहित है। दृष्टि के लिए जैसे वस्तु रहित रंग की स्थिति नहीं होती, वैसे ही मूल प्रकृति के अभाव में, न विकृति में उसका अपकर्ष सम्भव है न संस्कृति में उसका सामंजस्यपूर्ण उत्कर्ष। इस प्रकार प्रकृति यदि गति का उन्मेश है, तो संस्कृति उस गति की दिशानिबद्ध संयमित मर्यादा का पर्याय।

मानव-समूह से किसी शून्य में अवतरित नहीं होता, वरन् वह विशेष भू-खण्ड के विशेष प्राकृतिक परिवेश में जन्म और विकास पाता है। पृथ्वी एक होने पर भी अनेक आकर्षण-विकर्षण से प्रभावित और विविध है, अतः तत्वतः एक होने पर भी मानव जाति को अपने पृथक परिवेशों के कारण भिन्न-भिन्न समस्याओं का सामना करना और भिन्न समाधानों को स्वीकार करना पड़ता है।

यही विशिष्ट जीवन-पद्धति एक मानव-समूह को अन्य मानव-समूहों से भिन्न संज्ञा दे देती है। कालान्तर में एक विशेष प्राकृतिक परिवेश में विकसित मानव समूह, अपने सम्पूर्ण परिवेशवलयित जीवन को, एक देश या राष्ट्र का व्यक्तित्व देकर, सामान्य मानव-जाति के भीतर एक उपजाति बन जाता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व के समान ही उसका देश भी व्यक्तित्व सम्पन्न हो जाता है।

भौगोलिक परिवेश का मानव-जीवन के साथ ऐसा आत्मीय सम्बन्ध रहा है कि विरल जातियां ही धर्म या कुल के नाम से जानी जाती हैं। अधिकांशतः मानव-जाति और उसकी संस्कृति प्राकृतिक परिवेश से ही संज्ञा प्राप्त करती रही है। रूसी, चीन, ईरानी, मिश्र आदि नामों से हम उक्त देशों के निवासियों को पहचानते हैं। किसी भी महादेश या लघुदेश में निवास करने वाली मानव उपजाति से उसकी धरती का सम्बन्ध इतना सार्वभौम समर्थन और पवित्रता पा गया है कि एक जाति के द्वारा दूसरी के देश को छीनने का प्रयत्न गर्हित और अनैतिक माना जाता है और ऐसा करने वाली मानव-जाति को, आक्रामक, अत्याचारी की संज्ञा दी जाती है।

अनेक बार सबल मानव समूह ने इस नैतिक नियम को भंग किया है, परन्तु, वह कभी समग्र मानव-जाति के स्नेह और आदर का अधिकारी नहीं हो सका। शक्ति-संघर्ष की सफलता के उपरान्त भी विजेता और विजित की संस्कृतियों में संघर्ष होता रहा और इस गम्भीर संघर्ष में वही संस्कृति विजयनी रही, जिसके पास जीवन के व्यापक मूल्य और उपलब्धियां थीं।

मानवजीवन की एकता में आस्थावान जाति के पास मानो सम्पूर्ण आकाश का विस्तार रहता है, जिस पर उसे विभाजित करने वाले, रंगीन बादलों के समान बनते मिटते रहते हैं।

मनुष्य और उसके परिवेश को विशेष व्यक्तित्व देने की दिशा में, उसकी जिज्ञासा अन्य वृत्तियों से अधिक क्रियाशील रही है। साधारण आहार की खोज से लेकर सूक्ष्म धर्म, दर्शन, साहित् आदि की सभी उपलब्धियों के मूल में वही जिज्ञासा अथक रूप से सक्रिय रहती आई है। वह मूल्यों की खोज ही नहीं, उनकी निर्मात्री भी है, वह प्रकृतिप्रदत्त अतृप्ति का समाधान ही नहीं देती, अतृप्ति की परम्परा भी बनाती चलती है। जैसे काठ में अग्नि की स्थिति पहले से है, घर्षण केवल उसे प्रत्यक्ष कर देता है, उसी प्रकार मानव की जिज्ञासा में चिर अतृप्ति का अंकुर अलक्ष्य रूप से विद्यामान रहता है, जो एक समाधान के सम्पर्क से अनेक की दिशा में क्रियाशील हो उठता है।

जिन पूर्वजों से हमें धर्म, दर्शन, साहित्य, नीति आदि के रूप में महत्त्वपूर्ण दायभाग प्राप्त हुआ है, उनके प्राकृतिक परिवेश के भी हम उत्तराधिकारी हैं।

उनके पर्वत, वन, मरु, समुद्र, ऋतुयें आदि प्राकृतिक नियम से कुछ परिवर्तित अवश्य हो गए हैं, परन्तु तत्वतः उनकी स्थिति पूर्ववत् है और उनसे हमारे रागात्मक सम्बन्ध संस्कराजन्य ही नहीं स्वार्जित भी रहते हैं।
काल-समुद्र की असंख्य तरंग-भंगिमाओं को पार करता और सहस्रो झंझाओं के आघात को झेलता हुआ, जो साहित्य हम तक पहुँच सका है, वह हमारे अपराजेय पूर्वजों की संघर्ष-कथा ही नहीं, उनकी उग्र-प्रशान्त, कठिन-कोमल प्रकृति का उद्गीथ भी है। मेघ, आकाश समुद्र, नदी, उषा आदि के जो छन्दमय चित्र उनकी तूलिका ने आंके हैं, उनके इन्द्रधनुषी रंग अम्लान और उज्ज्वल रेखायें अमिट हैं। इतना ही नहीं उस चित्रशाला की हर रेखा, हर रंग में भारत की धरती की छवि उसी प्रकार पहचानी जाती है, जिस प्रकार अनेक दर्पण-खण्डों में प्रतिफलित एक मुखाकृति के अनेक प्रतिबिम्ब।



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