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उत्तर कथा - भाग 2

श्रीनरेश मेहता

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :532
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2367
आईएसबीएन :81-8031-045-0

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‘उत्तरकथा’ का द्वितीय खण्ड...

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Uttar katha-2

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘उत्तरकथा’ के प्रथम खण्ड को पढ़ते हुए महसूस होता है कि जैसे लेखक लूसिएँ गोल्डमान के उत्पत्ति मूलक संघटनात्मक समाजशास्त्र के सहारे पुराने मालवा के खौफनाक अँधेरे को एक विशिष्ट सामाजिक, स्थिति में एक निश्चित वरण की अनिवार्यता का सामना करते हुए उभार रहा है और उजाले में समस्याओं की एक श्रृंखला प्रस्तुत करते हुए आलोचनात्मक चित्र और चरित्र उकेरते हुए सार्थक समाधान की संभावना तक आना चाहता है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पूरा उपन्यास आध्यात्मिक सरोकारों से विच्छित्र नहीं है। उपन्यास का नायक शिवशंकर आचार्य दुःख-भोग और दायित्व वहन के क्रम में-करुणा का अकलंक पुरुष है।....त्र्यम्बक और दुर्गा भारतीय दम्पति के शिवपार्वती जैसे आदर्श हैं। शिवशंकर आचार्य, भारतीय मनीषा की चारित्रिक स्थिति का नाम हैं। यह चरित्र नहीं है। यह बीज-चरित्र को गोद लेकर वृक्षत्व प्रदान करते हैं....लेखक ने केवल कथा नहीं कही है, बल्कि..... उनके  बीच से चेतन के अनिवार्य नैरंतर्य को तलाशा है....तभी  तो यह केवल कथा नहीं है, उत्तरकालीन कथा नहीं है बल्कि प्रश्नों के समाधान की, उत्तर की भी कथा है।


आमुख

कभी महाकाव्य को ही यह श्रेय एवं केन्द्रियता प्राप्त थी कि जीवन की समग्रता को सर्जनात्मक प्रक्रिया के द्वारा रचना के रूप में प्रस्तुत करे, परन्तु औद्योगिकता के विकास-क्रम में गद्य का विकास गत दो सौ वर्षों से तीव्र गति से हुआ है। मुद्रण आदि के आविष्कार का प्रभाव साहित्य, समाज और लेखक की प्रकृति, प्रयोजन और प्रियता पर भी पड़ा। साहित्य के सम्बोधन का दायरा  तो अवश्य बढ़ा पर उसका गुण-धर्म छीजा ही, और आज का साहित्य तथा लेखक इस स्थिति के हानि-लाभ के बीच खड़े हैं। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में उपरोक्त केन्द्रीय महत्त्व अब उपन्यास को भी प्राप्त हुआ। निश्चय ही इसमें पश्चिमी एवं भारतीय महान कथाकारों का योगदान रहा है।

कोई भी रचना, भले ही वह शुद्ध गद्य ही क्यों न हो, अब तक सृजनात्मकता, जो कि मुख्यतः काव्यात्मकता ही होती है, से प्रसूत नहीं होती तब तक वह कभी भी प्रतिसृष्टि नहीं बना करती, अनुकृति भले ही बन जाए, पर साहित्य अनुकृति नहीं हुआ करता। इसीलिए साहित्य में ‘काव्य-दृष्टि’ संज्ञा तो है लेकिन ‘गद्य-दृष्टि’ नहीं। साथ ही साहित्य, समग्रता के प्रतिश्रुत होता है न कि जीवन  के किसी एक पक्ष के प्रति चाहे वह पक्ष  कोई भी हो।

जीवन या यथार्थ को जब तक रचने का भाव लेखक में नहीं होगा तब तक उसका लिखने का कोई अर्थ नहीं है। लेखक रचता है इसीलिए वह कथा-सृष्टा है, मात्र प्रस्तुत नहीं करता इसीलिए वह कथा-वाचक नहीं है। प्रायः लोग रचना से आनन्द नहीं, भोग की अपेक्षा करते हैं। रचना से सरलता को उसकी माँग-अपने से कहीं साक्षात् न हो जाए-के भय से उत्पन्न होती है। रचना का बड़प्पन उनके स्वत्व के बौनेपन के लिए चुनौती होता है इसलिए जब भी उन्हें ऐसे कुछ दिखता-मिलता है, वे असुविधा अनुभव करते हैं। वे यह भूल जाते हैं कि किसी भी प्रकार की सृष्टि भी सरल नहीं हुआ करती क्योंकि वह अन्तर्सम्बन्धों की जटिल प्रक्रिया होती है, इसलिए न जीवन सरल है और न साहित्य या कोई कला।

इस सरलता के सन्दर्भ में एक बात भाषा के बारे में भी कह देना आवश्यक है। भाषा, भाषा ही होती है-गद्य या पद्य नहीं, और न ही सरल या कठिन। रचना में अनतराशी भाषा का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि वहाँ प्रत्येक शब्द न केवल अपने को ही प्रतिष्ठित या व्यक्त करने के लिए होता है बल्कि जो प्रस्तुत नहीं है, बल्कि जिसे प्रस्तुत किया जाना है— के लिए भी वह वहाँ है। साथ ही पूर्वापर संबंध एवं क्रम से अलग शब्द को गति और ध्वनित करने के लिए है। साधारणतः भी जब चूल बैठालने की प्रक्रिया में अनगढ़ पत्थर रच दिए जाने पर रत्न हो जाता है, तो क्या वह सरल हो जाता है ? चूँकि वह सरल नहीं रह जाता है इसीलिए अमूल्य हो जाता है। पूर्ण सरल तो केवल तत्त्व ही होता है और तत्त्व स्वयं सृष्टि नहीं होता। इसीलिए सृजनात्मक अहोरात्र साधारणता को मूल्यवान बनाने में लगी है। जब भी रचना के कद से हमारा कद छोटा होगा तभी हमें रचना से सरलता आदि की बालकोचित अपेक्षाएँ होंगी। रचना या उसकी भाषा सरलता का भ्रम भले ही दें पर सरल नहीं होतीं। अस्तु-

चूँकि प्रथम खण्ड की भूमिका में इस उपन्यास के बारे में कुछ तो कह ही चुका हूँ अतः यहाँ केवल इतना ही जोड़ना चाहूँगा कि उपन्यास ‘उत्तरकथा’ की मूल परिकल्पना महाकाव्यात्मक हो तथा इसके पात्रों, चरित्रों की घटनाओं के अंगारों तथा रम्यताओं के बीच से गुजर कर देखा गया है, परन्तु कथा की बुनावट में काव्य-दृष्टि तथा शब्द-शक्ति का पूरा सहयोग लिया गया है इसलिए सादे कथनों में भी झंकृति का भाव मिलेगा। संगीत में राग को पूरी तरह खोल डालने के लिए वादक झाला के द्वारा सब कुछ को मँथ डालता है। इस प्रक्रिया में अनेक बार जहाँ रास-भाव या जुलूस-वृत्ति रही वहाँ ‘नेति-नेति’ की औपनिषिदक मानसिकता में से भी एकान्त गुजरना पड़ा है। वैसे कह नहीं सकता कि यह कितना-कुछ इस उपन्यास में सम्भव हुआ है। मैं तो सम्प्रेषण के छोर पर हूँ, निष्पत्ति के नहीं, जहाँ कि आप हैं।

इसके प्रथम-खण्ड की कुछ सीमाएँ निकली हैं, आभारी हूँ; पर उनसे भी कहीं अधिक ढेरों अनाम अपरिचित, विभिन्न प्रदेशों तक के पाठकों को जैसे आत्मीय तथा आलोचनात्मक पत्र मिले उनसे निश्चय ही प्रेरणा एवं बल मिला। साथ ही यह विश्वास भी उत्तरोत्तर दृढ़ ही हुआ कि हमारे सामाजिक परिवेश में आज अस्मिता को लेकर लाख विषमताएँ गहराती दिखें परन्तु अभी धरती, धरती ही है और मनुष्य, मनुष्य। अभी भी रचना की उदात्तता के सम्बोधन के लिए लोगों में आकुलता और चिन्ता दोनों है। लेखक शायद हताश हो गये हैं पर लोग नहीं। संक्रान्ति के इस कठिन समय में यदि लेखक अपने धर्म से च्युत हो जाएगा तो इसके लिए वह स्वयं दोषी होगा न कि समाज या युग।
इति् नमस्कारान्ते-


उत्तरोत्तर प्रकरण



चातुर्मास-
आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन-
उनाले (ऊष्ण काल) और सियाले (शीतकाल) के सेतु-मास !! आकाश के मेघ बनकर धरती पर नीचे उतरने के मास। आकाश, बादल धरती पर एक आत्मीय, एक स्वजन बनकर, रूप और गन्ध बनकर उतरे इसकी कैसी उत्कट लालसा होती है। समस्त सृष्टि, आकण्ठ पृथ्वी  को जैसी आकुलता होती है इसकी कोई कल्पना आकाश को कभी नहीं हो सकती है। जो तपा न हो वह इस स्वत्वगत पिपासा को कभी अनुभव नहीं कर सकता। नितान्त आकाश बने रहने में अद्वितीयता भले हो परन्तु जो समग्रता, जो आत्मीय  कुल बान्धवता, जो वैश्विकता कीच-काँदों वाली इस धरत्री में है। वह इस अगाध आकाशीय अद्वितीयता में कहाँ ? सारी ऋतुएँ, सारे नक्षत्र लगते तो आकाश में हैं परन्तु उनके कोप, उनकी कृपा की साक्षी, भोक्ता धरती ही है। वैशाख-ज्येष्ठ की झुलस और तपन के बाद आषाढ़ का प्रथम नक्षत्र लगा नहीं कि पशु-पक्षी झुलसे फूल म्लान वनस्पतियाँ  सबके सब कैसे स्वागत-समारोह की छोटी-छोटी घंटियाँ टुनटुनाने लगते हैं। स्त्रियों के चपल नेत्रों की भाँति एक निःशब्द कोलाहल वृक्ष-वनस्पतियों, नदियों-नालों में भरने लगता है।

पठारी एकान्त के सन्नाटों में हवा, कैसे बाँशी-भाषा सी सुनायी पड़ने लगती है। पश्चिम दिशा के  अरब-सागर से उठने वाले-काले कजरारे मेघों के लिए कौन-कितना हुमस रहा है इसे कोई नहीं व्यक्त कर सकता। पाखी ऐसी उड़ाने भरने लगते हैं कि जैसे अपनी चोचों में मेघों को उठाकर ले आएँगे और किसी ने टोका नहीं तो सूर्यास्त को दे आएँगे। हवा में झूमती फुनगियाँ ऐसी उझकी पड़ेंगी अगर पेड़ों ने उन्हें थाम न रखा होता तो सब की सब पक्षी बन जातीं। थूहर, खजूर, आम, केला-कदली नीबू-नागकेसर, सूखे नाले, ऊँड़ी (गहरी) बावड़ियाँ, वनस्पतिहीन डूँगरियाँ, खुरदरे चारागाह-कौन है जिसे मेघों की गन्ध नहीं आने लगती  है ? धरती पर जब पहली बार आषाढ़ की बूँद टपकती है तब ऊनी-ऊनी (गरम-गरम) धूल कैसे हौले से, फूल-सी निःशब्द चिटख उठती है। गाम-गोयरों (सीवानों) पगडण्डियों और गरवटों की गरम-गरम धूल में कैसे बतासे ही बतासे छिटख उठते हैं। सूखे राड़े चबाते बैल, कपासे-बिनौले खातीं गायें-भैंसें गर्दनें हिला घंटियाँ बजाते हुए कैसे हेर लेने लगते हैं कि अरे, आषाढ़ी मेघ आ गए क्या ? और हमें किसी ने बताया तक नहीं ?

आषाढ़ के स्मरण मात्र से उन पशुओं की चिकनी त्वचा कैसी थरथराने लगती है जैसे जल के एकान्त को किसी ने छू दिया है। हवा के स्पर्श में हलकी सी मार्दवता आ जाती है जिसे किलोलते बछड़े अपनी उठी पूँछों से छूना चाहते हैं। यदि खूँटों से बँधे न होते तो आषाढ़ की अगवानी ऐसे बँधे-बँधे होती ? अब तक तो नद्दी पेले पार पहुँच गए होते। मेघों के खूँट मुँह में दबाये सीधे अपने गाँव ही पहले लाते। त्वचा पर बूँदों का प्रथम स्पर्श कैसा अप्रतिम ठण्ढा लगता है न ? आषाढ़ नहाकर देह कैसी मुलायम धुली चिकनी हो जाती है। ऐसी धुली, एड़ी जैसे साफ देह छूने पर लगता है न कि जैसे जल पर हाथ फिसला पड़ रहा है। भैंसों का आबनूसपन  तक कैसा चमचमाने लगता है कि वर्ण तो बस कृष्ण-वर्ण ही है। थनों का दूध तक उजला गया लगता है। रोम-रोम से, अन्तरतम में कैसी उतकण्ठा, पुकार आने लगती है कि आषाढ़ आए तो !! आषाढ़ न हुआ बल्कि एक ऐसा सम्बोधन हुआ जिसकी प्रतीक्षा में धरती अश्रुस्नात राधा बनी तपी है। स्त्री-देह को भी ऐसे आत्मीय एकान्त सम्बोधन की प्रतीक्षा नहीं होती होगी जैसी कि सहस्र मुखी, सहस्र–नयना धरती को अकेले आषाढ़ की होती है।

आषाढ़ का पहला दौंगरा बरसा नहीं की पीली-पीली घासों-तिनकों के बीच से वर्षा-जल बारीक-बारीक रास्ते बनाता जैसे नोचता हुआ चलता लगता है न कि जैसे चीटियों की नकल करता चल रहा है। अनन्त परिश्रम करता है वह शिशु वर्षा-जल अज्ञात से अज्ञात, अनाम से अनाम, छोटी-से-छोटी जड़ों तक आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों-दो-चार दिनों में पहुँच कर ही रहता है। छोटे-छोटे गड्ढों में चलते-चलते जब वह हठात् गिरकर भरने लगता है तो आपको हँसी आती है कि इस नवजात को अभी धरती पर ठीक से चलना भी नहीं आया। घासों-वनस्पतियों के ज्येष्ठ मासी धूल-धूसरित व्यक्तित्व, उदास, पीले-खिन्न मुख आषाढ़ी जल को अपने निकट पहुँचा देखकर कैसे झटपट अपनी देह को  धूल में रगड़ने लगते हैं। उनके स्वत्व, उनके मुख कितने दयनीय थे परन्तु चार-आठ दिनों की आषाढ़ी  वर्षा के बाद तो ऐसा लगता है कि आषाढ़, जड़ों से होता हुआ फुनगियों तक पहुँच कर ही रहेगा। वनस्पतियों की देह भरने लगती है।

खाया-पीया अंग लगा दिखने लगता है। वृक्षों-पौधों की नयी-नयी निष्कलुष कोपलें कैसी पलक-भाषा लगती हैं। इन दिनों सारे अरण्य कैसे सम्पन्न और सन्तुष्ट लगते हैं। कल तक वन में, हवा में कैसा उदास, सूना सन्नाटा था, पीले पत्ते कराहते लगते थे, पर दो ही चार दिनों में मिट्टी तक से कैसी गन्ध आने लगती है कि जैसे, क्या गन्ध केवल चन्दन की ही होती है, माटी की नहीं ? यह माटी गन्ध वन में वृक्षों-वनस्पतियों की औषधीयता से मिलकर अरण्य-गन्ध बन जाती है। इन दिनों वन में जाने पर ऐसा लगता है कि भाषा के लिए आकुल किसी व्यक्तित्व के पास आये हैं। आपको अपनी अंगुलियों में उस व्यक्तित्व के स्पर्श का बोध तक अनुभव होता है। वैशाख-ज्येष्ठ में छाहों सघनता की तलाश में जाने कहाँ दीपान्तर कर गये पाखी वापस अपने पेड़ों पर लौटने लगते हैं। इन दिनों के पेड़ों की प्रसन्नता देखकर लगता है कि पत्ते, न उड़ पाने वाले पाखी हैं, और पाखी, उड़ते हुए पत्ते हैं। इन दिनों की वाचाली हवा में झुके पड़ रहे पेड़ कैसे लगते हैं जैसे कि दुहरी होती हुई स्त्रियाँ खिलखिला रही हों। और ये तोते ?

 कैसे भाषा-प्रवीण पाखी होते हैं जैसे राजमहलों की दासियाँ हों जिनके देखने, चलने, अंग-संचालन तक से भाषा झरती होती है। ऐसी उत्फुल्ल   और उन्मुक्त भाषामयता किसी अन्य पाखी में नहीं होती है। मैना में पट्टमहिषियों वाला माधुर्य अवश्य होता है पर चपलता नहीं। ‘कोयल की चपलता में राजकुमारियों की चंचलता होती है पर तोतों वाली आकण्ठमयता नहीं। तोते जैसे ध्वनि और भाषा से निर्मित पाखी लगते हैं। तोते कुछ भी करें, भले ही निःशब्द धूप में उड़ते हुए दिख जाएँ-भाषा का ही बोध देते हैं। किसी अनार या आम पर तोते हों, तब उनका व्यवहार देखिए। बच्चे भी अपनी माँ पर ऐसे लदे नहीं पड़ेंगे जैसे तोते अनार और आम पर लदते हैं। आम में अभी मंजरियाँ आयीं नहीं कि तोतों ने मंडराना शुरू किया नहीं। केरी से आम होने तक एक-एक आम कुतर डालेंगे। कोई कितना पत्तों से अपने आम इन शैतान तोतों से बचाए ? आषाढ़ आने तक आम बचते ही कितने हैं ? तब भी इन बचे-खुचे  आमों पर भी तोते तब देखो टूटे पड़ रहे हैं। आम न हुए, माँ के स्तन हुए। कोई आम से लिपटा पड़ा है, तो कोई उसकी लम्बी टहनी से चिपटा झूला पड़ रहा है। कोई स्थान न मिलने पर चारों ओर मँडराते हुए झपटने के लिए आकुल है तो कोई चिपटे पड़े तोते को ही चोंच से मार-मार कर हटा देने पर लगा है। कोई तोता किसी दूसरे तोते की तरह नहीं है। और यह शोर ?-बाबा ! रे बाबा ! उस आम्रवृक्ष के ही नहीं, देखने वाले तक के कान तोतों की इन भाषा-चीखों से फट कर रह जाएँ। आम पर फैली धूप की मलमल कैसी चिथड़े-चिथड़े  किये दे रहे हैं ये तोते !-पाखी हैं कि आफत !!

भीगी वृक्ष-छालों पर काले चींटों  की लम्बी-लम्बी कतारें आम, वटवृक्ष के तनों से शाखा, और शाखा से प्रशाखाओं की ओर जा रही होती हैं। वटों के चारों ओर लाल फलों को कुतर कर फैलाकर चींटे उनके चारों ओर मँडराते कैसे प्रसन्न दिखलायी देते हैं। कैसी दुर्वह और कैसी असह्य लू-गर्मी के बाद तो वृक्षों, वनस्पतियों, पक्षियों और जीवों को यह आषाढ़ी उत्सवता मिली है। भला इस उत्सवता में भी कोई निर्द्वन्द्व न हो ?

 कोयल की वाचलता अब काफी कम हो गयी है इसलिए कोयल-कौवों की झड़पें भी काफी कम हो गयी हैं। बयाएँ भी अपने लटकते घोसलों में बार-बार आ-जा रही हैं। पीपल की सबसे ऊँची फुनगी पर पंजे साधे, पर तौले, गर्दन उठाए चील पश्चिमी क्षितिज की ओर ऐसे ताक रहे हैं कि आषाढ़ी मेघ इसी ओर से आएँगे ? आषाढ़ी मेघों का आना ही नहीं, वह चाहे और दो-चार पर मारे तो थोड़े उड़ने पर अरब-सागर तक देख सकती है। ढेर सारी चीलें गोल की गोल में उपरले आकाशों में ऐसे निश्चिन्त मँडरा रही हैं जैसे इन्दर राजा के आँगन में गरबा-नृत्य करने का उन्हें आमन्त्रण मिला था। उनकी निश्चिन्त उड़ान देखकर ऐसा लगता है कि उन्हें नीचे उतरने की कोई उतावली नहीं क्योंकि पहले वर्षा हो तो, उन्हें नीचे आने में देर ही कितनी लगेगी ? और फिर ये मेघ-पाहुने इधर ही से तो आएँगे। उन्हें मालवी धरती का निमन्त्रण कौन देगा ? ये नदी-नाले, ये थूहर-बबूल ? इतने ऊपर से उन बेचारे मेघों को कुछ दिखेगा भी ? देखना, मेघों को कैसे घेर कर मालवी धरती पर हम उतार कर लाती हैं।

आषाढ़ की प्रतीक्षा मनुष्य भी करता है। इस मानवीय प्रतीक्षा को भाषा, भाव, अभिव्यक्ति सभी कुछ तो प्राप्त है। प्रकृति ने सृष्टि में जड़ और चेतन के जो भेद किये हैं, वे वस्तुतः अभिव्यक्तिगत ही हैं। जड़ की भाषा उसका स्वत्व है परन्तु इसके बाद जो जितना अधिक चेतन है उसके पास उतने ही अधिक ध्वनि के विकसित रूप हैं। मनुष्य ने इस ध्वनि को व्यवस्थित भाषा का स्वरूप दिया। मनुष्यों में भी चेतना स्तर हैं। किसी के लिए जीवन भार भाषा, मात्र गाली होती है तो किसी के लिए भाषा, मन्त्र होती है। भाषा को यह गाली का स्वरूप या मन्त्र की महत्ता देने वाला स्वयं मनुष्य है। भाषा तो वाद्य है। मनुष्य अपने अन्तर में उठने वाले आनन्द को उत्सव का, पर्व का स्वरूप, देकर गान-नृत्य, गन्ध-वर्ण में परिणत कर देता है। मनुष्य के इस उदात्त स्वरूप, उत्सव-भाव को यह सृष्टि किस कृतज्ञ भाव से ग्रहण करती है इसे साधारण नहीं समझ पाते। शांति के लिए ‘स्वाहा’ उच्चारण के साथ दी गयी एक आहुति सम्पूर्ण सृष्टि के लिए कितनी मांगलिक होती है इसे कभी मानवेतर में पैठ कर कोई देखे, तभी समझ सकता है।

मनुष्य की रचना प्रकृति ने उसके ‘स्व’ के लिए की ही नहीं है। वह तो सृष्टि मात्र के प्रतिनिधित्व के लिए जन्मा है। तभी तो मनुष्य आषाढ़ भर तो किसी प्रकार प्रतीक्षा करता है कि थोड़ी सी वर्षा हो तो, नदी-नाले चलने लगें, हवा में थोड़ी ठंडक आ जाए,. वृक्षों की वानस्पतिक उपस्थिति अनुभव होने लगे और ऐसी माधवता श्रावण आते-आते बहुत कुछ भी हो जाती है। जिस खिड़की से कभी लू की लपटें आती थीं अब उसी के ठंडे वयारे के झोंके रह-रह कर आने लगते हैं। इस बीच वृक्षों के पत्ते नहा लिये तो कैसी हरीतिमा आ गयी न ? मेघगर्जन पर ऐसा लगता है कि जैसे खम्बों पर जलती चिमनियाँ चौंक-चौंक पड़ रही हैं। घर आँगन सभी जगह कैसा सुहावना लगने लगता है जैसे कोई मेहमान आने को है और अभी तक सतरंजी भी बाहर ओटाले(चबूतरे) पर किसी ने नहीं बिछायी। भला ऐसी रम्य, काम्य ऋतु में समस्त सृष्टि एक ओर से अब मनुष्य को कोई उत्सव मनाने से रोक सकता है ? गोठों के लिए श्रावणी फुहार में भीगते हुए सुदूर वनों के जलाशयों तक जाने सो कोई रोक सकता है ? आनन्द के लिए उपकरण की नहीं, मन की उत्सवता चाहिए। जंगल में पीपल या वट-वृक्ष के भीगे तने से पीठ टिकाये वर्षा में टाट सिर से ओढ़े, ठंडी हवा में काँपते किसी ग्वाले, घोष से पूछिए कि तेज सपाटे मारती हवा में छितरी पड़ती बाँशी की इस बेसुरी तान में क्या आनन्द आ रहा है !

वर्षा की माधवता जब अपने अन्तर में सम्पन्न होगी तभी वर्षोत्सव अनुभव किया जा सकता है। गीली, भीगी गोधूलि में गायों-भैंसों के साथ लौटना भी एक उत्सव है यह अनुभव करने के लिए अपने अन्तर में अनासक्त चरमोत्कर्षता चाहिए। स्त्रियाँ हैं कि थोड़ी वर्षा थोड़ी सी रिमझिम हुई और निकल पड़ीं। गाँव के बाहर जिस आम या पीपल या नीम की शाखा थोड़ी नीची हुई उसी पर रस्सी का झूला डाला और हिचकोले लेने लगीं और कहीं दो-चार हुईं तो रस्सी से पटिया फँसाया और दोनों ओर सखियाँ खड़ी हो गयीं। कैसे हुमस-हुमस कर पेंगे बढ़ायी जा रही हैं। बाल हवा के साथ छितरे पड़ रहे हैं। पल्लू का पता ही नहीं चल रहा है। रिमझिम में सारा मुँह कैसा छिंटा पड़ रहा है जैसे कोई दूध की धार मुँह पर छींट रहा है। झूले के साथ देह और देह के साथ हीरामन मन भी कैसा ऊपर नीचे आ रहा है। जल को ठेलने की तरह हवा को ठेलते हुए ऊपर जाते समय सीने पर कैसा मीठा-मीठा सा दबाव लगता है, जैसे किसी का हाथ हो –किसका ?

 हिश्ट् !! परन्तु लौटते में पैरों के बीच से उड़ते लुगड़े के बीच से हवा की लकीर कैसी ठण्ढी-ठण्ढी सी, पिंडलियों को जाँघों को थरथरा देती हैं। कमर तक सब सुन्न सा पड़ जाता है जैसे रस्सी न थामों तो अभी बस चू ही पड़ेंगे। और इस ऊब-चूभ में मन का रसिया हीरामन न जाने कितने नदी-नाले, गाँव-काँकड़ सम्बन्धों के औचित्य-अनौचित्य को लाँघकर कैसे-कैसे सपने देखने लगता है किसी को उनकी जरा सी भी भनक या आहट भी हो जाए तो फिर कुएँ में ही फाँदना पड़े। गीत की एक हिलोर ऊपर से नीचे आती है और फिर हवा के दबाव में कैसे थरथराती ऊपर चली जाती है—‘चालो रे गामड़े मालवे !!-झूले’ की यह उपकरणहीन मन की उत्सवता अर्धचन्द्राकार रूप में आती है, फिर ऊपर आकाश में जाकर कैसे फिर पलटती है। ऐसी उत्सवता में सारे वन-प्रान्तर, नदी-नाले, वनराजियाँ, पशु-पक्षी सभी तो नारी-कण्ठ की इस आकुल सहायता में अभिषेकित हो जाते हैं। मनुष्य की यह कैसी उत्सव-सुगन्ध है जिससे समय की देह भी सुवसित लगती है। श्रावण में अरण्य की भाँति आकण्ठ भीगना और क्या होता है ?

और श्रावण बीतते न बीतते श्रावण-पूर्णिमा आ जाती है। तीज के लिए पीहर आयी नववधुएँ पुनः लड़कियाँ बनी कैसे दुईपाटी के फूल लगती हैं। श्रावण-पूर्णिमा के रक्षा-बन्धन के बाद फिर ससुराल लौट जाती हैं। अपने गाँव के साथ कन्यात्व कैसा बँधा हुआ है; बाकी कहीं जाओ वधू तो होना ही है। श्रावण फुहारों का मास है परन्तु भाद्रपद में तो झड़ी के लिए ऐसा ही प्रसिद्ध है कि जैसे कि कथाकंरी सखाराम बुवा की कथा, जिसे सुनते हुए डूबते जाओ। परसों से भाद्रपद आरम्भ हो जाएगा। आषाढ़ में जल धरती में पहुँचा ही होगा कि श्रावण में वह अंकुरित हुआ और भाद्रपद में तो फूल बनकर खिल उठता है। दूर्वा और कोटि-कोटि अनाम घासें, मात्र लिखी हुई वनस्पतियाँ ही न रहकर भाद्रपद में चलते हुए पौधे लगने लगती हैं। कल तक के उधड़े धरती के सारे अंग आधी चुनरी से ढँक-मुँद जाते हैं जैसे कन्या अब गौरी हो गयी है, अंग ढँकना आना ही चाहिए।

श्रावण में उपवनों, जलाशयों के किनारे गोठें होती हैं। वैष्णव-मन्दिरों की हवेलियों के परकोटों से निकल कर ठाकुर जी भी वन-विहार के लिए पूरे तामझाम के साथ निकल पड़ते हैं। मनुष्य का या भगवान का, किसी का वन-विहार को निकलना ही उत्सव है। ठीक ही तो है। श्रावण की वर्षा, वर्षा थोड़े ही होती है, वह तो नेत्रों से देखे जाने वाले माधव-स्पर्श होती है। पूर्णवयस्का वर्षा तो भाद्रपद की होती है। श्रावण की वर्षा तो मिथुन-नयनों की ऐसी भाषा होती है जो आँखों की राह सीधे अन्तर को सम्बोधित करती है और मन में कैसे चाँदी की घंटियाँ टुनटुनाने लगती हैं। ऐसे में नयन मिलते कहाँ हैं ? तत्काल पलकें इन्हें न ढाँपें तो पता नहीं क्या हो जाए ? श्रावण-वर्षा तो बस, मीठी गुनगुनी धूप होती है। इस धूप की हल्दी का आलेप करने को जी करता है, तो मन उस धूप को ठुमरी के बोल सा गाना चाहता है; नहीं, कानों में झुमके सा धारण कर लेना चाहता है। वन-विहार के लिए पूड़ियाँ, गुलगुले, भजिये, अचार, मुरब्बे न जाने क्या-क्या पीतल के डिब्बों में लिए आँवला-पूजन के लिए घर से निकल कर खुले में पहुँच कर मन कितना सम्पूर्ण होता है, इसे पुरुष क्या जाने ?

किसी स्त्री से पूछो। नाक में नथ, हाथ में गोखुरू, कुहनी के ऊपर बाजूबन्द, पाँव में पायल-बिछिया पहने जब दल की दल गाँव-कस्बे से बाहर निकले और तालाब की पाल पर पहुँचे नहीं की श्रावण की फुहारें कैसे आपको हल्के से भिगोने लगती हैं, जैसे वैष्णव-मन्दिर की होली हो। मुखियाजी ठाकुर जी के झूले से चाँदी की पिचकारी  सटा कर ‘बोल गिरिराज-धरन की जय !!’ कहकर सुवासित केसर-जल से होली खेलते हैं तो देश, काल, मान-मर्यादा कहीं कुछ रह जाती है ? देह कैसे खुली किताब हो जाती है न ? उत्सव तभी उत्सव है जब वह सम्बन्धहीन हो। मन कैसे देह पर से उतरी काँचली (चोली) सा पीछे छूट गया लगता है। फुहारों से छनती आती श्रावणी जंगली हवा पोर-पोर को कैसे सजग बना देती है जैसे सारे रोम जिह्वा हो गए हैं। नारी देह की इस उत्सव-भाषा, को आज तक न जिह्वा ही मिल पायी  और न अभिव्यक्ति ही। ऐसी ठंडी हवा में देह के कस उठने के साथ चोलियाँ तब कैसी कस उठती हैं साँस लेना भी दूभर हो जाता है। तालाब के पाल की भीगी काली मिट्टी में गारे-पतले पाँव कैसे फिसल पड़ते हैं जैसे दही पर चल रहे हों। पावों की अंगुलियों के बीच की काली मिट्टी कैसी उगी-उगी सी लगती है न ? देह में कहीं स्पर्श हो, एक आयु में भोग जैसा ही लगता है। अँगुलियों की मच्छियाँ (बिछिया) काली मिट्टी में सन उठती हैं। मिट्टी से सने पैर ऊपर उठाते साड़ी भले ही पिंडलियों तक उठ जाए तो आप चौंकते नहीं कि किसी की ललचायी दृष्टि पड़ रही होगी और आप घबरा कर साड़ी नीचे करने लग जाएँ। कैसा उन्मुक्त है न सब ? कोई निषेध नहीं, कोई अवगुण्ठन नहीं। मन के साथ इस तन को भी जितना और जैसा चाहो भीगने दो। वृक्षों की भाँति अपनी देह को भी भीगने देने की उन्मुक्तता, आनन्द और सुख कितना अप्रतिम होता है यह किसी श्रावणी-सोमवार के वन-विहार के दिन बहू बन कर ही अनुभव किया जा सकता है।

परन्तु भाद्रपद में मात्र वृष्टि ही नहीं होती बल्कि मूसलाधार वृष्टि होती है। दिनों नहीं बल्कि आठ-आठ दस-दस दिन तक मेघ छँटने का नाम ही नहीं लेते। कितने ही पर्तों और रंगों के मेघ उन दिनों आकाश में भरे होते हैं कि पता ही नहीं चलता। कम्बल ओढ़े नेवतियों से गिरते पानी की अनवरत आवाज सुनते बैठे रहने के अलावा आप और कुछ कर ही नहीं सकते। सूर्योदय और सूर्यास्त का प्रश्न ही नहीं। सूर्य के दर्शन करके उपवास तोड़ने वाली स्त्रियों को दो-दो, तीन-तीन, दिन से ज्यादा भूखा रह जाना पड़ता है। पेड़ों की फुनिगियों तक झुक आए मेघ कैसे वाचाली भाव से बरसते ही चले जाते हैं जैसे नवागता भाभी के सामने देवर वाचाल हो जाते हैं। श्रावण में जो नदी-नाले चलने लगे थे वे भाद्रपद में कैसे अनुभव सम्पन्न स्त्रियों की भाँति खिलखिलाकर दौड़ने लगते हैं। मालवे का सारा भीगा पठार की पखावज को नदी की अंगुलियों से भाद्रपद बजा रहा हो। मालवी नदी-नालों से पूर (बाढ़) आती है तब भी यहाँ कभी अतिवृष्टि नहीं होती। प्रत्येक मूसलाधार वृष्टि के बाद ऐसा लगता है कि जैसे अर्घ्यजल था जो लुढ़क कर बाहर आ गया।

 इस सलवटी धरती में ठहरता कुछ नहीं। उत्तरी पठार का सारा जल नालों से दुहता हुआ नदियों, और नदियों से बड़ी नदियों में पहुँच मालवी पठार और कालांतर लाँघ कर गंगा-यमुना के मैदान में पहुँच जाता है। गाम-गोयरे के नदी नाले कालीसिंध और क्षिप्रा से होते हुए पार्वती में मिलते हैं और पार्वती, चम्बल के दुर्गम काटों और निर्जन जंगलों से होती हुई यमुना में विसर्जित होकर अगत्या तीर्थराज प्रयाग में पहुँच कर मालवी पठार की पार्वती भी गंगा बन ही जाती है। मालवे का उत्तरी जल जहाँ एक ओर बँगाल की खाड़ी से जुड़ा हुआ है वहाँ दूसरी ओर दक्षिणी-जल, नर्मदा के मध्य से ओंकारेश्वर-महेश्वर के तापसी काँठों से होता हुआ अरब-सागर से जुड़ा हुआ है। अधिकाँश पठारी जल ढलँग जाता है तब भी वर्षा भर के लिए तालाब, बावड़ियाँ, कुण्ड कुएँ, सब जल भरे रहते हैं। कमल और सिंघाड़े ईख और पूँखड़े, गेहूँ और कपास की प्यास बुझाता मालवी पठारी बिल्लौरी जल खेतों-खेतों बहता रहता है। तभी तो इस शस्य श्यामला माटी वाले मलवे के लिए प्रसिद्ध है कि-मालव धरती गहन-गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर !!


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