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वैजयंती - भाग 1

चित्रा चतुर्वेदी

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :482
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2362
आईएसबीएन :00000

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भगवान श्री कृष्ण के जीवन पर आधारित उपन्यास......

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Vaijayanti (1)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भाद्रपद की अंधियारी अष्टमी को मथुरा के कारागार में शिशु के रूप में क्रांति का जन्म हुआ। बालकृष्ण भावी क्रांति का प्रतीक ही बन गया। क्रांति के इस मस्त बाल-सूत्रधार का वध करवाने के अधिनायक कंस के सारे प्रयास विफल होते हैं। अक्रूर बलराम श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाते हैं। ब्रज रोता है, कृष्ण को रोकता है। राधा नहीं रोती। राधा नहीं रोकती। वह राधा है, बाधा नहीं।

वसुदेव सुत की क्षमता में एकाएक ही कृष्ण की भूमिका बदल जाती है। जननायक बन, कंस का वध करके वे स्वेच्छाचारी शत्रु से शौरसेन प्रदेश को मुक्ति दिलाते हैं। यादवों के प्राचीन अंधक-वृष्णि संघ राज्य तथा गणतंत्र की पुनर्स्थापना करते हैं। फिर उज्जयिनी में शिक्षा प्राप्ति, गुरुपुत्र की खोज, जरासंध के आक्रमण और यदुवंशियों को उनसे बचाने हेतु सौराष्ट में द्वरिकापुरी का निर्माण।

युद्धों से जीर्णशीर्ण अंधक-वृष्णि संघ सिंधुतट पर बस कर समृद्ध होने लगता है रुक्मिणी हरण, जांबवती, सत्यभाभा से विवाह के प्रसंग रोचक हैं। श्रीकृष्ण के एकालाप अद्भुत हैं। अन्तर्मन में सतत खोज चलती है। एक श्रेष्ठ विधि-प्रेमी सम्राट की। जरासंध-वध वह धमाका है जिससे शक्तिशाली राजकुल थर्रा जाते हैं और स्वेच्छाचारी-तंत्र का अंत सन्निकट आ जाता है।   

वैजयंती श्रीकृष्ण के जीवन, कर्म, आदर्शों, विचारों और अलौकिक प्रेम की रस भीगी अनुपम गाथा है। ग्रामीण परिवेश में पले कृष्ण का विकास विविध दिशाओं में होता है और वह शीघ्र ही एक अपूर्व रंग-बिरंगे बहुआयामी व्यक्तित्व से संपन्न हो जाता है। ‘वैजयंती’ में ब्रज की सौंधी सुवास और छाछ है, वेणुवादन, आनन्द और महारास है। किन्तु रह-रह कर श्रीकृष्ण के मन में एक अजानी सी पुकार उठती है, आह्वान करती है, चल पड़ने को। कुछ विशिष्ट करने को। और श्रीकृष्ण जन नायक बन चल पड़ते हैं क्रांति का शंखनाद करके कंस के अधिनायक तंत्र का मूलोच्छेदन करने। राधा नहीं रोकती। वह बाधा नहीं, राधा है।

प्रथम खंड में स्वप्नलोकीय कोमलता और माधुरी है, गीत, प्रीति और लालित्य के मध्य शस्त्रों की झनझनाहट है। वहीं द्वितीय खण्ड में क्रूर यथार्थ है और टंकारों तथा हुंकारों के मध्य प्रेम की मृदुल फुहारें और प्रीति-विह्वल मन की गुहारें हैं।

चारों ओर फैली अराजकता, अनैतिकता और स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध कर्मयोगी का संघर्ष चलता है और उनकी वैजयंती पताका सदा फहराती रहती है। वैजयंती के पाठक पाएँगे राधा, गोप-गोपी, रुक्मिणी, सत्यभाभा, जांबवती तथा सुभद्रा को एक अनूठे ही रंग में। पाठक यह भी पाएँगे अर्जुन, विदुर, भीष्म कर्ण, संजय और उद्वव को अनूठे स्वरूप में। भीष्म और विदुर को कैसे ज्ञात हुआ था कि कर्ण कुन्ती का पुत्र है ? अपने पौत्रवत् श्रीकृष्ण को देखते ही भीष्म का मुखमंडल खिल क्यों पड़ता है ? अर्जुन में ऐसा क्या है जो श्रीकृष्ण उस पर मुग्ध हैं ? उद्धव में क्या विशेषता है जो उन्हें ही अपनी थाती सौंपते हैं ? संजय और धनंजय ही गीता सुनने के अधिकारी क्यों हुए ?
और फिर............राधा का क्या हुआ ?
‘वैजयंती’ में कुछ नवीन न हो तो भी कुछ अपने आप अलग और विशिष्ट अवश्य है।

आभार


 यह पुस्तक आस्था से लिखी गई है, आस्थावनों के लिए लिखी गई है।
द्रौपदी पर आधारित उपन्यास ‘महाभारती’ लिखते समय ही न जाने कब श्रीकृष्ण चुपचाप मन में पधार गए थे। फिर तो मन को उनके रंग में रंगना ही था।

‘‘ज्यों ज्यों बूढ़े श्याम रंग
त्यों त्यों उज्ज्वल होय....’’!


कितने वर्षों से ‘वैजयंती’ माला गँथ रही हूँ, इसका कोई हिसाब नहीं। कुछ अंश तो सन् 82 के लिये हुए हैं। सांसारिक कर्तव्यों, महाविद्यालयीन कार्यों के कारण कई बार तो एक-एक साल तक वैजयंती की फाइल बन्द पड़ी रह जाती थीं। कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो जातीं, सूत्र टूट जाते। यह भी शायद चमत्कार ही हो जो विपरीत परिस्थितियों में भी वनलीला, नगरलीला तथा श्मशानलीला को जैसे तैसे कुछ आकार दे सकी हूँ।
सर्वप्रथम मैं ब्रह्मलीन महाराज श्री स्वामी अखंडानंद जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहूँगी जिन्होंने समय-समय पर श्रीकृष्ण के क्रांतिकारी स्वरूप पर रुचि लेकर चर्चा की तथा मुझे प्रेरणा दी।

मैं आदरणीय डॉ. विद्यानिवास जी मिश्र के प्रति आभारी हूँ, जिन्होंने सदा प्रोत्साहन दिया तथा सुझाव भी दिए। अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी (अवकाश प्राप्त आई.ए.एस. भोपाल) ने पांडुलिपि आद्योपान्त पढ़ी और निरन्तर रुचि लेते रहे। भाई ब्रजेन्द्र चतुर्वेदी का योगदान भी इस प्रकार सकारात्मक रहा, उन्हें भी धन्यवाद। विगत दस-बारह वर्षों की इस साधना में कई बार मनोबल हारी हूँ, किन्तु मित्रों के सहयोग के कारण पुनः साहस अर्जित कर लेती थी। मैं अपने उन सभी मित्रों और विशेष रूप से सुश्री उषा शुक्ला (जिला एवं सत्र न्यायाधीश) को हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। भतीजे चिरंजीव हेरम्ब चतुर्वेदी (सुपुत्र स्व. शरद चन्द्र जी) से काफी भाग दौड़ करवाई है, उन्हें स्नेहाशीष।

(श्रीधाम वृंदावनवासियों और ‘आनन्द-वृंदावन’ आश्रम के प्रति हार्दिक कृतज्ञता अनुभव करती हूँ। भाई श्रीवत्स गोस्वामी से समय-समय पर चर्चा होती रही, वे धन्यवाद के पात्र हैं। मैं इस अवसर पर स्व. मगनलाल जी शर्मा तथा उनकी पत्नी स्व. श्रीमती उमा शर्मा को भरे मन से स्मरण करती हूँ जिन्होंने ‘वैजयंती’ के लेखन में सदा रुचि ली किन्तु प्रकाशित रुप में इसे देख न पाए।
आदरणीय स्वामी ओंकारानन्द जी एवं स्वामी गोविन्दानन्द जी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं। आनन्द-वृन्दावन’ के सुरम्य वातावरण में दीर्घ अवकाशों में अध्ययन, मनन, मंथन व लेखन उन्हीं के कारण संभव रहा। आश्रम के ग्रंथालय का लाभ भी उसकी कृपा से उपलब्ध रहा। उसके प्रति मैं हृदय से आभारी हूँ।

‘‘वैजयन्ती’ को बार-बार टाइप करवाना पड़ा है और श्री आर.जी. तँवर ने जिस दक्षता और रुचि से यह कार्य किया है, इसके लिए उन्हें धन्यवाद।
‘‘वैजयन्ती’ के आवरण के चित्रकार के प्रति भी मैं आभार व्यक्त करना चाहूँगी जिन्होंने ‘वैजयन्ती’ की मूल भावना को समझा तथा शायद उसमें अन्तर्निहित भावना को ही उकेर दिया है। यह चित्र वृन्दावन की प्रीति-विह्वल गोपी का भी हो सकता है और जयदेव के गीत-गोविन्द की भुग्धा नायिका राधा का भी।
अन्त में मैं ‘लोकभारतीय प्रकाशन’ को हृदय से धन्यवाद प्रेषित करती हूँ। युगल बंधु श्री रमेशचन्द्र जी तथा श्री दिनेश चन्द्र जी ने ‘वैजयन्ती’ के न केवल प्रकाशन में ही गहरी रुचि ली बल्कि वे सतत प्रयासशील रहे कि ‘वैजयन्ती’ को एक गरिमामय तथा सुन्दर स्वरूप भी मिले। ‘वैजयन्ती’ के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन के पीछे उनका अथक परिश्रम तथा मनोयोग है। उन्हें पुनः धन्यवाद।
अभी और भी बहुत कुछ कहना शेष है, पर वह बात तब कहूँगी जब आप ‘वैजयन्ती’ के दोनों खंड पढ़ चुके होंगे। अर्थात् द्वितीय खंड के अन्त में।


कार्तिका’

वेणुवन



सांझ उतरती आ रही थी। झुटपुटा गहराता जा रहा था। मथुरा के कारागार की दैत्याकार प्राचीरें अधिक भयावह होती जा रही थीं। कुछ प्रहरी हाथों में प्रज्ज्वलित उल्काएं लिए विराट स्तंभों में बने दीपधारों में दीप प्रज्ज्वलित करते हुए घूम रहे थे। किंतु कारागार की ऊंची भित्तियों और चौड़े स्तंभों पर जमा हुई मोटी काई और धुएं की परतों के कारण, दीपों से भी उन अंधेरे गलियारों में पर्याप्त प्रकाश संभव न था। कारागार के बुर्जों में बसने वाले असंख्य कपोत अपने–अपने आश्रय स्थलों में लौटने लगे थे। दूसरी ओर रात्रि-विहग अपने-अपने आश्रयस्थल से निकल कर अब भयानक चीत्कार करते हुए चारों ओर फड़फड़ाने लगे थे। बूढ़ा पुरातन उलूक अपनी विशाल काया को किसी भांति खींच, हर सांझ की भांति सबसे ऊंचे बुर्ज पर आकर बैठ चुका था। धीरे-धीरे उस विशाल-उलूक-परिवार के अन्य असंख्य सदस्य भी अंधेरे में गोल-गोल नेत्र चमकाते और भांति-भांति की भयंकर ध्वनियां करते हुए समूचे कारागार पर अपने अपशकुनी स्वामित्व का बोध कराने लगे।

प्रांगण में एक अलिन्द पर पद्मासन में बैठे वसुदेव ध्यान-मग्न थे। अनायास उनका ध्यान भंग हुआ। वे चौंक पड़े।
अस्त-व्यस्त रूखे बालों को बिखेरे, दोनों हाथों की बंधी हुई मुट्ठियां आकाश में उठाए वह उन्मादिनी सी उनके सामने खड़ी थी। मोटे-मोटे हाथों के मध्य उसके उभरे हुए दांत बाहर निकल आए थे। और कोई होता तो उसका यह प्रेतिनी सा रूप देखकर कांप जाता भय से।
‘अहो ! माया ! क्या हो गया तुझे ? ऐसे क्यों खड़ी है। कंस तुझे ‘कराला’ पुकारता है तो क्या आज सचमुच कराल का रूप धारण कर मुझे डरा रही है ?’—वसुदेव स्मित हास्य से बोले।
उसके फटे नेत्र, किंतु, वैसे ही स्थिर थे। आकाश की ओर तने हाथों की मुट्ठियां और कस कर भिंच गईं।

‘माया ! तू जानती है कि मैं तुझसे कभी भयभीत नहीं हो सकता। किंतु इस भंगिमा में उस कोमलमना के सामने न पहुंच जाना। देवकी तो भय से चीत्कार कर उठेगी। हां, किंतु पहचानते ही लिपट जाएगी तुझसे। तेरे कारण ही तो जीवित है बेचारी। तू तो उस दुखिया के लिए माता के समान है।’
एकाएक माया के विस्फारित नेत्रों में बाढ़ आ गई। आकाश में तने हुए हाथ शिथिल हो झूल गए और वह पंख-कटी पक्षिणी की भांति गिर पड़ी भूमि पर।

‘अरे...अरे ! तू आज इतनी विचलित क्यों है ? कुछ कष्ट है तुझे ?’—वसुदेव ने विस्मित होकर स्नेह से पूछा।
‘कष्ट ! हां देव ! भयंकर कष्ट ! भयंकर यातना। देव ! एक भीख मांगने आयी हूं आज...मना न करना प्रभो !’—भर्रा कंठ से माया ने कहा और आंचल फैला कर रो पड़ी। ‘भीख ? और मुझसे ? मैं तो स्वयं ही इतना दीनहीन हूँ। प्रतिवर्ष मेरा वैभव, मेरी पूंजी लुट जाती है। मुझसे भिक्षा में क्या मांगना चाहती है ? धीरज ? क्षमा ?....सहनशक्ति ? यही तो है मेरे पास....और यह भी धीरे-धीरे चुकता जा रहा है’—वसुदेव कहते-कहते अन्त में उद्विग्न हो उठे।

‘नहीं देव ! धरे रहें अपनी यह सहनशक्ति अपने ही पास।...यह धीरज और यह उदारता धरे रहें अपनी। आपका यह मौन....यह क्षमाशीलता मेरे शत्रु हैं। मुझे नहीं चाहिये इनमें से कुछ भी। किंतु मेरी एक विनती न ठुकराएं देव...बस मेरी...एक अनुनय मान लें, प्रभो ! मुझे उपकृत करें’—वह दीन भाव से गिड़गिड़ा उठी।
वसुदेव आश्चर्यचकित थे।

‘बोल...क्या चाहती है, माया ! इतनी उद्विग्न क्यों है आज तू ?’
‘प्रभो !’—अचानक उसका स्वर सुस्थिर और सृदृढ़ हो चला। मुट्ठियां भिंच गईं और आकाश की ओर तन गईं।
‘प्रभो ! अब जन्म लेने वाला...अपना सातवां शिशु आप कंश को नहीं सौंपेंगे, यही भिक्षा चाहिये।’
वसुदेव के नेत्र स्फरित रह गए। वे सहसा कुछ बोल न पाए।
‘नहीं देव ! अब बहुत हो गया। मुझ पर विश्वास रखें। ऐसे वज्र न बने रहें। अपनी सातवीं संतान मुझे सौंप दें। मैं रक्षा करूँगी। बोले देव !...हां’ कह दें प्रभो !’
वसुदेव स्तंभित थे अद्भुत विनती सुनकर।
‘एक बार ! बस एक बार मुझे अवसर दें ! देवी देवकी का दुःख देखा नहीं जाता। राजा की निर्दयता सही नहीं जाती। और आप जो ऐसे हिमालय की भांति धीर-गंभीर वीतराग साधु बने रहते हैं, इस महामौन के पीछे अनवरत होती रहती है हलचल को क्या मैं समझ नहीं पाती ? नहीं प्रभो ! अब नहीं। बस एक बार मेरी विनती मान लें...सातवें शिशु की रक्षा का भार मुझे सौंपें प्रभो।’—माया वसुदेव के चरणों पर शीश रख कर फूट-फूट कर रो पड़ी।

                                    

माया सुदृढ़ काठी मझोले कद की एक चौड़ी सी महिला थी। वह कंश की अत्यंत विस्वासपात्र धात्री थी जो कारागार में देवकी की देखभाल व उस पर सतत निगरानी रखने हेतु नियुक्त थी। कुरुपता और कठोरता  के साथ-साथ मात्र एक ही नेत्र की स्वामिनी होने के कारण उसका नाम विरुपाक्षी पड़ गया था। किंतु राजा कंस ने उसके हृदय की कठोरता की राजकीय मान्यता देकर उसका नाम ‘कराला’ कर दिया था। इन दो नामों के अतिरिक्त उसका ‘माया’ नाम अधिक प्रचलित था जो उसके द्वारा मायाविनी शक्ति को सिद्ध करने के कारण पड़ गया था। उसे लिए ‘असंभव’ शब्द कोई अर्थ न था। संसार में ऐसा कोई कार्य न था जो वह माया द्वारा न कर सकती हो।

राजा ने उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर जो समय-समय पर उसे स्वर्णाभूषण दिए थे, उन्हें अपने श्यामवर्ण पर चाँदी और गजदंत के आभूषणों के मध्य पहन कर गर्वोन्मत होना कभी कभी उसे बड़ा भाता रहा था।
वास्तव में वह पाषाण-हृदया थी। प्रारंभ में देवकी उससे थर-थर कांपती थी। किंतु कंस ने देवकी के नवजात, मृदुल-पारिजात से प्रथम शिशु को जिस क्षण पाषाण-शिला पर पछीटा, माया का पाषाणहृदय एक अनपेक्षित भूकंप के धक्के से हिला....दरका...और चटक गया। अन्तर के किसी कोने में सिमटी-सिमटाई, दबी बैठी हुई मां हाहाकार कर उठी। उसे लगा जैसे उसके पुत्र लौहक को ही शिला पर पछीट दिया गया हो। कंस के निर्मम अट्टहास को सुनकर तब पहली बार उसकी इकलौती आंख छोटी होकर कंस पर चिपकी रह गई थी। घृणा-पूरित  दृष्टि !

उस नेत्र में बिजली की कौंध थी और खड्ग की तीक्ष्ण धार भी थी जो उसी समय कंस को दो फांक कर सकती थी।
अनायास वह अंधी बन उठी। झंझा बन गई। कंस के जाते ही वह चक्रवात सी तीव्र गति से देवकी के कक्ष की ओर दौड़ चली। द्वार पर आकर ठूँठ सी खड़ी रह गई निश्चल।
सत्रह वर्षीया अल्पवयस देवकी दारुण-पुत्र शोक से व्याकुल हो शय्या पर जलहीन मछली सी तड़प-तड़प कर हाहाकार कर रही थी।

और...फिर ! वह अंधी अथवा झंझा न रही। माया तत्काल घटा बनकर सावन-भादों सी झरझराकर बरस पड़ी देवकी को अपने वक्ष में भर कर।
देवकी के सघन केशों को सहलाते और उसके आहत मर्मस्थल को अपनी करुणा से भिगोते हुए विरुपाक्षी माया सारी रात देवकी को अंक में थामे बैठी रह गयी थी। उसका मन उसे धिक्कार उठा था। अति सौम्या देवकी के कातर-मुख की ओर देखना भी दुरूह हो गया उसके लिये।

‘किस पाप का फल दे रहा है विधाता तुझे, मेरी पुत्री ?’ देवकी और माया प्रतिदिन ऐसे ही लिपट कर रोती रहतीं। अनजाने में माया की भूमिका बदल चली। वह कंस की विश्वास पात्र परिचारिका व धात्री थी परन्तु अब वह दुखिया देवकी की माता सी बन चली। उसे स्वयं भी भान न हो पाया कि कब से वह अपने आप वसुदेव-देवकी की संरक्षिका बन गई।
जब कभी अकेली होती तो माया घंटों बातें करती रहती कारागार की प्राचीरों और स्तंभों से। लौह श्रृंखलाओं से। पूछती थी उनसे—कि जब सुदृढ़ प्रस्तर-भित्तियां भी कांप सकती हैं, तो मेरा मन क्यों न कांपे ? हा, देवकी के उस नवजात शिशु के नन्हे से कंठ से पक्षी-शावक की भांति ‘चीं’ तक न निकल सकी और....उसका क्षतविक्षत नन्हा तन छितर गया शिला पर।


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