बहुभागीय पुस्तकें >> उत्तर कथा - भाग 1 उत्तर कथा - भाग 1श्रीनरेश मेहता
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देश और काल के विशाल फलक पर चलते साधारण मनुष्य की बड़ी-छोटी परछाइयाँ ही यह संसार है.....
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
हमारी बीसवीं शती ने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में आमूल परिवर्तन किया है,
फलतः व्यक्ति का निजी और समाज का सामाजिक जीवन एक ऐसी दुरभि, विषमता और शून्यता में खड़ा हो गया है कि जिसे न तो स्वीकारते ही बनता है और न उससे
विमुखते ही। आधुनिकता के नाम पर स्वत्व के बिखराव की सीमा यह आ गयी है कि
वह न केवल अजनबीपन ही अनुभव कर रहा है बल्कि एकाकीपन के आदिम-भय की आधुनिक मानसिकता से ग्रस्त है। आज की राजनीति और राज्य, व्यक्ति और समाज की अस्मिता, स्वत्व और मूल्य सबका अपहरण करके सम्पूर्ण वर्चस्व को ही समाप्त
कर देने पर ही तुले हैं। सारी मानवता एक ऐसे अन्धे मुहाने पर पहुँच चुकी
है कि इसके बाद या तो व्यक्ति की आत्महत्या हो या पूरे समाज का सर्वनाश
हो। इसका तात्पर्य यह नहीं कि ऐसा होगा ही, क्योंकि मनुष्य की ही नहीं,
सृष्टि की भी अपनी सत्ता, अस्मिता और संकल्प है।
‘उत्तरकथा’ के इस प्रथम खण्ड में व्यक्ति और समाज के बिखराव की जो श्लथता सन् ’30 तक थी, वही वर्णित हुई है। गति तो द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद तथा हमारे सन्दर्भ में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद आयी है, अतः यह प्रथम खण्ड, द्वितीय खण्ड की भूमिका जैसा ही है।
किसी भी उपन्यास की भूमिका में इससे अधिक कहना उचित नहीं है। हाँ, ‘यह पथ बन्धु था’ का जैसा स्वागत हुआ था उसके लिए मैं सबका आभारी हूँ। उस उपन्यास की पहचान बनाने में बन्धुवर श्री नेमिचन्द्र जैन ने जो सदाशयता दिखलायी थी उसके प्रति विनम्र ही हुआ जा सकता है। इसी प्रकार डॉ. इन्द्रनाथ मदान, डॉ. रामदास मिश्र आदि विद्वानों ने जो रेखांकन किया वह अविस्मरणीय है। डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र ने उस पर जो समीक्षा पुस्तक लिखी वह आज भी अप्रतिम है।
वैसे मैं नहीं कह सकता कि यह उपन्यास कितना कुछ लोगों की अपेक्षाओं की पूर्ति करेगा एवं तुष्टि भी।
इति नमस्कारन्ते।
‘उत्तरकथा’ के इस प्रथम खण्ड में व्यक्ति और समाज के बिखराव की जो श्लथता सन् ’30 तक थी, वही वर्णित हुई है। गति तो द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद तथा हमारे सन्दर्भ में स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद आयी है, अतः यह प्रथम खण्ड, द्वितीय खण्ड की भूमिका जैसा ही है।
किसी भी उपन्यास की भूमिका में इससे अधिक कहना उचित नहीं है। हाँ, ‘यह पथ बन्धु था’ का जैसा स्वागत हुआ था उसके लिए मैं सबका आभारी हूँ। उस उपन्यास की पहचान बनाने में बन्धुवर श्री नेमिचन्द्र जैन ने जो सदाशयता दिखलायी थी उसके प्रति विनम्र ही हुआ जा सकता है। इसी प्रकार डॉ. इन्द्रनाथ मदान, डॉ. रामदास मिश्र आदि विद्वानों ने जो रेखांकन किया वह अविस्मरणीय है। डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र ने उस पर जो समीक्षा पुस्तक लिखी वह आज भी अप्रतिम है।
वैसे मैं नहीं कह सकता कि यह उपन्यास कितना कुछ लोगों की अपेक्षाओं की पूर्ति करेगा एवं तुष्टि भी।
इति नमस्कारन्ते।
परिणय-प्रकरण
गर्मियों की एक सन्ध्या।
साँझ पड़े ज्येष्ठ की लू-आँधियों के थपेड़े कुछ कम हुए हैं। दिन भर के तमतमाये आकाश में अब जाकर दो-चार तोते या कौवे उड़ते-बोलते दिखायी देने लगे हैं। सारा वातावरण कैसा भाप भरी पतीली सा था। उपरले आकाश में सारस-मिथुन, डूबी-डूबी सी आवाज करते अपनी लम्बी यात्राओं पर जाते देख कर शारदीया धूप का बिल्लौरीपन और गुनगुनापन याद आने लगता है। अवश्य ही किन्हीं अक्षांशों पर शारदीया धूप का नीबुई पीलापन खिला होगा। पाखियों को उड़ानें भरते देखकर कैसा विश्वसनीय सा लगता है कि नहीं, लू और उसका अहंकार ही सब कुछ नहीं है बल्कि आकाश अभी भी अपराजित नील है और जिससे यात्राएँ सम्भव हैं अन्यथा दोपहर में क्या ऐसा विश्वास कहीं था ? उस समय तो सब अण्डे की सफेद झिल्ली से मँढ़ा-मँढ़ा सा लग रहा था। वातावरण में साँय-साँयपन था परन्तु पेड़ तक साँस नहीं ले रहे थे। अब जाकर पश्चिमी क्षितिज पर अरींठ सुलगने की तैयारी हो रही थी। निश्चय ही अरींठ का ऐसा सुलगना असहनीय लग रहा था पर एक प्राकृतिक कर्तव्य था, जो सम्पन्न हो रहा था। गर्मियों के सूर्यास्त में कैसी ताँबे की सी शक्ति निरभ्र चमक होती है—लाल सुर्ख !! मांत्रिक-नेत्रों वाली, जैसे कंडियों की आग हो, जिसका देखना नहीं हो पाता है बल्कि आपमें वह उतरती ही चली जाती है।
दिन-दोपहर में पठारी नंगी पहाड़ियों की जलती चट्टानों को छूती हवाएँ लपट बनी सपाटे मारती रही हैं जैसे घोड़े पर दौड़ते पीर के सफेद कपड़े हों; परन्तु इस समय हवा में उतनी गरमी नहीं रह गयी थी, फिर भी दिन भर की लू-आँधी के कारण भूरे और थके आकाश को देखकर गरमी का आभास अभी भी था। गहन दर्द के बीत जाने के बाद भी जिस प्रकार उस दर्द की गमक शेष रह जाती सी लगती है लगभग उसी गरमी का आभास पेड़ों के पत्तों को छूने पर हो रहा था। चट्टानें तो अभी भी चिल्ला-चिल्लाकर गरमी की शिकायत कर रही थीं; परन्तु धरती में विनम्र ठण्डापन आ चला था। सुदूर के क्षितिज में अभी भी बगूले देखे जा सकते थे। आकाश की पारदर्शी झीनी, नीली पीठिका में आवर्तित होते बगूले, धूल के खम्भों की भाँति कैसे मोटे-मोटे खड़े होते और जब क्षीण होते हुए अपनी कीलि पर घूमते ये खम्भे ऊपर उठ कर विलीन होते, तब उस विराट सूनसान में कैसा भय लगने लगा। पुराणों में इन धूल-खम्भों को जो घूर्णावर्त का व्यक्तित्व दिया गया है, वह कितना सार्थक लगता है। इक्की-दुक्की खजूर के या आम के अतिरिक्त कोसों तक न कोई गाँव, न देहात। सब कुछ जुआर की पीले-पीले सूखे राड़ों सा जलहीन। सुदुर तक भूरी, छोटी पहाड़ियों का या तो वृक्षहीन क्रम होता या फिर कँकरीली, धूल भरी धरती का गरवटों और पगडंडियों भरा उदास विस्तार कितना फीका-फीका सा फैला लगता। भूले-भटके यदि कोई पगडण्डी दिख भी जाती तो वह भी जल्दी ही भूमि के पठारीपन में मालवी नद्दी सी ओझल हो जाती। खजूर और बबूलों के बीच से जाती एकान्त गरवट किसी नगण्य अकेले दुःख की भाँति लगती। यद्यपि उस प्रशान्त नितान्त निर्जनता में वह गरवट आश्वसित ही करती लगती।
कैसा पथ क्यों न हो, उसका सम्बन्ध अनिवार्यतः मानव के साथ होता ही है। पथ, इस पृथ्वी पर मानव का पर्याय है। प्रत्येक पथ से मानव की गंध आती है। राजपथ हो या वनपथ, उसकी परिणति मानव तक ले जाने में ही होती है। अब यह बात अलग है कि हमारे पहुँचने तक वह मानव तब तक इतिहास में जा चुका हो। प्रत्येक पथ, मानवीय नदी है। पगडण्डी अपनी विनम्रता में भी उतनी ही विश्वसनीय होगी जितना कि कोई अहंकारी राजमार्ग होता होगा। धरती पर यही तो एक मानवीय विश्वास पीछे छूटा रहता है। हम चले जाते हैं पर हमारा विश्वास और पुरुषार्थ न जाने किन-किन वनपथों, अरण्यों में पीछे छूटे रह कर ही जीवित रहता है। ये पथ, साधारण जनों के भाषाहीन शिलालेख हैं। इसीलिए व्यक्ति नहीं बल्कि उसके विश्वास और पुरुषार्थ के प्रति नमित, विनम्र होना चाहिए।
कृष्णा-माटी के मालवी खेतों में मकई-जुआर के सूखे-पीले डंठल, कीलों-खूटों से गड़े, खड़े थे। बबूलों की स्लेटी रंग की उदासी इस निर्जनता में छितरी पड़ी थी। जब कभी कोई वृक्षपाँत किसी चट्टानी पहाड़ी पर अकेली चढ़ी हुई होती तो उस पहाड़ की चट्टानता, कठोरता तथा प्रागैतिहासिकता कितनी लिखी लगती। जिजीविषा की इस अदम्यता पर हठात विश्वास करना कितना कठिन लगता है। इसी प्रकार बड़ी नदियों के भूरे काँठों की अजित दरारों में जब कभी कोई वृक्षकुल की बान्धवता सहसा नीचे उतर गयी होती तो चारों ओर की घोर वीरानता में बारम्बार यही प्रश्न मन में उठता कि क्या अदम्यता को ऐसा संकट मोल लेना ही होता है ? क्या बिना पृथ्वी के अन्तर में समाये ऊर्ध्व में जाना नहीं होता ? क्या बिना संकट के आह्वान के कुछ भी सार्थक की प्राप्ति सम्भव नहीं ? शायद संकट की समरसता का ही नाम प्रकृति है। नदी नीचे उतर कर, तो मेघ ऊपर चढ़ कर संकट की यह सामरस्य-यात्रा ही तो अहोरात्र सम्पन्न कर रहे होते हैं। हठीली भेड़ों की भाँति करौंदों की छिटकी छोटी गुल्मता का उस बीहड़ पठारीपन में क्या प्रयोजन हो सकता था, कहना कठिन है। अधिकांश नदी-नाले चिरे पेट की भाँति मृत एवं जलहीन थे। इन सूखे पड़े जलपथों की चट्टानें एवं कंकड़ दिन भर तपकर अब ठण्ढाने की तैयारी कर रहे थे। जलहीन तपे बर्तन सी कगारें थीं। उन्मुक्त जंगली गेंदे को लगता है कि कैसी ही लू-आँधी की कोई चिन्ता कभी नहीं रही, फलतः पीली घासों के लम्बे सिलसिले के साथ सदाबहार बना फूला हुआ चला गया था। गेंदे का साथ न केवल सिलायकाँटे के छोटे पीले फूल तथा धतूरे के सफेद फूल ही दे रहे थे बल्कि नागफनी और थूहर भी उतने ही उदार भाव से फैली हुई थीं।
चैत्र के बाद वैसे भी कचनार और पलाश उदास हो जाते हैं। अमलतास की पीलिमा न जाने कब की उड़ गयी होती है। कहीं—कहीं अवश्य ही सेमल के फूल झर रहे होते हैं। क्रूर-कठोर मौसम और कमनीय वानस्पतिकता को साथ देखकर मन में कितनी उलझन होती, परन्तु सेमल के ये अपवादी फूल कितने निश्चित भाव से दिगन्त यात्राओं पर निकले होते। वातावरण में खिरनी, करौंदा तथा आम की केरियाँ बोलने लगी थीं। जब दोपहर की अपनी स्वयं की तेज गन्ध होती है तब भले ही इन मौसमी फलों की गन्ध दब जाती हो परन्तु तीसरा प्रहर लगते न लगते आम गमकने लगता है। हाँ, केवड़ा प्रायः सबेरे के समय जितना मुखर होता है उतना अन्य बेलाओं में नहीं हो पाता। असल में उसकी गन्ध में एक विशेष कमनीयता होती है जिसे वहन करने के लिए हवा का पूर्ण निष्कलुष होना आवश्यक होता है। प्रत्येक कमनीयता अपनी अभिव्यक्ति के लिए सामने वाले से एक विशेष प्रकार की अकलंकता, तन्मयता तथा एकनिष्ठता की अपेक्षा रखती है।
नदी के कँकरीले पेटे को चीरती चली जाती गरवट पर एक दमनी (छोटी बैलगाड़ी) तथा एक घुड़सवार इस सारी प्रशस्त पठारी जड़ता में गतिवान लग रहे थे। आदत के कारण बैलों ने एक बार जल की आशा में अपनी थूँथें नदी पर झुकायीं अवश्य पर गरम पत्थर सूँघकर झटके से थूँथें हटा लीं। कंकरों पर दमनी के पहिये चिकारते हुए फिसल-फिसल पड़ रहे थे, अतः बैलों को खींचने में काफी कठिनाई हो रही थी। उनकी गर्दनें धरती में हल के फल सी खिंची पड़ रही थीं। बैलों को नदी में जल की आशा रही होगी तभी तो नदी में धँसने से पूर्व उतार कर कैसे हुमस कर वे उतरे थे पर अब बोझ को पत्थरों के बीच से खुर जमा-जमा कर घसीट रहे थे। गाड़ीवान यह समझ तो गया था अतः वह उनकी पूँछें उमेठे जा रहा था तथा पैरों से ठुमका देता जा रहा था। गर्मियों की शामें प्रायः हवाहीन हुआ करती हैं। विशेषकर उतरते ज्येष्ठ की यह हवाहीनता ही आषाढ़ के मेघों का मार्ग प्रशस्त करती है। पश्चिम ओर के अरब-सागर से आने वाले मानसून की प्रतीक्षा किसे नहीं होती ? छोटी चिड़ियों से लेकर बरात के हाथियों तक को मेघराजा की प्रतीक्षा होती है। और जब आषाढ़ का नक्षत्र आकाश में लगता है तब एक-एक फुनगी किस उत्साह से क्षितिज में उठते-घिरते मेघों को गुहारती होती है। परन्तु तब कौन किसकी सुनता है ? कोयल-कौवों की आपसी झड़प देखने की भी किसी को फुरसत नहीं होती क्योंकि उस समय समस्त जड़ और चेतन मेघों की ओर उठी हुई ग्रीवा बने होते हैं।
घुड़सवार, वर है तथा दमनी में छह वरयात्री हैं। वर का लाल ‘बागा-वस्तर’ तथा लाल मखमली कामदार जयपुरी जूतियाँ धूल में सन जाने के कारण लगभग बदरंग हो गये हैं। वर की कमर में खुँसी कटार की छोटी सी पीली म्यान अवश्य ही स्पष्ट दिख रही है। कमर में बँधे जरी किनारे के गुलाबी रेशमी उपवस्त्र के झालरदार फुंदे हवा में उड़ रहे थे। हल्दी रंगे मुख तथा काजल अँजी आँखों वाले वर के किशोर मुख पर दिन भर के तपन की ताम्रता, एक विशेष झाँईं दे रही थी। दिन भर की पठारी यात्रा के कारण दमनी के बैलों से अधिक थका तो घोड़ा लग रहा था। जीन के दोनों ओर रंगीन फुन्दे हवा में फुदके पड़ रहे थे। रास्ते की धूल-धक्कड़ और लू-लपट से बचने के लिए दमनी के यात्रियों ने अपने नाक-कान सारंगपुरी दुपट्टों से बाँध रखे थे। इस प्रकार ढाटे बँधे देख उन्हें डाकू समझा जा सकता था परन्तु उनकी गोल पगड़ियों से स्पष्ट था कि ये न तो इन्दौरी पगड़ियाँ बाँधें महाजन ही हैं और न ही देहाती पगड़ी वाले किसान-कुर्मी। ब्राह्मणों की यह विशिष्ट पगड़ी थी। फिर, भाल पर लगे लम्बे लाल वैष्णवी तिलक तथा भस्म के त्रिपुण्ड से स्पष्ट था कि ये लोग ब्राह्मण थे।
यात्रियों में पाँच वरयात्री हैं तथा छठा नाई है जिसने ‘ग्यास’ (पेट्रोमेक्स) पकड़ रखा था। गाड़ीवान ने बन्दूक जिस प्रकार कन्धे से लटका रखी थी उससे स्पष्ट था कि वह राजपूत था। दिन भर की इस लू-आँधी वाली यात्रा से सभी ऊबे हुए लग रहे थे। उनके लाल-पीले मलमल के कुरतों के नीचे पसीने से भीगी बनियानें साफ दिख रही थीं। फीके, भूरे बया के घोंसले, खुरासानी इमलियों की भाँति डालों पर लटके हुए जंगल के सन्नाटे की गलघंटियों की भाँति लग रहे थे। बारों मास गलघंटियों के सूनसान संगीत के साथ असंख्य बनपाखी या अनेक अकेली फाख्ताएँ वन को वाणी देते हुए उस आरण्यकता को न केवल और भी अकेला तथा नितान्त कर देती हैं—बल्कि सन्नाटा इतना कस उठा लगता है कि एक भी अतिरिक्त स्वर होने पर झनझनाकर वह सन्नाटा सदा के लिए ऐसा टूट जा सकता है कि उपरान्त और सब कुछ हो सकता है केवल वह सन्नाटा ही सम्भव नहीं। सन्नाटे की यह विशेषता होती है कि वह भी योगियों की ही भाँति एकान्तचारी होता है। एकान्त, जिस प्रकार अबाध होता है उसी प्रकार एकान्तचारी भी। केवल उसी की अपनी सत्ता एवं प्रभुता समुद्र की भाँति हिल्लोलती होती है। ऐसा एकान्त, बाहर नहीं अन्तर में बिराजा होता है। ऐसे एकान्त के साक्षात के लिए व्यक्ति का निष्णात होना आवश्यक होता है। वीणा अपना संगीत—केवल वादक को ही सौंपती है।
बरात को गोधूली के पूर्व ही वधु के ‘आवाह-द्वार’ लगना है। गोरज के लग्न हैं। और अब गाँव रह ही कितना गया है ? वोऽऽ नदी पेले पार का गाम-गोयरे वाला केवड़ा-स्वामी का वन दिखायी दे रहा है। पीपल पर हनुमान जी की लाल झण्डी जो दिखलायी दे रही है न, वही तो गाँव है।
--मर्रे, मर्रे डोबा !! डोबा !!
और गाड़ीवान की इस टिटकार पर झाग डालते दमनी के बैल पैर के ठुमके और आर चुभाये जाने पर शेष यात्रा पर पुनः दौड़ने का उपक्रम करने लगते हैं। घोड़े को भी गाँव की गन्ध आने लगी थी तभी तो वह हिनहिनाया। गाँव की नदी का उतार आ गया था। खाल जैसी नदी में नाम मात्र को ही जल था। दमनी अर्रा कर नदी के पेटे में धँस गयी। बालू ने किचकिचाकर पहियों को थाम लिया तथा जल की स्फटिकता ने बैलों की थूँथों को।
किसी सुदूर अतीत में हमारी इस पृथ्वी एवं सृष्टि की संरचना में आमूल एवं क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसके कारण भौगोलिक, वानस्पतिक एवं जैविक सामरस्य में बदलाव आया। कुछ वर्षों पूर्व तक प्रकृति के इस परिवर्तन की साक्षी केवल भारतीय श्रुतियाँ, स्मृतियाँ एवं पुराणकथाएँ ही थीं लेकिन इन स्रोतों के बारे में पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की सहमति न होने के कारण इन्हें बड़े सहज भाव से कपोल-कल्पित कह दिया जाता रहा; परन्तु आज के भूगर्भशास्त्रियों की प्रकृति की संरचना के बारे में जो वैज्ञानिक प्रमाण क्रमशः प्राप्त हुए और होते जा रहे हैं उनमें से भारतीय पुराणकथाओं में वर्णित घटनाओं और प्रकृति के ताण्डव-नृत्य की अकाट्यता सिद्ध होती है। इन प्राकृतिक घटनाओं एवं जैविक विकास-क्रम के संदर्भ में भारतीय अवतारवाद का सिद्धान्त तथा धर्म-ग्रन्थ प्रमाण माने जाने चाहिए।
ये धर्म-स्रोत श्रुति हैं या स्मृति, इस बारे में मतभेद सम्भव है परन्तु इनकी प्रामाणिकता के बारे में अब मतभेद संभव नहीं। वैसे भी चिन्तन, मनन और ज्ञान की उपलब्धियों के क्षेत्र में विज्ञान अभी मुश्किल से किशोर ही है, लेकिन प्रमाण की जिस प्रकार की आग्रहता एवं सत्य के लिए जिस निर्भय तटस्थता के साथ उसमें धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाकर जो अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की हैं उनके कारण वह आज के पदार्थिक उत्पादन वाले युग में हमारी चेतना का प्रमुख प्रवक्ता हो गया। इस कारण हम उतना ही सत्य स्वीकारते हैं जहाँ तक विज्ञान की गति एवं प्रगति है। विज्ञान के वर्तमान स्वरूप के पूर्व का ज्ञानार्जन परीकथाएँ हैं—यह मानना युग-प्रथा रही है। लेकिन लोग सामान्यतः नहीं जानते कि स्वयं आइन्सटीन जैसे वैज्ञानिक—महर्षि की दृष्टि में धर्म के सत्य और विज्ञान के सत्य में गुणात्मक कोई अन्तर नहीं रहा है। इस प्रकार की एकांगी मान्यताएँ एवं आग्रह, ज्ञान के निचले स्तर पर ही हुआ करते हैं। परन्तु न ज्ञान, न विज्ञान और न धर्म किसी भी क्षेत्र में निचले स्तर की इन आग्रही दृष्टियों का कभी कोई अर्थ नहीं होता है। धर्म और विज्ञान के माध्यमों में अन्तर है, सत्य की जिज्ञासा का नहीं। सत्य सदा एक ही होता है। संरचित एक ही अनेक हुआ करता है—एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ! अस्तु—
परिवर्तन के किसी काल में आज का पर्वत-पितामह के विन्ध्याचल जीवन्त ज्वालामुखी था। भूगर्भवेत्ताओं का यह गणित-सिद्ध विश्वास है कि विन्ध्या की यह ज्वालामुखी जीवन्तता पचासों हजार वर्ष पूर्व थी। पुराणों की अगस्त्य मुनि की दक्षिण-यात्रा के समय उद्दण्ड विन्ध्या को विनम्र बने रहने की आदेश-कथा का सम्बन्ध इसी ज्वालामुखी युग से है। सूर्य के रथ—को अपनी प्रचण्ड ज्वालाओं से रोक लेने की इच्छा रखने वाला विन्ध्या तब से विनम्र बना हुआ है क्योंकि उसे अगस्त्य के दक्षिण से लौटने की प्रतीक्षा है। इस काव्य-भाषा में ज्वालामुखी विन्ध्य के क्रमशः शान्त होते जाने का स्पष्ट संकेत है। काव्य या साहित्य, जीवन के यथार्थ को इसी प्रकार के बिम्बों, प्रतीकों और रूपकों में प्रस्तुत करते हैं। काव्य या साहित्य अपने स्वरूप और भाषा में नहीं, बल्कि प्रयोजन में यथार्थवादी होते हैं।
विन्ध्या से सम्बन्धित इस पुरा-कथा को तब प्रमाण माना जाए या मात्र श्रुतियों-स्मृतियों की कल्पना, कहना कठिन है; लेकिन क्या यह भी उतना ही सत्य नहीं है कि भारतीय मनीषी की स्मृति में श्रुतियों से चली आती पचासों हजार वर्ष पूर्व की एक प्राकृतिक घटना थी ? स्पष्ट है कि अत्यन्त सुदूर अतीत में इस देश की भौगोलिकता में आधारभूत परिवर्तन हुए। समस्त पृथ्वी पर विभिन्न द्वीपों-महाद्वीपों का प्रतिटूटना-जुड़ना चल रहा था। सृष्टि के इस क्रम को भारतीय मनीषियों ने ‘नृत्य’ संज्ञा से अभिव्यक्त किया। इस नृत्य की उद्दामता ‘ताण्डव’ कहलायी और शांतिमयता ‘लास्य’। वैसे कुछ भी अधिकारपूर्वक कहना कठिन है कि ‘प्रलय’ नामक विश्वविश्रुत घटना का तथा विन्ध्या के ताण्डव से कुछ सम्बन्ध था या नहीं। यह सम्भव है कि कालान्तर में प्रकृति एवं भूगोल के समस्त परिवर्तनों के लिए सार्वभौमिक संज्ञा ‘प्रलय’ दे दी गयी हो। वैसे भी प्रलय, उथल-पुथल का ही पर्याय है। सामान्यतः प्रलय संज्ञा से जिस घटना का बोध करवाया जाता है वह जल-प्लावन या जल-प्रलय है। निश्चय ही यह दहन युगों तक चला होगा। अगस्त्य की दक्षिण-यात्रा, हिमालय का जन्म तथा विन्ध्या का अपेक्षाकृत शान्त होते जाना लगभग एक ही समय हुआ होगा। यह भी बहुत असम्भव नहीं लगता कि भूमि की तलाश में मनु उत्तर की ओर गये और अगस्त्य दक्षिण की ओर।
प्रलय-पूर्व की देव-संस्कृति, क्यों और कैसे विनष्ट हुई इस आधारभूत एवं तात्विक समस्या को जब तक नहीं सुलझाया जाता तब तक मनुष्यता और इतिहास के बारे में प्रतिपादित सारे आधुनिक सिद्धान्त नितान्त अवैज्ञानिक हैं। उस संस्कृति का एकमात्र प्रमाण-मानव-जाति के पास वेद है, जिसकी सत्यता को पाश्चात्य मानसिकता के कारण हम कपोल-कल्पना मानते आये हैं। विज्ञान एक दिन अवश्य ही इस प्रलयवाली घटना की वास्तविकता को खोज निकालेगा और तभी वेदों के रचना-काल, उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर भी यथार्थपरक प्रकाश पड़ेगा। जैविकता और ज्ञान के काल का प्रतिमान ईसा या बाइबिल में वर्णित समय को मानना निरी हास्यास्पदता है। इसीलिए विज्ञान की प्रगति की प्रतीक्षा शायद सबसे अधिक वेदों को ही है।
यह कल्पना की जा सकती है कि आज की यमुना-नर्मदा के बीच का भूमि-भाग विन्ध्या के प्रलयकारी तप्त लावा में झुलस गया होगा। आज के गंगा-यमुना के मैदान में उन दिनों ‘सिन्धु ब्रह्म-महासागर’ नामक महासमुद्र लहराता था। लावा में झुलसी इस भूमि के उत्तर में उपरोक्त महासागर था तो दक्षिण में उन दिनों भी नर्मदा और ताप्ती के विकट जल-प्रवाह थे, फलतः दोनों ओर जलों से घिरे होने के कारण लावा का प्रकोप उत्तर-दक्षिण के स्थान पर पूर्व-पश्चिम की ओर फैला। बंग-सागर से लेकर अरब-सागर तक की भूमि इस लावा-दहन में भस्मीभूत हो गयी, साथ ही पठारी-चट्टानों से भर उठी। साथ ही उत्तर के ‘सिन्धु-ब्रह्म-महासागर’ के भूगोल में भी आमूल परिवर्तन हुआ फलतः वह महासागर पीछे हटने लगा। इसी के फलस्वरूप आज के राजस्थान, उत्तर-प्रदेश, बिहार, बंगाल तथा उड़ीसा की भूमियों का जन्म हुआ। विन्ध्या का दहन, हिमालय का जन्म तथा ‘सिन्धु-ब्रह्म-महासागर’ के सूखने आदि की प्राकृतिक घटनाओं में कोई पारस्परिक सम्बन्ध था या नहीं अथवा ये सारी घटनाएँ प्रति-पूरकरूप में घटीं या विभिन्न कालों में सम्पन्न हुईं आदि के बारे में अभी कुछ भी अन्तिम रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि काश्मीर की भूमि और उसके आसपास का प्रदेश तथा विन्ध्या एवं दक्षिण भारत की भूमियाँ ही अपेक्षाकृत प्राचीन भूमियाँ हैं।
साँझ पड़े ज्येष्ठ की लू-आँधियों के थपेड़े कुछ कम हुए हैं। दिन भर के तमतमाये आकाश में अब जाकर दो-चार तोते या कौवे उड़ते-बोलते दिखायी देने लगे हैं। सारा वातावरण कैसा भाप भरी पतीली सा था। उपरले आकाश में सारस-मिथुन, डूबी-डूबी सी आवाज करते अपनी लम्बी यात्राओं पर जाते देख कर शारदीया धूप का बिल्लौरीपन और गुनगुनापन याद आने लगता है। अवश्य ही किन्हीं अक्षांशों पर शारदीया धूप का नीबुई पीलापन खिला होगा। पाखियों को उड़ानें भरते देखकर कैसा विश्वसनीय सा लगता है कि नहीं, लू और उसका अहंकार ही सब कुछ नहीं है बल्कि आकाश अभी भी अपराजित नील है और जिससे यात्राएँ सम्भव हैं अन्यथा दोपहर में क्या ऐसा विश्वास कहीं था ? उस समय तो सब अण्डे की सफेद झिल्ली से मँढ़ा-मँढ़ा सा लग रहा था। वातावरण में साँय-साँयपन था परन्तु पेड़ तक साँस नहीं ले रहे थे। अब जाकर पश्चिमी क्षितिज पर अरींठ सुलगने की तैयारी हो रही थी। निश्चय ही अरींठ का ऐसा सुलगना असहनीय लग रहा था पर एक प्राकृतिक कर्तव्य था, जो सम्पन्न हो रहा था। गर्मियों के सूर्यास्त में कैसी ताँबे की सी शक्ति निरभ्र चमक होती है—लाल सुर्ख !! मांत्रिक-नेत्रों वाली, जैसे कंडियों की आग हो, जिसका देखना नहीं हो पाता है बल्कि आपमें वह उतरती ही चली जाती है।
दिन-दोपहर में पठारी नंगी पहाड़ियों की जलती चट्टानों को छूती हवाएँ लपट बनी सपाटे मारती रही हैं जैसे घोड़े पर दौड़ते पीर के सफेद कपड़े हों; परन्तु इस समय हवा में उतनी गरमी नहीं रह गयी थी, फिर भी दिन भर की लू-आँधी के कारण भूरे और थके आकाश को देखकर गरमी का आभास अभी भी था। गहन दर्द के बीत जाने के बाद भी जिस प्रकार उस दर्द की गमक शेष रह जाती सी लगती है लगभग उसी गरमी का आभास पेड़ों के पत्तों को छूने पर हो रहा था। चट्टानें तो अभी भी चिल्ला-चिल्लाकर गरमी की शिकायत कर रही थीं; परन्तु धरती में विनम्र ठण्डापन आ चला था। सुदूर के क्षितिज में अभी भी बगूले देखे जा सकते थे। आकाश की पारदर्शी झीनी, नीली पीठिका में आवर्तित होते बगूले, धूल के खम्भों की भाँति कैसे मोटे-मोटे खड़े होते और जब क्षीण होते हुए अपनी कीलि पर घूमते ये खम्भे ऊपर उठ कर विलीन होते, तब उस विराट सूनसान में कैसा भय लगने लगा। पुराणों में इन धूल-खम्भों को जो घूर्णावर्त का व्यक्तित्व दिया गया है, वह कितना सार्थक लगता है। इक्की-दुक्की खजूर के या आम के अतिरिक्त कोसों तक न कोई गाँव, न देहात। सब कुछ जुआर की पीले-पीले सूखे राड़ों सा जलहीन। सुदुर तक भूरी, छोटी पहाड़ियों का या तो वृक्षहीन क्रम होता या फिर कँकरीली, धूल भरी धरती का गरवटों और पगडंडियों भरा उदास विस्तार कितना फीका-फीका सा फैला लगता। भूले-भटके यदि कोई पगडण्डी दिख भी जाती तो वह भी जल्दी ही भूमि के पठारीपन में मालवी नद्दी सी ओझल हो जाती। खजूर और बबूलों के बीच से जाती एकान्त गरवट किसी नगण्य अकेले दुःख की भाँति लगती। यद्यपि उस प्रशान्त नितान्त निर्जनता में वह गरवट आश्वसित ही करती लगती।
कैसा पथ क्यों न हो, उसका सम्बन्ध अनिवार्यतः मानव के साथ होता ही है। पथ, इस पृथ्वी पर मानव का पर्याय है। प्रत्येक पथ से मानव की गंध आती है। राजपथ हो या वनपथ, उसकी परिणति मानव तक ले जाने में ही होती है। अब यह बात अलग है कि हमारे पहुँचने तक वह मानव तब तक इतिहास में जा चुका हो। प्रत्येक पथ, मानवीय नदी है। पगडण्डी अपनी विनम्रता में भी उतनी ही विश्वसनीय होगी जितना कि कोई अहंकारी राजमार्ग होता होगा। धरती पर यही तो एक मानवीय विश्वास पीछे छूटा रहता है। हम चले जाते हैं पर हमारा विश्वास और पुरुषार्थ न जाने किन-किन वनपथों, अरण्यों में पीछे छूटे रह कर ही जीवित रहता है। ये पथ, साधारण जनों के भाषाहीन शिलालेख हैं। इसीलिए व्यक्ति नहीं बल्कि उसके विश्वास और पुरुषार्थ के प्रति नमित, विनम्र होना चाहिए।
कृष्णा-माटी के मालवी खेतों में मकई-जुआर के सूखे-पीले डंठल, कीलों-खूटों से गड़े, खड़े थे। बबूलों की स्लेटी रंग की उदासी इस निर्जनता में छितरी पड़ी थी। जब कभी कोई वृक्षपाँत किसी चट्टानी पहाड़ी पर अकेली चढ़ी हुई होती तो उस पहाड़ की चट्टानता, कठोरता तथा प्रागैतिहासिकता कितनी लिखी लगती। जिजीविषा की इस अदम्यता पर हठात विश्वास करना कितना कठिन लगता है। इसी प्रकार बड़ी नदियों के भूरे काँठों की अजित दरारों में जब कभी कोई वृक्षकुल की बान्धवता सहसा नीचे उतर गयी होती तो चारों ओर की घोर वीरानता में बारम्बार यही प्रश्न मन में उठता कि क्या अदम्यता को ऐसा संकट मोल लेना ही होता है ? क्या बिना पृथ्वी के अन्तर में समाये ऊर्ध्व में जाना नहीं होता ? क्या बिना संकट के आह्वान के कुछ भी सार्थक की प्राप्ति सम्भव नहीं ? शायद संकट की समरसता का ही नाम प्रकृति है। नदी नीचे उतर कर, तो मेघ ऊपर चढ़ कर संकट की यह सामरस्य-यात्रा ही तो अहोरात्र सम्पन्न कर रहे होते हैं। हठीली भेड़ों की भाँति करौंदों की छिटकी छोटी गुल्मता का उस बीहड़ पठारीपन में क्या प्रयोजन हो सकता था, कहना कठिन है। अधिकांश नदी-नाले चिरे पेट की भाँति मृत एवं जलहीन थे। इन सूखे पड़े जलपथों की चट्टानें एवं कंकड़ दिन भर तपकर अब ठण्ढाने की तैयारी कर रहे थे। जलहीन तपे बर्तन सी कगारें थीं। उन्मुक्त जंगली गेंदे को लगता है कि कैसी ही लू-आँधी की कोई चिन्ता कभी नहीं रही, फलतः पीली घासों के लम्बे सिलसिले के साथ सदाबहार बना फूला हुआ चला गया था। गेंदे का साथ न केवल सिलायकाँटे के छोटे पीले फूल तथा धतूरे के सफेद फूल ही दे रहे थे बल्कि नागफनी और थूहर भी उतने ही उदार भाव से फैली हुई थीं।
चैत्र के बाद वैसे भी कचनार और पलाश उदास हो जाते हैं। अमलतास की पीलिमा न जाने कब की उड़ गयी होती है। कहीं—कहीं अवश्य ही सेमल के फूल झर रहे होते हैं। क्रूर-कठोर मौसम और कमनीय वानस्पतिकता को साथ देखकर मन में कितनी उलझन होती, परन्तु सेमल के ये अपवादी फूल कितने निश्चित भाव से दिगन्त यात्राओं पर निकले होते। वातावरण में खिरनी, करौंदा तथा आम की केरियाँ बोलने लगी थीं। जब दोपहर की अपनी स्वयं की तेज गन्ध होती है तब भले ही इन मौसमी फलों की गन्ध दब जाती हो परन्तु तीसरा प्रहर लगते न लगते आम गमकने लगता है। हाँ, केवड़ा प्रायः सबेरे के समय जितना मुखर होता है उतना अन्य बेलाओं में नहीं हो पाता। असल में उसकी गन्ध में एक विशेष कमनीयता होती है जिसे वहन करने के लिए हवा का पूर्ण निष्कलुष होना आवश्यक होता है। प्रत्येक कमनीयता अपनी अभिव्यक्ति के लिए सामने वाले से एक विशेष प्रकार की अकलंकता, तन्मयता तथा एकनिष्ठता की अपेक्षा रखती है।
नदी के कँकरीले पेटे को चीरती चली जाती गरवट पर एक दमनी (छोटी बैलगाड़ी) तथा एक घुड़सवार इस सारी प्रशस्त पठारी जड़ता में गतिवान लग रहे थे। आदत के कारण बैलों ने एक बार जल की आशा में अपनी थूँथें नदी पर झुकायीं अवश्य पर गरम पत्थर सूँघकर झटके से थूँथें हटा लीं। कंकरों पर दमनी के पहिये चिकारते हुए फिसल-फिसल पड़ रहे थे, अतः बैलों को खींचने में काफी कठिनाई हो रही थी। उनकी गर्दनें धरती में हल के फल सी खिंची पड़ रही थीं। बैलों को नदी में जल की आशा रही होगी तभी तो नदी में धँसने से पूर्व उतार कर कैसे हुमस कर वे उतरे थे पर अब बोझ को पत्थरों के बीच से खुर जमा-जमा कर घसीट रहे थे। गाड़ीवान यह समझ तो गया था अतः वह उनकी पूँछें उमेठे जा रहा था तथा पैरों से ठुमका देता जा रहा था। गर्मियों की शामें प्रायः हवाहीन हुआ करती हैं। विशेषकर उतरते ज्येष्ठ की यह हवाहीनता ही आषाढ़ के मेघों का मार्ग प्रशस्त करती है। पश्चिम ओर के अरब-सागर से आने वाले मानसून की प्रतीक्षा किसे नहीं होती ? छोटी चिड़ियों से लेकर बरात के हाथियों तक को मेघराजा की प्रतीक्षा होती है। और जब आषाढ़ का नक्षत्र आकाश में लगता है तब एक-एक फुनगी किस उत्साह से क्षितिज में उठते-घिरते मेघों को गुहारती होती है। परन्तु तब कौन किसकी सुनता है ? कोयल-कौवों की आपसी झड़प देखने की भी किसी को फुरसत नहीं होती क्योंकि उस समय समस्त जड़ और चेतन मेघों की ओर उठी हुई ग्रीवा बने होते हैं।
घुड़सवार, वर है तथा दमनी में छह वरयात्री हैं। वर का लाल ‘बागा-वस्तर’ तथा लाल मखमली कामदार जयपुरी जूतियाँ धूल में सन जाने के कारण लगभग बदरंग हो गये हैं। वर की कमर में खुँसी कटार की छोटी सी पीली म्यान अवश्य ही स्पष्ट दिख रही है। कमर में बँधे जरी किनारे के गुलाबी रेशमी उपवस्त्र के झालरदार फुंदे हवा में उड़ रहे थे। हल्दी रंगे मुख तथा काजल अँजी आँखों वाले वर के किशोर मुख पर दिन भर के तपन की ताम्रता, एक विशेष झाँईं दे रही थी। दिन भर की पठारी यात्रा के कारण दमनी के बैलों से अधिक थका तो घोड़ा लग रहा था। जीन के दोनों ओर रंगीन फुन्दे हवा में फुदके पड़ रहे थे। रास्ते की धूल-धक्कड़ और लू-लपट से बचने के लिए दमनी के यात्रियों ने अपने नाक-कान सारंगपुरी दुपट्टों से बाँध रखे थे। इस प्रकार ढाटे बँधे देख उन्हें डाकू समझा जा सकता था परन्तु उनकी गोल पगड़ियों से स्पष्ट था कि ये न तो इन्दौरी पगड़ियाँ बाँधें महाजन ही हैं और न ही देहाती पगड़ी वाले किसान-कुर्मी। ब्राह्मणों की यह विशिष्ट पगड़ी थी। फिर, भाल पर लगे लम्बे लाल वैष्णवी तिलक तथा भस्म के त्रिपुण्ड से स्पष्ट था कि ये लोग ब्राह्मण थे।
यात्रियों में पाँच वरयात्री हैं तथा छठा नाई है जिसने ‘ग्यास’ (पेट्रोमेक्स) पकड़ रखा था। गाड़ीवान ने बन्दूक जिस प्रकार कन्धे से लटका रखी थी उससे स्पष्ट था कि वह राजपूत था। दिन भर की इस लू-आँधी वाली यात्रा से सभी ऊबे हुए लग रहे थे। उनके लाल-पीले मलमल के कुरतों के नीचे पसीने से भीगी बनियानें साफ दिख रही थीं। फीके, भूरे बया के घोंसले, खुरासानी इमलियों की भाँति डालों पर लटके हुए जंगल के सन्नाटे की गलघंटियों की भाँति लग रहे थे। बारों मास गलघंटियों के सूनसान संगीत के साथ असंख्य बनपाखी या अनेक अकेली फाख्ताएँ वन को वाणी देते हुए उस आरण्यकता को न केवल और भी अकेला तथा नितान्त कर देती हैं—बल्कि सन्नाटा इतना कस उठा लगता है कि एक भी अतिरिक्त स्वर होने पर झनझनाकर वह सन्नाटा सदा के लिए ऐसा टूट जा सकता है कि उपरान्त और सब कुछ हो सकता है केवल वह सन्नाटा ही सम्भव नहीं। सन्नाटे की यह विशेषता होती है कि वह भी योगियों की ही भाँति एकान्तचारी होता है। एकान्त, जिस प्रकार अबाध होता है उसी प्रकार एकान्तचारी भी। केवल उसी की अपनी सत्ता एवं प्रभुता समुद्र की भाँति हिल्लोलती होती है। ऐसा एकान्त, बाहर नहीं अन्तर में बिराजा होता है। ऐसे एकान्त के साक्षात के लिए व्यक्ति का निष्णात होना आवश्यक होता है। वीणा अपना संगीत—केवल वादक को ही सौंपती है।
बरात को गोधूली के पूर्व ही वधु के ‘आवाह-द्वार’ लगना है। गोरज के लग्न हैं। और अब गाँव रह ही कितना गया है ? वोऽऽ नदी पेले पार का गाम-गोयरे वाला केवड़ा-स्वामी का वन दिखायी दे रहा है। पीपल पर हनुमान जी की लाल झण्डी जो दिखलायी दे रही है न, वही तो गाँव है।
--मर्रे, मर्रे डोबा !! डोबा !!
और गाड़ीवान की इस टिटकार पर झाग डालते दमनी के बैल पैर के ठुमके और आर चुभाये जाने पर शेष यात्रा पर पुनः दौड़ने का उपक्रम करने लगते हैं। घोड़े को भी गाँव की गन्ध आने लगी थी तभी तो वह हिनहिनाया। गाँव की नदी का उतार आ गया था। खाल जैसी नदी में नाम मात्र को ही जल था। दमनी अर्रा कर नदी के पेटे में धँस गयी। बालू ने किचकिचाकर पहियों को थाम लिया तथा जल की स्फटिकता ने बैलों की थूँथों को।
किसी सुदूर अतीत में हमारी इस पृथ्वी एवं सृष्टि की संरचना में आमूल एवं क्रांतिकारी परिवर्तन हुए जिसके कारण भौगोलिक, वानस्पतिक एवं जैविक सामरस्य में बदलाव आया। कुछ वर्षों पूर्व तक प्रकृति के इस परिवर्तन की साक्षी केवल भारतीय श्रुतियाँ, स्मृतियाँ एवं पुराणकथाएँ ही थीं लेकिन इन स्रोतों के बारे में पश्चिमी ज्ञान विज्ञान की सहमति न होने के कारण इन्हें बड़े सहज भाव से कपोल-कल्पित कह दिया जाता रहा; परन्तु आज के भूगर्भशास्त्रियों की प्रकृति की संरचना के बारे में जो वैज्ञानिक प्रमाण क्रमशः प्राप्त हुए और होते जा रहे हैं उनमें से भारतीय पुराणकथाओं में वर्णित घटनाओं और प्रकृति के ताण्डव-नृत्य की अकाट्यता सिद्ध होती है। इन प्राकृतिक घटनाओं एवं जैविक विकास-क्रम के संदर्भ में भारतीय अवतारवाद का सिद्धान्त तथा धर्म-ग्रन्थ प्रमाण माने जाने चाहिए।
ये धर्म-स्रोत श्रुति हैं या स्मृति, इस बारे में मतभेद सम्भव है परन्तु इनकी प्रामाणिकता के बारे में अब मतभेद संभव नहीं। वैसे भी चिन्तन, मनन और ज्ञान की उपलब्धियों के क्षेत्र में विज्ञान अभी मुश्किल से किशोर ही है, लेकिन प्रमाण की जिस प्रकार की आग्रहता एवं सत्य के लिए जिस निर्भय तटस्थता के साथ उसमें धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाकर जो अनेक महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ अर्जित की हैं उनके कारण वह आज के पदार्थिक उत्पादन वाले युग में हमारी चेतना का प्रमुख प्रवक्ता हो गया। इस कारण हम उतना ही सत्य स्वीकारते हैं जहाँ तक विज्ञान की गति एवं प्रगति है। विज्ञान के वर्तमान स्वरूप के पूर्व का ज्ञानार्जन परीकथाएँ हैं—यह मानना युग-प्रथा रही है। लेकिन लोग सामान्यतः नहीं जानते कि स्वयं आइन्सटीन जैसे वैज्ञानिक—महर्षि की दृष्टि में धर्म के सत्य और विज्ञान के सत्य में गुणात्मक कोई अन्तर नहीं रहा है। इस प्रकार की एकांगी मान्यताएँ एवं आग्रह, ज्ञान के निचले स्तर पर ही हुआ करते हैं। परन्तु न ज्ञान, न विज्ञान और न धर्म किसी भी क्षेत्र में निचले स्तर की इन आग्रही दृष्टियों का कभी कोई अर्थ नहीं होता है। धर्म और विज्ञान के माध्यमों में अन्तर है, सत्य की जिज्ञासा का नहीं। सत्य सदा एक ही होता है। संरचित एक ही अनेक हुआ करता है—एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ! अस्तु—
परिवर्तन के किसी काल में आज का पर्वत-पितामह के विन्ध्याचल जीवन्त ज्वालामुखी था। भूगर्भवेत्ताओं का यह गणित-सिद्ध विश्वास है कि विन्ध्या की यह ज्वालामुखी जीवन्तता पचासों हजार वर्ष पूर्व थी। पुराणों की अगस्त्य मुनि की दक्षिण-यात्रा के समय उद्दण्ड विन्ध्या को विनम्र बने रहने की आदेश-कथा का सम्बन्ध इसी ज्वालामुखी युग से है। सूर्य के रथ—को अपनी प्रचण्ड ज्वालाओं से रोक लेने की इच्छा रखने वाला विन्ध्या तब से विनम्र बना हुआ है क्योंकि उसे अगस्त्य के दक्षिण से लौटने की प्रतीक्षा है। इस काव्य-भाषा में ज्वालामुखी विन्ध्य के क्रमशः शान्त होते जाने का स्पष्ट संकेत है। काव्य या साहित्य, जीवन के यथार्थ को इसी प्रकार के बिम्बों, प्रतीकों और रूपकों में प्रस्तुत करते हैं। काव्य या साहित्य अपने स्वरूप और भाषा में नहीं, बल्कि प्रयोजन में यथार्थवादी होते हैं।
विन्ध्या से सम्बन्धित इस पुरा-कथा को तब प्रमाण माना जाए या मात्र श्रुतियों-स्मृतियों की कल्पना, कहना कठिन है; लेकिन क्या यह भी उतना ही सत्य नहीं है कि भारतीय मनीषी की स्मृति में श्रुतियों से चली आती पचासों हजार वर्ष पूर्व की एक प्राकृतिक घटना थी ? स्पष्ट है कि अत्यन्त सुदूर अतीत में इस देश की भौगोलिकता में आधारभूत परिवर्तन हुए। समस्त पृथ्वी पर विभिन्न द्वीपों-महाद्वीपों का प्रतिटूटना-जुड़ना चल रहा था। सृष्टि के इस क्रम को भारतीय मनीषियों ने ‘नृत्य’ संज्ञा से अभिव्यक्त किया। इस नृत्य की उद्दामता ‘ताण्डव’ कहलायी और शांतिमयता ‘लास्य’। वैसे कुछ भी अधिकारपूर्वक कहना कठिन है कि ‘प्रलय’ नामक विश्वविश्रुत घटना का तथा विन्ध्या के ताण्डव से कुछ सम्बन्ध था या नहीं। यह सम्भव है कि कालान्तर में प्रकृति एवं भूगोल के समस्त परिवर्तनों के लिए सार्वभौमिक संज्ञा ‘प्रलय’ दे दी गयी हो। वैसे भी प्रलय, उथल-पुथल का ही पर्याय है। सामान्यतः प्रलय संज्ञा से जिस घटना का बोध करवाया जाता है वह जल-प्लावन या जल-प्रलय है। निश्चय ही यह दहन युगों तक चला होगा। अगस्त्य की दक्षिण-यात्रा, हिमालय का जन्म तथा विन्ध्या का अपेक्षाकृत शान्त होते जाना लगभग एक ही समय हुआ होगा। यह भी बहुत असम्भव नहीं लगता कि भूमि की तलाश में मनु उत्तर की ओर गये और अगस्त्य दक्षिण की ओर।
प्रलय-पूर्व की देव-संस्कृति, क्यों और कैसे विनष्ट हुई इस आधारभूत एवं तात्विक समस्या को जब तक नहीं सुलझाया जाता तब तक मनुष्यता और इतिहास के बारे में प्रतिपादित सारे आधुनिक सिद्धान्त नितान्त अवैज्ञानिक हैं। उस संस्कृति का एकमात्र प्रमाण-मानव-जाति के पास वेद है, जिसकी सत्यता को पाश्चात्य मानसिकता के कारण हम कपोल-कल्पना मानते आये हैं। विज्ञान एक दिन अवश्य ही इस प्रलयवाली घटना की वास्तविकता को खोज निकालेगा और तभी वेदों के रचना-काल, उनकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता पर भी यथार्थपरक प्रकाश पड़ेगा। जैविकता और ज्ञान के काल का प्रतिमान ईसा या बाइबिल में वर्णित समय को मानना निरी हास्यास्पदता है। इसीलिए विज्ञान की प्रगति की प्रतीक्षा शायद सबसे अधिक वेदों को ही है।
यह कल्पना की जा सकती है कि आज की यमुना-नर्मदा के बीच का भूमि-भाग विन्ध्या के प्रलयकारी तप्त लावा में झुलस गया होगा। आज के गंगा-यमुना के मैदान में उन दिनों ‘सिन्धु ब्रह्म-महासागर’ नामक महासमुद्र लहराता था। लावा में झुलसी इस भूमि के उत्तर में उपरोक्त महासागर था तो दक्षिण में उन दिनों भी नर्मदा और ताप्ती के विकट जल-प्रवाह थे, फलतः दोनों ओर जलों से घिरे होने के कारण लावा का प्रकोप उत्तर-दक्षिण के स्थान पर पूर्व-पश्चिम की ओर फैला। बंग-सागर से लेकर अरब-सागर तक की भूमि इस लावा-दहन में भस्मीभूत हो गयी, साथ ही पठारी-चट्टानों से भर उठी। साथ ही उत्तर के ‘सिन्धु-ब्रह्म-महासागर’ के भूगोल में भी आमूल परिवर्तन हुआ फलतः वह महासागर पीछे हटने लगा। इसी के फलस्वरूप आज के राजस्थान, उत्तर-प्रदेश, बिहार, बंगाल तथा उड़ीसा की भूमियों का जन्म हुआ। विन्ध्या का दहन, हिमालय का जन्म तथा ‘सिन्धु-ब्रह्म-महासागर’ के सूखने आदि की प्राकृतिक घटनाओं में कोई पारस्परिक सम्बन्ध था या नहीं अथवा ये सारी घटनाएँ प्रति-पूरकरूप में घटीं या विभिन्न कालों में सम्पन्न हुईं आदि के बारे में अभी कुछ भी अन्तिम रूप से नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना निश्चित है कि काश्मीर की भूमि और उसके आसपास का प्रदेश तथा विन्ध्या एवं दक्षिण भारत की भूमियाँ ही अपेक्षाकृत प्राचीन भूमियाँ हैं।
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