बहुभागीय पुस्तकें >> वैजयंती - भाग 2 वैजयंती - भाग 2चित्रा चतुर्वेदी
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इसमें भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर प्रकाश डाला गया है...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भाद्रपद की अंधियारी अष्टमी को मथुरा के कारगार में शिशु के रूप में
क्रांति का जन्म हुआ। बालकृष्ण भावी क्रांति का प्रतीक ही बन गया। क्रांति
के इस मस्त बाल-सूत्रधार का वध करवाने के अधिनायक कंस के सारे प्रयास विफल
होते हैं। अक्रूर बलराम श्रीकृष्ण को मथुरा ले जाते हैं। ब्रज रोता है,
कृष्ण को रोकता है। राधा नहीं रोती। राधा नहीं रोकती। वह राधा है बाधा
नहीं।
वसुदेव सुत की क्षमता में एकाएक ही कृष्ण की भूमिका बदल जाती है। जननायक बन, कंस का वध करके वे स्वेच्छाचारी शत्रु से शौनसेन प्रदेश को मुक्ति दिलाते हैं। यादवों के प्राचीन अंधक-वृष्णि संघ राज्य तथा गणतंत्र की पुनस्थापित करते हैं। फिर उज्जयिनी में शिक्षा प्राप्त, गुरूपुत्र की खोज, जरासंघ के आक्रमण और यदुवंशियों को उनसे बचाने हेतु सौराष्ट में द्वरिकापुरी का निर्माण।
युद्धों से जीर्णशीर्ण अंधक-वृष्टि संघ सिंधुतट पर बस कर समृद्ध होने लगता है रूक्मिणी हरण, जांबवती, सत्यभाभा से विवाह के प्रसंग रोचक हैं। श्रीकृष्ण के एकालाप अद्भुत हैं। अन्तर्मन में सतत खोज चलती है। जरासंधवध वह धमाका है जिससे शक्तिशाली राजकुल थर्रा जाते हैं और स्वेच्छाचारी-तंत्र का अंत सन्निकट आ जाता है।;
वैजयंती श्रीकृष्ण के जीवन, कर्म, आदर्शो, विचारों और अलौकिक प्रेम की रस भीगी अनुपम गाथा है। ग्रामीण परिवेश में पले कृष्ण का विकास विविध दिशाओं में होता है और वह शीघ्र ही एक अपूर्व रंग-बिरंगे बहुआयामी व्यक्तित्व से संपन्न हो जाता हैं। ‘वैजयंती’ में ब्रज की सौंधी सुवास और छाछ है, वेणुवादन, आन्नद और महारास है। किन्तु रह-रह कर श्रीकृष्ण के मन में एक अजानी सी पुकार उठती है, आह्रान करती है, चल पड़ने को। कुछ विशिष्ट करने को। और श्रीकृष्ण जननायक बन चल पड़ते हैं क्रांति की शंखनाद करके कंस के अधिनायक तंत्र का मूलोच्छेदन करने। राधा नहीं रोकती। वह बाधा नहीं, राधा है।
प्रथम खंड में स्वप्नलोकीय कोमलता और माधुरी है, गीत, प्रीति और लालित्य के मध्य शस्त्रों की झनझनाहट है। वहीं द्वितीय खण्ड में क्रूर यथार्थ है और टंकारों तथा हुंकारों के मध्य प्रेम की मृदुल फुहारें और प्रीति-विह्रल मन की गुहारें हैं।
चारों ओर फैली अराजकता, अनैतिकता और स्वेच्छाचारिता के विरूद्ध कर्मयोगी का संघर्ष योगी चलता है और उनकी वैजयंती पताका सदा फहराती रहती है। वैजयंती के पाठक पाएँगे राधा, गोप-गोपी, रूक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती तथा सुभद्रा को एक अनूठे ही रंग में। पाठक यह भी पाएँगे अर्जुन, विदुर, भीष्म कर्ण, संजय और उद्वव को अनूठे स्वरूप में। भीष्म और विदुर को कैसे ज्ञात हुआ है था कि कर्ण कुन्ती का पुत्र है ? अपने पौत्रवत् श्रीकृष्ण को देखते ही भीष्म का मुखमंडल खिल क्यों पड़ता है ? अर्जुन में ऐसा क्या है जो श्रीकृष्ण उस पर मुग्ध हैं ? उद्धव में क्या विशेषता है जो उन्हें ही अपनी थाती सौंपते हैं ? संजय और धनंजय ही गीता सुनने के अधिकारी क्यों हुए ?
और फिर............राधा का क्या हुआ ?
‘वैजयंती’ में कुछ नवीन न हो तो भी कुछ अपने आप अलग और विशिष्ट अवश्य है।
वसुदेव सुत की क्षमता में एकाएक ही कृष्ण की भूमिका बदल जाती है। जननायक बन, कंस का वध करके वे स्वेच्छाचारी शत्रु से शौनसेन प्रदेश को मुक्ति दिलाते हैं। यादवों के प्राचीन अंधक-वृष्णि संघ राज्य तथा गणतंत्र की पुनस्थापित करते हैं। फिर उज्जयिनी में शिक्षा प्राप्त, गुरूपुत्र की खोज, जरासंघ के आक्रमण और यदुवंशियों को उनसे बचाने हेतु सौराष्ट में द्वरिकापुरी का निर्माण।
युद्धों से जीर्णशीर्ण अंधक-वृष्टि संघ सिंधुतट पर बस कर समृद्ध होने लगता है रूक्मिणी हरण, जांबवती, सत्यभाभा से विवाह के प्रसंग रोचक हैं। श्रीकृष्ण के एकालाप अद्भुत हैं। अन्तर्मन में सतत खोज चलती है। जरासंधवध वह धमाका है जिससे शक्तिशाली राजकुल थर्रा जाते हैं और स्वेच्छाचारी-तंत्र का अंत सन्निकट आ जाता है।;
वैजयंती श्रीकृष्ण के जीवन, कर्म, आदर्शो, विचारों और अलौकिक प्रेम की रस भीगी अनुपम गाथा है। ग्रामीण परिवेश में पले कृष्ण का विकास विविध दिशाओं में होता है और वह शीघ्र ही एक अपूर्व रंग-बिरंगे बहुआयामी व्यक्तित्व से संपन्न हो जाता हैं। ‘वैजयंती’ में ब्रज की सौंधी सुवास और छाछ है, वेणुवादन, आन्नद और महारास है। किन्तु रह-रह कर श्रीकृष्ण के मन में एक अजानी सी पुकार उठती है, आह्रान करती है, चल पड़ने को। कुछ विशिष्ट करने को। और श्रीकृष्ण जननायक बन चल पड़ते हैं क्रांति की शंखनाद करके कंस के अधिनायक तंत्र का मूलोच्छेदन करने। राधा नहीं रोकती। वह बाधा नहीं, राधा है।
प्रथम खंड में स्वप्नलोकीय कोमलता और माधुरी है, गीत, प्रीति और लालित्य के मध्य शस्त्रों की झनझनाहट है। वहीं द्वितीय खण्ड में क्रूर यथार्थ है और टंकारों तथा हुंकारों के मध्य प्रेम की मृदुल फुहारें और प्रीति-विह्रल मन की गुहारें हैं।
चारों ओर फैली अराजकता, अनैतिकता और स्वेच्छाचारिता के विरूद्ध कर्मयोगी का संघर्ष योगी चलता है और उनकी वैजयंती पताका सदा फहराती रहती है। वैजयंती के पाठक पाएँगे राधा, गोप-गोपी, रूक्मिणी, सत्यभामा, जांबवती तथा सुभद्रा को एक अनूठे ही रंग में। पाठक यह भी पाएँगे अर्जुन, विदुर, भीष्म कर्ण, संजय और उद्वव को अनूठे स्वरूप में। भीष्म और विदुर को कैसे ज्ञात हुआ है था कि कर्ण कुन्ती का पुत्र है ? अपने पौत्रवत् श्रीकृष्ण को देखते ही भीष्म का मुखमंडल खिल क्यों पड़ता है ? अर्जुन में ऐसा क्या है जो श्रीकृष्ण उस पर मुग्ध हैं ? उद्धव में क्या विशेषता है जो उन्हें ही अपनी थाती सौंपते हैं ? संजय और धनंजय ही गीता सुनने के अधिकारी क्यों हुए ?
और फिर............राधा का क्या हुआ ?
‘वैजयंती’ में कुछ नवीन न हो तो भी कुछ अपने आप अलग और विशिष्ट अवश्य है।
चक्र-सुदर्शन
श्रीकृष्ण ने तब खांडवप्रस्थ का निरीक्षण किया तो पाया कि राज्य का
अपेक्षित विकास हुआ है किन्तु अभी और भी बहुत कुछ करना शेष है। वे जो
मानचित्र पहले सौंप गए थे उनके अनुरूप खांडप्रस्थ रूपाकार नहीं ले पाया
था। परन्तु यदि युधिष्ठिर सम्राट पद पाने के इच्छुक हैं तो राज्य को अभी
और ऊपर उठाना होगा। अभी राज्य का बहुत परिमार्जन आवश्यक है। पहले की
अपेक्षा धनधान्य से राज्य समृद्धि तो हो चला था लेकिन पर्याप्त विस्तार,
वैभव एवं ऐश्वर्य का अभाव था। वनवाली बस्तियों के स्थान पर कई ग्राम बस
चुके थे और अब जनपद विकसित हो रहा था किन्तु अभी श्रेष्ठ राज्यों और
प्रतिष्ठित राजपुरियों से स्पर्धा करने और टक्कर लेने जैसा विकास नहीं हो
पाया था।
वासुदेव श्रेष्ठ काल्पनिक थे। श्रेष्ठ राज्य-शिल्पी भी। नगर बसाने की कला में दक्ष थे। द्वारका नगरी जिस उत्कृष्ठ योजना के अनुरूप बसाई गई थी वह उनकी कलात्मकता की परिचायक थी। फिर खांडवप्रस्थ राज्य तो आर्यावर्त के मध्य में है, जहाँ चारों ओर से विभिन्न राज्यों से प्रजाजन तथा नरेशों का आवागमन होता रहेगा और इसे हस्तिनापुर से उंडेल देना चाहते थे। नया राज्य सभी राज्यों में प्रशस्त हो। नई राजधानी सभी राजपुरियों से भव्य हो। भावी सम्राट हेतु एक उन्नत और विकसित मनोहारी राजधानी हो। उत्कृष्ट वास्तुकला से निर्मित राजभवन हो। श्रेष्ठ शिल्प से अलंकृत अनुपम सभाभवन हो। नागरिकों हेतु नयनाभिराम उद्यान, प्रमोद वन.....कुछ भी तो नहीं है ! इन टूटे-फूटे प्राचीन खंडहरों को पुनर्निर्मित कर-कर के कहाँ तक उन्हें भव्य रूप दिया जा सकता है !
वे न केवल एक धर्मराज अथवा धर्मधुरीण राजा की संरचना करना चाहते थे बल्कि हर दृष्टि से एक आदर्श राज्य की कल्पना को मूर्त रूप देना चाहते थे। उनके भीतर का एक महान् शिल्पकार एक महान् शिल्प को जन्म देने को छटपटा रहा था।
वासुदेव हस्तिनापुर के अन्यायप्रेमी राजकुल को यह भी दिखा देना चाहते थे कि सुपात्रों को अभिशप्त करके निपट वनप्रांत में भेजने पर, वहाँ भी किस प्रकार इन्द्रलोक उतारा जा सकता है। श्रीकृष्ण अपने अंतर में छिपे हुए मनोहारी स्वप्न को खांडवप्रस्थ में उतार देना चाहते थे।
परन्तु उनकी योजना के अनुकूल विकास क्यों नहीं हो पाया ? अभेद्य खांडव वनों के कारण। युधिष्ठिर ने बताया कि खांडववन में दैत्य, दानव तथा नागों की हिंसा प्रेमी दुर्दमनीय जातियाँ बसती हैं। आए दिन ये लोग खांडवप्रस्थ पर अचानक आक्रमण कर देते हैं और तुरन्त सघन वनों में लुप्त हो जाते हैं। शक्ति संचय फिर से एकाएक तुमुल आक्रमण करते हैं। विशेष रूप से नाग-प्रमुख तक्षक को अपने पड़ोस में खांडवराज्य की स्थापना किंचित् भी नहीं भाई। तक्षक ने उस क्षेत्र में उसे अपने वर्चस्व और एकाधिकार को चुनौती समझ लिया है। इसीलिए वह चिढ़ कर दैत्य-दानवों के साथ मिलकर जब तब शांति भंग करता रहता है। खांडववन की अंधकारपूर्ण गहनता का उन्हें आश्रय प्राप्त था अत: उन्हें नष्ट कर पाना भी संभव न था और उन्हें बिना नष्ट किये खांडवप्रस्थ राज्य को खांडववन सीमा तक विस्तृत करना संभव न था। इसलिए राज्य को चरागाह एवं कृषि हेतु अधिक भूमि भी उपलब्ध नहीं हो पाई थी।
चर्चा के मध्य ही भयंकर फूत्कार हुआ। सब चौंक पड़े। भीम गदा लेकर दौड़े किन्तु युधिष्ठिर ने रोक दिया।
‘तक्षक-कुल का पालित विषधर होगा। माधव ! हमारी स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है जैसी व्रज में गोपवृंद की स्थिति कालिय नाग के कारण हुई थी। तक्षक हमसे स्पर्धा मानता है। युद्ध करता है। अपने पूज्य विषधरों को हमारी ओर छोड़ता रहता है। गत कृष्ण पक्ष में मेरे तीन सेवक सर्पजंश से काल-कवलित हो गए।’
कुंती दीर्घ नि:श्वास भर कर कहने लगी-‘वासुदेव’ ! कहने को तो यहाँ राज्य बस गया है किन्तु फिर भी रात-रात भर नीलगायों के खुरों की ध्वनियों और श्रृंगालों के समवेत रुदन-स्वर हृदय को कंपा जाते हैं। कितने ही वन्य-जन्तु तो भोजनालय तक में पहुँच जाते हैं। खांडववन का इतना पास होना हमारे लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।’
श्रीकृष्ण को विस्म्य हुआ- ‘परन्तु राजन् ! वन क्या सत्य इतना सघन है कि उसमें जाकर अर्जुन और भीम जैसे शूरवीर भी शत्रुओं का संहार नहीं कर सकते ! कैसा आश्चर्य ! यह तो वह वन है जहाँ सुप्रसिद्ध महात्माओं और आचार्यों के आश्रम रहे हैं। तो क्या नवे आश्रम अब वहाँ नहीं रहे ?’
तभी प्रतिहारी के साथ एक दीर्घकाय रक्त-काषायवस्त्रधारी प्रदीप्त गौरवर्ण वाले वृद्ध महात्मा का आगमन हुआ। उन विलक्षण ऋषि की अभ्यर्थना में सब खड़े हो गए। कौन हैं ये महात्मा जिनका व्यक्तित्व अग्निपुंज सा देदीप्यमान है ? सब चकित थे।
‘अहोभाग्य ! युधिष्ठिर, आगे बढ़े। महर्षि अग्निवेश का पर्दापण हुआ है आपके राज्य में’- श्रीकृष्ण ने पहचान कर कहा।
महर्षि अग्निवेश अपने तेजोमय रूप के कारण साक्षात् अग्नि के पुत्र लगते थे। इसीलिए पूरा नाम न लेकर उन्हें बहुधा लोग अग्नि ही कहते थे।
सत्कार के पश्चात् युधिष्ठिर ने पूछा-‘महात्मन ! आज्ञा दें आपकी क्या सेवा की जाए ?’
महर्षि अग्निवेश ने दीर्घ नि:श्वास ली।
‘राजन् ! मैं महर्षि अगस्त्य का शिष्य अग्निवेश हूँ। खांडववन में मेरा बहुत प्राचीन आश्रम है तथा दूर-सुदूर जनपदों से राजपुत्रगण मुझसे अस्तविद्या ग्रहण करने आते रहे है। युधिष्ठिर ! संभवत: आपको यह ज्ञात हो कि आपके गुरु द्रोणाचार्य एवं श्वसुर महाराज द्रुपद मेरे शिष्य रहे हैं। उन्होंने मुझसे ही अस्त्रविद्या पाई थी। परन्तु अब गत कई वर्षों से मुझे, आश्रमवासियों तथा विद्यार्थियों को घोर संकट का सामना करना पड़ रहा है अत: आपसे संकट-मुक्ति हेतु निवेदन करने आया हूँ।’
‘कैसे संकट महात्मन् ! आप आदेश दें’-युधिष्ठिर ने कहा।
राजन् ! जो खांडववन पहले हमारे आश्रम और विद्यार्थियों का रक्षक था, वही आज भक्षक-सा प्रतीत होने लगा है। गत कई वर्षों से उस पर दैत्य और दानव कुलों ने अतिक्रमण कर लिया है। एक-से-एक दुर्दान्त दस्युओं के वहाँ पर शरणस्थल स्थापित हो गए हैं। भयंकरतम पशुओं की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। फिर, तक्षक नाग-कुल के लोग तो बर्बर एवं विकट रूप से हिंसा प्रेमी हैं। ये समस्त, नाग, दैत्य एवं दानव जातियाँ हमारे आश्रम के प्रति दुराग्रह रखती हैं। हमें शांति से नहीं रहने देतीं। वे लोग आए-दिन निर्दोष विद्यार्थियों का अपहरण कर ले जाते हैं। आश्रम में भिक्षा में प्राप्त जो थोड़ा बहुत अनाज संगृहीत रहता है, वही लूट ले जाते हैं। यज्ञ, अग्निहोत्र आदि सब में बाधाएं पड़ती हैं। नरोत्तम ! हम पर चारों ओर से आक्रमण होता है। इन आततायी मनुष्यों से यदि किसी भाँति बचते हैं तो भी हिंसक सिंहों, वन्य वाराहों, और असंख्य विषधरों के चक्रव्यूह में फंस कर हमें अपने जीवन हेतु इतना कठोर संघर्ष करना पड़ता है कि अब इतने प्राचीन आश्रम का वहाँ रह पाना असंभवप्राय हो गया है...’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘महर्षि ! आप सत्य कहते हैं। जब वन के बाहर होने पर हम पर दैत्य, दानव, नाग, असुर और पशुओं का आक्रमण होता रहता है तो वन के भीतर तो आप सब की स्थिति अवश्य संकटपूर्ण है। महाभाग ! वो इतना विकट घना है कि समाज विरोधी तत्वों को नष्ट कैसे किया जाए यह समझ नहीं आता। खांडववन एक महती समस्या बन गया है। इन वन का क्या करें ?’
‘भस्म !’- श्रीकृष्ण के मुख से निकला।
‘भस्म ! वन को भस्म ?’- युधिष्ठिर ने विस्मय से पूछा।
‘माधव ! आप प्रकृति के उपासक हैं। वनों, वृक्षों और वनस्पतियों के अनन्य अनुरागी हैं फिर हरे-भरे वन को भस्म करने का परामर्श कैसे दे रहे हैं ?’
‘केवल आपद्धर्म के कारण। मेरे विचार से अभी महर्षि अग्निवेश की बात पूरी नहीं हुई है। महाभाग ! आप तो खांडववन में सुदीर्घ काल से रहते आ रहे हैं आप भी वहीं की परिस्थितियों पर और विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं।’- श्रीकृष्ण से आग्रह करते हुए कहा।
‘वासुदेव उचित कहते हैं, राजन् ! मेरी दृष्टि में वन को भस्म करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है इस संकट से बचने का। पांडुनंदन ! एक समय ऐसा था जब आश्रम हेतु हमें विशाल भूखंड उपलब्ध था। सघन वृक्षों की छाया भी रहती थी, सूर्य का प्रकाश भी रहता था और ज्योत्स्ना का भी हम उपयोग करते थे। तब हम नक्षत्रों के दर्शन भी कर सकते थे तथा खगोलविद्या के मूल सिद्धांत भी विद्यार्थियों को समझा सकते थे। महाभाग ! हमारा आश्रम समूचे आर्यावर्त में प्रमुख रूप से अस्त्रविद्या का सबसे बड़ा केन्द्र रहा है। अत: वहाँ रथ-स्पर्धा, सारथित्व, आश्वविद्या, आश्व-स्पर्धा एवं धनुर्विद्या तथा कई प्रक्षेपास्त्रों का संचालन करने का प्रशिक्षण दिया जाता था।....’
‘दुर्भाग्यवश अब स्थिति विपरीत हो गई है। अब वन इतना घना हो चुका है कि आप सूर्य-दर्शन ही असंभव हो गया है। दिन में भी संध्या-सा अंधकार रहता है और वसंत ग्रीष्मकाल में भी शीतकाल का अनुभव होता है। रथ-स्पर्धा एवं प्रक्षेपास्त्रों के अभ्यास का वह खुला उन्मुक्त विशाल भूखंड अब गहन गह्वरों में बदल गया है। विराट वृक्षों, सघन लताओं के कारण हम न सूर्य को अर्घ्य दे पाते हैं, न सूर्य नमस्कार कर पाते हैं। न अब वहाँ दौड़ पाते हैं, न अश्वस्पर्धा हो सकती है। और फिर दैत्य, असुर व नाग जातियाँ हमें न अग्निहोत्र करने देती हैं, न यज्ञ। दिन में उनके कारण साधना असंभव है, रात्रि में हिंसक पशुओं के कारण निद्रा असंभव है। अब आप ही बताए राजन् ! जिस आश्रम ने द्रोणाचार्य एवं महाराज द्रुपद जैसे महापराक्रमी, युद्धाचार्य एवं महावीरों को जन्म दिया, क्या वह आश्रम आतताइयों, दस्युओं व वन-वराहों द्वारा विनष्ट होने दिया जाए ?’
‘नहीं महाभाग ! ऐसा नहीं होगा। किन्तु समस्या का निदान ढूंढने हेतु समय अवश्य दें। यह समझ पाने में मैं असमर्थ हूँ कि वह वन आज इस दुर्दशा पर किस कारण से पहुँच गया है कि वहां दिन में घोर अंधकार रहने लगा है ?’- युधिष्ठिर ने चिंतित होकर कहा।
‘राजन् ! गत कई वर्षों से इन्द्र की विशेष कृपा हो रही है वन पर। पहले तो प्रमुख रूप से पावस ऋतु में ही घनघोर वर्षा होती थी, शेष वर्ष में जब कभी थोड़ी बहुत वृष्टि होती थी। अब कुछ ऐसा हो गया कि पूरे वर्ष जब तब घनघोर वर्षा होती ही रहती है। वर्षा से निरन्तर यही क्रम चलता आ रहा है इसलिए वर्ष-प्रति-वर्ष यह वन अधिक से अधिक घना होता गया है इसीलिए वहाँ असंख्य अपराध-प्रवृत्ति के मनुष्यों तथा हिंस्र पशुओं ने सुविधा ने अपने गुप्त आश्रमस्थल बना लिये हैं।’- महर्षि अग्निवेश ने समझाया।
सब लोग कौतुक-विमोहित हो यह विचित्र वार्ता सुन रहे थे।
‘किन्तु इन्द्र ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’- युधिष्ठिर ने पूछा।
‘उत्तर में निस्तब्धता छा गई। कुछ पल बाद वासुदेव ने प्रकृति के रहस्यों का पुंज खोलना प्रारंभ किया।
‘महर्षि ! युधिष्ठिर ! इसका कारण सृष्टि के वे गूढ़ रहस्यमय नियम हैं जिनसे उसका संचालन होता है। मानव जब अपने सहज धर्म और स्वभाव से पथभ्रष्ट होने लगता है और प्रेम, दया, सहानुभूति के स्थान पर छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष तथा हिंसा का पथ पकड़ लेता है तब प्रकृति भी अपना स्वाभाविक धर्म छोड़कर पथ भ्रष्ट हो जाती है। आप जानते हैं कि भौतिक सृष्ठि चार तत्वों के समन्वय से निर्मित है, जब उसमें आत्मिक एवं प्राण तत्व जुड़ जाता है तब पंचमहातत्व अथवा पंचमहाभूतों के समन्वय से मानव जन्म होता है। प्रकृति के चार तत्व-जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी हैं। इनमें से विभिन्न तत्वों का परस्पर संघर्ष, घर्षण, द्रोह और असहयोग भी भू-स्खलन, चक्रवात, झंझावत, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा ज्वालामुखी के विस्फोटों के कारण हैं। इसमें से किसी भी एक तत्त्व की अति मानव के लिए हानिकारक है। किन्तु किसी तत्त्व की अति अथवा अभाव घटिक होता क्यों है ? मानव के ही कारण.........’
‘जो प्राकृतिक असंतुलन खांडववन में घटित हुआ है, वह मनुष्य की ही करनी का परिणाम है। आज जो खांडववन में प्राकृतिक असंतुलन दिखा रहा है वह प्रकृति की चेतावनी मात्र है मनुष्य को ही वह समय रहते चेत जाए, सावधान हो जाए तथा अपनी अधर्मी और विध्वंसात्मक प्रवृत्ति को त्याग दे। महाभाग ! वर्तमान स्थिति में यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है कि प्रकृति के चारों तत्वों में से अग्नि और जल तत्त्वों में समन्वय और सहयोग नहीं रह गया है। बल्कि दोनों में परस्पर द्रोह हो गया है इसलिये दोनों परस्पर संघर्ष व असहयोग से सृष्टि की व्यवस्था उलट-पुलट हो गई है। पहले खांडव वन में भी सब ऋतुएं समय पर आती रही होंगी तथा अपना-अपना धर्म निभा कर योगदान देती रही होंगी। प्रकृति स्वयं ही संतुलन तथा नियंत्रण के नियम से चलती है। वर्षा काल में घोर वर्षा होने से जंगल घने होकर भयावह रूप धारण कर लेते हैं, किन्तु ग्रीष्मकाल में दावाग्नि लग जाती है और वह वन असंतुलित आकार और विकरालता को छांट देती है। वर्ष-दो-वर्ष में तो ग्रीष्मकाल में नियमानुसार दावानल लगते ही हैं और उनके माध्यम से प्रकृति जल-तत्त्व की अति को साध लेती है। इस प्रकार पहले खांडववन में वर्षा एवं दावाग्नि एक दूसरे के दोषों को सदा संतुलित व नियंत्रित कर लेती थी।.....
वासुदेव श्रेष्ठ काल्पनिक थे। श्रेष्ठ राज्य-शिल्पी भी। नगर बसाने की कला में दक्ष थे। द्वारका नगरी जिस उत्कृष्ठ योजना के अनुरूप बसाई गई थी वह उनकी कलात्मकता की परिचायक थी। फिर खांडवप्रस्थ राज्य तो आर्यावर्त के मध्य में है, जहाँ चारों ओर से विभिन्न राज्यों से प्रजाजन तथा नरेशों का आवागमन होता रहेगा और इसे हस्तिनापुर से उंडेल देना चाहते थे। नया राज्य सभी राज्यों में प्रशस्त हो। नई राजधानी सभी राजपुरियों से भव्य हो। भावी सम्राट हेतु एक उन्नत और विकसित मनोहारी राजधानी हो। उत्कृष्ट वास्तुकला से निर्मित राजभवन हो। श्रेष्ठ शिल्प से अलंकृत अनुपम सभाभवन हो। नागरिकों हेतु नयनाभिराम उद्यान, प्रमोद वन.....कुछ भी तो नहीं है ! इन टूटे-फूटे प्राचीन खंडहरों को पुनर्निर्मित कर-कर के कहाँ तक उन्हें भव्य रूप दिया जा सकता है !
वे न केवल एक धर्मराज अथवा धर्मधुरीण राजा की संरचना करना चाहते थे बल्कि हर दृष्टि से एक आदर्श राज्य की कल्पना को मूर्त रूप देना चाहते थे। उनके भीतर का एक महान् शिल्पकार एक महान् शिल्प को जन्म देने को छटपटा रहा था।
वासुदेव हस्तिनापुर के अन्यायप्रेमी राजकुल को यह भी दिखा देना चाहते थे कि सुपात्रों को अभिशप्त करके निपट वनप्रांत में भेजने पर, वहाँ भी किस प्रकार इन्द्रलोक उतारा जा सकता है। श्रीकृष्ण अपने अंतर में छिपे हुए मनोहारी स्वप्न को खांडवप्रस्थ में उतार देना चाहते थे।
परन्तु उनकी योजना के अनुकूल विकास क्यों नहीं हो पाया ? अभेद्य खांडव वनों के कारण। युधिष्ठिर ने बताया कि खांडववन में दैत्य, दानव तथा नागों की हिंसा प्रेमी दुर्दमनीय जातियाँ बसती हैं। आए दिन ये लोग खांडवप्रस्थ पर अचानक आक्रमण कर देते हैं और तुरन्त सघन वनों में लुप्त हो जाते हैं। शक्ति संचय फिर से एकाएक तुमुल आक्रमण करते हैं। विशेष रूप से नाग-प्रमुख तक्षक को अपने पड़ोस में खांडवराज्य की स्थापना किंचित् भी नहीं भाई। तक्षक ने उस क्षेत्र में उसे अपने वर्चस्व और एकाधिकार को चुनौती समझ लिया है। इसीलिए वह चिढ़ कर दैत्य-दानवों के साथ मिलकर जब तब शांति भंग करता रहता है। खांडववन की अंधकारपूर्ण गहनता का उन्हें आश्रय प्राप्त था अत: उन्हें नष्ट कर पाना भी संभव न था और उन्हें बिना नष्ट किये खांडवप्रस्थ राज्य को खांडववन सीमा तक विस्तृत करना संभव न था। इसलिए राज्य को चरागाह एवं कृषि हेतु अधिक भूमि भी उपलब्ध नहीं हो पाई थी।
चर्चा के मध्य ही भयंकर फूत्कार हुआ। सब चौंक पड़े। भीम गदा लेकर दौड़े किन्तु युधिष्ठिर ने रोक दिया।
‘तक्षक-कुल का पालित विषधर होगा। माधव ! हमारी स्थिति बहुत कुछ वैसी ही है जैसी व्रज में गोपवृंद की स्थिति कालिय नाग के कारण हुई थी। तक्षक हमसे स्पर्धा मानता है। युद्ध करता है। अपने पूज्य विषधरों को हमारी ओर छोड़ता रहता है। गत कृष्ण पक्ष में मेरे तीन सेवक सर्पजंश से काल-कवलित हो गए।’
कुंती दीर्घ नि:श्वास भर कर कहने लगी-‘वासुदेव’ ! कहने को तो यहाँ राज्य बस गया है किन्तु फिर भी रात-रात भर नीलगायों के खुरों की ध्वनियों और श्रृंगालों के समवेत रुदन-स्वर हृदय को कंपा जाते हैं। कितने ही वन्य-जन्तु तो भोजनालय तक में पहुँच जाते हैं। खांडववन का इतना पास होना हमारे लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।’
श्रीकृष्ण को विस्म्य हुआ- ‘परन्तु राजन् ! वन क्या सत्य इतना सघन है कि उसमें जाकर अर्जुन और भीम जैसे शूरवीर भी शत्रुओं का संहार नहीं कर सकते ! कैसा आश्चर्य ! यह तो वह वन है जहाँ सुप्रसिद्ध महात्माओं और आचार्यों के आश्रम रहे हैं। तो क्या नवे आश्रम अब वहाँ नहीं रहे ?’
तभी प्रतिहारी के साथ एक दीर्घकाय रक्त-काषायवस्त्रधारी प्रदीप्त गौरवर्ण वाले वृद्ध महात्मा का आगमन हुआ। उन विलक्षण ऋषि की अभ्यर्थना में सब खड़े हो गए। कौन हैं ये महात्मा जिनका व्यक्तित्व अग्निपुंज सा देदीप्यमान है ? सब चकित थे।
‘अहोभाग्य ! युधिष्ठिर, आगे बढ़े। महर्षि अग्निवेश का पर्दापण हुआ है आपके राज्य में’- श्रीकृष्ण ने पहचान कर कहा।
महर्षि अग्निवेश अपने तेजोमय रूप के कारण साक्षात् अग्नि के पुत्र लगते थे। इसीलिए पूरा नाम न लेकर उन्हें बहुधा लोग अग्नि ही कहते थे।
सत्कार के पश्चात् युधिष्ठिर ने पूछा-‘महात्मन ! आज्ञा दें आपकी क्या सेवा की जाए ?’
महर्षि अग्निवेश ने दीर्घ नि:श्वास ली।
‘राजन् ! मैं महर्षि अगस्त्य का शिष्य अग्निवेश हूँ। खांडववन में मेरा बहुत प्राचीन आश्रम है तथा दूर-सुदूर जनपदों से राजपुत्रगण मुझसे अस्तविद्या ग्रहण करने आते रहे है। युधिष्ठिर ! संभवत: आपको यह ज्ञात हो कि आपके गुरु द्रोणाचार्य एवं श्वसुर महाराज द्रुपद मेरे शिष्य रहे हैं। उन्होंने मुझसे ही अस्त्रविद्या पाई थी। परन्तु अब गत कई वर्षों से मुझे, आश्रमवासियों तथा विद्यार्थियों को घोर संकट का सामना करना पड़ रहा है अत: आपसे संकट-मुक्ति हेतु निवेदन करने आया हूँ।’
‘कैसे संकट महात्मन् ! आप आदेश दें’-युधिष्ठिर ने कहा।
राजन् ! जो खांडववन पहले हमारे आश्रम और विद्यार्थियों का रक्षक था, वही आज भक्षक-सा प्रतीत होने लगा है। गत कई वर्षों से उस पर दैत्य और दानव कुलों ने अतिक्रमण कर लिया है। एक-से-एक दुर्दान्त दस्युओं के वहाँ पर शरणस्थल स्थापित हो गए हैं। भयंकरतम पशुओं की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से वृद्धि हुई है। फिर, तक्षक नाग-कुल के लोग तो बर्बर एवं विकट रूप से हिंसा प्रेमी हैं। ये समस्त, नाग, दैत्य एवं दानव जातियाँ हमारे आश्रम के प्रति दुराग्रह रखती हैं। हमें शांति से नहीं रहने देतीं। वे लोग आए-दिन निर्दोष विद्यार्थियों का अपहरण कर ले जाते हैं। आश्रम में भिक्षा में प्राप्त जो थोड़ा बहुत अनाज संगृहीत रहता है, वही लूट ले जाते हैं। यज्ञ, अग्निहोत्र आदि सब में बाधाएं पड़ती हैं। नरोत्तम ! हम पर चारों ओर से आक्रमण होता है। इन आततायी मनुष्यों से यदि किसी भाँति बचते हैं तो भी हिंसक सिंहों, वन्य वाराहों, और असंख्य विषधरों के चक्रव्यूह में फंस कर हमें अपने जीवन हेतु इतना कठोर संघर्ष करना पड़ता है कि अब इतने प्राचीन आश्रम का वहाँ रह पाना असंभवप्राय हो गया है...’
युधिष्ठिर ने कहा- ‘महर्षि ! आप सत्य कहते हैं। जब वन के बाहर होने पर हम पर दैत्य, दानव, नाग, असुर और पशुओं का आक्रमण होता रहता है तो वन के भीतर तो आप सब की स्थिति अवश्य संकटपूर्ण है। महाभाग ! वो इतना विकट घना है कि समाज विरोधी तत्वों को नष्ट कैसे किया जाए यह समझ नहीं आता। खांडववन एक महती समस्या बन गया है। इन वन का क्या करें ?’
‘भस्म !’- श्रीकृष्ण के मुख से निकला।
‘भस्म ! वन को भस्म ?’- युधिष्ठिर ने विस्मय से पूछा।
‘माधव ! आप प्रकृति के उपासक हैं। वनों, वृक्षों और वनस्पतियों के अनन्य अनुरागी हैं फिर हरे-भरे वन को भस्म करने का परामर्श कैसे दे रहे हैं ?’
‘केवल आपद्धर्म के कारण। मेरे विचार से अभी महर्षि अग्निवेश की बात पूरी नहीं हुई है। महाभाग ! आप तो खांडववन में सुदीर्घ काल से रहते आ रहे हैं आप भी वहीं की परिस्थितियों पर और विस्तार से प्रकाश डाल सकते हैं।’- श्रीकृष्ण से आग्रह करते हुए कहा।
‘वासुदेव उचित कहते हैं, राजन् ! मेरी दृष्टि में वन को भस्म करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है इस संकट से बचने का। पांडुनंदन ! एक समय ऐसा था जब आश्रम हेतु हमें विशाल भूखंड उपलब्ध था। सघन वृक्षों की छाया भी रहती थी, सूर्य का प्रकाश भी रहता था और ज्योत्स्ना का भी हम उपयोग करते थे। तब हम नक्षत्रों के दर्शन भी कर सकते थे तथा खगोलविद्या के मूल सिद्धांत भी विद्यार्थियों को समझा सकते थे। महाभाग ! हमारा आश्रम समूचे आर्यावर्त में प्रमुख रूप से अस्त्रविद्या का सबसे बड़ा केन्द्र रहा है। अत: वहाँ रथ-स्पर्धा, सारथित्व, आश्वविद्या, आश्व-स्पर्धा एवं धनुर्विद्या तथा कई प्रक्षेपास्त्रों का संचालन करने का प्रशिक्षण दिया जाता था।....’
‘दुर्भाग्यवश अब स्थिति विपरीत हो गई है। अब वन इतना घना हो चुका है कि आप सूर्य-दर्शन ही असंभव हो गया है। दिन में भी संध्या-सा अंधकार रहता है और वसंत ग्रीष्मकाल में भी शीतकाल का अनुभव होता है। रथ-स्पर्धा एवं प्रक्षेपास्त्रों के अभ्यास का वह खुला उन्मुक्त विशाल भूखंड अब गहन गह्वरों में बदल गया है। विराट वृक्षों, सघन लताओं के कारण हम न सूर्य को अर्घ्य दे पाते हैं, न सूर्य नमस्कार कर पाते हैं। न अब वहाँ दौड़ पाते हैं, न अश्वस्पर्धा हो सकती है। और फिर दैत्य, असुर व नाग जातियाँ हमें न अग्निहोत्र करने देती हैं, न यज्ञ। दिन में उनके कारण साधना असंभव है, रात्रि में हिंसक पशुओं के कारण निद्रा असंभव है। अब आप ही बताए राजन् ! जिस आश्रम ने द्रोणाचार्य एवं महाराज द्रुपद जैसे महापराक्रमी, युद्धाचार्य एवं महावीरों को जन्म दिया, क्या वह आश्रम आतताइयों, दस्युओं व वन-वराहों द्वारा विनष्ट होने दिया जाए ?’
‘नहीं महाभाग ! ऐसा नहीं होगा। किन्तु समस्या का निदान ढूंढने हेतु समय अवश्य दें। यह समझ पाने में मैं असमर्थ हूँ कि वह वन आज इस दुर्दशा पर किस कारण से पहुँच गया है कि वहां दिन में घोर अंधकार रहने लगा है ?’- युधिष्ठिर ने चिंतित होकर कहा।
‘राजन् ! गत कई वर्षों से इन्द्र की विशेष कृपा हो रही है वन पर। पहले तो प्रमुख रूप से पावस ऋतु में ही घनघोर वर्षा होती थी, शेष वर्ष में जब कभी थोड़ी बहुत वृष्टि होती थी। अब कुछ ऐसा हो गया कि पूरे वर्ष जब तब घनघोर वर्षा होती ही रहती है। वर्षा से निरन्तर यही क्रम चलता आ रहा है इसलिए वर्ष-प्रति-वर्ष यह वन अधिक से अधिक घना होता गया है इसीलिए वहाँ असंख्य अपराध-प्रवृत्ति के मनुष्यों तथा हिंस्र पशुओं ने सुविधा ने अपने गुप्त आश्रमस्थल बना लिये हैं।’- महर्षि अग्निवेश ने समझाया।
सब लोग कौतुक-विमोहित हो यह विचित्र वार्ता सुन रहे थे।
‘किन्तु इन्द्र ऐसा क्यों कर रहे हैं ?’- युधिष्ठिर ने पूछा।
‘उत्तर में निस्तब्धता छा गई। कुछ पल बाद वासुदेव ने प्रकृति के रहस्यों का पुंज खोलना प्रारंभ किया।
‘महर्षि ! युधिष्ठिर ! इसका कारण सृष्टि के वे गूढ़ रहस्यमय नियम हैं जिनसे उसका संचालन होता है। मानव जब अपने सहज धर्म और स्वभाव से पथभ्रष्ट होने लगता है और प्रेम, दया, सहानुभूति के स्थान पर छल, कपट, ईर्ष्या, द्वेष तथा हिंसा का पथ पकड़ लेता है तब प्रकृति भी अपना स्वाभाविक धर्म छोड़कर पथ भ्रष्ट हो जाती है। आप जानते हैं कि भौतिक सृष्ठि चार तत्वों के समन्वय से निर्मित है, जब उसमें आत्मिक एवं प्राण तत्व जुड़ जाता है तब पंचमहातत्व अथवा पंचमहाभूतों के समन्वय से मानव जन्म होता है। प्रकृति के चार तत्व-जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी हैं। इनमें से विभिन्न तत्वों का परस्पर संघर्ष, घर्षण, द्रोह और असहयोग भी भू-स्खलन, चक्रवात, झंझावत, अतिवृष्टि, अनावृष्टि तथा ज्वालामुखी के विस्फोटों के कारण हैं। इसमें से किसी भी एक तत्त्व की अति मानव के लिए हानिकारक है। किन्तु किसी तत्त्व की अति अथवा अभाव घटिक होता क्यों है ? मानव के ही कारण.........’
‘जो प्राकृतिक असंतुलन खांडववन में घटित हुआ है, वह मनुष्य की ही करनी का परिणाम है। आज जो खांडववन में प्राकृतिक असंतुलन दिखा रहा है वह प्रकृति की चेतावनी मात्र है मनुष्य को ही वह समय रहते चेत जाए, सावधान हो जाए तथा अपनी अधर्मी और विध्वंसात्मक प्रवृत्ति को त्याग दे। महाभाग ! वर्तमान स्थिति में यह स्पष्ट रूप से सिद्ध हो गया है कि प्रकृति के चारों तत्वों में से अग्नि और जल तत्त्वों में समन्वय और सहयोग नहीं रह गया है। बल्कि दोनों में परस्पर द्रोह हो गया है इसलिये दोनों परस्पर संघर्ष व असहयोग से सृष्टि की व्यवस्था उलट-पुलट हो गई है। पहले खांडव वन में भी सब ऋतुएं समय पर आती रही होंगी तथा अपना-अपना धर्म निभा कर योगदान देती रही होंगी। प्रकृति स्वयं ही संतुलन तथा नियंत्रण के नियम से चलती है। वर्षा काल में घोर वर्षा होने से जंगल घने होकर भयावह रूप धारण कर लेते हैं, किन्तु ग्रीष्मकाल में दावाग्नि लग जाती है और वह वन असंतुलित आकार और विकरालता को छांट देती है। वर्ष-दो-वर्ष में तो ग्रीष्मकाल में नियमानुसार दावानल लगते ही हैं और उनके माध्यम से प्रकृति जल-तत्त्व की अति को साध लेती है। इस प्रकार पहले खांडववन में वर्षा एवं दावाग्नि एक दूसरे के दोषों को सदा संतुलित व नियंत्रित कर लेती थी।.....
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