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एक चिड़िया अलगनी पर एक मन में

यश मालवीय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2319
आईएसबीएन :81-8031-059-4

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प्रस्तुत है प्रेम की कविताएँ...

Ek Chidiya Algani Per ek Man Main

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये कविताएँ प्रेम की रिश्तेदार हैं, ये कविताएँ प्रकृति की सहेली हैं, ये कविताएँ प्रेरणा की सहचर हैं....ये प्रेरणा है मनुष्य की तलाश की, ये तलाश है मनुष्य में प्रेम की...। यह प्रेम अधिम नहीं है, यह अधुनातन है...। यह आधुनिकता प्रेम की अन्तरंग है। यह मनुष्य के अवतल की मिट्टी में पैबस्त प्रेम की नमी का फूलों में अनुवाद है। आज के मनुष्य़ के जटिल जीवन, मानसिकता और साइकिल की उतरती चेन जैसी रुटीन अपरिभाषित तकलीफों के बीच, स्पांडिलाइटिस और कर्ज जैसी रोजमर्रा की जद्दोजहद में पनपते ये प्यार के गीत हैं। ये जिजीविषा का छांदसिक अनुवाद हैं। इन्हें अपनी भाषा में जगह दें....। अंशु मालवीय के शब्दों में कहा जाए तो-
दो अजनबी
भाषाओं की तरह मिले हम़
ध्वनियाँ, आहटें
कुछ-कुछ जानी पहचानी
कोने अंतर, नोक पलक, मौन अंतस
गर्भवती चुप्पियाँ अनजानी दो अजनबी भाषाओं की तरह मिले हम चकित, अलग-अलग
ग्रहों के अरिचित दोनों ही, दोनों किरदारों में एक साथ अविष्कारक और
अविष्कृत
महक, अबुझ, छुअन अकथ
फिर समान संकेतों की
तहें खलता हुआ
तलाश की बेचैनी के साथ
हैँ ! फिर आया प्यार हमारे बीच अनुवाद की तरह
दो अजनबी भाषाओं की तरह मिले थे हम।

एक चिड़िया अलगनी पर एक मन में


गीत की चिड़िया कहीं दूर उड़ गयी-सी लगती है, लेकिन मेरी हिमाक़त देखिये कि मैं उसे अलगनी पर बैठा हुआ देख रहा हूँ। यह चिड़िया वस्तुत: जीवन-राग की है, जो उड़ गयी सी लगती भले हो पर कहीं दूर नहीं गयी है, अक्सर ही मुँडेर पर, अलगनी पर, हमारे आस-पास एक गूँज की शक्ल में उभरती है। हमारे मन के आँगन में बिखरे सम्वेदना के दाने चुगती है, चहचहाती है कहीं आत्मा में। हमें अलस्सुबह नींद से जगाती है और लोरियाँ भी सुनाती है। इसकी लोरी में कभी कोई थकान नहीं होती। यह सारी थकान स्वर के होठों या चोंच से पी जाती है। यह अकाल में भी गाती है, बारिश में भीगती भी यही है, क्योंकि यह गीत की चिड़िया है, इसे हमारी आपकी अलगनियों पर सूखते हुए कपड़ों के बीच बैठना ही है। इसकी आँखों में, पंखों में जाने कितने आसमान, कितने इन्द्र धनुष छुपे होते हैं। इसकी आँखों में विद्यापति से लेकर पन्त, निराला, महादेवी, बच्चन, नेपाली, वीरेन्द्र मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, रवीन्द्र भ्रमर, उमाकान्त मालवीय, रमेश रंजक तक झाँकते आये हैं। आज हम इसकी आँखों में झाँक रहे हैं। इसकी आँखों में गीत के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं। आज जिस गीत की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लग रहा है, उस गीत की सम्वेदना को आज भी जी रहे हैं, हमारे घर त्यौहार। वह जो कहते थे कि रूमान मेरे निकट एक मूल्य है, आज भले मंच पर न दिख रहे हों, पर नेपथ्य से उभरता आलोक उन्हीं का दिया है। रूप-रस-गन्ध का परिपाक उनके चिरंतन जीवन मूल्यों का सत्य है।

गीत की चिड़िया अलगनी से उड़ती भी है तो देर तक अलगनी हिलती रहती है, यह हिलते रहना भी उसके होने का प्रमाण होता है। राग बोध हमारी सम्वेदना का सत्य है, इस सत्य से साक्षात्कार के अवसर हमें रोज ही मिलते हैं। हमारे भीतर ही कहीं खोट होता है कि हम इसकी आँखों में आँखें डालकर देर तक बातें नहीं कर पाते। यह साक्षात्कार सौंदर्य की आँच में सीझना होता है, रेशा-रेशा रस से भरना होता है। आत्मा में निचोड़ना होता है याद में भीगे अँगरखे को, निकलना होता है प्रेम की तलाश में, प्रेम जो कभी अभिशप्त नहीं होता। प्रेम जो कभी मरता नहीं, जो आत्मा की तरह अजर-अमर होता है, मगर इसे शब्द देना तलवार की धार पर चलने जैसा होता है। यह इतना सूक्ष्म होता है कि नज़र ही नहीं आता, यह इतना स्थूल होता है कि फिर इसके सिवा कुछ दिखाई भी नहीं देता।

गीत की चिड़िया ने इसी प्रेम को आत्मा में धारा है। इसके चलते कोई कितना भी चिड़िया के पंख नोंचे, यह लहू-लुहान होती ही नहीं। यह युगदंश अनुभव तो करती है पर अपनी अलगनी, अपनी मुँडेर, अपनी उड़ान, अपना आसमान, अपना इन्द्रधनुष कभी भूलती नहीं। इसी कारण सूने में भी गाती है। मरुस्थल में भी पंखों से रेत झाड़ कर उड़ लेती है, ढूँढ़ लेती है कितने ही क्षितिज, जिन पर सम्भावना के अनेक सूरज उगाती है। सूरज-जिसकी किरणें आत्मीय ऊष्मा की उंगलियाँ छूती ही हैं। उंगलियाँ जिनके छू भर लेने से सोये हुए फूल जाग उठते हैं, जाग उठती हैं सोई हुई घाटियाँ। खिल उठते हैं नदी-घाटी झरने वन-प्रान्तर, हो जाता है काली रात की स्लेट पर उजियारे की इबारत उकेरता सवेरा। इस सवेरे को कभी छंद की वापसी तो कभी गीत की वापसी कहा जाता है, जबकि यह सवेरा हमारी अपनी साँसों में ही भरा समोया होता है, हम ही इसकी ओर से आँखें मूँद लेते हैं ? बहरहाल, यह अनुभव होता है इतना ही बहुत है। यह इस बात का साक्षी भी है कि हमारे गीतात्मक मूल्य मरे नहीं है, हमारी गीत-प्राणता कहीं बहुत गहरे में जी-जाग रही है।

अब देखने की बात यह है कि हमारे गीत संसार में, मेरे गीतों की उपस्थिति कितनी और कैसी है। गीत की चिड़िया कई बार मेरे हाथ में आकर फुर्र से उड़ जाती है, आँखें झलमला कर रह जाती हैं। इस चिड़िया को मैं कई बार पत्नी या प्रिया की आँखों में पंख खुजाते देखता हूँ। उसकी आँखों की चमक और तरलता में मुझे उसी गीत के दर्शन होते हैं,जिसे प्रायः खो गया सा मान लिया जाता है। तात्पर्य यह कि हम ही गीत ढूँढ़ना नहीं चाहते जबकि वह सौंदर्य के घाटों पर अँजुरी-अँजुरी पानी पी रहा होता है, वह कभी रीतता, बीतता नहीं, वह कालातीत है। उसे कभी कृतज्ञ आँखों से देखो, हिलोरें मारता दिखाई देगा। उसे कभी अपने भीतर की आँखों से देखो सीढ़ियाँ उतरता दिखाई देगा।

खैर, मुझे लगातार आँगन की अलगनी पर बैठी चिड़िया टुकुर-टुकुर निहार रही है। उसके निहारने से मेरे भीतर का मौसम ठंडी हवाओं में भीगने लगता है। यह भीगापन मुझे रोम-रोम रन्ध्र-रन्ध्र से आत्मसात कर रहा है। मैं आत्मसात कर रहा हूँ उसकी आत्मीयता का अक्षत। यह अक्षत मैं आप पर भी छोड़ता हूँ क्योंकि आप ही इस अक्षत का पावन-भाव महसूस कर सकते हैं, क्योंकि आप पढ़ते-जीते हैं और ईमानदारी से हर पढ़ने-जीने वाला मुझे भगवान नज़र आता है। यह पूजा के ही अक्षत हैं मेरे गीत जो मूर्त होते हैं तो अलगनी की चिड़िया होते हैं और अमूर्त होते हैं तो हमारी साँसों का सच हो जाते हैं।
-यश मालवीय


सूनापन चहका-चहका



अभिवादन बादल-बादल
ख़बर लिये वन-उपवन की
कितने आशीर्वाद लिये
पहली बरखा सावन की

बरस-बरस बरसे हैं घन
अब की भी घुमड़े बरसे
लेकिन पिछली ऋतु जैसे
मन के हिरन नहीं तरसे
सूनापन चहका-चहका
चिड़िया चहकी आँगन की

रूनक-झुनक-झुन पायल की
बूँदों की रुनझुन-रूनझुन
सगुन हो रहे क्षण-क्षण पर
स्वस्तिक सजा, मिटा असगुन
घड़ी-घड़ी पर छवि निरखूँ
अपने जिया-जुड़ावन की

उमड़ रही जामुनी घटा
सजता आँखों का काजल
हरी-हरी पगडंडी पर
मौसम है श्यामल-श्यामल
रूप इंद्रधनु खिला-खिला
हुई समस्या दरपन की

मान के हर प्रश्न पर...



मान के हर प्रश्न पर
आग्रह रहा है
चाँद रोशनदान से
कुछ कह रहा है

एक जोड़ा फूल
कमरा महमहाया
कुनकुनी सी साँस में
मधुवन समाया
स्वर सजा सा मौन
बाँहें गह रहा है

गिरा बटुआ गगन का
बिखरे सितारे
झिलझाते तीर्थ,
आँगन में उतारे
चाँदनी की नाव में
मन बह रहा है

रोशनी की छलकती
बटुई कहीं पर
लो सुबह भी आ रही
है नींद दूभर
यह पहर चुपचाप
कपड़े तह रहा है


तुम आए !


मन की ऋतु बदली
तुम आए !
रात हुई उजली
तुम आए !

ओस कणों से लगे बीतने
घंटे आधे-पौने
बाँसों लगे उछलने फिर से
प्राणों के मृग-छौने
फूल हुए-तितली
तुम आए !

लगी दौड़ने तन पर जैसे
कोई ढीठ गिलहरी
दिये जले रोशनी नहाई
पुलकी सूनी देहरी
लिए दही-मछली
तुम आए!

आँगन की अल्पना सरीखे
गीत सजे उपवन में
नंगे पाँव टहलने निकले
दो सपने मधुवन में
हवा करे चुगली
तुम आए !

मन की ऊँची चहारदीवारी



मन की ऊँची चहारदीवारी
चलो इसे दो क्षण में लाँघ लें

घास पर चलें
खुसुर-पुसुर करें
बात-बात पर
नाही-नुकुर करें
अँजुरी में चेहरा महसूस करें
हर खिड़की पर चंदा टाँग लें

छुट्टी का दिन
देखें बंद घड़ी
चाभी देने की
अब किसे पड़ी
लमहा-दर-लमहा डायरी लिखें
कोई तो बड़ा काम नाँध लें

चौपड़ पर
बिखरायें गुट्टियाँ
जीत-हार की
सौ-सौ चुट्टियाँ
चले छेड़खानी का सिलसिला
आपस में कुछ दें कुछ माँग लें

त्यौहारों के दिन



फूल भरा रूमाल बिखेरे
गन्ध भरे पल-छिन
अब भी कभी याद आते हैं
त्यौहारों के दिन

दीवारों पर ऐपन वाला
हाथ अभी भी है
कभी अकेले में हो तो वह
साथ अभी भी है
चुहल-शरारत मीठे लमहे
क्या नकदी क्या ऋण

तैर रहे ईंगुर के अक्षर
उजले दरपन में
गीले पाँव बने हैं अब भी
घर में आँगन में
रीती गागर छोड़ गयी है
तट पर पनिहारिन

अपने मन का बना घरौंदा
ईंटे-गारे से
अभी गया मनिहार लौट कर
देहरी-द्वारे से
चिठ्ठी भेज रही नम आँखें
बीत रहा आश्विन

धूप उतारे राई-नोन



धूप उतारे राई-नोन
आँगन में महका लोहबान
गन्ध नहाये भीगे प्राण
हम सा भाग्यवान है कौन ?

पानी उठ-उठ कर गिरता
बीच नदी में मन तिरता
लहरों के बनते हैं कोण

आँखों में चन्दन के वन
युकलिप्टस के चिकने तन
दिन साखू रातें सागौन

ख़ुशबुओं ने हठ तजे



फिर हरे होने लगे
अनुभूतियों के वन
छूप में ही मुस्करायी
एक छाँव सघन
एक दुबली मेड़ जैसी
धूप तिरछे घूमती

होठ झरने के
ज़रा सा थरथराकर चूमती
झील में गहरे कहीं
डुबकी लगाता मन
ओस के कण फूल जैसे
किरन धागों में सजे
हवा ने जब छुई टहनी
ख़ुशबुओं ने हठ तजे

लगे सूर्योदय सरीखा
हर पहर, हर क्षण
आँख भर देखा गगन
फिर मेघ बरबस छा गये
शाख से जा कर उलझते
ये किधर से आ गये ?
खड़ी एड़ी पर पहाड़ी
उठाती गर्दन

घनी छाँव आयी



एक अपरिचित गन्ध,
कहीं से दबे पाँव आयी
जैसे सूने तट,
फूलों से लदी नाव आयी

कितना भी अज्ञातवास हो
साथ चलें छवियाँ
छज्जे आँगन दालानों भर
सुधियाँ ही सुधियाँ
ख़ुशी कनी बन कर फुहार की
गली गाँव आयी

छलक गया गगरी से पानी
मन था भरा-भरा
आँखों में छौने सा दुबका
सपना डरा-डरा
कड़ी धूप में चलते-चलते
घनी छाँव आयी

माथ सजा नक्षत्र, थाल में
नन्हा दिया जले
सुख के सौ सन्दर्भ जुड़े तो
गीत हुए उजले
पथ भूली ऋतु पता पूछ कर
ठौर-ठाँव आयी

बोलकर तुमसे



फूल सा हल्का हुआ मन
बोलकर तुमसे
आँख भर बरसा घिरा घन
बोलकर तुमसे

स्वप्न पीले पड़ गये थे
तुम गये जब से
बहुत आजिज़ आ गये थे
रोज़ के ढब से
मौन फिर बुनता हरापन
बोलकर तुमसे

तुम नहीं थे, ख़ुशी थी
जैसे कहीं खोई
तुम मिले तो ज्यों मिला
खोया सिरा कोई
पा गये जैसे गड़ा धन
बोलकर तुमसे

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