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प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास

जयशंकर प्रसाद

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :520
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2318
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है जयशंकर प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास.....

Prasad ke sampoornya upanyas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

जयशंकर प्रसाद

हिन्दी कथा-साहित्य के विकास के प्रथम चरण में ही प्रसाद जी ने कविताओं के साथ कथा-साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया। उनकी सांस्कृतिक अभिरूचि और वैयक्तिक भावानुभूति की स्पष्ट छाप के कारण उनके द्वारा रचित कथा-साहित्य अपनी एक अलग पहचान बनाने में पूर्णतः सक्षम हुआ।

‘कंकाल’ और ‘तितली’ की रचना पर युगीन बोध का प्रभाव स्पष्ट लक्षित होता है लाचार और बेबश स्त्रियों की समस्याओं के आधार पर यथार्थ के बाल-निरूपण का जैसा चित्रण उस समय लेखक कर रहे थे प्रसाद जी उनकी पंक्ति में खड़े हुए और उन्होंने सच्चाई की आन्तरिक औरतों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया। एक तरफ से देखे तो वे व्यक्ति के अन्तर संबंधी के कथाकार है और व्यक्ति के मन की गहराइयों में प्रवेश कर उसे उट्घाटित करना चाहते हैं।
‘तितली’ का कथा-शिल्प और वस्तु-विन्यास ब्राह्म यथार्थ और तत्त्कालीन सामाजिक संदर्भों के प्रति अधिक संवेदनशील है। यही कारण है कि ‘तितली’ एक श्रेष्ठ उपन्यास बन सका है।

‘इरावती’ अधूरी रचना है शुँगकालीन ऐतिहासिक कथा-वस्तु को बड़ी सहजता से इसमें चित्रित किया जा रहा था। और बौद्धकालीन रूढ़ियों और विकृतियों के प्रति विद्रोह की सृष्टि की परिणति से निश्चय ही यह उपन्यास एक श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास बन जाता। लेकिन प्रसादजी इसे पूरा नहीं कर सके।
कुल मिलाकर प्रसाद जी का उपन्यास साहित्य उनकी सांस्कृतिक दृष्टि और अनुभूति पर रचना बोध के कारण हिन्दी कथा साहित्य में चिरस्मरणीय बना रहेगा।

प्राक्कथन


जयशंकर प्रसाद अपने समय के प्रयोगधर्मी रचनाकार थे। भारतेन्दु युगीन खुमारी से मुक्त होकर उन्होंने नाटक और कविता के क्षेत्र में ही नहीं कथा साहित्य के क्षेत्र में भी प्रयोग किया। 1926 से 1929 ई. के बीच प्रसाद के दृष्टिकोण में यथार्थ के प्रति परिवर्तन दिखाई पड़ता है, जिसका प्रमाण ‘प्रतिध्वनि’, ‘स्कंदगुप्त’ और ‘चन्द्रगुप्त’ में भी मिलता है। यह परिवर्तन उनकी मूल स्थापनाओं में कम संसार की पहचान के स्तर पर ही अधिक हुआ है। साहित्य, समाज और मानव संस्कृति आदि उनके लिए अलग-अलग प्रत्यय नहीं बल्कि प्रत्यय श्रंखलाएँ हैं। उनकी प्रमुख समस्या है कि मनुष्य के बिना किसी विकृति और अवरोध के कैसे पूर्णता प्राप्त कर सकता है। कैसे वह अपनी मुक्ति के साथ-साथ दूसरों को मुक्त रख सकता है। वे प्रारम्भ से ही आनन्द को एक मूल्य मानकर चलते हैं और बुद्धि या विवेक को अपूर्णता का कारण मानते हैं।

 अपूर्णता का बोध ही प्रगति का लक्ष्य है और प्रसाद जी की प्रगति की अवधारणा देहात्मवादियों, वैज्ञानिक भौतिकवादियों और साम्यवादियों से नितान्त भिन्न हैं। इसलिए प्रसाद जी सांस्कृतिक प्रगतिशीलता शब्द का व्यवहार करते हैं। जगत और जीव के प्रति उनका दृष्टिकोण अपने समकालीनों से नितान्त भिन्न है और इसलिए मनुष्य के सारे कृतित्व या हर प्रकार की अभिव्यक्ति की परिभाषा भी भिन्न है। प्रसाद जी के लिए साहित्य ही नहीं संसार का समग्र चिंतन दो स्पष्ट वर्गों में विभक्त है, जिसकी पुरातात्विक मीमांसा वरुण और इन्द्र के मूल संघर्षों में है। वे इन्द्र को आनन्द साहित्य, संगीत और नृत्य आदि से सम्बद्ध ललित कलाओं के प्रतीक के रूप में देखते हैं और इस तर्क के सारे ऐन्द्रिक बोध और संवेदनाएँ भी इन्द्र से जुड़ जाती हैं। वरुण को उन्होंने विवेक और बुद्धि की परम्परा से जोड़ा है क्योंकि वह वैज्ञानिकता का प्रतीक है। प्रसाद जी के इस विवेचन के मूल में ‘सुखद:खात्मको’ भाव: को भी देखा जा सकता है और आत्मवशता और परवशता की परिभाषा भी खोजी जा सकती है। वस्तुत: प्रसाद जी साहित्य को सांस्कृतिक प्रक्रिया का एक अंग मानते हैं। संस्कृति बोध उनकी दृष्टि से साहित्य बोध से अलग नहीं है। विवेकवाद की यह धारा दु:ख और दु:ख से मुक्ति के उपायों को केन्द्र में मानने के कारण बाजपेयी जी के अनुसार साहित्य में आदर्शर्वाद विवेकवाद और यथार्थवाद विवेकवाद की प्रतिष्ठा करती है।

रामायण के आदर्शात्मक विवेकवाद और महाभारत के यथार्थवादी विवेकवाद के परिणाम प्रसाद जी के अनुसार लौकिक संस्कृत के क्लासिक और रोमांटिक धाराओं में तथा रासो, आल्हा एवं भक्तिकाल की विभिन्न रचनाओं में परिणत हुए परंतु ‘‘विवेकवादी काव्यधारा मानव में राम हैं – या लोकातीत परम शक्ति इसी के विवेचन में लगी रही। मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, यह बोध, यह रसानुभूति विवृत्त नहीं हो सकी।’’ कंकाल, तितली और इरावती में विवेकवाद धारा के परिणाम यथार्थवादी रूप में वर्णित, कथित और दर्शित किये गये हैं। और अन्तत: मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, इसकी प्रतिष्ठा करने की कोशिश भी की गई है। लेकिन उपन्यास में इस कोशिश के बावजूद कई प्रश्न और प्रश्नों के उत्तर प्रसाद से पहले के सामाजित स्थिति और उसकी अभिव्यक्ति विधानों में पूछे गए प्रश्नों के उत्तरों से भिन्न हैं और यही भिन्नता प्रसाद के कंकाल और तितली के महत्त्वपूर्ण और युगान्तकारी है अपेक्षाकृत तितली के।

 परंतु इस प्रकार के प्रश्नोंत्तरों को समझने के पूर्व प्रसाद के आदर्श और यथार्थ संबंधी दृष्टिकोण को समझना आवश्यक है क्योंकि प्रसाद जी इस संबंध में स्वयं भी वरुण और इन्द्र की कई परिणतियों को एक तर्कक्रम में रखकर देखना चाहते हैं। कृति, विकृति और संस्कृति के तर्क से दो प्रतिगामी धाराओं के मिलने से उत्पन्न नयी धारा यथार्थ और जीवन्त होती है क्योंकि वह किसी दबाव का नहीं प्रक्रिया का परिणाम होती है। ‘‘भौगोलिक परिस्थितियाँ और काल की दीर्घता तथा उसके द्वारा होने वाले सौंदर्य संबंधी विचारों का सतत अभ्यास एक विशेष ढंग की रुचि उत्पन्न करता है, और वही रुचि सौंदर्य अनुभूति की तुला बन जाती है, इसी से हमारे सजातीय विचार बनते हैं और स्निग्धता मिलती है। इसी के द्वारा हम अपने रहन-सहन, अपनी अभिव्यक्ति का सामूहिक रूप से संस्कृत रूप में प्रदर्शन कर सकते हैं। यह संस्कृति विश्ववाद की विरोधिनी नहीं; क्योंकि इसका उपयोग तो मानव समाज में आरंभिक प्राणित्त्व-धर्म में सीमित मनोभावों को सदा प्रशस्त और विकासोन्मुख बनने के लिए होता है।

संस्कृत मंदिर, गिरजा और मस्जिद विहीन प्रान्तों में अत: प्रतिष्ठित होकर सौंदर्य बोध की वाह्य सत्ताओं का सृजन करती है। संस्कृति का सामूहिक चेतनता से, मानसिक शील और शिष्टाचारों से मनोभावों से मौलिक संबंध है। ... संस्कृति सौंदर्य बोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा है। इसलिए साहित्य के विवेचन में भारतीय संस्कृति और तदनुकूल सौंदर्यानुभूति की खोज अप्रासंगिक नहीं, किन्तु आवश्यक है।’’ सौंदर्य बोध के इसी मूल्यांकन क्रम में प्रसाज जी पाश्चात्य और भारतीय सौंदर्य दृष्टि का मूल्यांकन करते हुए हेगेल के आधार पर बने मूर्तता और अमूर्तता के सिद्धान्त को नकारते हुए यह स्थापना करते हैं कि ‘‘भारतीय विचारधारा ज्ञानात्मक होने के कारण मूर्त और अमूर्त का भेद हटाते हुए बाह्य और आभ्यंतर का एकीकरण करने का प्रयत्न करती है।’’ 1925 के बाद जयशंकर प्रसाद के साहित्य में यह संस्कृति बोध अत्यन्त प्रबलता से पाया जाता है। कामायनी, कंकाल और इरावती में वाह्य और आभ्यंतर के एकता की यही समस्या है। वे इस संदर्भ में अद्वयता के सिद्धांत का प्रतिपादन करते हैं और अद्वयता एक प्रकार की घुलनशीलता है जो बुद्धि को अनुभूति में घुलाने से ही आ सकती है। अपना कंचुक या आवरण छोड़कर एक दूसरे में लय होने का सिद्धांत कामायनी में ही नहीं अजातशत्रु, सकन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त, एक घूँट और ध्रुवस्वामिनी में पाया जाता है। यह संतुलन व्यष्टि और समष्टि के घुलाने या समझौता कराने का समीकरण भी है।

ईश्वर के प्रति निष्काम भावना और विश्वास प्रसाद में अंतिम समय तक बना रहा। आनन्द और नियतिवादिता का यह घना रिश्ता ईश्वर के माध्यम से ही बनता है। शैवमतावलम्बी जयशंकर प्रसाद की सभी कृतियों में प्राय: एक ‘अदृश्य शक्ति के संचालनत्त्व’ का तर्क दिखाई पड़ता है, जो घोर से घोर नास्तिक को अंतत: आस्तिक बना देता है। कंकाल का विजय इसका प्रमुख उदाहरण है। यह एक विचित्र अन्तर्विरोध है जो उनकी कृतियों में पाया जाता है। कंकाल, तितली और इरावती नियतिवाद उपन्यास हैं। शैल का यह कथन है कि ‘‘नियति दुस्तर समुद्र पार कराती है, चिरकाल के अतीत को वर्तमान से क्षण भर में जोड़ देती है और अपरिचित मानवता सिंधु में से उसी एक से परिचय करा देती है। जिससे जीवन की अग्रगामिनी धारा अपना पथ निर्दिष्ट करती है’’ (तितली, पृ.54) नियतिवादी तर्क है। यह तर्क उपन्यास में कहीं भी अकर्मण्यता का भाव नहीं पैदा करता है बल्कि मानवता के कल्याण के लिए निरंतर सेवा और त्याग को एक मूल्य मानकर स्थापित करता है। प्रसाद की प्रमुख चिंता ‘दिव्य आर्य संस्कृति की स्थापना है’ यह संस्कृति व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास को मान कर चलती है और ‘विधि निषेध’ के बंधनों से मुक्त रहती है। आर्य समाज से प्रभावित होते हुए भी प्रसाद का यह दृष्टिकोण आर्य समाज की शुष्कता से रहित है क्योंकि इसमें प्रेम, प्रमोद और आनन्द को प्राप्य माना गया है। ‘इरावती’ में आनन्दवाद का ‘एक घूँट’ नाटक की भाँति प्रचार पाया जाता है। भारत की निर्वीयता और आलस्य का कारण विवेकवाद और बुद्धिवाद को मानते हुए आनन्द की ही दुन्दुभी बजाए जाने का इसमें संकल्प है, क्योंकि आनन्द एक ऐसा मूल्य है, जो मानव-जीवन में ‘रागतत्त्व’ पैदा करता है और यही रागतत्त्व संगीत, नृत्य आदि विविध कलाओं के रूप में अवतरित होकर जीवन्त समाज की सृष्टि करता है।

 ‘इरावती’ में इसीलिए बौद्ध धर्म की निवृत्तिमूलकता और निषेधात्मकता से विद्रोह का भाव पाया जाता है, जो भारतीय समाज की निवृत्तिमूलक निषेधात्मक प्रवृत्तियों को निरर्थक मानकर आत्मवादी साधना को प्रमुखता देता है। आनन्दवाद व्यक्ति की समनोवृत्तियों की संतुष्टि को केन्द्र में रखकर ‘व्यक्ति’ को प्रमुख इकाई मानता है और समष्टि को गौण। ‘असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिगर्मय और मृत्योर्मामृतंगमय’ यद्यपि आर्यसमाज का प्रमुख नारा है और वनजरिया के बाबा रामनाथ महर्षि दयानंद से प्रभावित भी हैं परन्तु बाबा रामनाथ या कंकाल के स्वामी कृष्णशरण जी आर्य समाजी नहीं हैं बल्कि मैथिलीशरण गुप्त के ‘भारत भारती’ के उद्बोधनों के समान सोते हुए भी भारतीय जनता को जगाने का कार्य करने वाले ऐसे संस्कृति पुरुष हैं, जिसके माध्यम से प्रसाद जी केवल भारतीय जाति का ही नहीं मानवता के कल्याण को सांस्कृतिक उद्घोषणा करते हैं। प्रसाद प्रेमचन्द की तरह उपन्यास में इनकी स्थापना के लिए कहीं स्वत: नहीं उपस्थित होते हैं बल्कि दूर खड़े होकर दृश्य का प्रस्तुतीकरण देखते हैं।

प्रसाद जी की समस्या है कि रूढ़ियों और अंधविश्वासों से जर्जरित भारतीय समाज का विकल्प क्या है ? यह वेदना ही संकल्पात्मक रूप धारण करके 1926 के बाद से उनके हर कृतित्व का विषय बनती रही है। दु:ख और दु:ख के विभिन्न कारणों के प्रसादीय निष्कर्ष ‘स्कन्दगुप्त’, ‘चन्द्रगुप्त’, ‘एक घूँट’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आँधी’, ‘इन्द्रजाल’, ‘कंकाल’ और ‘तितली’ की कृतियों के रूप में सृजित हुए हैं। और इन उपन्यासों में प्रवाहित जीवन दृष्टि ही बाद में उनके निबंधों का विषय बनी। ये कृतियाँ बदलते हुए समाज और उसके नये बनते हुए मानव संबंधों को ही नहीं बल्कि ढहते, सड़ते, और डूबते हुए उन संस्थानों को भी उद्घाटित करती हैं, जो बीसवीं शताब्दी में अपना अर्थ खो चुके हैं। छायावादी प्रवृत्ति के सामाजिक आधार को चित्रित करने या दिखाने के साथ-साथ जयशंकर प्रसाद के दिमाग में अपने समाकालीन रचनाकारों से कहीं अधिक बढ़कर ‘विश्व मानवता’ की चिन्ता थी। मुझे तो यह भी लगता है कि संसार में उठते हुए नये सामाजिक प्रश्नों के फ्रायड, मार्क्स, डार्विन और न्यूटन आदि के द्वारा दिये गये उत्तरों से वे संतुष्ट नहीं थे। इन मनीषियों की वाणियाँ कंकाल और तितली में सुनाई पड़ती हैं। कुछ उत्तर तो वे महात्मा गाँधी की तरह भी देना चाहते हैं परंतु कुछ उनसे भिन्न हैं। इरावती महात्मा गाँधी के द्वारा दिये गये अहिंसा के उत्तर के प्रतिकूल है। प्रसाद की यह चिन्तनशीलता प्रेमचन्द्र के उपन्यासों का विषय क्यों बनी या हिन्दी उपन्यास प्रसाद के रास्ते क्यों चला प्रेमचंद्र के रास्ते क्यों नहीं ? इस प्रकार का प्रश्न हो सकता है परंतु यहाँ उसका औचित्य नहीं है। वस्तुत: सामाजिक स्थिति की यह पहचान प्रसाद को एक प्रकार के संकल्पात्मकता की तरफ ले जाती है और वह संकल्प उनकी काव्यात्मक प्रवृत्ति के कारण संकोच के साथ उपन्यासों में भी दिखाई पड़ता है। ‘वेदना’ की इस विवृत्ति का कारण क्या है ? और साहित्य का समाज बीज क्या है ? इसके लिए निम्न उद्धरण महत्त्वपूर्ण है।

‘‘हमारी धार्मिक भावनाएं बँटी हुई हैं, सामाजिक जीवन दंभ से और राजनीतिक क्षेत्र कलह और स्वार्थ से जकड़ा हुआ है। शक्तियाँ हैं पर उनका कोई केन्द्र नहीं किस पर अभिमान हो किसके लिए प्राण दूँ।’’


(दासी – आँधी, पृ.59)।


‘‘क्यों, क्या हिन्दू होना परम सौभाग्य की बात है। जब उस समाज का अधिकांश पददलित और दुर्दशाग्रस्त है, जब उसके अभिमान और गौरव की वस्तु धरापृष्ठ पर नहीं बची – उसकी संस्कृति विडंबना, उसकी संस्था सारहीन, और राष्ट्र बौद्धों के शून्य के सदृश बन गया है; जब संसार की अन्य जातियाँ सार्वजनिक भ्रातृभाव और साम्यवाद को लेकर खड़ी हैं तब आपके इन खिलौनों (मूर्तियों) से भला उनकी संतुष्टि होगी ?’’


(कंकाल, पृ.56) ।


‘‘भारतवर्ष आज वर्णों और जातियों के बंधन में जकड़ कर कष्ट पा रहा है और दूसरों को कष्ट दे रहा है। यद्यपि अन्य देशों में भी इस प्रकार के समूह बन गये हैं; परन्तु यहाँ इसका भीषण रूप है। यह महत्त्व का संस्कार अधिक दिनों तक प्रभुत्त्व भोग कर खोखला हो गया है। दूसरों की उन्नति से उसे डाह होने लगा है। समाज अपना महत्त्व धारण करने की क्षमता खो चुका है परंतु व्यक्तियों की उन्नति का दल बनाकर सामूहिक रूप से विरोध करने लगा है प्रत्येक व्यक्ति अपनी झूठी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे को नीचा – अपने से छोटा समझता है जिससे सामाजिक विषमता प्रभाव फैल रहा है।’’


(कंकाल, पृ. 202)।


भगवान की भूमि भारत में स्त्रियों पर तथा मनुष्यों को पतित बनाकर बड़ा अन्याय हो रहा है। करोड़ों मनुष्य जंगलों में अभी पशु जीवन बिता रहे हैं। स्त्रियाँ विपथ पर जाने के लिए बाध्य की जाती हैं, तुमको उनका पक्ष लेना पड़ेगा। उठो !


(कंकाल, पृ. 111)।


‘‘हिन्दुओं में पारस्परिक तनिक भी सहानुभूति नहीं। मैं जल उठा। मनुष्य, मनुष्य के दु:ख – सुख से सौदा करने लगता है और उसका मापदंड बन जाता है रुपया। आप देखते नहीं कि हिन्दू की छोटी-सी गृहस्थी में कूड़ा करकट तक जुटा रखने की चाल है, और उन पर प्राण से बढ़ कर मोह। दस-पाँच गहने, दो-चार बर्तन, उनको बीसों बार बन्धक करना और घर में कलह करना, यही यही हिन्दू घरों में आये दिन के दृष्य हैं। जीवन का कैसे कोई लक्ष्य नहीं ! पद दलित रहते-रहते उनकी सामूहिक चेतना जैसे नष्ट हो गयी है।’’


(तितली, पृ. 47) ।


मुझे धीरे-धीरे विश्वास हो चला है कि भारतीय सम्मिलित कुटुम्ब की योजना की कड़ियाँ चूर-चूर हो रही हैं। वह आर्थिक संगठन अब नहीं रहा, जिसमें कुल का एक प्रमुख सबके मस्तिष्क का संचालन करता हुआ रुचि की समता का भार ठीक रखता था। मैंने जो अध्ययन किया है, उसके बल पर इतना तो कहा जा सकता है कि हिन्दू समाज की बहुत-सी दुर्बलताएँ इस खिचरी कानून के कारण अपने को प्रतिकूल परिस्थति में देखता है। इसलिए सम्मिलित कुटुम्ब का जीवन दु:खदायी हो रहा है।

तितली, 87)।


सर्व साधारण आर्यों में अहिंसा, अनात्म और अनित्यता के नाम पर जो कायरता, विश्वास का आभाव और निराशा का प्रचार हो रहा है उसके स्थान पर उत्साह, साहस और आत्मविश्वास की प्रतिष्ठा करनी होगी।
‘‘हम सच ही निर्वीय हो रहे हैं।’’
हाँ ! मैं इसलिए प्रयत्न करूँगा कि इनकी वाणी शुद्ध, आत्मा निर्मल और शरीर स्वस्थ हो।


(इरावती, पृ. 31)।


इन उद्धरणों का चयन इस उद्देश्य से भी किया गया ही कि हमें उस मूल उत्प्रेरक का भी ज्ञान हो सके या उस ज्ञानात्मक संवेदना तक हम पहुँच सके हैं, जो प्रसाद के उपन्यासों का विषय रही है। यही मूल वेदना है जिसे प्रसाद जी ‘यथार्थवाद का मूल भाव’ समझते हैं।

उपन्यास का जो यथार्थवादी रूप भारतेन्दु युग के अंतिम समय में विकसित हो चुका था उस पर उस युग की, यथार्थवादी रंगमंचीय परंपरा, निबंधों का दबाव कम नहीं था। प्रसाद जी भारतेन्दु युग के इस प्रचार माध्यम वाली चेतना सेन केवल परिचित थे वल्कि प्रचार और कला माध्यमों को मिलाकर – चन्द्रावली और प्रेमजोगिनी को साथ रखकर – नाटक और कथा साहित्य के क्षेत्र में एक विशेष प्रकार प्रयोग कर रहे है। यथार्थ के प्रति प्रसाद का दृष्टिकोण यथा तथ्यवादी नहीं बल्कि अनुभूति केन्द्रित था। क्योंकि प्रसाद जी मानसिक बनावट को यथार्थ का हिस्सा मानते थे। वे अतिवादी आग्रहों के रचनाकार नहीं थे। प्रचार और कला दोनों की अद्वयता के आधार पर विकसित इस दृष्टि के कारण के विषय और विषयी दोनों को महत्त्व देते हैं। और यह दृष्टि उनके लेखन में क्रमश: कला से प्रचार माध्यम या सोद्देशयता की ओर उन्मुख रही है। एक ‘दिव्य आर्य संस्कृति’ की स्थापना का द्विवेदी युगीन आदेश प्रेमचन्द्र और जयशंकर प्रसाद दोनों में हैं परन्तु ‘गोदान’ तथा ‘कंकाल’ में ये आदर्श चरमराते हैं। कंकाल में चरपरा कर रह जाते हैं और गोदान में टूट जाते हैं। यह आर्य संस्कृति मैथिली शरण गुप्त में भी है परन्तु वहाँ वह अंग्रेजी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत है।

 जयशंकर प्रसाद की इस कल्पना में परम्परा की जीवन्तता और विश्वास है, जब कि अन्य छायावादियों में अतीत स्मृति भी नहीं है। इस आर्य संस्कृति के मूल रूप में ‘आर्य भाषा और आर्य जाति’ का सांत्वना परक पश्चिमी सिद्धांत भी है और उस सिद्धान्त की भारतीय व्याख्या भी। प्रसाद की हर कृति में स्मृति की पावन धारा का अभिषेक अवश्य है। उनके उपन्यासों में यह कार्य एक प्रकार की ‘उपन्यास रूढ़ि’ के माध्यम से किया गया है, जिसे कोई कथा-समय भी कह सकता है। उनके प्रत्येक उपन्यास में एक निष्काम वैरागी होता है, जो सेवा, मानव कल्याण आनन्द, स्वास्थ्य, निर्भयता, त्याग आदि की न केवल शिक्षा देता है बल्कि उपन्यास के वस्तु संगठन कर्म प्रवाह – से वही भरत वाक्य की तरह निकलता है। ‘कंकाल’ के स्वामी कृष्ण शरण की टेकरी ‘तितली’ के बनजरिया के बाबा रामनाथ और ‘इरावती’ के विश्वनाथ मन्दिक के पुजारी ब्रह्मचारी संरचनात्मक इकाई के रूप में ही व्यवहृत है। वैसे तो प्रसाद के नाटकों में भी इस प्रकार के मूल्य संस्थापक साधु पुरुष आते हैं। प्रौढ़ नाटककार के अनुभव और दक्षता ने उनके उपन्यासों का कथन और वर्णन की प्राथमिक स्थितियों से मुक्त रखा है। उपन्यास की सैद्धान्तिक स्थापनाएँ और लेखकीय दृष्टिकोण एक नाटक विधान के संवाददात्मक अंश है जो वर्तमान सामाजिक जर्जरता पर टिप्पणी के रूप में प्रयुक्त किये हुये लगते हैं।

यह पद्धति शैली की दृष्टि से रामचन्द्र शुक्ल की निबन्ध शैली का आभ्यंतरी कृत रूप है। पद्धति मूलक विश्लेषण की दृष्टि से इसे ‘उदाहरण और निष्कर्ष’ कहा जा सकता है।
‘पत्थर की पुकार’ में ‘अतीत’ और ‘करुणा’ को साहित्य का चित्ताकर्षक तत्त्व माना गया है। यह दो तत्त्व प्रसाद के साहित्य में अंत तक बने रहे हैं। उपन्यासों में जब भी अवसर मिला है उन्होंने धार्मिक शवता और सामाजिक अपंगत को ऐतिहासिकता से जोड़कर सांस्कृतिक प्रगतिशीलता का एक नया अर्थ देने का प्रयास किया है। वर्तमान जिस रूप में भयावह और निन्दनीय है उसके कारण और विकल्प की चेतना प्रसाद के उपन्यासों के काल का आयाम फैला देती है। प्रसाद जो कुछ जैसा है उसके साथ-साथ कैसा होना चाहिए की दृष्टि भी रखते हैं और यह दृष्टि व्यापक परिवर्तन की माँग से जुड़ती है परन्तु प्रेमचन्द्र की भाँति वे ‘वर्तमान’ को ही प्रमुख नहीं मानते बल्कि भविष्य को भी ध्यान में रखते हैं, जो उनके ‘अतीत और करुणा’ के सिद्धान्त से मेल खाता है। यह आश्चर्य है कि अज्ञेय और मुक्तिबोध दोनों ही करुणा को सृजनात्मक शक्ति मानते हैं और दोनों में ऐतिहासिक चेतना भावात्मक और अभावात्मक रूपों में मौजूद है। मेरा तात्पर्य उस दिशा की ओर संकेत करना है जिसकी ओर प्रसाद संकेत करते हैं। ‘प्रगतिशील विश्व’ को स्वीकार करते हुए भी प्रसाद ‘छलांग’ के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते हैं। उनके अनुसार ‘‘जब हम समझ लेते हैं कि कला को प्रगतिशील बनाए रखने के के लिए हमको वर्तमान सभ्यता का – जो सर्वोत्तम है – अनुसरण करना चाहिए तो हमारा दृष्टिकोण भ्रमपूर्ण हो जाता है; अतीत और वर्तमान को देखकर भविष्य का निर्माण होता है; इसलिए हमको साहित्य में एकांगी लक्ष्य नहीं रखना चाहिए’’ (काव्य कला तथा अन्य निबंध, पृ. 112) यह दृष्टिकोण प्रसाद के उपन्यासों में पहले से है।

उपन्यासों की संरचना में जयशंकर प्रसाद इसका इस्तेमाल नहीं करते हैं बल्कि उपन्यास उनकी विश्व दृष्टि – आर्य दृष्टि-के परिणाम ही होते हैं, जिसमें ‘इतिहास’ के रूप में अतीत हमारे जातीय स्मृति का न केवल अंग बनकर आता है बल्कि संकल्पात्मक अनु-अनुभूति या वेदना के प्रत्यय में ही वह निहित है। क्योंकि प्रसाद जी युंग के भाँति ‘सामूहिक अचेतन’ को स्वीकार करते हैं जो एक प्रकार से उनके विश्वात्मा के सिद्धान्तों का प्रतिरूप ही है। परंतु यह ऐतिहासिक कथा के रूप में लगभग ‘पद्मावत’ की भाँति जुड़ती है और वेदना को व्यापक और गंभीर दोनों बना देती है। कंकाल में प्रसाद ‘पद्मावत’ को मानव जीवन की समस्याओं के सांत्वनापरक हल का आधार मानते हैं। वेदना की विवृत्ति – स्वप्न और आकांक्षा का, आदर्श और यथार्थ की जो द्विभाजिकता पद्मावत में है वही प्रसाद के उपन्यासों में है।

प्रसाद जी यह मानते हैं कि ‘‘यथार्थवाद क्षुद्रों का ही नहीं अपितु महानों का भी है। वस्तुत: यथार्थवाद का मूल भाव है वेदना। जब सामूहिक चेतना छिन्न – भिन्न होकर पीड़ित होने लगती है, तब वेदना की विवृत्ति आवश्यक हो जाती है। कुछ लोग कहते हैं – साहित्य को आदर्शवादी होना ही चाहिए और सिद्धान्त से ही आदर्शवादी धार्मिक प्रवचन कर्त्ता बन जाता है। वह समाज को कैसा होना चाहिए, यही आदेश करता है। और यथार्थवादी सिद्धान्त से ही इतिहासकर से अधिक कुछ नहीं ठहरता, क्योंकि यथार्थवाद इतिहास की सम्पत्ति है। वह चित्रित करता है कि समाज कैसा है या था, किन्तु साहित्यकार न तो इतिहास कर्त्ता है और न धर्मशास्त्र प्रणेता। इन दोनों के कर्त्तव्य स्वतंत्र हैं। साहित्य इन दोनों की कमी पूरा करने का काम करता है। साहित्य समय की वास्तविक स्थिति क्या है, इसका दिखाते हुए भी उसमें आदर्शवाद का सामंजस्य स्थिर करता है। दु:ख दग्ध जगत और आनन्द पूर्ण स्वर्ग का एकीकरण साहित्य है। इसीलिए साहित्य अघटित घटना पर कल्पना की वाणी महत्त्वपूर्ण स्थान देती है, जो निजी सौन्दर्य के कारण सत्य पद पर प्रतिष्ठित होती है। उसमें विश्व मंगल की भावना ओत-प्रोत रहती है।’’
 (काव्यकला तथा अन्य निबंध, पृ. 124)

कंकाल, तितली और इरावती में ‘दु:ख दग्घ जगत और आनन्दपूर्ण स्वर्ग’ के इसी एकीकरण का प्रयास है। और इसीलिए कई कमियों के बावजूद कंकाल कथा साहित्य की परिधि पर होता हुआ भी केन्द्र को प्रभावित करने वाला सबसे प्रमुख उपन्यास है। किशोरी, तारा, घंटी, लतिका, सरला रामो, गाला, विजय आदि की ‘दु:ख दग्ध’ दुनिया का, कृष्ण शरण की दुनिया-आनन्दपूर्ण स्वर्ग – से एकीकरण, कंकाल की वस्तु है। ये दोनों दुनियाएँ कंकाल में मिलते-मिलते रह जाती हैं। देव निरंजन, तारा यानी यमुना और विजय का कंकाल ‘पद्मावत’ की धूल की तरह हकीकत को अधिक गहरा और विषाद पूर्ण बना देता है। विजय देवनारायण साहो ने पद्मावत में जायसी की जिस विषाद दृष्टि का उल्लेख किया है वही अंतत: ‘कंकाल’ की ‘गाला’ या ‘तितली’ की तितली की कथा उस करुणा को अधिक गहराती ही है। ‘कंकाल’ में विजय का कंकाल एक प्रश्न चिह्न है। विजय को उपन्यास में देवता, विद्रोही और मंगलदेव द्वारा अंत में सही भी कहा गया है और वही सत्य एक प्रकार से सामूहिक सत्य के प्रतीक के रूप में अनदेखा और अनपहचाना मर जाता है।
       
                  

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