यात्रा वृत्तांत >> महातीर्थ के अंतिम यात्री महातीर्थ के अंतिम यात्रीबिमल दे
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इसमें कैलाश मानसरोवर यात्रा का वर्णन किया गया है...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सन् 1956 में तिब्बत का दरवाजा विदेशियों के लिए लगभग बन्द हो चुका था और
राजनैतिक कारणों से भारत के साथ तिब्बत का संपर्क भी लगभग टूट चुका था।
उन्हीं दिनों, बिना किसी तैयारी के, बिमल दे घर से भागा और नेपाली
तीर्थयात्रियों के एक दल में सम्मिलित हो ल्हासा तक जा पहुँचा। उस समय
उसकी उम्र मात्र पन्द्रह वर्ष थी। यात्रियों के लिए वह नवीन मौनी बाबा।
ल्हासा में उसने तीर्थयात्रियों का दल छोड़ा, और वहाँ से अकेले ही कैलास
खंड की ओर कूच कर गया। ‘महातीर्थ के अन्तिम यात्री’
में उसी
रोमांचक यात्रानुभव का वर्णन है। बिमल दे ने स्वयं इसे एक भिखमंगे की
डायरी कहा है। किन्तु इस पुस्तक में मिलेगा तिब्बत का दैनंदिन जीवन तथा
महातीर्थ का पूर्ण विवरण।
भूमिका
‘महातीर्थ के अंतिम यात्री’ पुस्तक की भूमिका लिखते समय मुझे
अपने उस भिखारी जीवन की याद आ रही है जब सिलसिलेवार यात्रानुभव नोट करने के लिए मेरे पास डायरी भी नहीं थी। मैंने यात्रा-विवरण कुछ मुड़े तुड़े
कागजों पर लिखना आरंभ किया था, बाद में कुछ कापियां अवश्य मिल गयी थीं।
किंतु अधिकतर मुझे इधर-उधर से बटोरे गये कागज व चिरकुटों पर संक्षिप्त
टिप्पणी लिखनी पड़ती थी। उन सब तथ्यों को सजाकर उस यात्रा को फिर से जीना
एक समस्या थी। जिन लोगों के आशीर्वाद व प्रेरणा से मैं इस कार्य में सफल
हो सका, मैं उन सब के प्रति आभारी हूँ।
1956 में तिब्बत का दरवाजा विदेशियों के लिए लगभग बंद हो चुका था, खासकर भारतीयों का प्रवेश तो निषिद्ध था ही। उस वर्ष नेपाल सरकार ने किसी तरह नेपाली तीर्थयात्रियों के लिए काठमांडू के चीनी दूतावास से अनुमति-पत्र संग्रह कर लिया था। 23 मई 1951 को चीन के ‘सेंट्रल पीपुल्स गवर्नमेंट’ के साथ तिब्बत के किसी समझौते के अनुसार पिकिंग सरकार ने ‘पीसफुल लिबरेशन आर्मी’ तिब्बत के विभिन्न क्षेत्र में फैला दिया था। राजनैतिक द्वन्द्व व उथल-पुथल के उन आरंभिक दिनों में तीर्थयात्रियों के लिए कुछ खास रास्ते खुले हुए थे, इसी से मैं वहाँ जा सका था। मुझे बाद में मालूम हुआ कि मैं जिस दल के साथ तिब्बत गया था, वही दल रामतीर्थ के यात्रियों का आंतिम दल था।
उसके बाद बहुत वर्ष बीत गये हैं, मौनीबाबा उर्फ़ उस भिखारी के जीवन में इस बीच बहुत परिवर्तन हो चुके हैं। तिब्बत की यात्रा ने जो प्रेरणा दी थी, उसे पूंजी बनाकर मैं पहले किसी अज्ञात आकर्षण में भारत के कोने-कोने का चक्कर काटता रहा था और उसके बाद निकल पड़ा था विश्व भ्रमण के लिए।
एक पुरानी साइकिल और जेब में मात्र अठारह रुपये लेकर मैं दुनिया की सैर करने निकला था। कलकत्ता से भू-पर्यटन के लिये निकला था सन् 1976 में और एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका व आस्ट्रेलिया घूम कर स्वदेश लौटा था सन् 1972 में। मित्र, संबंधी, रेडियो व प्रेस ने मुझे शाबाशी दी; किसी ने मुझे महान् पर्यटक कहा, किसी ने साहसी अभियात्री किंतु ऐसे लोग कम ही थे जो यह जानना चाहते थे कि इन पर्यटनों से मैंने क्या पाया ?
भू-पर्यटन करते हुए मैंने पाया कि हिमालय, आल्पस्, रॉकी, करदियार आदि पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ हिमालय है। मैंने जेनेवा से लेकर तितिकाका तक बहुत झीलें देखीं, किंतु सबसे सुंदर मानसरोवर है। भौगोलिक कारणों से प्राकृतिक सौंदर्य में कहीं-कहीं सादृश्य भी है। जेनेवा की झील के साथ मानसरोवर तथा इटली के मँ ब्लाँ शिखर के साथ कैलाश शिखर की तुलना की जा सकती है, इनमें काफी सादृश्य हैं। किंतु दृश्यतः एक जैसा लगने पर भी देवात्मा हिमालय के साथ उनकी तुलना नहीं हो सकती। यूरोप के पहाड़ों पर, जहाँ से भी सुंदर दृश्य दिखते हैं, वहीं मधुशालाएँ पनप उठी हैं। यूरोप, अमेरिका में ऐसे स्थलों में ‘सुवेनियर स्टॉल’ मिलेंगे। किंतु भारत की बात निराली है। सनातन युग से ही भारतवासी जानते हैं कि जहां सुन्दर है, वहीं ईश्वर है। इसीलिये हिमालय के प्रत्येक सुंदर स्थान पर मंदिर, गुम्फा और चैत्य मिलेंगे। सर्वसुंदर के मूल में ईश्वर है, वे ही हमारे आराध्य हैं। सत्यम् शिवम् सुंदरम्।
देवात्मा का रूप प्रचलित है हिमालय में बसने वाले हर व्यक्ति में। लासा से कैलास तक बसने वाले निर्धन ग्रामीणों में शिव का रूप दिखता है। सारी दुनिया घूमकर भी मैं भोले-भाले सुंदर तिब्बतियों को नहीं भूल पाया था। कभी-कभी फटे पुराने चिरकुटों व कापियों को निकाल कर पढ़ता और स्मृति रोमंथन करते हुए मैं अतीत उन दिनों को अपने में संजोए रहता था। किंतु मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं उस यात्रानुभव को लेकर पुस्तक लिखूंगा।
महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज महाशय ने मुझे भू-पर्यटन के समय आशीर्वाद देते हुए कहा था, ‘यदि संभव हो तो तुम अपनी तिब्बत यात्रा पर पुस्तक अवश्य लिखना।’ यही आग्रह कामाख्या उमाचल आश्रम के प्रतिष्ठाता श्रद्धेय स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने भी किया था सन् 1975 में। इन दोनों महानुभवों की प्रेरणा व उत्साह से मैं यह काम पूरा तो कर सका, किंतु दुर्भाग्य से वे दोनों ही इस जग में नहीं हैं। उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदन करता हूँ।
उसके बाद भी कुछ घटनाएँ एक के बाद एक यूँ घटती गयीं कि इस पुस्तक को लिखने का विचार दृढ़ होता गया। धर्मशाला में महामान्य दलाईलामा से मुलाकात हुई। उसी वर्ष सोनादा में कालू रिम्चे मिले। इसके एक वर्ष बाद मँ पेलब्ला में माननीय गेशे रेपतेन तथा रुमटेक में लामा कारमापा जी से भेंट हुई। वे सभी तिब्बत से शरणार्थी बनकर चले आये हैं। इतनी घटनाएँ मेरी स्मृति को झकझोरने के लिये काफी थीं, किंतु काम के बोझ से मैं समय निकाल ही नहीं पा रहा था। इसके बाद एक अलौकिक घटना घटी ! एक दिन अचानक गैंगटक में मुझे मानसरोवर व कैलास के गाइड दोंगल दादा मिल गये। उनसे फिर मुलाकात होगी यह मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। दैवी संयोग शायद इसे ही कहते हैं।
1979 में मेरे शांति निकेतन वासी मित्र श्री गोरा सर्वाधिकारी ने मुझे एक परम् योगी से मिलाया। इस योगी को लोग साधुबाबा कहते थे। उन्हें देखकर मुझे गया के साधुबाबा की याद आ गयी थी। इनका चेहरा भी उस साधुबाबा से मिलता था। इनका स्वभाव मेरे गुरुजी जैसा था। इसलिए मैंने इन्हें अपना खोया हुआ गुरुजी मान लिया, शायद गुरु का आशीर्वाद लेने के लिए ही मेरे लिखने का काम रुका हुआ था। मैंने तिब्बत की यात्रा की थी साधुबाबा के साथ, इस साधुबाबा को पाकर मेरी सारी स्मृतियाँ ताजी हो गयीं।
अन्य पर्यटन-कथाओं से यह पुस्तक भिन्न होगी। मेरी न तो तिब्बत जाने की कोई परिकल्पना थी, न वहाँ के विषय में खास जानकारी। घर से भागना ही मेरा उद्देश्य था, उसके बाद जो कुछ घट गया वह करुणामयी के आशीर्वाद से ही घटा होगा। मैं साहित्यिक नहीं हूँ, यह यात्रा न तो कोई अभियान था, न ही किसी परिव्रजक का सफर, इसे एक भिक्षुक की डायरी कहना उचित होगा, जो वस्तुतः सच भी है। हमारे देश में निम्न-मध्यवित्त घर के लड़के घर से भाग कर ऐसी यात्राएँ करते रहते हैं। फिर भी, लिखने की प्रेरणा मिली, इसीलिए मैंने ईमानदारी से अपने उस भिखारी जीवन की पर्यटन कथा लिखी। पन्द्रह वर्ष की उम्र में मौनीबाबा बनकर मैं जिस तरह तिब्बत की यात्रा करता रहा, उसे उसी रूप में इस पुस्तक में लिखा है। चलते-चलते राह में जो कुछ देखा, जाना, सीखा, उसीका पुस्तक में विवरण है।
1958 के बाद तिब्बत का दरवाजा बिलकुल बंद हो गया था। उसके कारण व फलाफल की चर्चा मैं नहीं करना चाहता। चीनियों ने तिब्बत में क्या किया या अब क्या कर रहे हैं उसकी विवेचना करने की मुझमें क्षमता नहीं है। साधारण तीर्थयात्री की हैसियत से ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि तिब्बत का दरवाजा फिर से खुल जाए। स्वर्ग का दरवाजा बंद करना अनुचित है, महातीर्थ कैलास की यात्रा पर जाना हर व्यक्ति का अधिकार है। स्वयंभू किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है। पवित्र कैलास धाम की यात्रा पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए।
अंत में पाठकों से निवेदन है कि, प्राणवंत कैलास खंड में मैंने जिस शिव-ज्योति की उपलब्धि की थी, उसका एक कण प्रसाद भी यदि मैं इस साधारण पुस्तक के माध्यम से पाठकों में बाँट सका, तो अपना यह प्रयास सार्थक समझूँगा। हरि ओम् तत् सत्।
1956 में तिब्बत का दरवाजा विदेशियों के लिए लगभग बंद हो चुका था, खासकर भारतीयों का प्रवेश तो निषिद्ध था ही। उस वर्ष नेपाल सरकार ने किसी तरह नेपाली तीर्थयात्रियों के लिए काठमांडू के चीनी दूतावास से अनुमति-पत्र संग्रह कर लिया था। 23 मई 1951 को चीन के ‘सेंट्रल पीपुल्स गवर्नमेंट’ के साथ तिब्बत के किसी समझौते के अनुसार पिकिंग सरकार ने ‘पीसफुल लिबरेशन आर्मी’ तिब्बत के विभिन्न क्षेत्र में फैला दिया था। राजनैतिक द्वन्द्व व उथल-पुथल के उन आरंभिक दिनों में तीर्थयात्रियों के लिए कुछ खास रास्ते खुले हुए थे, इसी से मैं वहाँ जा सका था। मुझे बाद में मालूम हुआ कि मैं जिस दल के साथ तिब्बत गया था, वही दल रामतीर्थ के यात्रियों का आंतिम दल था।
उसके बाद बहुत वर्ष बीत गये हैं, मौनीबाबा उर्फ़ उस भिखारी के जीवन में इस बीच बहुत परिवर्तन हो चुके हैं। तिब्बत की यात्रा ने जो प्रेरणा दी थी, उसे पूंजी बनाकर मैं पहले किसी अज्ञात आकर्षण में भारत के कोने-कोने का चक्कर काटता रहा था और उसके बाद निकल पड़ा था विश्व भ्रमण के लिए।
एक पुरानी साइकिल और जेब में मात्र अठारह रुपये लेकर मैं दुनिया की सैर करने निकला था। कलकत्ता से भू-पर्यटन के लिये निकला था सन् 1976 में और एशिया, अफ्रीका, यूरोप, अमेरिका व आस्ट्रेलिया घूम कर स्वदेश लौटा था सन् 1972 में। मित्र, संबंधी, रेडियो व प्रेस ने मुझे शाबाशी दी; किसी ने मुझे महान् पर्यटक कहा, किसी ने साहसी अभियात्री किंतु ऐसे लोग कम ही थे जो यह जानना चाहते थे कि इन पर्यटनों से मैंने क्या पाया ?
भू-पर्यटन करते हुए मैंने पाया कि हिमालय, आल्पस्, रॉकी, करदियार आदि पर्वतों में सर्वश्रेष्ठ हिमालय है। मैंने जेनेवा से लेकर तितिकाका तक बहुत झीलें देखीं, किंतु सबसे सुंदर मानसरोवर है। भौगोलिक कारणों से प्राकृतिक सौंदर्य में कहीं-कहीं सादृश्य भी है। जेनेवा की झील के साथ मानसरोवर तथा इटली के मँ ब्लाँ शिखर के साथ कैलाश शिखर की तुलना की जा सकती है, इनमें काफी सादृश्य हैं। किंतु दृश्यतः एक जैसा लगने पर भी देवात्मा हिमालय के साथ उनकी तुलना नहीं हो सकती। यूरोप के पहाड़ों पर, जहाँ से भी सुंदर दृश्य दिखते हैं, वहीं मधुशालाएँ पनप उठी हैं। यूरोप, अमेरिका में ऐसे स्थलों में ‘सुवेनियर स्टॉल’ मिलेंगे। किंतु भारत की बात निराली है। सनातन युग से ही भारतवासी जानते हैं कि जहां सुन्दर है, वहीं ईश्वर है। इसीलिये हिमालय के प्रत्येक सुंदर स्थान पर मंदिर, गुम्फा और चैत्य मिलेंगे। सर्वसुंदर के मूल में ईश्वर है, वे ही हमारे आराध्य हैं। सत्यम् शिवम् सुंदरम्।
देवात्मा का रूप प्रचलित है हिमालय में बसने वाले हर व्यक्ति में। लासा से कैलास तक बसने वाले निर्धन ग्रामीणों में शिव का रूप दिखता है। सारी दुनिया घूमकर भी मैं भोले-भाले सुंदर तिब्बतियों को नहीं भूल पाया था। कभी-कभी फटे पुराने चिरकुटों व कापियों को निकाल कर पढ़ता और स्मृति रोमंथन करते हुए मैं अतीत उन दिनों को अपने में संजोए रहता था। किंतु मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं उस यात्रानुभव को लेकर पुस्तक लिखूंगा।
महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज महाशय ने मुझे भू-पर्यटन के समय आशीर्वाद देते हुए कहा था, ‘यदि संभव हो तो तुम अपनी तिब्बत यात्रा पर पुस्तक अवश्य लिखना।’ यही आग्रह कामाख्या उमाचल आश्रम के प्रतिष्ठाता श्रद्धेय स्वामी शिवानन्द जी महाराज ने भी किया था सन् 1975 में। इन दोनों महानुभवों की प्रेरणा व उत्साह से मैं यह काम पूरा तो कर सका, किंतु दुर्भाग्य से वे दोनों ही इस जग में नहीं हैं। उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदन करता हूँ।
उसके बाद भी कुछ घटनाएँ एक के बाद एक यूँ घटती गयीं कि इस पुस्तक को लिखने का विचार दृढ़ होता गया। धर्मशाला में महामान्य दलाईलामा से मुलाकात हुई। उसी वर्ष सोनादा में कालू रिम्चे मिले। इसके एक वर्ष बाद मँ पेलब्ला में माननीय गेशे रेपतेन तथा रुमटेक में लामा कारमापा जी से भेंट हुई। वे सभी तिब्बत से शरणार्थी बनकर चले आये हैं। इतनी घटनाएँ मेरी स्मृति को झकझोरने के लिये काफी थीं, किंतु काम के बोझ से मैं समय निकाल ही नहीं पा रहा था। इसके बाद एक अलौकिक घटना घटी ! एक दिन अचानक गैंगटक में मुझे मानसरोवर व कैलास के गाइड दोंगल दादा मिल गये। उनसे फिर मुलाकात होगी यह मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। दैवी संयोग शायद इसे ही कहते हैं।
1979 में मेरे शांति निकेतन वासी मित्र श्री गोरा सर्वाधिकारी ने मुझे एक परम् योगी से मिलाया। इस योगी को लोग साधुबाबा कहते थे। उन्हें देखकर मुझे गया के साधुबाबा की याद आ गयी थी। इनका चेहरा भी उस साधुबाबा से मिलता था। इनका स्वभाव मेरे गुरुजी जैसा था। इसलिए मैंने इन्हें अपना खोया हुआ गुरुजी मान लिया, शायद गुरु का आशीर्वाद लेने के लिए ही मेरे लिखने का काम रुका हुआ था। मैंने तिब्बत की यात्रा की थी साधुबाबा के साथ, इस साधुबाबा को पाकर मेरी सारी स्मृतियाँ ताजी हो गयीं।
अन्य पर्यटन-कथाओं से यह पुस्तक भिन्न होगी। मेरी न तो तिब्बत जाने की कोई परिकल्पना थी, न वहाँ के विषय में खास जानकारी। घर से भागना ही मेरा उद्देश्य था, उसके बाद जो कुछ घट गया वह करुणामयी के आशीर्वाद से ही घटा होगा। मैं साहित्यिक नहीं हूँ, यह यात्रा न तो कोई अभियान था, न ही किसी परिव्रजक का सफर, इसे एक भिक्षुक की डायरी कहना उचित होगा, जो वस्तुतः सच भी है। हमारे देश में निम्न-मध्यवित्त घर के लड़के घर से भाग कर ऐसी यात्राएँ करते रहते हैं। फिर भी, लिखने की प्रेरणा मिली, इसीलिए मैंने ईमानदारी से अपने उस भिखारी जीवन की पर्यटन कथा लिखी। पन्द्रह वर्ष की उम्र में मौनीबाबा बनकर मैं जिस तरह तिब्बत की यात्रा करता रहा, उसे उसी रूप में इस पुस्तक में लिखा है। चलते-चलते राह में जो कुछ देखा, जाना, सीखा, उसीका पुस्तक में विवरण है।
1958 के बाद तिब्बत का दरवाजा बिलकुल बंद हो गया था। उसके कारण व फलाफल की चर्चा मैं नहीं करना चाहता। चीनियों ने तिब्बत में क्या किया या अब क्या कर रहे हैं उसकी विवेचना करने की मुझमें क्षमता नहीं है। साधारण तीर्थयात्री की हैसियत से ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि तिब्बत का दरवाजा फिर से खुल जाए। स्वर्ग का दरवाजा बंद करना अनुचित है, महातीर्थ कैलास की यात्रा पर जाना हर व्यक्ति का अधिकार है। स्वयंभू किसी की व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं है। पवित्र कैलास धाम की यात्रा पर पाबंदी नहीं होनी चाहिए।
अंत में पाठकों से निवेदन है कि, प्राणवंत कैलास खंड में मैंने जिस शिव-ज्योति की उपलब्धि की थी, उसका एक कण प्रसाद भी यदि मैं इस साधारण पुस्तक के माध्यम से पाठकों में बाँट सका, तो अपना यह प्रयास सार्थक समझूँगा। हरि ओम् तत् सत्।
बिमल दे
आल्पस् अत् साभोया, फ्रांस
नवम्बर 1981
नवम्बर 1981
अनुवादक की टिप्पणी
भू-पर्यटक बिमल दे द्वारा लिखित मूल बाङ्ला पुस्तक ‘महातीर्थेर
शेष
यात्री’, जिसके अब तक चार संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, बाङ्ला
की
अन्यत्म श्रेष्ठ पर्यटन-कथा के रूप में स्वीकृत है। इस पुस्तक को धर्मगुरु
दलाईलामा ने अपनी ‘संदर्भ पुस्तक’ के रूप में अपनाया
है।
यह बहुत आवश्यक था कि अनुवाद के माध्यम से यह अनमोल पुस्तक राष्ट्रभाषा हिन्दी के जागरुक पाठकों तक पहुँचे। मैं लेखक के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे अनुवाद करने की अनुमति दी। अनुवाद करते समय मूल ग्रंथ में कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया गया है। यह पुस्तक हिन्दी के पाठकों को रुचे, तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूँगा।
इस पुस्तक में जिस मौनी बाबा की सनसनीखेज यात्रा का वर्णन है, उनका जन्म कलकत्ता में होने पर भी वह भारतवासी नहीं, विश्ववासी हैं। धरती की दैनिक व वार्शिक गति के साथ तालमेल रखते हुए ही मानों बिमल दे भी घूमता रहा है, और अब भी घूम रहा है, पृथ्वी के चारों ओर, चीन, जापान, रूस, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों का वह निरंतर चक्कर लगा रहा है अब भी। तभी वह भू-पर्यटक है। भ्रमण ही उसका जीवन है, वह थमना नहीं जानता।
अंत में मैं स्व. डॉ. कैलाश नाथ काटजू की सुपुत्री सरोज मुखर्जी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद के लिए लेखक को उत्साहित किया था और बाद में अनुवाद का कुछ अंश देखकर मेरा हौसला बढ़ाया। साथ ही मैं पत्रकार-लेखक दीप बसु के प्रति भी आभारी हूँ जिसने इस अनुवाद के लिए मुझसे आग्रह किया था।
यह बहुत आवश्यक था कि अनुवाद के माध्यम से यह अनमोल पुस्तक राष्ट्रभाषा हिन्दी के जागरुक पाठकों तक पहुँचे। मैं लेखक के प्रति कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे अनुवाद करने की अनुमति दी। अनुवाद करते समय मूल ग्रंथ में कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया गया है। यह पुस्तक हिन्दी के पाठकों को रुचे, तो मैं अपना प्रयास सार्थक समझूँगा।
इस पुस्तक में जिस मौनी बाबा की सनसनीखेज यात्रा का वर्णन है, उनका जन्म कलकत्ता में होने पर भी वह भारतवासी नहीं, विश्ववासी हैं। धरती की दैनिक व वार्शिक गति के साथ तालमेल रखते हुए ही मानों बिमल दे भी घूमता रहा है, और अब भी घूम रहा है, पृथ्वी के चारों ओर, चीन, जापान, रूस, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों का वह निरंतर चक्कर लगा रहा है अब भी। तभी वह भू-पर्यटक है। भ्रमण ही उसका जीवन है, वह थमना नहीं जानता।
अंत में मैं स्व. डॉ. कैलाश नाथ काटजू की सुपुत्री सरोज मुखर्जी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक के हिन्दी अनुवाद के लिए लेखक को उत्साहित किया था और बाद में अनुवाद का कुछ अंश देखकर मेरा हौसला बढ़ाया। साथ ही मैं पत्रकार-लेखक दीप बसु के प्रति भी आभारी हूँ जिसने इस अनुवाद के लिए मुझसे आग्रह किया था।
दिलीप कुमार बनर्जी
महाबोधि सोसाइटी के उपाध्यक्ष का मंतव्य
मेरी राय में ‘महातीर्थेर शेष यात्री’ पुस्तक तिब्बत
की
भौगोलिक व सांस्कृतिक परंपरा की धारक व वाहक है। महामान्य दलाई लामा के
साथ मैं भी सहमत हूँ कि इस पुस्तक का तिब्बती भाषा में अनुवाद होना चाहिए।
परिव्राजकाचार्य बिमल दे ने इस पर्यटन कथा के माध्यम से तिब्बत का एक मनोहर एवं सहज रूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक के माध्यम से तिब्बत में बौद्ध-धर्म का प्रभाव, शिक्षा-प्रणाली तथा वहां के लोगों के दैनंदिन जीवन से परिचित हुआ जा सकता है।
धर्मप्राण बिमल दे उपलब्धियों के एक ऊंचे सोपान पर पहुंचे हुए हैं। करुणावतार भगवान बुद्ध के आशीर्वाद के बिना यह उपलब्धि संभव नहीं है। ल्हासा व कैलासनाथ के दुर्गम पथ पर एक बालक की उपलब्धि का यह मार्ग विशेष ध्यान देने योग्य है।
मेरा सभी से आग्रह है कि वे इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। सन् 1986 में मैंने स्वयं ल्हासा के विभिन्न बौद्ध-विहारों का पर्यटन किया था तथा उससे पहले भी तिब्बत की सैर की थी। इन यात्राओं में इस पुस्तक से मुझे बहुत सहायता मिली। ‘महातीर्थेर शेष यात्री’ पुस्तक गाइड भी है और धर्मग्रंथ भी। इस तरह की और कोई पुस्तक मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी।
परिव्राजकाचार्य बिमल दे ने इस पर्यटन कथा के माध्यम से तिब्बत का एक मनोहर एवं सहज रूप पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। साथ ही यह भी उल्लेखनीय है कि इस पुस्तक के माध्यम से तिब्बत में बौद्ध-धर्म का प्रभाव, शिक्षा-प्रणाली तथा वहां के लोगों के दैनंदिन जीवन से परिचित हुआ जा सकता है।
धर्मप्राण बिमल दे उपलब्धियों के एक ऊंचे सोपान पर पहुंचे हुए हैं। करुणावतार भगवान बुद्ध के आशीर्वाद के बिना यह उपलब्धि संभव नहीं है। ल्हासा व कैलासनाथ के दुर्गम पथ पर एक बालक की उपलब्धि का यह मार्ग विशेष ध्यान देने योग्य है।
मेरा सभी से आग्रह है कि वे इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें। सन् 1986 में मैंने स्वयं ल्हासा के विभिन्न बौद्ध-विहारों का पर्यटन किया था तथा उससे पहले भी तिब्बत की सैर की थी। इन यात्राओं में इस पुस्तक से मुझे बहुत सहायता मिली। ‘महातीर्थेर शेष यात्री’ पुस्तक गाइड भी है और धर्मग्रंथ भी। इस तरह की और कोई पुस्तक मैंने पहले कभी नहीं पढ़ी।
-बोधिसत्व सी.आर.लामा
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