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नागार्जुन का गद्य-साहित्य

आशुतोष राय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2309
आईएसबीएन :81-8031-067-1

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आशुतोष राय ने नागार्जुन के साहित्य और शैली की इस पुस्तक में विवेचना और गहराई तक नागार्जुन साहित्य अध्ययन कर उस पर आलोचना भी प्रस्तुत की है।

Nagarjun Ka Gady Sahita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नागार्जुन के व्यक्तित्व, विचार और कृतित्व का परिचय देते हुए लेखक ने उनके अभावग्रस्त जीवन, पारिवारिक स्थिति और अनवरत संघर्ष को जिस तरह रेखांकित किया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि आरम्भ से वे संघर्षों के बीच रास्ता तलाशने वाले प्राणी एवं लेखक रहे हैं। उनकी मस्ती, व्यंग्य एवं यायावरी एक तरह से उनकी जिजीविषा के प्राण रहे हैं।......

    आशुतोष जी ने नागार्जुन की औपन्यासिक कला पर भी ध्यान आकर्षित किया है और उनकी आत्मकथात्मक एवं वर्णन शैली पर प्रकाश डाला है तथा हल देने की उनकी ललक के कारण आयी शिल्पगत लचरता को भी रेखांकित किया है। संक्षेप में ही सही बाबा की कहानियों, निबंधों, संस्मरणों, यात्रावृत्त, डायरी, नाटक और आलोचना जैसी गद्य विधाओं पर गहराई से विचार करते हुए आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं, जो सार्थक हैं तथा लेखक की तटस्थ पैनी समीक्षा दृष्टि को आलोकित करती हैं। इस प्रकार नागार्जुन के गद्य साहित्य की समस्त विधाओं की पड़ताल करने के लिए लेखक का लेखकीय प्रयास मुकम्मल और कामयाब है।

...कविता के बाद उनका उपन्यास साहित्य ही विविध आयामी और विस्तृत है, इसलिए डॉ. राय ने इस पर सविस्तार आलोचना चर्चा की है, जो स्वाभाविक ही है। उनके हर उपन्यास के कथ्य को गहराई से उभारते हुए डॉ. राय ने उनके संघर्ष शील सोच और सामान्यजन के प्रति उनकी पक्षधरता पर बार-बार बल दिया तथा उनकी लक्ष्योन्मुखता को संकेतिक करते हुए उनकी प्रचारात्मक रुझान को औपन्यासिक संयोजन की दृष्टि से एक कमजोरी भी माना है। किन्तु सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर उनकी पैनी दृष्टि और स्पष्टोक्ति को उनकी शक्ति का परिचायक भी स्वीकार किया है। प्रेमचन्द की तरह नागार्जुन के कथा-साहित्य में परम्परा प्रसूत एवं पूँजीवादी प्रभाव से उपजी वे सारी समस्याएँ अनुस्यूत हैं, जो आज भी किसी न किसी रूप में अवशिष्ट हैं। नागार्जुन के उपन्यास भी समस्याओं-अवसरवाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, नक्सलवाद, गरीबी, भ्रष्टाचार, अंधविश्वास, नारी-शोषण एवं उत्पीड़न, बेईमानी, लूट-खसोट आदि के चित्रण से भरे हुए हैं, जिनका सोदाहरण जायजा लेखक ने आलोचनात्मक दृष्टि से लिया है और अपने निष्कर्ष दिये हैं।...



डॉ० आशुतोष राय ने अपने शोध-प्रबन्ध ‘नागार्जुन के गद्य साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन’ के बारे में दो शब्द लिखने के और उसमें काट-छाँट एवं संशोधन का दायित्व मुझ पर डालकर जो विश्वास जताया, उससे प्रसन्नता कम तथा आश्चर्य अधिक हुआ डॉ० राय मेरे साथ लगभग तीन वर्षों तक जे० आर० ए० के रूप में महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ में अध्ययन अध्यापन करते रहे और अपना शोधकर्य भी। इनसे विचार-विमर्श का अवसर बराबर मिलता रहा, जिससे इनकी प्रतिभा एवं सोच को जानने का सुयोग मिला। पर यह दायित्वभार मुझ पर ही आ पड़ेगा, इसका भान तक नहीं था। अतः इस आकस्मिक आन पड़े दायित्व का निर्वाह करने हेतु मुझे पूरा शोध-प्रबन्ध बडे़ मनोयोग से पढ़ने को विवश होना पड़ा।
काफी ऊहापोह के पश्चात् मुझे लोक भारती प्रकाशन के भाई दिनेश जी के सुझाव पर प्रकाशित पुस्तक का नाम ‘नागार्जुन का गद्य साहित्य’ रखना बेहतर लगा, क्योंकि गंभीर लेखन में गंभीर विमर्श एवं आलोचना स्वयमेव सम्मिलित हो जाते हैं। शीर्षक गत केवल यही परिवर्तन ही मूल शोध-प्रबन्ध में किया गया है, शेष समूचा लेखन ज्यों का त्यों रखना ही समाचीन लगा। डॉ० राय ने आज की शोध-परम्परा के देखते हुए एक उत्तम शोधकार्य किया है, जिसे अविकल रखने का लोभ मैं इसलिए संवरणन कर सका कि इसमें भावी शोधार्थियों को प्रेरणा मिलेगी। यों भी काट-छाँट के लिए बहुत गुंजाइश भी न थी, क्योंकि शोध-प्रबन्ध में कतिपय बातों का दोहराव होता ही है, जो यहाँ भी मिलेगा। किन्तु यह तो स्वतन्त्र लेखन में भी देखा जा सकता है। इस तरह तुलसी की तर्ज पर ‘दोषरहित दूषण सहित’ यह पुस्तक पाठकों का ध्यान आकर्षित करेगी, इस बारे में मैं आश्वस्त हूँ।

नागार्जुन हिन्दी जगत में जनकवि के रूप में उसी प्रकार विख्यात रहे हैं, जिस प्रकार मराठी में कवि नारायण सुर्वे। लेकिन कविता के अतिरिक्त बाबा ने प्रभूत गद्य रचनाएँ भी दी थीं, जो उनकी जनप्रतिबद्धता का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। कहा भी गया है कि कवि की कसौटी उनका गद्य होता है, इस कसौटी पर भी उनका गद्य स्तरीय और गंभीर है। उन्होंने हिन्दी और मैथिली को मिलाकर कुल बारह उपन्यास लिखे, कहानियाँ  लिखी, निबन्ध, आलोचना, संस्मरण और डायरी का लेखन भी किया तथा दो ऐतिहासिक नाटक भी। किन्तु जैसा डॉ० आशुतोष राय ने स्पष्ट किया है कि उनके गद्य लेखन पर समीक्षकों का उतना ध्यान नहीं गया जितना उनके काव्य पर। संभवताः यह पुस्तक इस आभाव की पूर्ति में किसी हद तक सहायक होगी और प्रेरित करेगी कि उनके गद्य लेखन पर गहराई से विचार किया जाए। कहना न होगा कि कविता के बाद आलोचकों का ध्यान उनके उपन्यासों की ओर अवश्य गया। किन्तु आंचलितकता का एक ऐसा ‘लेबल’ उस पर चस्पा कर दिया गया कि उसके समक्ष नागार्जुन का सारा समाजवादी सोच जैसे एक कटघरे में कैद हो गया। प्रस्तुत पुस्तक में बड़ी गंभीरता के साथ विचार करते हुए लेखक का निष्कर्ष है कि जन पक्षधर लेखक को आंचलिकता के घेरे में बाँधना प्रकारान्तर से अन्याय ही कहा जायेगा। आंचलिकता उनके उपन्यास में उतनी ही है जितनी प्रेमचन्द के उपन्यासों में। क्योंकि वे उस अंचल के परिवेश और पात्र को उठाते है,  जिसका यथार्थ उनके अनुभव का अंग रहा है। अंचल अपने आप में उनके यहाँ उस रूप में नहीं आया है, जैसा रेणु के मैला आंचल और परती परिकथा में । नागार्जुन का लक्ष्य शोषित-पीड़ित लोग और उनका संघर्ष रहा है, जिन्हें उन्होंने अंचल विशेष से उठाया और अपने उपन्यासों में प्रतिष्ठित किया। चाहे बलचनवा हो या इमरितिया-दुखमोचन। बाबा के पात्र संघर्ष की प्रेरणा देते हैं, गाँव और अंचलों में रहने वाले उन लोगों को जो शोषण की चक्की में पिसे जाकर भी चूँ तक नहीं करते।

प्रस्तुत पुस्तक में नागार्जुन के व्यक्तित्व, विचार और कृतित्व का परिचय देते हुए लेखक ने उनके अभावग्रस्त जीवन, पारिवारिक स्थिति और अनवरत संघर्ष को जिस तरह रेखांकित किया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि आरम्भ से ही वे संघर्षों के बीच रास्ता तलाशने वाले प्राणी एवं लेखक रहे हैं। उनकी  मस्ती व्यंग्य एवं यायावरी एक तरह से उनकी जिजीविषा के प्राण रहे हैं और उनके दमे के मर्ज की दवा भी। इससे लाख कठिनाइयों से जूझते हुए वे कुंठित और निराश नहीं हुए। भाषा के प्रति उनका गहरा लगाव उनके बहुभाषाविद् होने का प्रमाण है। वे संस्कृत, हिन्दी, मैथिली, बंगला के तो रचनाकार ही रहे हैं, इनके अतिरिक्त पाली, पंजाबी एवं गुजराती भाषा पर भी उनका अधिकार रहा है। जहाँ तक विचार का सम्बन्ध वे वर्ग-संघर्ष-प्रेरक मार्क्सवाद को अपने वैचारिक जीवन की रीढ़ मानते है, किन्तु एक लेखक के नाते वे स्वतन्त्रता समता एवं शक्ति के प्रति वफादार हैं। किसी भी मूल्य पर इन तत्वों का लेखकीय जीवन से बहिष्कार उन्हें स्वीकार्य नहीं। स्पष्ट है  नागार्जुन प्रजातंत्रीय समाजवाद को एकतंत्रीय मार्क्सवाद पर तरजीह देते हैं। इसलिए आलोचकों द्वारा उन्हें मार्क्सवादी दृष्टि से द्विविधाग्रस्त घोषित किया जाना उनके प्रति अन्याय है, लेखक ने इसका निवारण भी बड़े मनोयोग से किया है।

चूँकि कविता के बाद उनका उपन्यास साहित्य ही विविध आयामी विस्तृत है, इसलिए डॉ. राय ने इस पर सविस्तार आलोचनात्क चर्चा की है, जो स्वाभाविक ही है। उनके हर उपन्यास के कथ्य को गहराई से उभारते हुए डॉ० राय ने उनके संघर्षशील सोच और सामान्यजन के प्रति उनकी पक्षधरता पर बार-बार बल दिया है तथा उनकी लक्ष्योन्मुखता को संकेतिक करते हुए उनकी प्रचारात्मक रुझान को औपन्यासिक संयोजन की दृष्टि से एक कमजोरी भी माना है किन्तु सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर उनकी पैनी दृष्टि और स्पष्टोक्ति को उनकी शक्ति का परिचायक भी स्वीकार किया है। प्रेमचंद की तरह नागार्जुन के कथा-साहित्य में परंपरा प्रसूत एवं पूँजीवादी प्रभाव से उपजी वे सारी समस्यायें अनुस्यूत हैं, जो आज भी किसी न किसी रूप में अवशिष्ट है। लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना यह रही है कि आजादी के बाद तथाकथित समाजवादी सोच का दंभ भरने वाले नेताओं के दोहरे व्यक्तित्व ने ऐसी समस्याओं को जन्म दिया दे दिया है, जो सुरसा की तरह मुँह बाये खड़ी हैं। नागार्जुन के उपन्यास इन समस्याओं-अवसरवाद, भाई-भतीजावाद, जातविवाद, नस्सलवाद, गरीबी, भ्रष्टाचार्य, अंधविश्वास, नारी-शोषण एवं उत्पीड़न, बेईमानी,  लूट-खसोट आदि के चित्रण से भरे हुए हैं, जिसका सोदाहरण जायजा लेखक ने आलोचानात्मक दृष्टि से लिया है और अपने निष्कर्ष दिए हैं ।
आशुतोष जी ने नागार्जुन की औपन्यासिक कला पर भी ध्यान आकर्षित किया है और उनकी आत्मकथात्मक एवं वर्णन शैली पर प्रकाश डाला है तथा हल देने की उनकी ललक के कारण आयी शिल्पगत लचरता को भी रेखांकित किया है।

कहना न होगा कि कथ्य पर अतिरिक्त जोर देने वाले नागार्जुन को जितनी कहने की धुन थी, उतनी कैसे, कहें कि नहीं। फलस्वरूप शैलीगत कसाव की कमी है। लेखक ने भाषागत प्रतीक, बिम्ब, सपाटबयानी, व्यंग्य का भी उल्लेख करते हुए चरितांकन एवं परिवेश चित्रण पर भी प्रकाश डाला है। डॉ० राय ने संक्षेप में ही सही बाबा की कहानियों निबंधों, संस्मरणों, यात्रावृत्त, डायरी, नाटक और आलोचना जैसी गद्य विधाओं पर गहराई से विचार करते हुए आलोच्नात्मक टिप्पणियाँ की हैं, जो सार्थक हैं तथा लेखक की तटस्थ पैनी समीक्षा दृष्टि को आलोकित करती हैं। इस प्रकार नागार्जुन के गद्य साहित्य की समस्त विधाओं की पड़ताल का लेखकीय प्रयास मुकम्मल और कामयाब है।  अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने सटीक उद्धरण दिए हैं और नागार्जुन के साक्षात्कारों का बड़ा ही कारगर उपयोग किया है, जो उसकी शोधपरक दृष्टि को स्पष्ट करने में सक्षम है। समूचे ग्रंथ का अध्याय विभाजन तर्कसंगत है और उपसंहार स्वरूप उसका निष्कर्ष संक्षेप में ही ग्रंथ की गुणवत्ता को दर्शाता है। लेखक की भाषा भी स्पष्ट और विषयानुरूप है।
अंत में डॉ० आतुतोष राय के इस ग्रंथ को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए, उन्हें, इस उत्तम प्रयास के लिए बधाई देता हूँ, साथ ही यह आशा भी स्वाभाविक है कि वे अपनी प्रतिभा का परिचय देने की ओर अग्रसर रहेंगे। सुधी पाठक ही सच्चे निर्णय के अधिकारी हैं। मैं तो इन चंद पंक्तियों के माध्यम  उनके ध्यानाकर्षण का बस निमित्त पर हूँ। अस्तु,

प्राक्कथन


 नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के कारण हिन्दी की प्रगतिशील कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में प्रख्यात हैं। सामाजिक चेतना, वैचारिक प्रतिबद्धता और अभिव्यक्ति-कौशल की दृष्टि से इनकी रचनाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं और यही कारण है कि आधुनिक हिन्दी कविता के इतिहास मे इन्हें ‘‘त्रयी’’ के नाम से भी जाना जाता है। जिन हस्ताक्षरों ने हिन्दी कविता को छायवादी संस्कारों से मुक्त कर उसके सहज-विकास की एक दिशा निश्चित की उनमें इन तीनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भारतीय जनता के प्रति आत्मिक अनुराग एवं राष्ट्र की प्रकृति से लगाव ने इनके संवेदन-संसार को समृद्ध किया है। विचार के स्तर पर धुन्ध से ये सर्वथा मुक्त हैं। शिल्प के प्रति इनमें सदैव एक तरह का चौकन्नापन देखा जा सकता है। नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल के रचनाबोध में ऐसी कई खूबियाँ हैं, जो प्रगतिशील काव्यधारा में उन्हें पहचान प्रदान करती हैं।

नागार्जुन की प्रतिष्ठा मूलतः एक कवि के रूप में ही रही, जबकि उनकी रचनाशीलता साहित्य की लगभग सभी विधाओं का स्पर्श करती है। नागार्जुन के उपन्यासों से तो लोग परिचित हैं, किन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि गद्य की लगभग सभी विधाओं  पर नागार्जुन की लेखनी समान रूप से चली है। उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, यात्रावृत्त, संस्मरण, आलोचना, डायरी आदि विभिन्न गद्य विधाओं पर नागार्जुन ने साधिकार लिखा। यहाँ तक की उन्होंने उपेक्षित बाल साहित्य को भी महत्त्वपूर्ण दिशा दी। अद्यावधि नागार्जुन के काव्य एवं उनके उपन्यासों पर हिन्दी आलोचनाओं द्वारा दर्जनों महत्वपूर्ण स्तरीय कार्य सम्पन्न हुए हैं, जिनमें नागार्जुन का कथा साहित्य (तेज सिंह) उपन्यासकार नागार्जुन (बाबूराम गुप्त), नागार्जुन की सामाजिक चेतना (प्रो० प्रणय) हिन्दी के आंचलिक उपन्यास (डॉ० रामदरश मिश्र) आंचलिकता और हिन्दी उपन्यास (डॉ० नगीना जैन), नागार्जुन का उपन्यासः समसामयिक संदर्भ ( डॉ० सूरेन्द्र कुमार यादव), नागार्जुन की कविता (अजय) तिवारी), नागार्जुनः रचना प्रसंग और दृष्टि (रामनिहाल गुंजन) आदि महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार अब तक नागार्जुन के व्यापक रचना-संसार के मात्र दो ही पक्षों-कविता एवं उपन्यास पर ही ये सभी कार्य केन्द्रित हैं। नागार्जुन के शेष रचना-संसार की विवेचना तो दूर इसकी चर्चा भी किसी आलोचक द्वारा अद्यावधि नहीं की गयी है। यही कारण रहा है कि उपन्यास एवं उपन्यासेतर विविध गद्य विधाओं को केन्द्र में रख शोधार्थी ने इस विषय-‘नागार्जुन का गद्य साहित्य’ का आलोचनात्मक अध्ययन किया है।

नागार्जुन के उपन्यास साहित्य पर अब तक जितने कार्य सम्पन्न हुए हैं, लगभग सभी परम्परायुक्त ही रहे हैं। अद्यावधि लगभग सभी आलोचकों ने नागार्जुन के रूढ़ अर्थ में आंचलिक परम्परा का कथाकार घोषित करते हुए उन्हें एक खास चश्में से देखने की कोशिश की है। मेरे विचार से इसके मूल में आलोचकों की सुविधा ही महत्त्वपूर्ण कारण रही है। नागार्जुन के उपन्यास-साहित्य पर नए बिन्दु से विचार-विचार करते हुए उनके सम्बन्ध में व्याप्त परम्परागत धारणाओं को तार्किक आधार पर खण्डित करने का विनम्र प्रयास  किया गया है। वस्तुतः नागार्जुन मार्क्सवादी  विचारधारा के रचनाकार हैं और उनका अंतिम लक्ष्य शोषित जन हैं, न कि अंचल। इस आधार पर यह मानवतावादी रचनाकार प्रेमचंद की कथा-परम्परा के निकट है। इसी प्रकार अन्य गद्य विधाओं को भी मौलिक ढंग से विश्लेषित करने का विनम्र प्रयास किया गया है। शोधार्थी का यह प्रयास रहा है कि नागार्जुन के गद्य-साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन से इनके गद्य-साहित्य का समग्र यथार्थ एवं विशेषताएँ अधिक खुलकर हिन्दी जगत के सामने आएँ।

प्रयास यह भी रहा है कि किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए बिना अपनी मान्यता को बेलाग ढंग से प्रस्तुत  किया जाए और मौलिक चिंतन का सुन्दर प्रदर्शन हो। शोधार्थी का प्रयास रहा है कि शोध-प्रबंध की आलोचक-भाषा विषय के अनुकूल परामार्जित एवं सुष्ठु हो। जहाँ कहीं शोधार्थी की किसी मान्य आलोचक-से असहमति रही है, वहाँ बड़े विनम्र भाव से अपने मक की स्थापना की गयी है। सम्पूर्ण विवेचन एवं विश्लेषण में मैलिकता के सन्निवेश का प्रयास है। इसी प्रकार नागार्जुन के काव्येतर साहित्य की उपलब्धियों एवं संभावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले आलोचकों के लिए प्रस्तुत प्रबन्ध कुछ दूर तक संतोष प्रदान करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है। शोधपरक दृष्टि रखने वाले अनुसंधित्सुओं को भी इससे नवीन दिशा  मिलेगी, इसी आशा एवं विश्वास के साथ यह शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत है।

प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध उपसंहार के अतिरिक्त छह अध्यायों  में विभक्त है-व्याक्ति, विचार एवं साहित्य, नागार्जुन का औपन्यासिक वस्तु विधान, नागार्जुन के उपन्यासों की भाषिक संचरना एवं शिल्प विधाता, उपन्यासों में व्यक्त जीवन-दर्शन एवं समस्याएँ, नागार्जुन की उपन्यासेतर गद्य-विधाओं का विश्लेषण एवं अन्य गद्य-विधाएँ।

  प्रथम अध्याय नागार्जुन के जीवन-परिचय, विचारधारा एवं उनकी कृतियों से संबंधित है। जन्म-स्थान, प्रारम्भिक जीवन, शिक्षा-दीक्षा, पारिवारिक जीवन एवं आर्थिक स्थिति आदि सभी पर विस्तार के साथ प्रकाश डाला गया है। नागार्जुन के विचारों के निर्माण में तत्कालीन सामाजिक एवं राष्ट्रीय परिस्थितियों की  भूमिका पर विचार करते हुए अपना निष्कर्ष बिना किसी पूर्वाग्रह के प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया है। उनकी समग्र साहित्यिक-कृतियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करते हुए इसी अध्याय में उनके सम्मान-पुरस्कार आदि का भी विविरण दर्ज है।

द्वितीय अध्याय के अन्तर्गत नागार्जुन के विभिन्न उपन्यासों में व्यास यथार्थ और उसके विविध रूपों  का चित्रण हुआ है। राजनीति, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में आयी विकृतियों ने किस प्रकार सामान्य जन-जीवन को पंगु किया है, इसका यथार्थ चित्रण करने का प्रयास हुआ है। गरीबी, अन्याय, शोषण, अशिक्षा, भूख भ्रष्टाचार्य, विधवा-विवाह, दहेज प्रथा आदि विभिन्न समस्याओं के कारण एवं निवारण पर विचार करते हुए नागार्जुन के वस्तु-विधान के अन्य आयमों को भी विश्लेषित किया गया है। उपन्यासों में परिव्याप्त मिथिला के माटी की गंध, जनचेतना की अभिव्यक्ति, ग्रामीण संस्कृति के विविध रूपों का प्रकाशन भी इसी अध्याय में हुआ है।

शोध-प्रबंध के तृतीत अध्याय में नागार्जुन के उपन्यासों की भाषिक संरचना एवं शिल्प-विधान पर विचार किया गया है। औपन्यासिक भाषा में स्वाभाविक प्रवाह, सरलता, सहजता एवं गंभीरता आदि गुणों का होना आवश्यक है, अन्यथा इन विशेषताओं के अभाव में लेखक संवेदना का रूप खण्डित हो जाता है और उसके सारे अर्थ धुँधले पड़ जाते हैं। भाषा ही पात्रों के व्यक्तित्व को साकार रूप प्रदान करती है और विभिन्न परिस्थितियों का चित्रण कर उसकी व्याख्या प्रस्तुत करती है। नागार्जुन अपने भाषा-प्रयोग के लिए हिन्दी उपन्यास साहित्य में रेखांकन योग्य हैं। कहीं-कहीं प्रचारवाद का अभास कराने के बावजूद उनके उपन्यासों की भाषिक सजगता अत्यन्त सराहनीय है। उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, ग्रामीण-नागरिक, स्त्री-पुरुष के बौद्धिक-मानसिक पार्थक्य को ये अपने भाषा प्रयोग से बखूबी व्यंजित करते हैं। भाषा में कहीं भी अस्वाभाविकता नहीं है, सिर्फ उन स्थानों को छोड़कर जहाँ वे मार्क्सवाद का प्रचार करते हुए दिखायी देते हैं। इसी अध्याय में नागार्जुन के कथा की बुनावट एवं चरित्र-सृष्टि पर विचार किया गया है।

चतुर्थ अध्याय में नागार्जुन के उपन्यासों में व्यक्त जीवन-दर्शन एवं समस्याओं पर विचार किया गया है। जीवन-दर्शन को प्रस्तुत करने के लिए नागार्जुन के उपन्यासों में व्यक्त विचारधारा को आधार बनाया गया है। इनका मार्क्सवादी जीवन-दर्शन किस प्रकार भारतीय समस्याओं के संदर्भ में मानवतावादी रूप में परिणत होता है, इसकी विस्तृत विवेचना का गयी है। इस अध्याय में उपन्यासों में व्यक्त समस्याओं एवं उसके निरुपण में नागार्जुन की विचारधारा के विभिन्न स्वरूप वर्ग संघर्ष, जनपक्षधरता, स्वाभिमान आदि पर भी प्रकाश डाला गया है।

पंचम अध्याय में नागार्जुन की उपन्यासेतर गद्य-विधाओं-कहानी, निबंध, संस्मरण, यात्रावृत्त, आलोचना, नाटक का विश्लेषण किया गया है। इस अध्याय में  कहानियों के वस्तु, शिल्प एवं भाषा पर विचार धारा करते हुए अन्य विधाओं के साहित्यिक महत्त्व को भी रेखांकित किया गया है।

षष्ठ अध्याय के अन्तर्गत नागार्जुन की अन्य गद्य-विधाओं बाल-साहित्य, डायरी, साक्षात्कार एवं पत्र-साहित्य पर विचार किया गया है। नागार्जुन ने प्रभूत मात्रा में बाल-साहित्य का प्रणयन किया है। इस बाल-साहित्य पर मौलिक ढंग से विचार करते हुए नागार्जुन रचनावली में प्रकाशित उनकी संक्षिप्त डायरी का भी साहित्यिक महत्त्व स्पष्ट किया गया है। शोध-प्रबंध की सीमा का ध्यान रखते हुए नागार्जुन के समृद्ध साक्षात्कार एवं पत्र-साहित्य से कुछ चुने हुए महत्त्वपूर्ण साक्षात्कारों एवं पत्रों का ही विवेचन किया गया है।

अंत में उपसंहार के अन्तर्गत विषय का निष्कर्ष एवं मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है।
प्रस्तुत शोध-प्रबंध श्रद्धेय गुरुवर प्रो० रामकुँवर राय, अध्यक्ष, हिन्दी विभाग के कुशल निर्देशन में पूर्ण हुआ। उनका पितृवत स्नेह एवं ममत्वपूर्ण व्यवहार मेरा सम्बल रहा है। वस्तुतः इस शोध-प्रबन्ध का प्रणयन पूज्य गुरुवर के प्रोत्साहन, आशीर्वाद एवं वात्सल्य-अनुग्रह का प्रतिफल है। ऐसे गुरुदेव के प्रोत्साहन, आशीर्वाद एवं वात्सल्य-अनुग्रह का प्रतिफल है। ऐसे गुरु के प्रति मात्र शाब्दिक आभार प्रकट करना मेरी धृष्टता होगी। मैं पूर्णतः उनके प्रति श्रद्धावनत हूँ। जो कुछ उनसे ज्ञान रूप में मिला है उसे मैं तेजस्वी रूप में और आगे बढ़ाऊँ, यही गुरु-ऋण से मेरे उद्धार का पथ होगा। पूजनीय गुरुमाता श्रीमती सावित्री देवी के प्रति भी मैं श्रद्धावनत हूँ, जिन्होंने मुझे सर्वदा पुत्रवत स्नेह दिया।

अब तक मैंने जो कुछ भी प्राप्त किया है और जहाँ तक भी पहुँच पाया हूँ, उसके पीछे प्रेरणा मेरी माँ श्रीमती सावित्री देवी की तथा सहयोग मेरे पिता श्री जयप्रकाश राय का रहा है। यह शोध-प्रबन्ध उन दोनों के पूर्ण आशीष का ही प्रतिफल है। किंबहुना, मैं और मेरा सबकुछ तो उन्हीं का है-तेरा तुझको सौंपते क्या लागै है मोर।

मैं श्रद्धेय गुरुवर प्रो० महेन्द्रनाथ राय (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय) प्रो० ब्रह्मदेव मिश्र (गोवा विश्वविद्यालय), प्रो० के० सी० लाल, प्रो० रामरश राय, प्रो० विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, प्रो० रामेदव शुक्ल, प्रो० परमान्द श्रीवास्तव, डॉ० शिवकुमार मिश्र, प्रो० अवधेश प्रधान के प्रति भी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ, जिनसे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मुझे शोध-प्रबन्ध की पूर्णता में सहायता मिली। मैं अपनी पत्नी सुमन राय और सहृद सहयोगियों एवं डॉ० अबुलैश अंसारी डॉ० विजेन्द्र राय डॉ० उन्मेष कुमार सिन्हा, डॉ. महेन्द्र राय, डॉ० विजयानंद मिश्र एवं अनुज ओंकार राय के प्रति भी कृतज्ञ हूँ, जिनका स्नेह और प्रेरणा निरन्तर मेरा संबल बने।

मैं नागरी प्रचारिणी सभा, काशी हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, ज्ञान प्रवाह वाराणसी, करमाईकल पुस्तकालय, वाराणसी एवं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दी० द० उ० गो० वि० गोरखपुर एवं काशी विद्यापीठ के ग्रंथालयों के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ, क्योंकि इनके सहयोग के बिना इस कार्य की पूर्णता सम्भव नहीं थी।
अंत में कृति पाठकों को समर्पित करते हुए अपेक्षा है कि वे अपनी सम्मति एवं सुझाव से अवतग कराने की कृपा करेंगे। पुनर्मिलनाय।
वाराणसी
अक्टूबर 2005
-आशुतोष राय


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