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रूबरू

लक्ष्मीकान्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :158
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2307
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है नवीनतम कविताओं का संग्रह...

Rubroo

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘रूबरूः लक्ष्मीकांत’ उनकी काव्य-यात्रा की अन्तिम परिणति है। नयी कविता के परिसर में लक्ष्मीकांत वर्मा का व्यक्तित्व सबसे अलग किस्म के विकास की छाप छोड़ती है। काव्य में उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्व अधिक गहराई और व्यापकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। ‘नयी कविता’ में लक्ष्मीकांत जी की अनेक कविताएँ छप कर आयी थीं।
लक्ष्मीकांत जी का कहना है कि ‘इन कविताओं के विषय में मुझे इतना ही कहना है यह मेरी व्यक्तिगत अनुभूतियों का संग्रह है। कहीं-कहीं इसमें पूरा परिवेश हमारे साथ रहा है, कहीं-कहीं मैं बिल्कुल अकेला रह जाता हूँ वहाँ किसी को दोषी नहीं ठहराता क्योंकि अन्ततोगत्वा सब छूट जाते हैं। केवल कवि का व्यक्तित्व और स्थितियों का गहनतम दबाव यही दो शेष बचते हैं। उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति कठिन है और जटिल भी और वही कवि के व्यक्तित्व की परख भी होती है।’
कवि व्यक्तित्व की परख की जिस कसौटी की चर्चा लक्ष्मीकांत जी ने इन पंक्तियों में की है, वह कसौटी आजीवन उनके जीवन के लिए निरन्तर बनी रही।

‘रूबरूः लक्ष्मीकांत’ की प्रत्येक कविता आत्मदर्शन की कविता है। किन्तु यह आत्मदर्शन संकुचित आत्मदर्शन नहीं है। समाज की विस्तृत भूमि पर खड़ा एक रचनाकर समाज द्वारा कितना देखा जा सका और कितना अनदेखा रह गया, इसकी गहरी पीड़ा इन कविताओं में झलकती है।

‘‘नहीं जानते लक्ष्मीकांत
इस पिंजरे की मैना---
कब और किस दिन उड़ जाएगी
और यादगार रहेगा केवल एक ठाठर
जिसे कहते हैं मिट्टी,
और जिस मिट्टी को सभी चाहते हैं,
अकारथ न जाय---

पूरी-की-पूरी स्वारथ हो जाय।’’

‘रूबरूः लक्ष्मीकांत’ की कविताओं को गहराई से समझना एक अनिवार्य शर्त है वही उनके प्रति सबसे गहरी श्रद्धांजलि भी।


रूबरू लक्ष्मीकान्त : एक अन्तर्दृष्टि



लक्ष्मीकान्त वर्मा का प्रस्तुत काव्य संकलन ‘रूबरू : लक्ष्मीकान्त’ उनकी काव्य-यात्रा की अन्तिम परिणति है। नयी कविता के परिसर में लक्ष्मीकान्त वर्मा का कवि व्यक्तित्व सबसे अलग किस्म के विकास की छाप छोड़ता है। यों तो उनके कवि व्यक्तित्व को केवल उनकी कविताओं के माध्यम से समाकलित नहीं किया जा सकता। वे एक बडे आलोचक और बड़े उपन्यासकार भी हैं। विधाएँ तो उन्होंने और भी अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयोग में लायीं हैं, किन्तु आलोचना, उपन्यास और काव्य में उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्व अधिक गहराई और व्यापकता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। इन तीन साहित्यिक विधाओं को और गहरी समृद्धि और संगति प्राप्त हुई है, उनके चित्रकार व्यक्तित्व से। रंगों और तूलिका का प्रयोग भी उन्होंने अपने जीवन में भरपूर किया है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए लक्ष्मीकान्त वर्मा की काव्य संवेदना के विकास को जब हम परिभाषित करने का प्रयास करेंगे तो हमें एक साथ उनके आन्तरिक तत्त्वों और वाह्य परिवेश पर अपनी दृष्टि डालनी पड़ेगी।
 
लक्ष्मीकान्त का सृजनशील मन एक विस्फोटक ऊर्जा से ओत-प्रोत है। वह समाज की घिसी-पिटी लकीरों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। जहाँ उसे भारत की परतन्त्रता की चुभन थी और वह उस संग्राम में जुट जाना चाहता था तो भारत की आजादी के लिए चल रहा था, तो वहीं उसे समाज की विषमताएँ और पीड़ाएँ भी सताती थीं। अच्छे खाते- पीते परिवार में उनका जन्म और पालन-पोषण हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनकी शिक्षा हो रही थी, किन्तु उनकी सृजनशीलता और समाज चेतना ने उन्हें विवश किया कि वे भागकर बंगाल जायें, जहाँ अंग्रेजों द्वारा आरोपित दुर्भिक्ष का कहर टूट रहा था और वे समाज के लिए कुछ करना चाहते थे। वहाँ से लौटे तो भागकर वर्धा गये, जहाँ से गांधी जी के नेतृत्व में एक नये भारत की संकल्पना को चरितार्थ करने का प्रयास चल रहा था।

 परन्तु अन्ततः लौटकर लक्ष्मीकान्त जी इलाहाबाद आये, जहाँ पन्त, निराला और महादेवी के द्वारा अपनी रचनाशीलता से एक नयी साहित्यिक संस्कृति का निर्माण हो रहा था। जहाँ परिमल की स्थापना हो चुकी थी और एक नया काव्यांदोलन नयी कविता के नाम क्षितिज पर दस्तक दे रहा था। नयी कविता नाम की पत्रिका में लक्ष्मीकान्त जी की अनेक अतुकान्त के नाम से 1968 ई. में प्रकाश में आया। ‘अतुकान्त’ की कविताएँ लक्ष्मीकान्त वर्मा के प्रारम्भिक कवि व्यक्तित्व को परिभाषित करने की दृष्टि से बहुत गहरा अर्थ रखती हैं। उन्होंने अपनी भूमिका में कहा है-‘‘इन कविताओं के विषय में मुझे इतना ही कहना है कि यह मेरी व्यक्तिगत अनुभूतियों का संग्रह है। कहीं-कहीं इसमें पूरा परिवेश हमारे साथ रहा है, कहीं-कहीं मैं बिल्कुल अकेला रह गया हूँ। जहाँ परिवेश ने मेरी अनुभूति को गहराई दी है वहाँ मैं उसका ऋणी हूँ, लेकिन जहाँ मैं बिल्कुल अकेला रह जाता हूँ, वहाँ किसी को दोषी नहीं ठहराता क्योकि अन्ततोगत्वा सब छूट जाते हैं। केवल कवि का व्यक्तित्व और स्थितियों का गहनतम् दबाव यही दो शेष बचते हैं। उस साक्षात्कार की अभिव्यक्ति कठिन भी है और जटिल भी और वहीं कवि के व्यक्तित्व की परख भी होती है।’’

भूमिका-अतुकान्त


कवि व्यक्तित्व के परख की जिस कसौटी की चर्चा लक्ष्मीकान्त जी ने इन पंक्तियों में की है, वह कसौटी आजीवन उनके काव्य के लिए निरन्तर बनी रही। वह कसौटी है-आत्मसाक्षात्कार की कसौटी। चाहे हम ‘अतुकान्त’ की कविताओं को देखें या ‘तीसरा पक्ष’ की अथवा परवर्ती दौर की ‘दीप देहरी द्वार’ की कविताओं को। सबसे बड़ी कसौटी लक्ष्मीकान्त जी के लिए आत्म साक्षात्कार की कसौटी ही रही।

पहले दौर की कविताओं में उनकी अनुभूतियाँ, उनके अभावों, संघर्षों और पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक कठिनाइयों, में से जन्म लेती थीं। वे जिस आर्थिक, सामाजिक स्तर के व्यक्ति थे उनसे निकले हुए नौजवान विश्वविद्यालयों में प्राध्यापन करते थे या सरकारी नौकरियाँ करते थे और उनके बीच रहते थे, उन्हीं जैसी कविताएँ लिखते थे, आलोचना और उपन्यास लिखते थे, तूलिका से फलक पर रंग भरते थे, किन्तु कोई नौकरी नहीं करते थे। जीविका की कोई बनी बनाई प्रणाली उनके पास नहीं थी। इसीलिए उनके घर का स्टोव कभी ठंडा हो जाता था तो उनके भीतर एक कसक कविता बनकर निकल आती थी, क्योंकि उनके भीतर सदा एक लघु अस्तित्व की सार्थक माँग झनझनाती रहती थी। परन्तु जिन्दगी की उस कडुवाहट को भी वे एक सर्जनात्मक परिणति देना चाहते थे। उस दौर में उन्होंने लिखा था-

‘‘कड़ुआहट अपने में ही एक अर्थ है
सम्भाव्य है उस सन्तुलन का
जिसकी अभिव्यक्ति
एक नयी अभिरुचि में
अवतरित हो
हमें परिशोधित सन्दर्भों से जोड़ती है।
तोड़ती है आयोजित, असन्तुलित अंशों से
और यह टूटने की पीड़ा
सृजन की पीड़ा सन्दभों से अलग
अकेलेपन की पीड़ा
संवेदना है
हमारे वृत्तों के अर्थों की।’’


प्रारम्भिक दौर में भी लक्ष्मीकान्त में इस प्रकार का आत्म परिशोधन का तत्त्व था। परन्तु उस दौर के कविताओं में आक्रोश और पीड़ा की छटपटाहट अधिक थी। ‘तीसरा पक्ष’ तक आते-आते लक्ष्मीकान्त जी की काव्य संवेदना अधिक व्यापक रूप लेने लगती है। वे अपने व्यक्तित्व की परिधि का अतिक्रमण करते हैं और समाज के दुखियों, वंचितों और पीड़ितों के साथ खड़ा होते हैं। उनका पक्ष अपना पक्ष नही होता, दूसरों के लिए खड़ा होकर एक व्यापक सामाजिक समता की लड़ाई वे लड़ना चाहते हैं। जहाँ भी शोषण है, असमानता है, उत्पीड़न है, वहाँ लक्ष्मीकान्त का पक्ष विषमता भोगते हुए उत्पीड़ित मानवता का पक्ष है। वही दौर है जब उनकी निकटता समाजवादी चिंतन से जुड़े लोगों से अधिक गहरी थी। वे लोहिया और जय प्रकाश नारायन के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े थे।

लक्ष्मीकान्त वर्मा के काव्य संवेदना का अगला विकास आत्मदान और आत्म विसर्जन का है। उनके काव्य संकलन ‘दीप देहरी द्वार’ की कविताएँ एक नये क्षितिज के उन्मीलन की कविताएँ हैं। इस दौर की कविताओं को लिखते समय वे एक अद्भुत सौम्यता का धरातल अर्जित कर लेते हैं। उनकी कविताओं में वह पुराने आक्रोश और उत्पीड़ित मन की झलक अब नहीं दिखती।’ ‘अतुकान्त’, ‘तीसरा पक्ष’ और ‘धुएँ की लकीरें’ की कविताएँ अब बहुत पीछे छूट चुकी होती हैं। धीरे-धीरे लक्ष्मीकान्त जी का कवि मानस आध्यात्मिकता की ओर मुड़ता है। उनकी रचना कंचन मृग उसी जमीन की अभिव्यक्ति है। ‘दीप देहरी द्वार’ की छोटी-छोटी कविताएँ उनके आलोकित मन की रश्मियों को बिखेरती चलती हैं। वे लगभग एक भक्त कवि की भूमिका में उतरते से प्रतीक होते हैं, किन्तु लक्ष्मीकान्त जी भक्त कवि नहीं हैं, न हो सकते हैं। उनकी संवेदना में तो आत्मविसर्जन का भी तत्त्व आयेगा तो वह रागात्मक ही होगा। एक कविता में वे लिखते हैं-

‘‘यदि शरीर का एक लय है
तो अंगों का एक राग भी है।
लय तो वह निरन्तरता है जिसमें
राग एक क्षणिक हस्तक्षेप से
सब कुछ बदल देता है।’’


‘दीप देहरी द्वार’ लक्ष्मीकान्त जी की एक लम्बी बीहड़, अतुकान्त कविता-यात्रा का लगभग अन्तिम पड़ाव माना जा चुका था, कि लक्ष्मीकान्त जी ने जाते-जाते एक सर्वथा नये मिजाज की सैकड़ों कविताओं की एक मंजूषा छोड़ गये। यही उनकी अन्तिम काव्य मंजूषा है, जिसका नाम उन्होंने ‘रूबरू लक्ष्मीकान्त’ दिया है। आत्म साक्षात्कार की अनेक मुद्राएँ, अनेक छवियाँ, अनेक भंगिमाएँ उन कविताओं में पाठक को आन्दोलित, चकित और विचलित करती हैं। अपने अन्तिम दिनो में वे लगातार अपने भीतर देख रहे थे। अपने उन समस्त छाया रूपों को आँख गड़ा-गड़ाकर देख रहे थे, जिन्हें देखने से सामान्यतः लोग परहेज करते हैं, बचना चाहते हैं। समाज द्वारा उन्हें कितना देखा गया, परखा गया, नहीं देखा गया, नहीं परखा गया, यह सब वे रेशे-रेशे उधेड़कर देखते हैं। वे स्वयं से रूबरू हैं। वे रूबरू लक्ष्मीकान्त हैं। किसी जमाने में जब उन्होंने यह लिखा था-‘आदि से अन्त तक केवल अतुकान्त श्री श्री श्री लक्ष्मीकान्त’, तो कौन सोचता था कि जीवन के अन्तिम चरण में भी लक्ष्मीकान्त जी स्वयं से इस कदर रूबरू होने की कोशिश करेंगे।

‘रूबरू लक्ष्मीकान्त’ की प्रत्येक कविता आत्मदर्शन की कविता है। किन्तु यह आत्मदर्शन संकुचित आत्मदर्शन नहीं है। समाज की विस्तृत भूमि पर खड़ा एक रचनाकार समाज द्वारा कितना देखा जा सका और कितना अनदेखा रह गया। इसकी गहरी पीड़ा इन कविताओं में झलकती है, किन्तु वह पीड़ा कहीं भी कवि को छोटा नहीं बनाती। लक्ष्मीकान्त जी अपने व्यक्तित्व के गहरों में, उसकी अन्तर्वीथियों में विचरण करते हैं। उन गलियों में उन्हें जो आलोक के दीप टिमटिमाते नजर आते हैं, उन्हें दुनिया ने नहीं देखा, क्योंकि उसके लिए तो उन गृहरों में उतरना पड़ता जिसमें किसी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश संभव ही नहीं था, किन्तु लक्ष्मीकान्त जी जब उन प्रकाश पुंजों को आँखें फाड़-फाड़कर देखते हैं तो उन्हें निश्चय ही यह कसक विचलित करती है कि काश दुनियाँ की आँखें भी इन प्रकाश पुंजों को देखी होती। यह कसक उनकी अनेक कविताओं में झलकती है। दुनिया ने उनके सृजन के बड़े हिस्से को अनदेखा किया। किन्तु उन्हें बराबर लगता रहा कि वे कोरे कागज को सार्थक करने में लगे रहे।

‘‘क्यों कागज खराब करते हो ? कुछ और करो।’’
लक्ष्मीकान्त सहम गये। कुछ देर बाद उनके कवि मन ने कहा:
‘‘तुमने उस कोरे कागज को सार्थक किया
रुको मत इस प्रवाह को चलने दो।’’
कुछ देर सुनते रहे लक्ष्मीकान्त
फिर एक रेखा और खींची,
दो रेखाओं से कुछ नहीं बनता
एक तीसरी रेखा खींचो
नहीं तो ये रेखाएँ निर्थक होंगी।


यह सार्थकता और निरर्थकता का द्वन्द्व लक्ष्मीकान्त जी की सृजनशीलता का सबसे बड़ा द्वन्द्व है। वे जीवन भर सृजनकर्मी रहे। कविता, उपन्यास, आलोचना, नाटक सभी विधाओं में उन्होंने प्रचुर लेखन किया, किन्तु कविता उनकी सबसे आत्मीय और प्रामाणिक विधा रही है। जैसे-जैसे उनका व्यक्तित्व उन्मेलित होता गया वैसे ही वैसे उनकी कविता की दुनिया भी खुलती चली गयी। पहले उन्होंने बाहर के संसार को खुली-खुली आँखों से देखा, किन्तु संघर्षों ने बजाय उन्हें कड़ुवा बनाने के आत्मोन्मुख उदात्त और प्रणत बनाया। वे जीवन में भी आस्थापरक होते चले गये और अपने काव्य में भी। परन्तु एक पीड़ा कहीं न कहीं उन्हें कचोटती रही कि उनके सृजन को लोगों ने पहचाना क्यों नहीं ? रेखांकित क्यों नहीं किया ? प्रस्तुत संकलन की कविताएँ इस कचोट को तो व्यक्त करती ही हैं, किन्तु उस आत्मविश्वास को भी पूरी आत्मीयता से छलकाती हैं, जो कि उनकी अन्तर्वेदना से छने हुए अमृत जैसा है।

‘‘कटोरे से दूध लिए
एक बच्चे को पिला रहे हैं लक्ष्मीकान्त
पर आँखों में आँसू हैं इतने
कि खत्म ही नहीं होता था दूध।
दूध बताशे तो नहीं थे कटोरे में-
पर खारे आँसू थे।’’

वे जीवन भर कटोरे में दूध लिए एक बच्चे को पिलाते रहे और जीवन भर उनके आँखों के आँसू उस कटोरे के दूध को जलमय बनाते रहे।
लक्ष्मीकान्त का जीवन एक कठिन तपस्या का जीवन रहा है। वे सदा अपनी हड्डियों को गलाते रहे किन्तु भूमिका उनकी दधीचि की रही है इसीलिए उन्हें कभी भी यह नहीं लगा कि वे पराजित हो रहे हैं। अथवा हो सकते हैं।
जब वे कहते हैं-

‘‘इसी असंभव को संभव बनाने में
बूँद बूँद ‘रक्त दान’ करते रहे
यानी वही लक्ष्मीकान्त जो बड़े-बड़े
युद्ध शिविरों में पराजित नहीं हुए
पर अपनी ही अपराजेय विवशता में
समूचे चूर-चूर होकर भी साबुत बचे रहे।
और अब
अपने ही चक्रव्यूह की
परकाया में प्रवेश में
अपने ही को तोड़ रहे।’’


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