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अलग अलग वैतरणी

शिव प्रसाद सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :487
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2304
आईएसबीएन :9788180312908

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इसमें उत्तर प्रदेश के एक गाँव का यथार्थवादी एवं विचारोत्तेजक चित्रण प्रस्तुत किया गया है....

Alag Alag Vaitarni

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रेमचन्द्र के बाद ग्रामीण जीवन का चित्रण करने वाले सफल कथाकारों में शिव प्रसाद सिंह अगली पंक्ति में आते हैं। अपने इस वृहद् उपन्यास में उन्होंने उत्तर प्रदेश के करैता गाँव को समस्त भारतीय गाँवों के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण करके अत्यन्त यथार्थ वादी एवं विचारोत्तेजक चित्रण प्रस्तुत किया है। स्वतंत्रता आई ! जमींदारी टूटी ! करैता के किसानों को लगा कि दिन फिरेंगे ! मगर हुआ क्या ? अलग-अलग वैतरणी ! अलग-अलग नर्क ! !-जिसे निर्मित किया है भूतपूर्व जमींदारी ने, धर्म तथा समाज के पुराने ठेकेदारों ने, भ्रष्ट सरकारी ओहदेदारों ने और इस वैतरणी में जूझ और छटपटा रही है गाँव की प्रगति-शील नयी पीढ़ी ! निश्चय ही यह कृति हिन्दी उपन्यास साहित्य की एक उपलब्धि है।

अलग अलग वैतरणी

कहा जाता है कि सती-वियोग से व्याकुल शिव के आँसुओं की धारा वैतरणी में बदल गयी। इस पुराण-कथा का प्रतीकार्थ जो हो, मुझे इसे पढ़ते ही विक्षिप्त, बहिष्कृत, संत्रस्त और भीड़ के संगठित अन्याय के विरुद्ध जूझते शिव की याद आ जाती है। जब शिवत्व तिरस्कृत होता है, व्यक्ति के हक छीने जाते हैं। सत्य और न्याय अवहेलित होते हैं, तब जन-जन के आँसुओं की धारा वैतरणी में बदल जाती है। नरक की नदी बन जाती है।
बेचारे करैता गाँव की क्या बिसात ! बचपन में, मेरे गाँव के पटवारी मुंशी हरनारायण लाल कहा करते थे कि पतिला ‘नाचिराग़ी मौज़ा’ है। उस समय मुझे इस शब्द में अजीब रूमान का बोध होता था।
रात के सन्नाटे में एक तेज झनझनाती आवाज उठती थी—‘‘ति-ति-ति-ति-ति-तिल्लो-तिल्लो-तिल्लो...’’
‘‘यह क्या बोल रहा है ?’’
मेरे पूछने पर बाबा कहते—‘‘पतिला डीह का करैत ठनक रहा है। अब पानी बरसेगा।’’
‘नाचिराग़ी मौज़ा’ और ‘‘करैत का ठनकना’’ मेरे लिए नयी चीजें नहीं हैं। जाने कितने गाँव नाचिराग़ी मौज़ों में बदल गए। आज वहां झाड़-झंखाड़ के बीच सिर्फ़ करैत ठनकते हैं। लेकिन किसान है कि उसमें भी बारिस के सगुन उचार लेता है। मैं बार-बार सोचता हूँ कि ये मौज़े नाचिराग़ी क्यों हुए...?
बाढ़, विप्लव, युद्ध, सूखा, अकाल या और कुछ ?

इस उपन्यास पर मैं कई बरसों से काम करता आ रहा हूँ। कई बार काटा-पीटा और रद्दोबदल किया है। जानता हूँ यह अन्तिम रूप भी मेरे में करैता की सही ‘ठनक’ को बाँध नहीं पाया है। पर कहीं न कहीं तो विराम चाहिए ही।
मैं चाहे लाख चाहूँ, पढ़ने वाले इसे यदि आँचलिक उपन्यासों की पंक्ति में डाल दें, तो मैं कर ही क्या सकता हूँ। हाँ निवेदन सिर्फ़ इतना है कि पढ़ते समय उपन्यास यदि आँचलिक लगे तो, आपकी दृष्टि आंचलिक न हो, बस।
इस उपन्यास के अध्याय सत्ताइस और सत्रह क्रमशः ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ में धारावाहिक छपे। इसके लिए मैं डॉ. धर्मवीर भारती और श्री कमलेश्वर का आभारी हूँ। कुछेक अंश इधर-उधर और भी छपे हैं। यह सब लेखक की विवशता रही है। इसके लिए पाठक क्षमा करेंगे।
परम आदरणीय पं. वाचपस्ति पाठक की मेरे ऊपर सदैव अशीष और कृपा रही है। लोकभारती प्रकाशन के श्री दिनेशचन्द्र ने इस उपन्यास के प्रकाशन में अद्भुत तत्परता और सदाशयता बरती है। महावीर प्रेस वाराणसी के श्री बाबूलाल जैन फागुल्ल किसी न किसी रूप में मेरी अनेक पुस्तकों के मुद्रक रहे हैं। इन सबके प्रति मैं अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। पुस्तक में अध्यायों के आरंभ के सज्जाचित्रों के लिए कलाकारों का आभारी हूँ।

एक

आज ही मेला शुरू हुआ है। कल खत्म हो जायेगा। हर साल रामनवमी को करैता के देवी धाम पर यह मेला होता।
देवीकुण्ड के चारों कगारों पर आदमी। मन्दिर के इर्द-गिर्द आदमी। चौतरफ़ा फूटनेवाले रास्तों पर आदमी। रास्ते-बेरास्ते पेड़ों के नीचे, सर्वत्र आदमी-ही-आदमी। इनमें मर्द कम, औरतें और बच्चे ज़्यादा। तरह-तरह की रंगीन साड़ियों में लिपटी, साज-पटार किये माथे पर अँगूठे के बराबर निशान का बुँदा लगाये, कलाइयों में चूड़ियाँ और गहने झमकातीं, भीड़ में एक-दूसरे का संग छूटने की आशंका से परेशान चीखतीं-चिल्लातीं, माथे की गठरियों को सँभालतीं, धक्के देनेवालों पर गुर्रातीं-खिजलाती औरतें। तरह-तरह की काली, गोरी, गन्दुमी-नवचौ; अधेड़, बूढ़ी। एक-एक के साथ बच्चे-बच्चियों की लम्बी क़तार। एक का हाथ एक पकड़े। इंजन के साथ जुड़े मालगाड़ी के डिब्बों की तरह, हिलते-डुलते, लड़खड़ाते घिसटते बच्चे-बच्चे। रास्ते-बेरास्ते चलती इन मालगाड़ियों का आपस में टकराना स्वाभाविक है।
पर इनमें से कोई स्वाभाविक नहीं मानता। हर कतार अपनी सुविधा और सुरक्षा के लिए अड़ी-डँटी सन्नद्ध। कोई किसी के लिये रास्ता नहीं देता। कोई किसी को अपने से पहले तमाशा देख लेने की बात को सह नहीं पाता।
मिट्टी के खिलौनों की दूकान पर ‘बबुए’ देखकर बबुए ठुनक जाते। माताओं का आँचल पकड़कर मचलने लगते।
‘‘आओ चलो, नहीं तो दूँगी एक थप्पड़। जो देखते हो, वही खरीदने के लिए नंगई करते हो।’’ टीन की पपिहरी के लिए जिदियाये बच्चे की पपिहरी रुलाई से माँ चिढ़ जाती है।

हरे-लाल चमकीले कागज के चश्में लगाये बच्चों को सारी दुनिया रंगीन लगती है।
‘‘लौटोगे भी कि यहीं रात करोगे तुम लोग।’’ टुन्नू बाबू की कलाई में बँधी दो पैसे की अचल सुई वाली घड़ी में समय बदलता ही नहीं।’’ वे बाबू के हाथ से से कलाई छुड़ाकर मेले में खो जाना चाहते हैं।
‘‘भई, हम तो थक गये नाचते-नाचते। पैर दुखने लगे।’’ अधेड़ आबू जामुन के पेड़ में पीठ टिका कर उदास हो जाते हैं।
‘‘इत्ती जल्दी ?’’ डोरी खींचने पर रेंगने वाले साँप को नचाते-नचाते जिरिया अपनी अम्मा से हँसकर कहती है—‘‘माई ! बाबू तो थक गये।’’
‘‘मैंने तो अभी तक कठवत और बेलना भी नहीं खरीदा। भीड़ के मारे तो दूकान पर जाना मुहाल हो गया।’’ माई गठरी में से ढूँढ़ियाँ निकाल-निकाल कर बच्चों को बाँटती हैं।
‘‘आप भी लीजिये।’’ अम्मा बाबू की ओर बढ़ाती हैं।
‘‘खाओ तुम्हीं लोग। मुझे भूख नहीं है।’’ वे हथेलियों को फँसाकर अपने सिर के नीचे लगा लेते हैं।
‘‘अम्मा।’’ टुन्नू बाबू फिर ठुनकने लगे—‘‘तुम कहती थीं कि मेले में मिठाई खरीदेंगे।’’
‘‘लो, लो, खा लो ढूँढ़ी। यह क्या किसी मिठाई से कम है। अभी एक चीज़ भी नहीं खरीदी अपनी। गुलजारी पूआ कह रही थीं कि करैता के मेले में अमफरनी और कद्दूकस बड़ा बढ़िया मिलता है।’’
‘‘तुम्हें जो ख़रीदना-बेसाहना हो, जल्दी कर-करा लो।’’ थके बाबू ढूँढ़ी के गिरे हुए चूरों के न्योते पर आयी मक्खियों को झटकारते हुए बोले—‘‘मैं कोल्हू के बैल की तरह इस मेले में चक्कर नहीं काटता रहूँगा।’’
‘‘आरे जिरवा !’’ अम्मा गठरी बाँध कर झटपट उठती है—‘‘ई तो हर बात में अनसाने लगते हैं। इत्ती दूर से आये तो कुछ खरीदें भी नहीं।’’
‘‘तो जाकर खरीदती क्यों नहीं ? कौन मना करता है तुमको।’’ बाबू किटकिटाते हैं—‘‘पाँच रुपये बनिया से हथफेर लेकर आयी हो। उड़ा डालो। मैं कुछ कहूँ तब तो। मैंने तो इसीलिए बोलना ही छोड़ दिया। कौन ऐसे बेकहल प्रानियों के पीछे जी हलकान करे।’’
अम्मा मुह लटकाए चली गयीं।

नरवन का यह सबसे बड़ा मेला अपनी रंगीनी, चहल-पहल, हँसी-खुशी और मस्ती के लिए मशहूर था। दूर-दूर के लोग इस मेले को देखने के लिए आते थे। क्योंकि इसकी कुछ ऐसी ख़ास विशेषताएँ थीं जो दूसरे मेलों में नहीं होतीं। भेड़ों की लड़ाई सभी मेलों में होती है; पर गबरू नट का मशहूर भेड़ा ‘करीमन’ सिर्फ़ इसी मेले में आता था। घुड़दौड़ तो और मेलों में भी होती है पर साराराम के कलक्टर ‘क्लर्क साहब’ की मोटर की डाँक जाने वाली देवीचक के केशो बाबू का ‘अबलखा’ इसी मेले को सुशोभित करता था। बिरहे के दंगल का रिवाज भी खूब है ! हर मेले में एकाध दंगल हो जाते हैं, पर छन्नूलाल उस्ताद की मण्डली इसी मेले में उतरती थी। दसों नहों को जोड़ कर गुरू का सुमिरन करके, अपने बारह अँगुल के लम्बे बालों की अँगूठी के नगों से पीछे उलटकर रामदास इसी मेले में अपनी ‘सदा बहार कम्पनी’ की नौटंकी पेश किया करता था।
औरतों से छेड़खानी हर मेले में होती है। पर करैता की किसी शोख लड़की से छेड़खानी करने के कारण मार-पीट और ख़ून-ख़राबा इस मेले का सालाना रिवाज़ था। इन चन्द सुर्खियों से मालूम हो जाएगा कि करैता के मेले की क्या शान-शौकत थी और क्यों उसके आकर्षण से खिंचकर लोग दूर–देसाउर से चले आया करते। इस मेले का कभी विज्ञापन नहीं होता। खेल–तमाशों के कोई इश्तहार नहीं छपते थे। पर नौगढ़ की तलहटी से गंगा पार के सौ मील के घेरे में बसे हुए तमाम गाँवों में मेले में होने वाली हर दिलचस्प बात की चर्चा एक हफ्ता पहले से होती थी रहती थी।

बुल्लू पण्डित करैता गाँव की हँसी-खुशी के सफ़रमैना हैं। उनकी अपनी हँसी-खुशी का कोई महत्त्व नहीं। घर में अकेल वे हैं और सत्तर साल की बूढ़ी माँ। नाम है दयाल। मगर गाँव बुल्लू ही कहता है। उनका चेहरा बुल्ले मछली की तरह मासूम और भोला है इसीलिए। चालीस-पैंतालीस के हुए पर चेहरे पर बचपनकी निर्लोम चिकनाई ज्यों-की-त्यों बरकरार है। न दाढ़ी, न मूछ। पण्डित झब्बूलाल उपधिया जब खुश होते; या जब बिना पैसे दयाल से कोई बेगार करानी होती तो उन्हें प्रेम से ‘बालखिल्य’ कहते। सुना वे लोग दैवी आत्मा थे। सदाबहारी बालक। विधाता के शरीर से निकले। अँगूठे बराबर देहवाले ये साठ हज़ार बालक सूरज देवता के रथ के आगे-आगे उड़ते हुए चलते हैं, रोशनी की जयजयकार करते हुए।
करैता गाँव में कोई शादी-ब्याह हो, कोई मुण्डन-जनेऊ हो, कोई व्रत हो-त्योहार हो, या कोई उत्सव-समारोह ही हो, दयाल महाराज उनमें सबसे पहले तैयार दिखेंगे। उत्सव के हफ़्ते भर पहले से इन्तज़ाम के लिए उन्हें बुला लिया जायेगा। दयाल महाराज को न अपनी फ़िकर, न घर की, न माँ की। बस वे दूसरों की खुशी के आगमन के अवसर पर चेहरे पर स्वागतम का पोस्टर चिपकाए घूमते नज़र आयेंगे। किसी को किसी चीज़ की ज़रूरत हो, दयाल महराज से कहें। वे आकाश-पाताल छानकर चीज़ बरामद कर देंगे।
‘‘क्या करूँ भाई ! बाभन हूँ। हलवाही-चरवाही कर नहीं सकता। मिहनत-मजदूरी कोई कराएगा नहीं। ऊपर-झापर में कुछ काम कर देता हूँ। इसी से तो दो प्रानी का गुज़र चलता है।’’ वे बड़े संजीदगी से कहेंगे—‘‘इस महँगाई में तो वह भी गया। कितने लोग हैं, जिन्हें बाज़ार से सौदा-सुलफ मँगवाना रहता है अब ? कहाँ होता है उत्सव और त्यौहार ? बस किसी तरह जिंदगानी कट जाये, यही बहुत है।’’
मेले के दिन सुबह ही से दयाल महाराज फेरु सिंह के दरवाज़े आ बैठे। अब दो ही चार घर तो रह गए हैं, जहाँ औरतें तेल-साबुन, चोटी, कंघी, जम्फर-ब्लाउज वग़ैरह अब भी मँगवाती हैं उनसे, क़स्बे भेजकर। फेरु सिंह की औरत दयाल महाराज को काफ़ी मानतीं। बहुत कम औरतों के शादी के बाद मायके से जिन्दा सम्बन्ध रहते हैं। मगर फेरुसिंह बो-दयाल को अक्सर अपने मायके पठाती रहतीं हैं। आजकल वहाँ उनकी काफ़ी आम दरफ़्त थी।
एक बजे ही फेरु के छोटे लड़के नन्हकू को गोद में चिपकाए वे देवी-धाम की ओर निकल पड़े।

‘‘नन्हकू!’’ रास्ते में वे कसमसाते लड़के के गाल को चूमते हुए प्यार से बोले—‘‘घाम लग रहा है भइया ?’’ उन्होंने अपना गन्दा फटापुराना गमछा अपने सिर से नन्हकू के सिर तक फैला दिया। दोनों सिरों पर चँदोवा तानकर दयाल महराज ने जो दुलकी ली तो मेले में ही आकर रुके।
उधर देवी धाम के छवरे पर चँदोवा ताने गोद में लड़का लिये किसी आदमी को लुढ़कते देखकर करैता की गलियों में सक्रियता बढ़ गयी। दूर से ही देवी धाम के चैगिर्द उमड़ते जन-समूह को देख-देखकर गाँव में दरवाज़ों पर बैठे लड़के आधीर हो रहे थे। अब तक उन्हें पिता-चाचा, बाबा-ताऊ की झिड़कियाँ ही रोके थीं।
‘‘देखते नहीं घाम ? निकलोगे छवरे पर तो खोपड़ी चनक जायेगी।’’
‘‘सब लोग जा रहे हैं।’’ लड़के अधीर होकर चिरौरी करते।
‘‘कौन जा रहा है ? तीन बजे के पहले कोई नहीं निकलता मेला देखने।’’
‘‘और ऊ ?’’ लड़के अपनी पतली-पतली नन्हीं उँगलियाँ उठाकर छवरे पर दुलकते दयाल की ओर संकेत करते।
प्रौढ़, अल्हड़, अनुभवी लोग आँखों पर हथेली की आड़ करके आश्चर्य से छवरे की ओर देखते।
‘‘दयलवा है। इसे तो बज्जर भी गिरे तो कोई रोक नहीं सकता। सबसे आगे मेला में न पहुँचे तो इसके पेट का पानी नहीं पचेगा।’’

इधर बालखिल्य जी मन्दिर के पास पहुँचकर सुस्ताने लगे थे। नन्हकू के गाल धूप की वजह से लाल हो गये थे। दयाल गमछे से हवा कर रहे थे। मेला की गहमागहमी; रौनक, आवाजें, गन्धें उन्हें बरजोरी अपनी ओर खींच रही थीं, पर मुरझाये मुँह लड़के को लेकर मेला का मुआयना करना दयाल को पसन्द नहीं। कौन-सी देर हुई जा रही है ? ज़रा ठण्डाय लें तो चलें।
‘‘पानी।’’ नन्हकू अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से दयाल महाराज का मुँह पकड़कर बोला—‘‘पानी।’’ सहसा वह ठुनकने लगा। रोकर चीज़ें माँगने की आदत अभी भी छूटी न थी। दयाल महराज घबरा गये। कहीं लड़के को लू तो नहीं लग गयी।
‘‘वाह रे नन्हकू बाबू। आओ। चलैं तोहे पानी पिला दें। चुप रहो। चुप रहो।’’
दयाल नन्हकू को गोद में उठाये मेले में घुस गये।
पच्छिम तर काफ़ी भीड़ थी। दयाल महराज को भीड़ अच्छी नहीं लगती। भीड़ अगर अपने काम में लगी हो और दयाल महराज की ओर ध्यान ही न दे, तब कुछ अच्छी लगती है। तब दयाल महराज को लगता है कि भीड़ है ही नहीं। वह कहीं से, किसी भी क़तार के बीच से घुस-पैठकर निकल सकते हैं। सब लोग अपनी-अपनी दिलचस्पी की बातों में मगन रहते हैं। धक्का भी लग जाये किसी को तो कोई मुँह नहीं बनाता। डाँट-डपट नहीं करता।
दयाल महराज पानी की टोह में निकले थे।

वे जानते हैं कि मेले में पानी कहाँ मिलेगा। वो पूरब तरफ़, भीटे के पास, जहाँ हलवाइयों की दूकानें लगती हैं। वे यह भी जानते हैं कि नन्हकू को बहुत प्यास लगी है, पर मेला है। मेले में इतनी चीज़े आयी हैं। उन्हें छोड़कर सरपट कैसे दौड़ा जा सकता है। देखते चलें सब-कुछ। घूमते-घामते, चलते-चलते पहुँच ही जायेंगे भीट पर। एकदम से घाम में से आकर तुरन्त पानी पीना भी खतरनाक होता है।
‘‘का हो भोलू साह।’’
दयाल महराज हलवाइयों के खित्ते में आ गये थे। सामने करैता के भोलू साह ने दुकान लगाई है। बुलाने पर सुनते ही नहीं। ग्राहकों की बेवक़ूफ़ी पर तरस खा-खाकर हलक़ सुखवा रहे हैं।
‘‘का हो साहजी।’’ दयाल महाराज ने फिर हाँक लगायी।
‘‘आओ बुल्लू पंडित।’’ भोलू साह की आँखें अपनी जिन्स पर लगी थीं।
‘‘ई क्या किया साहजी आपने ?’’ दयाल महराज नाक पर गमझा हिलाते हुए बोले—‘‘ई खाली गुड़ही जलेबी की दुकान ? ई क्या बात ? पर साल तो आपने मिठायी की दुकान लगाई थी ? ई उलट-फेर काहे ?’’ जलते तेल की भभक उनके मगज में चढ़ गयी थी।

‘‘मिठाई की दूकान लगाकर बंटाढार करें ?’’ भोलू साह सामने से गुजरती भीड़ की ओर ललचायी आँखों देखते हुए बोले—सारा माल चौपट हुआ पर साल। आधा-तिहा भी नहीं बिका। गाँव की दूकान में पड़ा-पड़ा सड़ा किया। कौन खरीदता है चिन्नी की मिठाई—पाँच रुपया सेर। देख आइए। घूमें की नहीं ? उधर घूम आइये। एक दूकान सामने जमनिया के रतनलाल की। चार उधर उत्तर मुँह को नयी बाज़ारवालों की। सालों के चेहरे पर पपड़ी पड़ी है, हैं। रतनलाल की जान-पहचान है देस-दिहात में। ऊ जानो अपना दाम निकाल भी लेगा। बाकी़ सालों से पूछो जाकर। ऊ हंडा-हंडियाँ, गैस-बत्ती, झंडे-झाड़ियाँ और चारों ओर सिलेमा की तस्वीरें। सैयदराजा से आयी है नयी बाजार के परसोतम सेठ की दूकान। चार बीघे में घेरा डाला है। टट्टर और तिरपाल से घेरकर कुरसियाँ लगायी हैं। केवड़ा डालकर पानी पिलाता है। बाकी सबेरे से दुपहर होने को आयी, मगर एक खेप की पूरियाँ भी नहीं खपीं अभी तक। एकदम सन्नाटा। दौड़ा-दौड़ा आया था उसका मुनीम। कहने लगा—
‘‘का हो भोलू साह ! ई का मामला है यार। हमारी तो टेंट कट गयी जानो। बधिया बैठ जायेगी। कुछ गाड़े-गूड़े तो नहीं हो यार उस जमीन में ?’’
हमने कहा— ‘‘हाँ साले, गाडे हैं उहाँ। तू समझ रहे थे कि ई हरिहर छत्तर ददरी का मेला है ? पवडर पोत कर चुनरी पहन ले और खड़े हो जा दरवज्जे पर। देख भीड़ का रेला-पेला मच जाता है कि नहीं।’’ साला गरियाता हुआ गया है।
‘‘तो पोता पौड़र उसने ?’’ दयाल महाराज ने सहज जिज्ञासा से पूछा।

‘‘सच कहता हूँ, यार बुल्लू पंडित ! उधर एक ठो बड़ा भारी तम्बू गड़ा है। आपने तो देखा ही होगा। फाटक पर मचान बँधी है। ऊपर खड़ा है एक ठो भँड़ुआ। चुन्ना पोते। कपार पर चोंच की तरह नोकीली टोपी लगाये। बग़ल में एक ठो चमरनेटुआ भी है। नाच-गाकर आदमी बटोरते हैं साले।’’
‘‘इन्द्रजाल ?’’
‘‘हाँ, हाँ इन्दरजाल।’’ भोलू साह ने मुँह को विकृत करके कहा—‘‘गये थे आप उसके भीतर ? दस पैसे का टिकट है। जानते हैं क्या दिखाता है ?’’
दयाल महाराज ने गरदन हिलायी—‘‘नहीं भाई।’’
‘‘जब भीतर की जगह खचाखच भर जाती है न, तो एक आदमी मेज़ पर चढ़ जाता है। फिर वह लुंगी खोलकर सर पर बाँध लेता है, बस।’’
‘‘नहीं।’’ दयाल महराज को विश्वास नहीं हो रहा था—‘‘पब्लिक कुछ नहीं कहती साले को ?’’
‘‘पब्लिक चिढ़कर गालियाँ देती है। मारने दौड़ती है। तो हाथ जोड़कर कहता है—भाइयों, माफ़ करें। इसका भेद किसी से न कहें। मैं आपके पैरों पड़ता हूँ। आपका पैसा तो गया ही। मेरा पेट क्यों काटते हैं ?’’
भोलू साह ने बड़ी गंभीरता से हाथों और मुद्राओं से सारा दृश्य साकार करते हुए कहा है—‘‘जो जनता को जितना चूतिया बनाता है, उतना ही मज़ा काटता है। यह नया ज़माना है न। यह सब लोग खूब ठाठ से देखते हैं। बाक़ी दस पैसे की शुद्ध देशी जलेबी खाने कोई नहीं आता। इसी से तो यह देश ग़ारत हो रहा है।’’
‘‘सच्ची ?’’ दयाल महराज की आँखें लिलार में सट गयीं।
‘‘हाँ हो। सच्ची न तब क्या झूठ।’’
भोलू साह के उदास चेहरे पर मुसकराहट आ गयी।

सच ही बड़ा कंजूस है भोलुआ। दयाल महराज ने मन-ही-मन सोचा—हँसता भी कितनी कँजूसी से है। जानों गाहक को बेदाम लुटा रहा हो अपना माल।
‘‘पानी !’’ तभी अचानक नन्हकू को याद आयी कि उसे प्यास लगी है।
‘‘ई तो फेरू सिंह का नन्हकू है न ?’’ भोलू साह ने आत्मीयता से पूछा— ‘‘पिलाओ, पिलाओ पानी बेचारे को। अरे बुल्लू महराज ! ले लो पाव-भर गरमा-गरम जलेबी। ऊ चुरचुराती ज़ायकेदार है कि तबीयत खिल जायेगी।’’
‘‘अरे साहजी ! अब हमीं मिले हैं आपको मूड़ने के वास्ते। पता नहीं कौन-सा तेल चढ़ाये हो कढ़ाही में कि धुआँ लगने से उबकाई आ रही है।’’
तभी नन्हकू ने जलेबी की ओर उँगली उठा दी।
‘‘देख लो बुल्लू पण्डित !’’ भोलू साह हँसे—‘‘लड़का का मन ब्ररह्मा की तरह साफ़ होता है। वे असी-नक़ली का भेद तुरंत कर देते हैं। देखो तो कैसे उँगली उठा दी नन्हकू ने। चलो ख़रीदो अब।’’
‘‘पैसा कहाँ है ?’’ दयाल महाराज ने कहा।
‘‘तुम लो तो मैं। वसूल लूँगा फेरू सिंह से।’’
‘‘अरे हटाइए साह जी, लस्का लगाएगा।’’
‘‘अब इसी पर मुझे ग़ुस्सा आता है, बुल्लू पण्डित ! इसी को कहते हैं कि तेली का तेल जरे...।’’
‘‘अच्छा भाई, दे दो एक छटाँक।’’
छटाँक-भर जलेबी लेकर दयाल पण्डित भौंचक ताकते रहे—‘‘पानी किधर है साह जी ?’’
‘‘अरे भई, खाते चले जाओ पिछवाड़े। उधर बैठा है गुल्लू गगरा लेकर।’’
एक जलेबी मुँह से लगाकर नन्हकू थू-थू करने लगा।
‘‘क्या है नन्हकू बाबू ?’’ दयाल महराज ने दोने में झाँकते हुए पूछा।
‘‘तीती।’’ लड़का तुतलाया।
‘‘वह तो होगी ही। ऐसी मक्खीचूस की तो जलेबी तीती न होगी तो क्या मीठी होगी।’’
नन्हकू पानी पी चुका। जलेबी दयाल महराज ने खा ली। पानी पीकर चलने को हुए तो सामने से दुक्खू नाई आता दिख गया।

दयाल महराज से उससे कोई मतलब नहीं। वे लड़के को गोद में उठाये गुड़ही जलेबीवाली दूकानों की क़तार के आगे-आगे चलने लगे। ललछौहीं बर्र और ढेर सारी मक्खियों सो बचने के लिए सामने ताको, तो नीचे हाथ मुँह धोने के लिए गिराये पानी के कीचड़—काँदों में पैर धँस जाये।
‘‘वाह रे नन्हकू बाबू।’’ दयाल भुनभुनाये।—‘‘अच्छी प्यास लगी तोहें।’’
‘‘ए महराजजी, महराजजी !!’’
दयाल ने उलट कर देखा।
‘‘के है ? दुक्खू ! का है हो ? काहे तू मेला कपार पर उठाये जा रहे हो ?’’
‘‘अरे, जाने हम आपको कब से बुला रहे हैं। आप सुनते ही नहीं। फेरू सिंह मलिकार कहाँ हैं ? ‘‘काहे के ?’’
‘‘ऊ हैं कहाँ ? मिले तब न बताऊँ।’’
‘‘अबहीं नहीं आये।’’
‘‘बाक़ी ठकुरहन ?’’
‘‘हम क्या सगरो गाँव का जिम्मा लिये हैं। आते होंगे लोग। जूनवेला हो रही है। चले होंगे अब। धीरे-धीरे आवेंगे। आन गाँव के हैं क्या कि बड़े भिनसारे चल दें ?’’
‘‘तब महराज जी तुम ही देखो।’’
‘‘हम का देखें ?’’
उसने अपनी किसबत में से ऐना निकाल कर बुल्लू के आगे कर दिया। बुल्लू महराज कुछ समझ नहीं सके।

‘‘ई तुम हमसे मज़ाक कर रहे हो ? हम क्या अपनी शक़्ल नहीं देखे हैं ? गोल मुँह है। न मूँछ न दाढ़ी। कपार के बाल उजला रहे हैं। दायीं ओर एक ठो तिल भी है। बस, हो गयी न शिनाख्त ? अरे दुक्खू राम, हमको चिढ़ँकू समझ लिये हो क्या ?’’
‘‘अरे महराजजी, ई बात नहीं मलिकार ! आप तो ग़ुस्सा हो गये। हम लोग परजा-पौनी हैं। हर मेले-ठेले में अपने मलिकार लोगों को ऐना दिखा कर दो-चार पैसे पा जाते हैं। साले तीन-तीन ठो लड़के हैं चिल-बिल्ले। पीछे पड़ गये। बब्बू चलो। बब्बू चलो। सबों को मन्दिर के पास बैठाकर आ रहा हूँ। कोई खिलौना-खिलौना चिल्लाता है तो कोई जलेबी-जलेबी। हम सारा मेला घूम कर हार गये। अपने मलिकार लोगों का पता कहीं नहीं चला।’’
‘‘हूँ।’’ दयाल महराज ने ऐने को मुँह के सामने कर लिया। उन्हें बहुत अच्छा लगा कि दुक्खू उन्हें भी मलिकार समझता है।—‘‘हम तो समझे यार कि तुम मज़ाक़ कर रहे हो।’’ उन्होंने ऐने में ताकते हुए अपने होठों को बटोर-बटोर कर सीधा-टेढ़ा किया। फिर ऐने को नन्हकू के आगे करके बोले—‘‘लो यार नन्हकू तुम भी मलिकार बन जाओ।’’
‘‘लाइए, लाइए। अब आप मज़ाक़ कर रहे हैं।’’ दुक्खू रूआँसा हो गया। उसने दयाल महराज के हाथ से ऐना छीन लिया और झुनझुनाता हुआ चला गया।
‘‘अब ई लीला देखो !’’ दयाल महराज मुसकराये—अपना ही मुँह देखें और पैसा भी दें। अरे वाह ?...ऐने का भी एक ही तमाशा है। भगवान् ने आदमी ऐसा बनाया कि सारी दुनिया तो तुम देख सकते हो, बाकी अपना मुँह नहीं देख सकते।

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