पौराणिक >> तनया तनयाचित्रा चतुर्वेदी
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इसमें महाभारत के नारी पात्र माधवी के जीवन पर प्रकाश डाला गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अंतर्वेदना
‘तनया’ महाभारत के महाकाश पर बालका सी उम्मुक्त उड़ती
हुई उस भोली कन्या की कहानी है जिसे समाज-अहेंरी ने तीर से बींधकर आखेट कर
डाला था। तीर भी कोई साधारण तीर न था, ऐसा तीर था जिससे कोई नहीं बच सकता।
वह धर्म का तीर था। धर्मास्त्र था ! समाज ने सामूहिक उपभोग हेतु आखेट कर
डाला एक निर्दोष नारी का। उसकी आकांक्षाओं व सुखद जीवन की कल्पनाओं को
सामूहिक भोज हेतू भून डाला। उसका न केवल आखेट किया, बल्कि उसे महाभारत के
वृहत् पर्वतकार के नीचे कहीं गहरी समाधि भी दे दी गई ताकि उसके मुख से
आर्त्तनाद भी न निकल पाये और भावी पीढ़ियाँ समाज पर अन्याय का आक्षेप न
लगा सकें।
ययाति-तनया माधवी के मुख से यदि कतार गुहार निकली भी थी तो दब गई महाभारत के प्रतापी नरेशों की अलंकृत विरुदावलियों और सुललित प्रणय-छंदावालियों में। दबा दिया गया उसका आर्त्तनाद रणोन्मादी सेनाओं के पदचापों के तुमुल कोलाहल और राजाओं के प्रचंड जयघोषों में। एकाकी दुर्बल नारी का रुदन-स्वर दब गया शास्त्रों की झंकारों धनुषों की टंकारों, वीरों की हुन्कारों और महर्षियों के गरजते धर्मोपदेशों में।
यह कहानी उस नारी की है जिसका मूल्य आठ सौ श्यामकर्ण अश्व था। जीवन भर जिसका क्रय-विक्रय चलता रहा। वह द्वार-द्वार भटकती रही ताकि ऋषि के वचन का सम्मान बना रहे, नरेशों की दानशीलता अक्षुण्य रहे, पुत्राकांक्षियों को पुत्र प्राप्त होते रहें और धर्म की सर्वोपरिता बनी रहे।
पुरुष-प्रधान समाज में जो सदा से, महत्त्वपूर्ण है, वह पुत्र है और जो दीन-हीन तथा महत्वहीन मानी गई, वह पुत्री है। माधवी पुत्री थी। उसके साथ जैसा भी व्यवहार हुआ उसे किसी ने अनुचित या अधर्मपूर्ण नहीं ठहराया क्योंकि वह नारी थी।
पुत्र पाना इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसके लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किये जाते थे, तपस्याएँ होती थीं, वरदान माँगे जाते थे तथा बलि चढ़ाई जाती थी। ऐसे ही पुत्नेष्टि यज्ञ में माधवी को समिधा बनाकर बार बार झोंका गया। भस्म कर दिया गया। पुत्रों की प्राप्ति हेतु ययातिजा को ऋषि-मुनियों एवं राजापुरुषों द्वारा बलि चढ़ा दिया गया।
येन केन प्रकारेण भी पुत्र पाना आवश्यक था क्योंकि स्वर्ग के द्वार तभी खुलपाते थे। पुत्र-प्राप्ति का तरीका भले ही अप्रचलित हो, अनुचित हो, अनैतिक हो पर उससे किसी को क्या अन्तर पड़ता है धर्म के मठाधीशों के बाएँ हाथ का खेल था उसे धर्मोचित ठहरा देना। नियोग जैसी प्रथाएँ भी उन्हीं के द्वारा प्रचलित की गयी थीं। धर्म के मठाधीश जो कह दें वह धर्म है। उनके कहते ही अधर्म तुरन्त धर्म का रूप धारण कर लेता और अनीति एकाएक नीति हो जाती थी। पुत्र-प्राप्ति तथा दानधर्म के सर्वोच्च आदर्शों हेतु किसी के साथ किस ठंडी कठरोता से अन्याय किया जा सकता था, इसका ज्वलंत उदाहरण गऊ सी निराही और मूक माधवी है। पुरुषों के सुख व हित साधन हेतु मानवीय भावनाओं से किस सीमा तक निर्मम खिलवाड़ किया जा सकता था, यह गाथा सिहरा देने वाली है। कब, कैसे, क्यों और कितनी सरलता से धर्म की धारा को पुरुषों के हित में मोड़ा जा सकता था यह बड़ी ही रोमहर्षक और वितृष्णा से भरी कहानी है।
समाज की संतुष्टि और तृप्ति हेतु महाभारत-काल में, अत्यंत आदिम नियमों को धर्म का चोला पहना कर प्रयुक्त किया गया। बर्बर सुविधाओं और क्रूर आवश्यकताओं पर गंगाजल के छींटे मार कर उन्हें पवित्र घोषित कर दिया गया। एक निरीह बाला की भोली आकांक्षाओं और निर्दोष अभिलाषाओं को धर्मरथ के विराट चक्रों तले निर्ममता से रौंद दिया गया। यह सब उचित था क्योंकि नारी का कोई नहीं। नारी स्वयं भी अपनी नहीं। वह साध्य नहीं, साधन है। माधवी मात्र एक साधन थी समाज के कथित कल्याण की, पिता की दानशीलता की, गुरुभक्ति के आदर्श की, अश्व-प्राप्ति की और पुत्रभिलाषा की पूर्ति की। और ! माधवी दृष्टांत थी नारी के प्रति समाज की नृशंसता, क्षुद्रता और पाशविकता की।
असंख्य मनुष्यों के जन-निनाद से परिपूर्ण महाभारत में माधवी की कराह सुनाई नहीं देती। किसी ने प्रयास नहीं किया उनकी पीड़ा जानने या सुनने का। आजीवन एकाकिनी ययाति-सुता मृत्यु के उपरान्त भी अनजानी रह गई। उसकी पीड़ा-गाथा अनपहचानी रह गई। ययाति जैसे श्रेष्ठ नृपति की इकलौती कन्या। शुक्र-नंदिनी देवयानी तथा दैत्यराजसुता शर्मिष्ठा जैसी प्रबल उसकी दो दो विमाताएँ। यदु, पुरु, अनु, द्रुह्यु व तुर्वसु आदि पाँच भाइयों की इकलौती बहन ! नरेशों की संगिनी। पुत्रों को जन्म देने वाली माता ! और कितनी एकाकी।
‘तनया’ उस कुमारी माँ की कहानी है जिसे, पहले तो पुत्रजन्म हेतु बाध्य किया गया और फिर उसे अपने ममत्व का गला घोंट देने को बाध्य किया गया। उसके हृदय के समूचे वात्सल्य को निचोड़ कर उससे धर्म के बिरवे को सींच कर पल्लवित किया गया।
न वह किसी की पत्नी बन सकी, न प्रेयसि, न गृहिणी न ही माता। उसके प्रतापी पुत्रों के नाम की दुन्दुभि बजती रही पर जन्मधात्री माँ समा गई हौले से अनन्त के गर्भ में। न उसके पुत्रों को ‘माधवेय’ पुकारा गया, न ही ‘माधवीनंदन’। पुत्राकांक्षी नृपतियों हेतु पुत्रोत्पत्ति की निर्मत्त थी, अतः प्रयोजन पूर्ण हो जाने पर खो गई वह धर्मग्रन्थों के बीहड़ों में। विलीन हो गई विस्मृति के अथाह सिंधु में अज्ञात बिंदु सी।
प्रतिष्ठानपुर (इलाहाबाद में गंगापार का झूसी क्षेत्र) के नरेश ययाति की पुत्री माधवी एक राजपुत्री थी। राजपुरुषों की संगिनी थी। राजमाता थी। किन्तु जीवन भर अरण्यबाला बनी तपस्या करती रही।
यह करुण-गाथा हृदयद्रावक है। महाभारत की एक नायिका द्रौपदी भी थी। द्रौपदी पीड़ा कह देती है। माधवी पीड़ा पी जाती है। इसीलिए उसकी पीड़ा अनकही रह गई। अनसुनी रह गई।
व्यक्ति से ब़ड़ा होता है समाज। पुत्री से बड़ा होता है पुत्र ! नारी से बड़ा होता है पुरुष और मनुष्य से बड़ा होता है शायद पशु। इसलिए, सभी कसौटियों पर माधवी से अधिक महत्वपूर्ण उतरते हैं..अश्व ! एक पुरुष की इच्छा के निमित्त जो भयावह बलिदान हुआ, उसकी ओर से सभी धर्मात्मा, उदार और परोपकारी नरोत्तमों ने आँखें मूँद लीं।
ययातिनंदिनी जैसे दधीच का नारी विग्रह ही बन बैठी। नारी सदा से परिवार हेतु तो त्याग करती आई ही है, माधवी ने सर्वस्व त्यागा समाज हेतु। बड़े विचित्र और भयंकर प्रकार के अत्याचार की कथा है माधवी की जो धर्म के नाम पर गरल पान रही क्योंकि उसे सिखाया गया है कि गरल ही धर्म है और धर्म से परे कुछ भी नहीं।
एक कोमलमना नारी को सामान्य जीवन व्यतीत करने से वंचित कर दिया गया धर्म के नाम पर। दान के नाम पर न घर, न परिवार। वह भटकती रही समर्थों को तुष्ट करती हुई। धन्य हो महाराज ययाति। धन्य है तुम्हारी परोपकारी मनोवृत्ति और तुम्हारी दानशीलता। धन्य हो ऋषि गालव और धन्य है तुम्हारी धर्मशीलता ! धन्य हो महर्षि विश्वामित्र और धन्य है तुम्हारी धर्मनीत। धन्य है समाज की अन्याय करने का सामर्थ्य और धर्म है नारी की सहन-शीलता !
इसीलिए शायद कई पीढ़ियों बाद द्रौपदी को अवतरित होना पड़ा। उसने न केवल अपने प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार किया बल्कि उससे पूर्व चंद्रवंश में जितनी नारियों के साथ अत्याचार हो चुका था, उसने सबका प्रतिकार किया। माधवी, शकुन्तला व अंबा तो सर्वाधिक उत्पीड़ित थीं पर अंबिका, अंबालिका, गांधारी और कुंती आदि भी शोषित थीं। अतः एक ही बार में, इस सब के प्रति हु्ए अन्याय के प्रतिकार हेतु द्रौपदी को धधकती ज्वाला बन जाना पड़ जिसमें भस्म हो गया शोषण का सारा साज-बाज ! सारा अत्याचारी समाज ! अन्यायी राजपुरुष ! बर्बर नियम और आदिम प्रथाएँ ! संवेदनाशून्य मान्यताएँ और अमानवीय कुत्सित व्यवहार ! सब भस्म हो गया नारी के अपमान की ज्वाला में।
ऐसा नहीं है कि माधवी ने विरोध नहीं किया। सहते-सहते वह भी अपनी स्वाधीनता हेतु छटपटा उठी थी। भभक कर विद्रोहिणी हो उठी थी। पर उसका शांतिपूर्ण विरोध था। मौन प्रतिरोध था। वह अपने आत्मिक बल द्वारा लड़ी थी। सविनय अवज्ञा की उसने। छोड़ गई वह सारा कलुषित समाज, उसकी दूषित रीति-नीति और विकार ग्रस्त मानसिकता। एक बार पुनः उड़ चली विद्रोहिणी माधवी मुक्ति पक्षिणी सी नीले आकाश के विस्तार में।
भाग्यवान् थीं वैदेही जिन्हें वात्सल्यमयी माँ की भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिला और इसलिए अपने तप्त वनवास-काल में भी वे लव-कुश को हृदय से लगाए सुख, शांति और शीतलता का अनुभव कर सकीं। भाग्यवान् थी द्रौपदी, हर संकट और हर दुःख में जिसके शीश और वासुदेव जैसे संरक्षक की अनुकंपा की छाँह सदा बनी रही। पर माधवी ! न उसे पुत्र पालन का सुख मिला, न ही श्रीकृष्ण सा कोई सहायक ही। हारी-थकी वह नारी जीवन भर एकाकी ही अंगार पथ पर चलती रही और जलती रही।
भाग्यवान् थीं वैदेही जिनका परित्याग अवश्य किया गया था किन्तु असंदिग्ध रूप से वे श्रीराम के अटूट अनुराग, पूर्ण विश्वास तथा प्रेम की पात्र सदा बनी रहीं। अन्त तक बनी रहीं। भाग्यवान् थी द्रौपदी जिस पर हर पांडव के मन-प्राण सतत न्यौछावर रहे। किन्तु हत्भागिनी थी माधवी जिसको न पति प्राप्त हुआ न ही प्रेम !
और भाग्यवान् थीं तारा, मंदोदरि, अहिल्या, कुन्ती और द्रौपदी, अपने असामान्य दाम्पत्य के बावजूद भी जिन्हें ‘महासती’ के विरुद् से विभूषित किया गया। किन्तु दुर्भाग्य माधवी का, कि समाज के चरणों में अपनी आकांक्षाएँ और अपना सतीत्व तक चढ़ा देने और महातपस्विनी होने पर भी उसे पंच-कन्याओं में स्थान न मिल सका !!
अद्भुत है नारी की क्षमाशीलता। और यहाँ इस बिन्दु पर आकर, वैदेही, द्रौपदी तथा माधवी एक श्रेणी में आ जाती हैं। जानकी ने वनवास की पीड़ा को बिना उपालंभ दिए आत्मसात कर लिया था। द्रौपदी ने पुत्रलोक का विषघूँट पीकर भी पुत्रहन्ता अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया था। और जिसने माधवी को, उसकी किशोरावस्था युवावस्था और पारिवारिक-सुख से वंचित कर आहुति चढ़ा दिया था, अपने उस निठुर पिता और उसके माध्यम से समूचे समाज को माधवी ने क्षमा करके श्रेष्ठतम ऊँचाई का शिखर छू लिया। यही नहीं, पतन के गर्त में पड़े हुए अपने पिता को उसने पुनःस्वर्गारोहण कराया। कितनी प्रबल तपस्या रही होगी उस नारी की, जिसने न केवल अपने अहंकारी पिता को क्षमा किया, बल्कि अपने तपोबल से उसका उद्धार भी किया। यदि माधवी को महाभारत की सर्वोतम नारी पात्र कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
माधवी स्वाहा हो गई। पर छोड़ गई अपनी एक अमिट छाप। परम्पराओं के विपरीत जाकर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान स्थापित कर गई। यदि स्वर्ग कुछ है, यदि श्राद्ध और तर्पण आदि कुछ है, यदि पुण्य कुछ है तो न केवल पौत्र महत्त्वपूर्ण है बल्कि दौहित्र भी महत्त्वपूर्ण है। यदि इस पुण्यकर्म में पुत्र महत्त्वपूर्ण है, तो पुत्री भी महत्त्वपूर्ण है। अपने प्रबल आत्मबल और प्रचण्ड तपोबल से माधवी ने दुहिता के लिए कम से कम यह महत्त्वपूर्ण स्थान नियत कर दिया। माधवी स्वाहा हो गई पर छोड़ गई अपने पीछे यह भीनी सी पावन अगरु सुवास।
मैं अत्यन्त आभारी हूँ आदरणीय श्री पी.के. मोदी (भूतपूर्व कुलपति, सागर विश्वविद्यालय), श्री एच.अंगिरस (विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी), अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी (आई.ए.एस,भोपाल), एवं सहयोगी डॉ. (श्रीमती) इला घोष के प्रति जिन्होंने पांडुलिपि को आद्योपांत पढ़कर उसे परिष्कृत करने में सहयोग दिया।
प्रस्तुत है समाज की बलिवेदी पर निर्माल्य सी चढ़ी पांखुरी, ययातिनंदिनी की वेदनाकुल गाथा।
भाईदूज, 5 मार्च 1988
745, नेपियर, टाउन,
जबलपुर-482001
(म.प्र.)
ययाति-तनया माधवी के मुख से यदि कतार गुहार निकली भी थी तो दब गई महाभारत के प्रतापी नरेशों की अलंकृत विरुदावलियों और सुललित प्रणय-छंदावालियों में। दबा दिया गया उसका आर्त्तनाद रणोन्मादी सेनाओं के पदचापों के तुमुल कोलाहल और राजाओं के प्रचंड जयघोषों में। एकाकी दुर्बल नारी का रुदन-स्वर दब गया शास्त्रों की झंकारों धनुषों की टंकारों, वीरों की हुन्कारों और महर्षियों के गरजते धर्मोपदेशों में।
यह कहानी उस नारी की है जिसका मूल्य आठ सौ श्यामकर्ण अश्व था। जीवन भर जिसका क्रय-विक्रय चलता रहा। वह द्वार-द्वार भटकती रही ताकि ऋषि के वचन का सम्मान बना रहे, नरेशों की दानशीलता अक्षुण्य रहे, पुत्राकांक्षियों को पुत्र प्राप्त होते रहें और धर्म की सर्वोपरिता बनी रहे।
पुरुष-प्रधान समाज में जो सदा से, महत्त्वपूर्ण है, वह पुत्र है और जो दीन-हीन तथा महत्वहीन मानी गई, वह पुत्री है। माधवी पुत्री थी। उसके साथ जैसा भी व्यवहार हुआ उसे किसी ने अनुचित या अधर्मपूर्ण नहीं ठहराया क्योंकि वह नारी थी।
पुत्र पाना इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसके लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किये जाते थे, तपस्याएँ होती थीं, वरदान माँगे जाते थे तथा बलि चढ़ाई जाती थी। ऐसे ही पुत्नेष्टि यज्ञ में माधवी को समिधा बनाकर बार बार झोंका गया। भस्म कर दिया गया। पुत्रों की प्राप्ति हेतु ययातिजा को ऋषि-मुनियों एवं राजापुरुषों द्वारा बलि चढ़ा दिया गया।
येन केन प्रकारेण भी पुत्र पाना आवश्यक था क्योंकि स्वर्ग के द्वार तभी खुलपाते थे। पुत्र-प्राप्ति का तरीका भले ही अप्रचलित हो, अनुचित हो, अनैतिक हो पर उससे किसी को क्या अन्तर पड़ता है धर्म के मठाधीशों के बाएँ हाथ का खेल था उसे धर्मोचित ठहरा देना। नियोग जैसी प्रथाएँ भी उन्हीं के द्वारा प्रचलित की गयी थीं। धर्म के मठाधीश जो कह दें वह धर्म है। उनके कहते ही अधर्म तुरन्त धर्म का रूप धारण कर लेता और अनीति एकाएक नीति हो जाती थी। पुत्र-प्राप्ति तथा दानधर्म के सर्वोच्च आदर्शों हेतु किसी के साथ किस ठंडी कठरोता से अन्याय किया जा सकता था, इसका ज्वलंत उदाहरण गऊ सी निराही और मूक माधवी है। पुरुषों के सुख व हित साधन हेतु मानवीय भावनाओं से किस सीमा तक निर्मम खिलवाड़ किया जा सकता था, यह गाथा सिहरा देने वाली है। कब, कैसे, क्यों और कितनी सरलता से धर्म की धारा को पुरुषों के हित में मोड़ा जा सकता था यह बड़ी ही रोमहर्षक और वितृष्णा से भरी कहानी है।
समाज की संतुष्टि और तृप्ति हेतु महाभारत-काल में, अत्यंत आदिम नियमों को धर्म का चोला पहना कर प्रयुक्त किया गया। बर्बर सुविधाओं और क्रूर आवश्यकताओं पर गंगाजल के छींटे मार कर उन्हें पवित्र घोषित कर दिया गया। एक निरीह बाला की भोली आकांक्षाओं और निर्दोष अभिलाषाओं को धर्मरथ के विराट चक्रों तले निर्ममता से रौंद दिया गया। यह सब उचित था क्योंकि नारी का कोई नहीं। नारी स्वयं भी अपनी नहीं। वह साध्य नहीं, साधन है। माधवी मात्र एक साधन थी समाज के कथित कल्याण की, पिता की दानशीलता की, गुरुभक्ति के आदर्श की, अश्व-प्राप्ति की और पुत्रभिलाषा की पूर्ति की। और ! माधवी दृष्टांत थी नारी के प्रति समाज की नृशंसता, क्षुद्रता और पाशविकता की।
असंख्य मनुष्यों के जन-निनाद से परिपूर्ण महाभारत में माधवी की कराह सुनाई नहीं देती। किसी ने प्रयास नहीं किया उनकी पीड़ा जानने या सुनने का। आजीवन एकाकिनी ययाति-सुता मृत्यु के उपरान्त भी अनजानी रह गई। उसकी पीड़ा-गाथा अनपहचानी रह गई। ययाति जैसे श्रेष्ठ नृपति की इकलौती कन्या। शुक्र-नंदिनी देवयानी तथा दैत्यराजसुता शर्मिष्ठा जैसी प्रबल उसकी दो दो विमाताएँ। यदु, पुरु, अनु, द्रुह्यु व तुर्वसु आदि पाँच भाइयों की इकलौती बहन ! नरेशों की संगिनी। पुत्रों को जन्म देने वाली माता ! और कितनी एकाकी।
‘तनया’ उस कुमारी माँ की कहानी है जिसे, पहले तो पुत्रजन्म हेतु बाध्य किया गया और फिर उसे अपने ममत्व का गला घोंट देने को बाध्य किया गया। उसके हृदय के समूचे वात्सल्य को निचोड़ कर उससे धर्म के बिरवे को सींच कर पल्लवित किया गया।
न वह किसी की पत्नी बन सकी, न प्रेयसि, न गृहिणी न ही माता। उसके प्रतापी पुत्रों के नाम की दुन्दुभि बजती रही पर जन्मधात्री माँ समा गई हौले से अनन्त के गर्भ में। न उसके पुत्रों को ‘माधवेय’ पुकारा गया, न ही ‘माधवीनंदन’। पुत्राकांक्षी नृपतियों हेतु पुत्रोत्पत्ति की निर्मत्त थी, अतः प्रयोजन पूर्ण हो जाने पर खो गई वह धर्मग्रन्थों के बीहड़ों में। विलीन हो गई विस्मृति के अथाह सिंधु में अज्ञात बिंदु सी।
प्रतिष्ठानपुर (इलाहाबाद में गंगापार का झूसी क्षेत्र) के नरेश ययाति की पुत्री माधवी एक राजपुत्री थी। राजपुरुषों की संगिनी थी। राजमाता थी। किन्तु जीवन भर अरण्यबाला बनी तपस्या करती रही।
यह करुण-गाथा हृदयद्रावक है। महाभारत की एक नायिका द्रौपदी भी थी। द्रौपदी पीड़ा कह देती है। माधवी पीड़ा पी जाती है। इसीलिए उसकी पीड़ा अनकही रह गई। अनसुनी रह गई।
व्यक्ति से ब़ड़ा होता है समाज। पुत्री से बड़ा होता है पुत्र ! नारी से बड़ा होता है पुरुष और मनुष्य से बड़ा होता है शायद पशु। इसलिए, सभी कसौटियों पर माधवी से अधिक महत्वपूर्ण उतरते हैं..अश्व ! एक पुरुष की इच्छा के निमित्त जो भयावह बलिदान हुआ, उसकी ओर से सभी धर्मात्मा, उदार और परोपकारी नरोत्तमों ने आँखें मूँद लीं।
ययातिनंदिनी जैसे दधीच का नारी विग्रह ही बन बैठी। नारी सदा से परिवार हेतु तो त्याग करती आई ही है, माधवी ने सर्वस्व त्यागा समाज हेतु। बड़े विचित्र और भयंकर प्रकार के अत्याचार की कथा है माधवी की जो धर्म के नाम पर गरल पान रही क्योंकि उसे सिखाया गया है कि गरल ही धर्म है और धर्म से परे कुछ भी नहीं।
एक कोमलमना नारी को सामान्य जीवन व्यतीत करने से वंचित कर दिया गया धर्म के नाम पर। दान के नाम पर न घर, न परिवार। वह भटकती रही समर्थों को तुष्ट करती हुई। धन्य हो महाराज ययाति। धन्य है तुम्हारी परोपकारी मनोवृत्ति और तुम्हारी दानशीलता। धन्य हो ऋषि गालव और धन्य है तुम्हारी धर्मशीलता ! धन्य हो महर्षि विश्वामित्र और धन्य है तुम्हारी धर्मनीत। धन्य है समाज की अन्याय करने का सामर्थ्य और धर्म है नारी की सहन-शीलता !
इसीलिए शायद कई पीढ़ियों बाद द्रौपदी को अवतरित होना पड़ा। उसने न केवल अपने प्रति हुए अन्याय का प्रतिकार किया बल्कि उससे पूर्व चंद्रवंश में जितनी नारियों के साथ अत्याचार हो चुका था, उसने सबका प्रतिकार किया। माधवी, शकुन्तला व अंबा तो सर्वाधिक उत्पीड़ित थीं पर अंबिका, अंबालिका, गांधारी और कुंती आदि भी शोषित थीं। अतः एक ही बार में, इस सब के प्रति हु्ए अन्याय के प्रतिकार हेतु द्रौपदी को धधकती ज्वाला बन जाना पड़ जिसमें भस्म हो गया शोषण का सारा साज-बाज ! सारा अत्याचारी समाज ! अन्यायी राजपुरुष ! बर्बर नियम और आदिम प्रथाएँ ! संवेदनाशून्य मान्यताएँ और अमानवीय कुत्सित व्यवहार ! सब भस्म हो गया नारी के अपमान की ज्वाला में।
ऐसा नहीं है कि माधवी ने विरोध नहीं किया। सहते-सहते वह भी अपनी स्वाधीनता हेतु छटपटा उठी थी। भभक कर विद्रोहिणी हो उठी थी। पर उसका शांतिपूर्ण विरोध था। मौन प्रतिरोध था। वह अपने आत्मिक बल द्वारा लड़ी थी। सविनय अवज्ञा की उसने। छोड़ गई वह सारा कलुषित समाज, उसकी दूषित रीति-नीति और विकार ग्रस्त मानसिकता। एक बार पुनः उड़ चली विद्रोहिणी माधवी मुक्ति पक्षिणी सी नीले आकाश के विस्तार में।
भाग्यवान् थीं वैदेही जिन्हें वात्सल्यमयी माँ की भूमिका निभाने का पूरा अवसर मिला और इसलिए अपने तप्त वनवास-काल में भी वे लव-कुश को हृदय से लगाए सुख, शांति और शीतलता का अनुभव कर सकीं। भाग्यवान् थी द्रौपदी, हर संकट और हर दुःख में जिसके शीश और वासुदेव जैसे संरक्षक की अनुकंपा की छाँह सदा बनी रही। पर माधवी ! न उसे पुत्र पालन का सुख मिला, न ही श्रीकृष्ण सा कोई सहायक ही। हारी-थकी वह नारी जीवन भर एकाकी ही अंगार पथ पर चलती रही और जलती रही।
भाग्यवान् थीं वैदेही जिनका परित्याग अवश्य किया गया था किन्तु असंदिग्ध रूप से वे श्रीराम के अटूट अनुराग, पूर्ण विश्वास तथा प्रेम की पात्र सदा बनी रहीं। अन्त तक बनी रहीं। भाग्यवान् थी द्रौपदी जिस पर हर पांडव के मन-प्राण सतत न्यौछावर रहे। किन्तु हत्भागिनी थी माधवी जिसको न पति प्राप्त हुआ न ही प्रेम !
और भाग्यवान् थीं तारा, मंदोदरि, अहिल्या, कुन्ती और द्रौपदी, अपने असामान्य दाम्पत्य के बावजूद भी जिन्हें ‘महासती’ के विरुद् से विभूषित किया गया। किन्तु दुर्भाग्य माधवी का, कि समाज के चरणों में अपनी आकांक्षाएँ और अपना सतीत्व तक चढ़ा देने और महातपस्विनी होने पर भी उसे पंच-कन्याओं में स्थान न मिल सका !!
अद्भुत है नारी की क्षमाशीलता। और यहाँ इस बिन्दु पर आकर, वैदेही, द्रौपदी तथा माधवी एक श्रेणी में आ जाती हैं। जानकी ने वनवास की पीड़ा को बिना उपालंभ दिए आत्मसात कर लिया था। द्रौपदी ने पुत्रलोक का विषघूँट पीकर भी पुत्रहन्ता अश्वत्थामा को क्षमा कर दिया था। और जिसने माधवी को, उसकी किशोरावस्था युवावस्था और पारिवारिक-सुख से वंचित कर आहुति चढ़ा दिया था, अपने उस निठुर पिता और उसके माध्यम से समूचे समाज को माधवी ने क्षमा करके श्रेष्ठतम ऊँचाई का शिखर छू लिया। यही नहीं, पतन के गर्त में पड़े हुए अपने पिता को उसने पुनःस्वर्गारोहण कराया। कितनी प्रबल तपस्या रही होगी उस नारी की, जिसने न केवल अपने अहंकारी पिता को क्षमा किया, बल्कि अपने तपोबल से उसका उद्धार भी किया। यदि माधवी को महाभारत की सर्वोतम नारी पात्र कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।
माधवी स्वाहा हो गई। पर छोड़ गई अपनी एक अमिट छाप। परम्पराओं के विपरीत जाकर अपना महत्त्वपूर्ण योगदान स्थापित कर गई। यदि स्वर्ग कुछ है, यदि श्राद्ध और तर्पण आदि कुछ है, यदि पुण्य कुछ है तो न केवल पौत्र महत्त्वपूर्ण है बल्कि दौहित्र भी महत्त्वपूर्ण है। यदि इस पुण्यकर्म में पुत्र महत्त्वपूर्ण है, तो पुत्री भी महत्त्वपूर्ण है। अपने प्रबल आत्मबल और प्रचण्ड तपोबल से माधवी ने दुहिता के लिए कम से कम यह महत्त्वपूर्ण स्थान नियत कर दिया। माधवी स्वाहा हो गई पर छोड़ गई अपने पीछे यह भीनी सी पावन अगरु सुवास।
मैं अत्यन्त आभारी हूँ आदरणीय श्री पी.के. मोदी (भूतपूर्व कुलपति, सागर विश्वविद्यालय), श्री एच.अंगिरस (विवेकानन्द केन्द्र, कन्याकुमारी), अग्रज श्री भरतचन्द्र चतुर्वेदी (आई.ए.एस,भोपाल), एवं सहयोगी डॉ. (श्रीमती) इला घोष के प्रति जिन्होंने पांडुलिपि को आद्योपांत पढ़कर उसे परिष्कृत करने में सहयोग दिया।
प्रस्तुत है समाज की बलिवेदी पर निर्माल्य सी चढ़ी पांखुरी, ययातिनंदिनी की वेदनाकुल गाथा।
भाईदूज, 5 मार्च 1988
745, नेपियर, टाउन,
जबलपुर-482001
(म.प्र.)
-चित्रा चतुर्वेदी
कार्तिका
स्वप्न मंजरी
धनुष की प्रत्यंचा को नहुष ने कान तक खींचा और तीर छोड़ दिया। तीर सरसराता
हुआ जाकर ठीक लक्ष्य पर लगा। वह भयंकर वृक उछला। और पीड़ा से छटपटाता हुआ
गिर पड़ा भूमि पर। भयातुर हिरण तुरंत उसकी पकड़ से छूटकर चौकड़ियाँ भरता
हुआ घने वन में लुप्त हो गया। भोले हिरण को हिंसक भेड़िये से मुक्ति देकर
प्रतिष्ठानपुर नरेश नहुष मुस्कुराए और वृक को पास से देखने के लिये आगे
बढ़े।
एक पग ही बढ़ाया होगा कि लगा जैसे साक्षात् काल उन पर गरजता हुआ पूरी शक्ति से झपट पड़ा हो। सहसा तो वे समझ नहीं पाये। परन्तु उनकी आखेटक वाली चौकस बुद्धि काम कर गई। वे समझ गये कि उनकी असावधान स्थिति में किसी दुर्दान्त सिंह ने उन पर आक्रमण किया है। सिंह का आक्रमण इतना अचानक हुआ कि वे अपना खंग तक बाहर न खींच पाये। वे पूरी शक्ति से सिंह का सामना कर रहे थे। किन्तु उनका शरीर लहू-लुहान हुआ जा रहा था।
अंततः उन्होंने अपने वंश की वह पुरातन खंग खींचकर निकाल ही ली जो उन्हें उनके पिता आयु से प्राप्त हुई थी। पर तभी उन्हें अनुभव हुआ कि सिंह एक नहीं, दो हैं। शायद सिंह और सिंहनी दोनों ने एक साथ आक्रमण किया था। दो सिंहों का आभास होते ही उन जैसे पराक्रमी योद्धा का मनोबल भी शिथिल पड़ने लगा। दोनों प्रचंड सिंह भयानक मुँह फाड़े नुकीले दाँतों से उन्हें फाड़ खाना चाहते थे। चीथ चीथ कर तत्काल नहुष का अन्त कर देने को उतारू थे।
पूरी शक्ति लगा देने के उपरान्त भी नहुष का दीर्घकाल बलिष्ठ तन आहत होकर भूमि पर गिरा और दोनों सिंह झपट पड़े उन पर।
अचानक वन के न जाने किस कोने से बाणों की धुँआधार वर्षा हो उठी। एक सरराता हुआ बाण आया और सिंहनी उछल पड़ी तथा भयंकर पीड़ा से क्षुब्ध हो गरजती हुई छलांग लगाकर वन की ओर भागी किन्तु बाण इतना घातक था कि वह बीच में ही भूमि पर आ गिरी।
सिंहनी को पृथ्वी पर पड़ी हुई देख क्रोध से पागल हुए सिंह ने दहाड़ दहाड़ कर समूचे वन प्रान्त को दहला दिया और दुगने वेग से टूट पड़ा नहुष को छोड़ मंदारक पर उछला। मंदारक तुरन्त नीचे झुक गये और जैसे ही सिंह ऊपर की ओर उछला उन्होंने ठीक उसके पेट में पूराखड्ग मूठ तक भोंक दिया। रक्त का फव्वारा छूट पड़ा और सिंह प्राणांतक पीड़ा से वहीं लोट गया।
मंदारपुर नरेश-मंदारक ने स्वयं आहत होते हुए भी तुरन्त नहुष को सम्हाला और रथ पर लिटा कर अपनी राजधानी ले चले।
प्रतिष्ठानपुर की सीमा जिस स्थल पर, दानव-राज्य की सीमा का स्पर्श करती थी, वहीं मंदापुर राज्य था। वैसे यह प्रतिष्ठानपुर के अधीन एक छोटा सा राज्य था लेकिन सीमा पर होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से इसका महत्व बहुत था। वहाँ के राजा मंदारक बड़े पराक्रमी तथा धर्मनिष्ठ थे। प्रतिष्ठानपुर के प्रतापी नरेश आयुनन्दन नहुष इसलिये राजा मंदारक का बड़ा सम्मान करते थे।
राजा मंदारक के रथ में अर्ध-मूर्च्छित अवस्था में पड़े हुए नहुष धीरे धीरे जीवन की आशा छोड़ चले थे। दो सिंहों के पंजों से बच निकलना क्या संभव होता है ? मंदारक के कारण आज असंभव भी संभव हो गया। किन्तु विकट रूप से रक्तस्राव जो हो रहा है। आशा नहीं प्रतिष्ठानपुर जीवित पहुँच पाने की। मंदारपुर राज्य ही पहुँच पाना संभव प्रतीत नहीं हो रहा, फिर प्रतिष्ठानपुर तो सुदूर गंगा-यमुना के संगम तट पर बसा हुआ है। तो क्या मार्ग में ही प्राणान्त...!!
पीड़ा से कराहते हुए आहत पड़े नहुष के अर्धचेतन मस्तिष्क में नाना प्रकार की दुःश्चिन्ताएँ घुमड़-घुमड़ कर उनका त्रास और भी बढ़ाये दे रही थीं। कभी उन्हें अपनी अकाल मृत्यु के संवाद से व्याकुल हुए प्रजाजन हाहाकार करते दिखते तो कभी महारानी का दारुण विलाप कानों में गूँज जाता और कभी अपने पितृहीन पुत्रों के विषाद भरे अबोध मुख आँखों के सामने घूम जाते। क्या होगा प्रतिष्ठानपुर राज्य का मेरे पश्चात् ! कोई सम्हालने वाला नहीं ! अराजकता ! अराज स्थिति कितनी भयंकर होती है। युवराज ! हाँ ! चाहकर भी अभिषेक न कर पाया युवराज पद पर। विलम्ब होता ही गया...और उड़ गया पंछी फुर्र ! हा कष्ट ! यति कहाँ ? यति कहाँ ? हा यति ! हा यति ।
यति ! नहुष का ज्येष्ठ पुत्र ! उसे युवराज पद पर अभिषिक्त करने की समस्त योजनाएँ धरी की धरी रह गईं और वह अनायास ही लुप्त हो गया एक एक नगर ग्राम जनपद और वन में उसे खोजा गया। कहीं दुर्योगवश डूब तो नहीं गया, इस आशंका से त्रिवेणी संगम में विराट जाल डलवा कर खोजा गया। कितने समय बाद कहीं जाकर ज्ञात हुआ कि यति संन्यासी होकर हिमालय में कठोर तपस्यारत है। महाराज नहुष ने अपना कपाल ठोंक लिया था। महारानी ने आहार त्याग दिया और अपने बालायोगी राजकुमार की स्मृति में प्रजा बावरी हो उठी।
नहुष पुत्र-विछोह के उस आघात से अब उबर न पाये थे। मन बहलाने हेतु वे आखेट में अधिक से अधिक लिप्त रहने लगे।
हा यति ! युवराज पद पर अभिषिक्त होना तथा विवाहित होना भला कब किस तरुण को न भाया होगा ! किन्तु यति सबसे भिन्न जो था ! विवाह तथा अभिषेक की चर्चा चलते ही उद्विग्न हो उठा। उसे रात भर व्यग्र हो टहलते हुए ययाति, संयाति आयाति, अयति तथा ध्रुव आदि उसके सभी अनुजों ने देखकर पिता को बताया था। और न जाने कब वह चुपचाप गृह त्याग कर गया।
अब उनकी आशा का केन्द्र था ययाति ! किन्तु यति के वैराग्य लेने के बाद से एक अज्ञात सा भय राज परिवार के सदस्यों के मन में पैठ गया था। कहीं ययाति भी अपने आग्रह से प्रभावित हो संन्यास न ले ले। ययाति को वैराग्य से बचाना है। एक ही उपाय है। यथाशीघ्र एक सुन्दर कन्या से उसका विवाह। यथाशीघ्र उसका युवराज पद पर अभिषेक। राज्य की स्वर्णश्रृंखला तथा विवाह का सुकोमल रेशमी सूत्र पर्याप्त है किसी भी तरुण को बाँधे रखने में ! किन्तु वही तो न कर पाया अब तक..और अब सम्मुख काल है। सिंहों के आक्रमण से जीवित बच जाने पर पहले लगा था कि काल को हरा दिया। किन्तु अब ! अब मृत्यु की छाया प्रतिपल निकट आती प्रतीत हो रही थी।
नहुष के नेत्र कभी खुलते, भी मुँदते। रथ चला जा रहा था। किन्तु मंदारपुर जैसे दूर खिसकता जा रहा था। अथाह पीड़ा भरे उनके अधखुले नेत्र निकट ही गंभीर बैठे हुए मंदारक पर टिक गये। धन्य हो मंदारक प्राणों पर खेल कर बचा तो लाये मुझे सिंहों के भयावह जबड़ों से किन्तु क्या तुम्हारा यह त्याग और वीरता कुछ काम आ सकेंगे ? नहीं मंदारक। जिस जीवन-ज्योति को तुमने अपने प्राणों की ओट देकर मृत्यु के झोंके से बचाया वह अब शनै:शनै: निमीलित होती जा रही है। अहो मंदारक ! तुम्हारे त्याग को पुरस्कृत करने हेतु मैं जीवित न रह सकूँगा। ययाति को युवराज रूप में देखने को जीवित न रह सकूँगा। ययाति का विवाह करने को जीवित न रह सकूँगा।...और मंदारक ! तुम्हारे उपकार से उऋण होने को जीवित न रह सकूँगा। हा कष्ट ! हृदय पर इतने अधूरे कर्तव्यों का भार लिये लिये प्राण त्यागने पड़ेंगे क्या मंदारक ! तब तो अगले जन्म में ही तुम्हारे ऋण से मुक्त हो सकूँगा। वैसे भी तुम्हारे उपकार के समक्ष तो सभी कुछ लघु प्रतीत होता है क्या धनधान्य अथवा उपाधि और क्या पुरस्कार अथवा राज्य विस्तार। घावों से रक्तस्राव निरन्तर हो रहा है। भयंकर कष्ट है। हे विश्वेदेव। हे पूषा ! केवल तीन कर्तव्य पूरे कर सकूँ मात्र इतनी श्वासें और दे दो। बस ययाति को राजपद देना, एक सुन्दर सुशील राजकन्या से उसका विवाह करना तथा मंदारक के उपकार से उऋण होना। ये ही तो तीन मुख्य कार्य हैं। किन्तु घावों से बहते रक्त के साथ-साथ जीवन-वर्त्तिका प्रतिफल क्षीण पड़ती जा रही है...मंदारक ! ययाति !...पुत्र !....ययाति !...मंदारक !....हा यति ! हा यति। नहुष गहन मूर्च्छा में डूब गये। दीर्घ अंतराल के पश्चात् जब उनके नेत्र खुले तो सामने खड़ी एक देवबाला सी सुन्दर कन्या पर दृष्टि पड़ी। कौन है यह देवबाला ? कौन सा स्थान है यह ? थके हुए अधमुँदे नेत्रों से वे कुछ पल देखते रहे और धीरे धीरे पुनः उनके नेत्र मुँद गये।
वह मंदारपुर का राजमहल था। नहुष के घावों की चिकित्सा वहाँ के राजवैद्य व चिकित्सक कर रहे थे। मंदारक का सम्पूर्ण परिवार महाराज नहुष की सेवा सुश्रूषा में लगा रहता। जब भी नहुष के नेत्र खुलते तो उस सुशील सुकन्या को सदा ही वहाँ पाते, कभी घावों पर औषधि लगाती हुई तो कभी उनके मुँख में औषधि डालती हुई। वे विस्मित होते कि कौन है यह औषधि-बाला।
‘‘मंदारिके ! पुत्री ! जो नवीन औषधि आज वैद्यराज दे गये हैं, वह महाराज को दे दी अथवा नहीं ?’’....
तो यह मंदारक की पुत्री है। मंदारिका ! नहुष मंदारक के कंठ स्वर से समझ गये कि यह औषधिबाला मंदार-सुता है। नहुष हौले से मुस्कुराए। नहुष ने रक्तहीन पीतवर्ण मुख पर मुस्कान की आभा देखते ही मंदारक ने गद्गद हो ऊपर की ओर हाथ जोड़ लिए। परिश्रम सफल हो गया।
नहुष के नेत्र दुर्बलता के कारण पुनः मुँद गये। पुनः अवचेतन मन की चिन्ताएँ ज्वार तरंगों सी उमड़ पड़ीं। जटाजूट बढ़ाये संन्यासी रूप में यति युवराज रूप में ययाति ! फिर श्रीवर के रूप में ययाति एक अत्यन्त सुन्दर, सहज सलोनी नववधू के साथ युवराज ययाति।
एकाएक नहुष के नेत्र पूर्णतः खुल गये।
ययाति की नववधू ! कौन थी उसके साथ नववधू रूप में वह सुशीला ? आनन्द-मुस्कान से मुख खिल उठा।
मंदारक प्रसन्न हो आगे बढ़े।
‘महाराज ! अब कौन अनुभव हो रहा है आपको ?....कैसा स्वास्थ्य है ?’
एक पग ही बढ़ाया होगा कि लगा जैसे साक्षात् काल उन पर गरजता हुआ पूरी शक्ति से झपट पड़ा हो। सहसा तो वे समझ नहीं पाये। परन्तु उनकी आखेटक वाली चौकस बुद्धि काम कर गई। वे समझ गये कि उनकी असावधान स्थिति में किसी दुर्दान्त सिंह ने उन पर आक्रमण किया है। सिंह का आक्रमण इतना अचानक हुआ कि वे अपना खंग तक बाहर न खींच पाये। वे पूरी शक्ति से सिंह का सामना कर रहे थे। किन्तु उनका शरीर लहू-लुहान हुआ जा रहा था।
अंततः उन्होंने अपने वंश की वह पुरातन खंग खींचकर निकाल ही ली जो उन्हें उनके पिता आयु से प्राप्त हुई थी। पर तभी उन्हें अनुभव हुआ कि सिंह एक नहीं, दो हैं। शायद सिंह और सिंहनी दोनों ने एक साथ आक्रमण किया था। दो सिंहों का आभास होते ही उन जैसे पराक्रमी योद्धा का मनोबल भी शिथिल पड़ने लगा। दोनों प्रचंड सिंह भयानक मुँह फाड़े नुकीले दाँतों से उन्हें फाड़ खाना चाहते थे। चीथ चीथ कर तत्काल नहुष का अन्त कर देने को उतारू थे।
पूरी शक्ति लगा देने के उपरान्त भी नहुष का दीर्घकाल बलिष्ठ तन आहत होकर भूमि पर गिरा और दोनों सिंह झपट पड़े उन पर।
अचानक वन के न जाने किस कोने से बाणों की धुँआधार वर्षा हो उठी। एक सरराता हुआ बाण आया और सिंहनी उछल पड़ी तथा भयंकर पीड़ा से क्षुब्ध हो गरजती हुई छलांग लगाकर वन की ओर भागी किन्तु बाण इतना घातक था कि वह बीच में ही भूमि पर आ गिरी।
सिंहनी को पृथ्वी पर पड़ी हुई देख क्रोध से पागल हुए सिंह ने दहाड़ दहाड़ कर समूचे वन प्रान्त को दहला दिया और दुगने वेग से टूट पड़ा नहुष को छोड़ मंदारक पर उछला। मंदारक तुरन्त नीचे झुक गये और जैसे ही सिंह ऊपर की ओर उछला उन्होंने ठीक उसके पेट में पूराखड्ग मूठ तक भोंक दिया। रक्त का फव्वारा छूट पड़ा और सिंह प्राणांतक पीड़ा से वहीं लोट गया।
मंदारपुर नरेश-मंदारक ने स्वयं आहत होते हुए भी तुरन्त नहुष को सम्हाला और रथ पर लिटा कर अपनी राजधानी ले चले।
प्रतिष्ठानपुर की सीमा जिस स्थल पर, दानव-राज्य की सीमा का स्पर्श करती थी, वहीं मंदापुर राज्य था। वैसे यह प्रतिष्ठानपुर के अधीन एक छोटा सा राज्य था लेकिन सीमा पर होने के कारण सुरक्षा की दृष्टि से इसका महत्व बहुत था। वहाँ के राजा मंदारक बड़े पराक्रमी तथा धर्मनिष्ठ थे। प्रतिष्ठानपुर के प्रतापी नरेश आयुनन्दन नहुष इसलिये राजा मंदारक का बड़ा सम्मान करते थे।
राजा मंदारक के रथ में अर्ध-मूर्च्छित अवस्था में पड़े हुए नहुष धीरे धीरे जीवन की आशा छोड़ चले थे। दो सिंहों के पंजों से बच निकलना क्या संभव होता है ? मंदारक के कारण आज असंभव भी संभव हो गया। किन्तु विकट रूप से रक्तस्राव जो हो रहा है। आशा नहीं प्रतिष्ठानपुर जीवित पहुँच पाने की। मंदारपुर राज्य ही पहुँच पाना संभव प्रतीत नहीं हो रहा, फिर प्रतिष्ठानपुर तो सुदूर गंगा-यमुना के संगम तट पर बसा हुआ है। तो क्या मार्ग में ही प्राणान्त...!!
पीड़ा से कराहते हुए आहत पड़े नहुष के अर्धचेतन मस्तिष्क में नाना प्रकार की दुःश्चिन्ताएँ घुमड़-घुमड़ कर उनका त्रास और भी बढ़ाये दे रही थीं। कभी उन्हें अपनी अकाल मृत्यु के संवाद से व्याकुल हुए प्रजाजन हाहाकार करते दिखते तो कभी महारानी का दारुण विलाप कानों में गूँज जाता और कभी अपने पितृहीन पुत्रों के विषाद भरे अबोध मुख आँखों के सामने घूम जाते। क्या होगा प्रतिष्ठानपुर राज्य का मेरे पश्चात् ! कोई सम्हालने वाला नहीं ! अराजकता ! अराज स्थिति कितनी भयंकर होती है। युवराज ! हाँ ! चाहकर भी अभिषेक न कर पाया युवराज पद पर। विलम्ब होता ही गया...और उड़ गया पंछी फुर्र ! हा कष्ट ! यति कहाँ ? यति कहाँ ? हा यति ! हा यति ।
यति ! नहुष का ज्येष्ठ पुत्र ! उसे युवराज पद पर अभिषिक्त करने की समस्त योजनाएँ धरी की धरी रह गईं और वह अनायास ही लुप्त हो गया एक एक नगर ग्राम जनपद और वन में उसे खोजा गया। कहीं दुर्योगवश डूब तो नहीं गया, इस आशंका से त्रिवेणी संगम में विराट जाल डलवा कर खोजा गया। कितने समय बाद कहीं जाकर ज्ञात हुआ कि यति संन्यासी होकर हिमालय में कठोर तपस्यारत है। महाराज नहुष ने अपना कपाल ठोंक लिया था। महारानी ने आहार त्याग दिया और अपने बालायोगी राजकुमार की स्मृति में प्रजा बावरी हो उठी।
नहुष पुत्र-विछोह के उस आघात से अब उबर न पाये थे। मन बहलाने हेतु वे आखेट में अधिक से अधिक लिप्त रहने लगे।
हा यति ! युवराज पद पर अभिषिक्त होना तथा विवाहित होना भला कब किस तरुण को न भाया होगा ! किन्तु यति सबसे भिन्न जो था ! विवाह तथा अभिषेक की चर्चा चलते ही उद्विग्न हो उठा। उसे रात भर व्यग्र हो टहलते हुए ययाति, संयाति आयाति, अयति तथा ध्रुव आदि उसके सभी अनुजों ने देखकर पिता को बताया था। और न जाने कब वह चुपचाप गृह त्याग कर गया।
अब उनकी आशा का केन्द्र था ययाति ! किन्तु यति के वैराग्य लेने के बाद से एक अज्ञात सा भय राज परिवार के सदस्यों के मन में पैठ गया था। कहीं ययाति भी अपने आग्रह से प्रभावित हो संन्यास न ले ले। ययाति को वैराग्य से बचाना है। एक ही उपाय है। यथाशीघ्र एक सुन्दर कन्या से उसका विवाह। यथाशीघ्र उसका युवराज पद पर अभिषेक। राज्य की स्वर्णश्रृंखला तथा विवाह का सुकोमल रेशमी सूत्र पर्याप्त है किसी भी तरुण को बाँधे रखने में ! किन्तु वही तो न कर पाया अब तक..और अब सम्मुख काल है। सिंहों के आक्रमण से जीवित बच जाने पर पहले लगा था कि काल को हरा दिया। किन्तु अब ! अब मृत्यु की छाया प्रतिपल निकट आती प्रतीत हो रही थी।
नहुष के नेत्र कभी खुलते, भी मुँदते। रथ चला जा रहा था। किन्तु मंदारपुर जैसे दूर खिसकता जा रहा था। अथाह पीड़ा भरे उनके अधखुले नेत्र निकट ही गंभीर बैठे हुए मंदारक पर टिक गये। धन्य हो मंदारक प्राणों पर खेल कर बचा तो लाये मुझे सिंहों के भयावह जबड़ों से किन्तु क्या तुम्हारा यह त्याग और वीरता कुछ काम आ सकेंगे ? नहीं मंदारक। जिस जीवन-ज्योति को तुमने अपने प्राणों की ओट देकर मृत्यु के झोंके से बचाया वह अब शनै:शनै: निमीलित होती जा रही है। अहो मंदारक ! तुम्हारे त्याग को पुरस्कृत करने हेतु मैं जीवित न रह सकूँगा। ययाति को युवराज रूप में देखने को जीवित न रह सकूँगा। ययाति का विवाह करने को जीवित न रह सकूँगा।...और मंदारक ! तुम्हारे उपकार से उऋण होने को जीवित न रह सकूँगा। हा कष्ट ! हृदय पर इतने अधूरे कर्तव्यों का भार लिये लिये प्राण त्यागने पड़ेंगे क्या मंदारक ! तब तो अगले जन्म में ही तुम्हारे ऋण से मुक्त हो सकूँगा। वैसे भी तुम्हारे उपकार के समक्ष तो सभी कुछ लघु प्रतीत होता है क्या धनधान्य अथवा उपाधि और क्या पुरस्कार अथवा राज्य विस्तार। घावों से रक्तस्राव निरन्तर हो रहा है। भयंकर कष्ट है। हे विश्वेदेव। हे पूषा ! केवल तीन कर्तव्य पूरे कर सकूँ मात्र इतनी श्वासें और दे दो। बस ययाति को राजपद देना, एक सुन्दर सुशील राजकन्या से उसका विवाह करना तथा मंदारक के उपकार से उऋण होना। ये ही तो तीन मुख्य कार्य हैं। किन्तु घावों से बहते रक्त के साथ-साथ जीवन-वर्त्तिका प्रतिफल क्षीण पड़ती जा रही है...मंदारक ! ययाति !...पुत्र !....ययाति !...मंदारक !....हा यति ! हा यति। नहुष गहन मूर्च्छा में डूब गये। दीर्घ अंतराल के पश्चात् जब उनके नेत्र खुले तो सामने खड़ी एक देवबाला सी सुन्दर कन्या पर दृष्टि पड़ी। कौन है यह देवबाला ? कौन सा स्थान है यह ? थके हुए अधमुँदे नेत्रों से वे कुछ पल देखते रहे और धीरे धीरे पुनः उनके नेत्र मुँद गये।
वह मंदारपुर का राजमहल था। नहुष के घावों की चिकित्सा वहाँ के राजवैद्य व चिकित्सक कर रहे थे। मंदारक का सम्पूर्ण परिवार महाराज नहुष की सेवा सुश्रूषा में लगा रहता। जब भी नहुष के नेत्र खुलते तो उस सुशील सुकन्या को सदा ही वहाँ पाते, कभी घावों पर औषधि लगाती हुई तो कभी उनके मुँख में औषधि डालती हुई। वे विस्मित होते कि कौन है यह औषधि-बाला।
‘‘मंदारिके ! पुत्री ! जो नवीन औषधि आज वैद्यराज दे गये हैं, वह महाराज को दे दी अथवा नहीं ?’’....
तो यह मंदारक की पुत्री है। मंदारिका ! नहुष मंदारक के कंठ स्वर से समझ गये कि यह औषधिबाला मंदार-सुता है। नहुष हौले से मुस्कुराए। नहुष ने रक्तहीन पीतवर्ण मुख पर मुस्कान की आभा देखते ही मंदारक ने गद्गद हो ऊपर की ओर हाथ जोड़ लिए। परिश्रम सफल हो गया।
नहुष के नेत्र दुर्बलता के कारण पुनः मुँद गये। पुनः अवचेतन मन की चिन्ताएँ ज्वार तरंगों सी उमड़ पड़ीं। जटाजूट बढ़ाये संन्यासी रूप में यति युवराज रूप में ययाति ! फिर श्रीवर के रूप में ययाति एक अत्यन्त सुन्दर, सहज सलोनी नववधू के साथ युवराज ययाति।
एकाएक नहुष के नेत्र पूर्णतः खुल गये।
ययाति की नववधू ! कौन थी उसके साथ नववधू रूप में वह सुशीला ? आनन्द-मुस्कान से मुख खिल उठा।
मंदारक प्रसन्न हो आगे बढ़े।
‘महाराज ! अब कौन अनुभव हो रहा है आपको ?....कैसा स्वास्थ्य है ?’
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