कहानी संग्रह >> कन्नड की श्रेष्ठ कहानियाँ कन्नड की श्रेष्ठ कहानियाँतिप्पेस्वामी
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प्रस्तुत संकलन में 24 कन्नड़ कथाकारों की श्रेष्ठ कहानियों का चुना गया है....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कन्नड़ के सात साहित्यकार भारतीय ज्ञानपीठ साहित्यकार से सम्मानित हुए
हैं। मास्ति और अनंतमूर्ति तो इस विद्या के सर्वाधिक चर्चित ही नहीं,
अपितु इस विद्या को गति देनेवाले कहानीकार रहे हैं। अन्य साहित्यकारों का
योगदान भी कम महत्व का नहीं है। हर वर्ग और विचारधारा के कहानीकार
कहानियाँ लिख रहे हैं। कन्नड़ कहानियों के पीछे एक सौ वर्षो का इतिहास है।
इस कालखंड में हज़ारों कहानियाँ अपने-अपने समय और समय के साथ संवाद करने
से सक्षम रही हैं।
प्रस्तुत कथा संकलन में हमने 24 कन्नड कथाकारों की एक-एक कहानी को चुना है। हमें मालूम है कि इतने ही नहीं, इससे ज्यादा कथाकारों को स्थान मिलना था। मगर इस संकलन की सीमा में मात्र इतनी कहानियों को ही हम ले पाये हैं। और, यह दावा भी नहीं है कि हमने इन कथाकारों की सर्वश्रेष्ठ रचना को ही चुना है। इस संदर्भ में हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं। कि हमने लेखक की उत्तम एवं प्रतिनिधि कहानी का चयन किया है जो कि चर्चित और पाठकों से सराही गई हैं। ये कहानियाँ हिन्दी पाठकों को पसंद आएँगी, ऐसी आशा है।
प्रस्तुत कथा संकलन में हमने 24 कन्नड कथाकारों की एक-एक कहानी को चुना है। हमें मालूम है कि इतने ही नहीं, इससे ज्यादा कथाकारों को स्थान मिलना था। मगर इस संकलन की सीमा में मात्र इतनी कहानियों को ही हम ले पाये हैं। और, यह दावा भी नहीं है कि हमने इन कथाकारों की सर्वश्रेष्ठ रचना को ही चुना है। इस संदर्भ में हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं। कि हमने लेखक की उत्तम एवं प्रतिनिधि कहानी का चयन किया है जो कि चर्चित और पाठकों से सराही गई हैं। ये कहानियाँ हिन्दी पाठकों को पसंद आएँगी, ऐसी आशा है।
प्राक्कथन
भारत सामाजिक संस्कृति का देश है। यहाँ इतनी भाषाएँ और प्रादेशिक
संस्कृतियाँ हैं कि इन तमाम भाषाओं और संस्कृतियों की समृद्ध परंपरा है।
यहाँ की हर भाषा में साहित्य है और इस साहित्य से सीधा साक्षात्कार किसी
से भी संभव होने वाला काम नहीं है। क्योंकि बहु भाषाओं के इस देश में एक
व्यक्ति आखिर कितनी भाषाएँ सीख सकता है ! इन भाषाओं के सीखने के लिए
अपेक्षित समय और साधन का अभाव हर एक को है आज के व्यस्त जीवन में भाषा
सीखकर उस भाषा के साहित्य को पढ़ने की रूचि कौन रखेगा, यह सोचने का विषय
है।
भाषा को सीखे बिना उस भाषा की साहित्य सम्पदा और सांस्कृतिक गरिमा का परिचय प्राप्त करने का एक सशक्त माध्यम है अनुवाद। आज के जगत में घर बैठे इस अनुवाद से देश-विदेश के ज्ञान-विज्ञान-कला-साहित्य से आत्मीय संबंध जोड़े जा सकते हैं। अनुवाद अपरिचित विश्व से परिचय कराता है।
तुलनात्मक अध्ययन के आधार भी अनुवाद ही हैं। अनुवादों के द्वारा अपना आत्मावलोकन कर सकते हैं और मूल्यांकन भी। अनुवाद एक अध्ययन-विषय के रूप में हमारे विश्वविद्यालयों में मान्य हुआ है और अनुवाद का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है जो कि प्रसन्नता का विषय है।
मैसूर विश्वविद्यालय के हिन्दी अध्ययन विभाग के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ. मे. राजेश्वरय्या ने अनुवादों के माध्यम से हिन्दी और कन्नड को निकट लाने, इन दोनों भाषाओं की साहित्यिक कृतियों के आपसी अनुवाद करवाने और तद्द्वारा इन दोनों भाषाओं के बीच मधुर संबंधों का विकाश कराने का सपना ही नहीं देखा, अपितु अपने सपने को साकार करने की दिशा में अथक परिश्रम से सफलता भी प्राप्त की। मैसूर के तब के लोकसभा सदस्य मानवीय श्री तुलसीदास दासप्पाजी के सहयोग में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मानवीय मुख्य मंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी से प्रो.राजेश्वरय्याजी कई बार मिले, उनके समक्ष हिन्दी और कन्नड के बीच आदान-प्रदान कार्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए भावात्मक एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए ऐसे सारस्वत यज्ञ की महत्ता को समझाने में सफल भी हुए है।
मानवीय श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने बहुभाषाओं के इस देश में ऐसी अनुवाद-योजना की प्रासंगिकता का अनुभव किया। परिणामतः उसके उदार चिंतन और साहित्यिक प्रेम के कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने मैसूर विश्वविद्यालय को चार लाख रूपये की अनुग्रह राशि देकर अनुवाद कार्य को निरंतर चलाये जाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उस अनुग्रह राशि से मैसूर विश्वविद्यालय में उ. प्र. एनडोमेंट की स्थापना हुई है। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार का, विशेषकर तत्कालीन माननीय मुख्यमंत्री श्री विश्व नाथ प्रताप सिंह जी का और आदरणीय श्री तुलसीदास दासप्पाजी और प्रो. मे. राजेश्वरय्याजी का आभार मानना मेरे लिय संतोष का विषय है।
मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित उत्तर प्रदेश एनडोमेंट पिछले कई वर्षों से सक्रिय रूप से काम कर रहा है। इस एनडोमेंट की मूलनिधि से प्राप्त ब्याज से हमारे विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग अब तक तीन पुस्तकें- आधुनिक कन्नड काव्य (1997), प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगलु (2000) और आधुनिक हिन्दी काव्य (2001) प्रकाशित कर चुका है जो कि संतोष का विषय है।
अब इस योजना में कन्नड की श्रेष्ठ कहानियों का एक संकलन निकल रहा है, यह मेरे लिए अतीव हर्ष की बात है। कन्नड साहित्य की समृद्ध परंपरा है। कन्नड के सात शिखर साहित्यकारों को भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। यह वर्ष राष्ट्रकवि कुवेंपु का जन्मशती वर्ष है। इसी वर्ष में कन्नड कहानी संपदा का परिचय देनेवाला यह संकलन प्रकाशित हो रहा है।
इस कथा संकलन के संपादक मंडल के अध्यक्ष प्रो. तिप्पेस्वामी और सदस्य प्रो. जे. एस. कुसुमगीता, प्रो. वी. डी. हेगड़े प्रो. प्रधान गुरूदत्त तथा इस संकलन के परिशीलक प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी ने बड़े मनोयोग से इस संकलन को तैयार किया है। मैं इन सबको साधुवाद देना चाहता हूँ और कामना करती हूँ कि आगामी वर्षों में ऐसे अनुवाद निरंतर प्रकाशित हों। मैसूर विश्वविद्यालय के ये सारस्वत कार्य पूरे देश के सामने मिशाल बनें, यही मेरी हार्दिक इच्छा है। अंत में प्रो. तिप्पेस्वामी का अभिनंदन विशेष रूप से करना चाहता हूँ जिन्होंने बड़ी श्रद्धा और आस्था से इस संकलन को सुंदर ढंग से प्रकाशित करने का प्रयास किया है। देश के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान लोकभारती से यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है जिनके कारण इस संग्रह का महत्त्व भी बढ़ा है। लोकभारती के श्री दिनेश चन्द्र का भी आभार मानता हूँ।
भाषा को सीखे बिना उस भाषा की साहित्य सम्पदा और सांस्कृतिक गरिमा का परिचय प्राप्त करने का एक सशक्त माध्यम है अनुवाद। आज के जगत में घर बैठे इस अनुवाद से देश-विदेश के ज्ञान-विज्ञान-कला-साहित्य से आत्मीय संबंध जोड़े जा सकते हैं। अनुवाद अपरिचित विश्व से परिचय कराता है।
तुलनात्मक अध्ययन के आधार भी अनुवाद ही हैं। अनुवादों के द्वारा अपना आत्मावलोकन कर सकते हैं और मूल्यांकन भी। अनुवाद एक अध्ययन-विषय के रूप में हमारे विश्वविद्यालयों में मान्य हुआ है और अनुवाद का अध्ययन-अध्यापन हो रहा है जो कि प्रसन्नता का विषय है।
मैसूर विश्वविद्यालय के हिन्दी अध्ययन विभाग के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ. मे. राजेश्वरय्या ने अनुवादों के माध्यम से हिन्दी और कन्नड को निकट लाने, इन दोनों भाषाओं की साहित्यिक कृतियों के आपसी अनुवाद करवाने और तद्द्वारा इन दोनों भाषाओं के बीच मधुर संबंधों का विकाश कराने का सपना ही नहीं देखा, अपितु अपने सपने को साकार करने की दिशा में अथक परिश्रम से सफलता भी प्राप्त की। मैसूर के तब के लोकसभा सदस्य मानवीय श्री तुलसीदास दासप्पाजी के सहयोग में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मानवीय मुख्य मंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी से प्रो.राजेश्वरय्याजी कई बार मिले, उनके समक्ष हिन्दी और कन्नड के बीच आदान-प्रदान कार्य की ज़रूरत को रेखांकित करते हुए भावात्मक एकता को सुदृढ़ बनाने के लिए ऐसे सारस्वत यज्ञ की महत्ता को समझाने में सफल भी हुए है।
मानवीय श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी ने बहुभाषाओं के इस देश में ऐसी अनुवाद-योजना की प्रासंगिकता का अनुभव किया। परिणामतः उसके उदार चिंतन और साहित्यिक प्रेम के कारण उत्तर प्रदेश सरकार ने मैसूर विश्वविद्यालय को चार लाख रूपये की अनुग्रह राशि देकर अनुवाद कार्य को निरंतर चलाये जाने के लिए मार्ग प्रशस्त किया। उस अनुग्रह राशि से मैसूर विश्वविद्यालय में उ. प्र. एनडोमेंट की स्थापना हुई है। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश सरकार का, विशेषकर तत्कालीन माननीय मुख्यमंत्री श्री विश्व नाथ प्रताप सिंह जी का और आदरणीय श्री तुलसीदास दासप्पाजी और प्रो. मे. राजेश्वरय्याजी का आभार मानना मेरे लिय संतोष का विषय है।
मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित उत्तर प्रदेश एनडोमेंट पिछले कई वर्षों से सक्रिय रूप से काम कर रहा है। इस एनडोमेंट की मूलनिधि से प्राप्त ब्याज से हमारे विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग अब तक तीन पुस्तकें- आधुनिक कन्नड काव्य (1997), प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगलु (2000) और आधुनिक हिन्दी काव्य (2001) प्रकाशित कर चुका है जो कि संतोष का विषय है।
अब इस योजना में कन्नड की श्रेष्ठ कहानियों का एक संकलन निकल रहा है, यह मेरे लिए अतीव हर्ष की बात है। कन्नड साहित्य की समृद्ध परंपरा है। कन्नड के सात शिखर साहित्यकारों को भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। यह वर्ष राष्ट्रकवि कुवेंपु का जन्मशती वर्ष है। इसी वर्ष में कन्नड कहानी संपदा का परिचय देनेवाला यह संकलन प्रकाशित हो रहा है।
इस कथा संकलन के संपादक मंडल के अध्यक्ष प्रो. तिप्पेस्वामी और सदस्य प्रो. जे. एस. कुसुमगीता, प्रो. वी. डी. हेगड़े प्रो. प्रधान गुरूदत्त तथा इस संकलन के परिशीलक प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी ने बड़े मनोयोग से इस संकलन को तैयार किया है। मैं इन सबको साधुवाद देना चाहता हूँ और कामना करती हूँ कि आगामी वर्षों में ऐसे अनुवाद निरंतर प्रकाशित हों। मैसूर विश्वविद्यालय के ये सारस्वत कार्य पूरे देश के सामने मिशाल बनें, यही मेरी हार्दिक इच्छा है। अंत में प्रो. तिप्पेस्वामी का अभिनंदन विशेष रूप से करना चाहता हूँ जिन्होंने बड़ी श्रद्धा और आस्था से इस संकलन को सुंदर ढंग से प्रकाशित करने का प्रयास किया है। देश के प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान लोकभारती से यह संग्रह प्रकाशित हो रहा है जिनके कारण इस संग्रह का महत्त्व भी बढ़ा है। लोकभारती के श्री दिनेश चन्द्र का भी आभार मानता हूँ।
दो शब्द
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित एनडोमेंट की
धनराशि से प्राप्त होने वाले ब्याज से आधुनिक हिन्दी और कन्नड भाषा की
उल्लेखनीय कृतियों का परस्पर आदान-प्रदान करने की महती योजना के अन्तर्गत
‘कन्नड की श्रेष्ठ कहानियाँ’ संकलन प्रकाशित हो रहा
है। भारत जैसे बहुभाषाओं के देश में मात्र अनुवाद के लिए कटिबद्ध ऐसी
योजना से जो प्रयोजन हैं वे राष्ट्रीय एकता, आपसी बन्धुत्व और सद्भावों के
प्रचार-प्रसार में असंदिग्ध रूप से महत्त्व रखते हैं। भारतीय साहित्य के
आधारभूत अंशों को रेखांकित करने के लिए अनुवाद प्राथमिक स्रोत हैं।
अनुवादों से दो भाषाओं को निकट लाकर आपसी परिचय प्राप्त किया जा सकता है,
आत्मावलोकन किया जा सकता है, दो भाषाओं के चिंतन के साम्य-वैषम्यों को
जाना जा सकता है अनुवाद के माध्यम से भावात्मक एकता को सुदृढ़ बनाने के
लिए हमारे विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष डॉ. मे.
राजेश्वरय्या ने ‘सारस्वत योजना’ की परिकल्पना की थी।
इस योजना के अंतर्गत हिन्दी और कन्नड में भरपूर अनुवाद कराना और अनुवादकों
को तैयार करना उनका लक्ष्य था। वे अनुवादकों को सांस्कृतिक प्रतिनिध मानते
थे।
मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित उत्तर प्रदेश एनडोमेंट की स्थापना में प्रो. मे. राजेश्वरय्या जी का अथक परिश्रम, उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मानवीय मुख्यमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की उदार कृपा तथा तत्कालीन लोकसभा सदस्य श्री तुलसीदास दासप्पाजी का हार्दिक सहयोग है।
प्रस्तुत योजना में आधुनिक साहित्य की विभिन्न विधाओं की श्रेष्ठ रचनाओं का अनुवाद करने का प्रावधान है। अब तक इस माला में तीन विशिष्ट संग्रह प्रकाशित हुए हैं-
1.आधुनिक कन्नड काव्य (1997), प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (अध्यक्षा), प्रो. तिप्पेस्वामी, प्रो. प्रधान गुरुदत्त (सदस्य), श्री चन्द्रकांत देवताले (परिशीलक)।
2.प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगलु (2000), प्रो. तिप्पेस्वामी (अध्यक्ष), प्रो. जे एस. कुसुमगीता प्रो. वी. डी. हेगड़े, प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य), डॉ. सिद्धलिंग पट्टणइट्टी (परिशीलक)।
3. आधुनिक हिन्दी काव्य (2002), प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (अध्यक्षा), प्रो. तिप्पेस्वामी, प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य), चन्द्रकांत कुसनूर (परिशीलक)।
उपरोक्त संपादक मंडलों ने जो संग्रह प्रकाशित किए हैं, वे पाठकों से काफी पसन्द किए गए हैं। अब कन्नड की श्रेष्ठ कहानियाँ’ संकलन प्रकाशित हो रहा है। यह संकलन निम्नांकित संपादक मंडल ने तैयार किया है-
1.प्रो. तिप्पेस्वामी (अध्यक्ष)
2.प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (सदस्या)
3. प्रो. वी. डी. हेगड़े (सदस्य)
4. प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य)
5.निदेशक, कुवेंपु कन्नड अध्ययन संस्थान, मानसगंगोत्री, मैसूर (सदस्य)
6. प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी (परिशीलक)
संपादक मंडल ने कहानियों का चयन किया। फिर इन सदस्यों तथा अन्य अनुवादकों के यहाँ की कहानियों के हिन्दी अनुवाद तैयार किये। अनूदित कहानियों के परिशीलन के लिए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी जी को आमंत्रित किया गया था जिनके साथ बैठकर संपादक समिति ने अनूदित कहानियों का भाषा की दृष्टि से परिष्कार किया। और यों तैयार हुई कहानियों को आपके सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मैं अतीव संतोष का अनुभव कर रहा हूँ।
इस संग्रह की कहानियों के अनुवाद में अनुवादकों ने सहयोग दिया है जो कि इस क्षेत्र के अनुभवी हैं। इनके अनुवादों को पढ़ते समय परिशीलन समिति के सदस्यों ने गद्यानुवाद की कई समस्याओं का सामना किया। एक ही व्यक्ति सारे अनुवाद करता तो उसकी शैली एक होती और यहाँ कई अनुवादकों ने चूँकि ये अनुवाद तैयार किये हैं, इसमें कई शैलियों और भाषा-प्रयोगों का आना सहज ही है, तथापि परिशीलन समिति ने इन कहानियों में भाषा की प्रवाहमयता एवं हिन्दी के सहज रूप को लाने का भरसक प्रयत्न किया है।
आधुनिक कन्नड कहानी का श्रीगणेश पिछली शताब्दी के प्रथम दशक में ही हुआ जबकि पंजे मंगेश्वर राव ने ‘सुवासिनी’ पत्रिका में अपनी कहानियाँ प्रकाशित कीं। इनके समकालीन कथाकारों में केरुर वासुदेवाचार्य उल्लेखनीय हैं जिन्होंने सामाजिक, ऐतिहासिक कहानियों के साथ जासूसी कहानियाँ लिखी हैं। मास्ति वेंकटेश अय्यंगार कन्नड कहानी विधा के शिखर पुरुष हैं, प्रवर्तक हैं, कन्नड के प्रेमचन्द हैं जिनकी सैकड़ों कहानियों ने आधुनिक कन्नड कहानी साहित्य को समृद्ध बनाया है। यद्यपि आद्यकथाकार के रूप में पंजे का ही नाम लिया जाता है तथापि इस विधा को एक सुनिश्चित रूप देने का श्रेय मास्ति को ही है। ये आधुनिक कहानी के प्रवर्तक हैं। इनके प्रथम संकलन ‘रंगप्पन कथेगलु’ के प्रकाशन से इस विधा की संभावनाएँ उभर आईं। मास्ति के समृद्ध कथाभंडार में विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों, यथार्थों, विसंगतियों एवं कुरूपताओं का चित्रण है और साथ ही भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यों का प्रतिपादन भी है जो उन्हें परंपरा से पाथेय के रूप में मिले हैं। अतीत का गौरवगान, भारत के महान प्रभुओं का उदात्त चरितगान, भारतीय नारी का त्याग और बलिदान, भक्ति वैराग्य और समर्पण की चरमसीमा को दर्शानेवाली उनकी कहानिय़ों में प्रौढ़ चिन्तन और उदार जीवन दर्शन बिंबित हुआ है। मास्तिजी किसी वाद-विवाद के पक्षधर न रहे, जीवन उनके लिए सबसे प्यारा रहा। मास्तिजी का प्रभाव परिवर्ती कन्नड कहानी साहित्य पर व्यापक रूप से देखा जा सकता है। मास्तिजी ने कन्नड कहानी विधा की जबदस्त नींव डाली जिस पर परिवर्ती कहानी संसार खड़ा है।
मास्तिजी से परिवर्तित कहानी विधा का विकास पिछली शती में समृद्ध रूप से हुआ है। कन्नड कहानी यात्रा के चार पड़ाव हैं- नवोदय धारा, के अन्य प्रमुख हैं मास्ति और इस धारा के अन्य प्रमुख हस्ताक्षर हैं आनंद, कुवेंपु, आनंदकद, गोरूर रामस्वामी अय्यंगार आदि। प्रगतिशील धारा कन्नड की एक सशक्त कथा धारा है इस धारा के पुरोधा हैं अ.न. कृष्णराव जी। प्रगतिशील विचार धारा के समर्थन में प्रतिपादित इनके विचारों ने समकालीन लेखकों को गंभीरता से प्रभावित किया है। इस धारा के अन्य चर्चित कहानीकार हैं त.रा. सुब्बाराव, बसवराज कट्टीमनी, चदुरंग, निरंजन आदि। नव्य कहानी आंदोलन के कन्नड कहानी को नया आयाम दिया। इस कथा धारा के प्रवर्तकों में हैं- बी. सी. रामचन्द्र शर्मा और यू. आर. अनंतमूर्ति, शान्तिनाथ देसाई, यशवंत चित्रलाल, पी. लंकेश. के. सदाशिव, वीरभद्र आदि कहानीकारों ने इस विधा को समृद्ध बनाया है। नव्योत्तर पीढ़ी की कहानीधारा में लिखनेवाले कहानीकारों में जी. एस. सदाशिव, राजशेखर निरमान्वी, राघवेन्द्र, खासनीस, श्रीकृष्ण आलनहल्ली, देवनूर महादेव आदि महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। नव्योत्तर कहानी में विद्रोहात्मक स्वर लेकर जो कथाकार इनमें व्यवस्था के प्रति आक्रमण एवं आक्रोशात्मक प्रवृत्ति है। इस प्रवृति के कथांदोलन को ‘बंड़ाय’ कहते हैं। बरगूर रामचंद्रप्पा, कु. वीरभद्रप्पा, कालेगौड़ नागवार, एस. दिवाकर, बोलुवार मोहमुद कुञी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्नड के दो विशिष्ट एवं चर्चित कहानीकार हैं- के. पी. पूर्णचन्द्र तेजस्वी और बेसगरहल्ली रामण्णा। ये दोनों नव्य कथा आंदोलन के रचनाकारों के समकालीन होते हुए भी नव्य की लीक से हटकर सरल, सहज शैली में अपने समाज की समस्याओं पर कटाक्ष करने में सफल हुए हैं। कन्नड में महिला कथाकारों की लंबी सूची है। बीसवीं शती के आरंभिक चरण से आज तक ये प्रमुख कथा लेखिकाएँ कन्नड कहानी विधा को समृद्ध करने में योगदान देती आ रही हैं- कोडगिन गौरम्मा, त्रिवेणी, राजलक्ष्मी, एन. राव, वीणा शांतेश्वर, एम. के. इंदिरा, अनुपमा निरंजन, गीता कुलकर्णी, सारा अबूबक्कर, प्रेमा भट, वैदेही आदि। वर्तमान कन्नड कहानी का परिदृश्य निराशाजनक नहीं है। गत बीस-पच्चीस वर्षों में कई कहानीकार आए हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण कहानी लेखन किया है। इनमें जयंत कायकिणि, सिद्धलिंग, पट्टणइट्टी, रामचंद्र देव, मोग्ल्लि गणेश, न. डिसोजा, अमरेश नुगुडोणि, जयप्रकाश माविनकुलि के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्नड के सात साहित्यकार भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। मास्ति और अनंतमूर्ति तो इस विधा के सर्वाधिक चर्चित ही नहीं अपितु इस विधा को गति देनेवाले कहानीकार रहे हैं। अन्य साहित्यकारों का योगदान भी कम महत्त्व का नहीं है।
कन्नड में सचमुच में बड़ी संख्या में कहानीकार आए हैं। हर वर्ग और विचारधारा के कहानीकार कहानियाँ लिख रहे हैं। कन्नड कहानियों के पीछे एक सौ वर्षों का इतिहास है। कालखण्ड में हजारों कहानियाँ लिखी गई हैं। ये कहानियाँ अपने-अपने समय और समाज के साथ संवाद करने में सक्षम रही हैं।
प्रस्तुत कथा संकलन में हमने 24 कन्नड कथाकारों की एक-एक कहानी को चुना है। हमें मालूम है कि इतने ही नहीं, इनसे ज्यादा कथाकारों को यहाँ स्थान मिलता था। मगर इस संकलन की सीमा में मात्र इतनी कहानियों को ही हम ले पाए हैं। और हाँ, हमारा यह दावा भी नहीं है कि हमने इन कथाकारों की सर्वश्रेष्ठ रचना को ही चुना है। इस संदर्भ में हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हमने हर लेखक की उत्तम एवं प्रतिनिधित्व कहानी का चयन किया है जो कि चर्चित और पाठकों से सराही गई हैं। ये कहानियाँ हिन्दी पाठकों को पसन्द आएँगी, ऐसी आशा है।
कन्नड कहानियों के हिन्दी अनुवादों के संकलन बहुत कम प्रकाशित हैं। कन्नड की श्रेष्ठ कहानियों का परिचय देने के हमारे इस उपक्रम के पीछे कन्नड कहानीकारों का हार्दिक सहयोग रहा है। अनुवाद के लिए अनुमति माँगते हुए मैंने कहानीकारों एवं कहानी के स्वामित्व रखने वाले बन्धुओं के नाम पत्र लिखे तो सभी ने सहर्ष अनुमति दे कर इस सारस्वत कार्य में पूरा सहयोग दिया है। अतः इन महानुभावों के प्रति विश्वविद्यालय की ओर से आभार प्रकट करना मेरा परम कर्त्तव्य है।
इस संकलन के विद्वान अनुवादकों के सहयोग का मैं स्मरण करना चाहता हूँ जिनके बिना यह संकलन तैयार न हो पाता। अनुवादकों के परिशीलन के कार्य में हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी ने हाथ बँटाया है। संपादक मंडल के सभी सदस्यों का स्नेह और परिश्रम सदा मेरे साथ रहा। इस संकलन के प्रकाशन के संदर्भ में इनका आभार मान रहा हूँ।
मैसूर विश्वविद्यालय के मानवीय कुलपति आदरणीय प्रो. जे. शशिधर प्रसाद जी, कुलसचिव श्री एन. डी. तिवारी और वित्ताधिकारी श्री एम. महादेव स्वामी जी सदा उत्तर प्रदेश सरकार के एनडोमेंट के इस सारस्वत यज्ञ में हम सभी का उत्साहवर्धन करते आ रहे हैं, ये हमारे लिए प्रेरणा के पुंज हैं। मैं इन सबका हृदय से ऋणी हूँ।
यह हिन्दी संस्करण इलाहाबाद के प्रसिद्ध प्रकाशन लोकभारती से प्रकाशित हो रहा है और इसे संभव बनाया मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. एस. एन. हेगडे जी ने। उनका मानना था कि हिन्दी प्रकाशन द्वारा यह संकलन प्रकाशित होगा तो कन्नड कहानियों को हिन्दी पाठकों तक पहुँचने में कष्ट नहीं होगा और इन कहानियों का अच्छा प्रचार-प्रसार होगा। इस प्रकाशन-योजना को मंजूर करके उन्होंने हमें उपकृत किया है। अतः इस संदर्भ में प्रो. हेगडे जी का मैं आभार मान रहा हूँ।
और अंत में, लोकभारती प्रकाशन के साहित्यप्रेमी, सरल, सज्जन और स्नेही मित्र श्री दिनेश चन्द्र जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिन्होंने बड़ी श्रद्धा और आस्था से यह पुस्तक प्रकाशित की है।
मैसूर विश्वविद्यालय में स्थापित उत्तर प्रदेश एनडोमेंट की स्थापना में प्रो. मे. राजेश्वरय्या जी का अथक परिश्रम, उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मानवीय मुख्यमंत्री श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह जी की उदार कृपा तथा तत्कालीन लोकसभा सदस्य श्री तुलसीदास दासप्पाजी का हार्दिक सहयोग है।
प्रस्तुत योजना में आधुनिक साहित्य की विभिन्न विधाओं की श्रेष्ठ रचनाओं का अनुवाद करने का प्रावधान है। अब तक इस माला में तीन विशिष्ट संग्रह प्रकाशित हुए हैं-
1.आधुनिक कन्नड काव्य (1997), प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (अध्यक्षा), प्रो. तिप्पेस्वामी, प्रो. प्रधान गुरुदत्त (सदस्य), श्री चन्द्रकांत देवताले (परिशीलक)।
2.प्रातिनिधिक हिन्दी कथेगलु (2000), प्रो. तिप्पेस्वामी (अध्यक्ष), प्रो. जे एस. कुसुमगीता प्रो. वी. डी. हेगड़े, प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य), डॉ. सिद्धलिंग पट्टणइट्टी (परिशीलक)।
3. आधुनिक हिन्दी काव्य (2002), प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (अध्यक्षा), प्रो. तिप्पेस्वामी, प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य), चन्द्रकांत कुसनूर (परिशीलक)।
उपरोक्त संपादक मंडलों ने जो संग्रह प्रकाशित किए हैं, वे पाठकों से काफी पसन्द किए गए हैं। अब कन्नड की श्रेष्ठ कहानियाँ’ संकलन प्रकाशित हो रहा है। यह संकलन निम्नांकित संपादक मंडल ने तैयार किया है-
1.प्रो. तिप्पेस्वामी (अध्यक्ष)
2.प्रो. जे. एस. कुसुमगीता (सदस्या)
3. प्रो. वी. डी. हेगड़े (सदस्य)
4. प्रो. प्रधान गुरूदत्त (सदस्य)
5.निदेशक, कुवेंपु कन्नड अध्ययन संस्थान, मानसगंगोत्री, मैसूर (सदस्य)
6. प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी (परिशीलक)
संपादक मंडल ने कहानियों का चयन किया। फिर इन सदस्यों तथा अन्य अनुवादकों के यहाँ की कहानियों के हिन्दी अनुवाद तैयार किये। अनूदित कहानियों के परिशीलन के लिए हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी जी को आमंत्रित किया गया था जिनके साथ बैठकर संपादक समिति ने अनूदित कहानियों का भाषा की दृष्टि से परिष्कार किया। और यों तैयार हुई कहानियों को आपके सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मैं अतीव संतोष का अनुभव कर रहा हूँ।
इस संग्रह की कहानियों के अनुवाद में अनुवादकों ने सहयोग दिया है जो कि इस क्षेत्र के अनुभवी हैं। इनके अनुवादों को पढ़ते समय परिशीलन समिति के सदस्यों ने गद्यानुवाद की कई समस्याओं का सामना किया। एक ही व्यक्ति सारे अनुवाद करता तो उसकी शैली एक होती और यहाँ कई अनुवादकों ने चूँकि ये अनुवाद तैयार किये हैं, इसमें कई शैलियों और भाषा-प्रयोगों का आना सहज ही है, तथापि परिशीलन समिति ने इन कहानियों में भाषा की प्रवाहमयता एवं हिन्दी के सहज रूप को लाने का भरसक प्रयत्न किया है।
आधुनिक कन्नड कहानी का श्रीगणेश पिछली शताब्दी के प्रथम दशक में ही हुआ जबकि पंजे मंगेश्वर राव ने ‘सुवासिनी’ पत्रिका में अपनी कहानियाँ प्रकाशित कीं। इनके समकालीन कथाकारों में केरुर वासुदेवाचार्य उल्लेखनीय हैं जिन्होंने सामाजिक, ऐतिहासिक कहानियों के साथ जासूसी कहानियाँ लिखी हैं। मास्ति वेंकटेश अय्यंगार कन्नड कहानी विधा के शिखर पुरुष हैं, प्रवर्तक हैं, कन्नड के प्रेमचन्द हैं जिनकी सैकड़ों कहानियों ने आधुनिक कन्नड कहानी साहित्य को समृद्ध बनाया है। यद्यपि आद्यकथाकार के रूप में पंजे का ही नाम लिया जाता है तथापि इस विधा को एक सुनिश्चित रूप देने का श्रेय मास्ति को ही है। ये आधुनिक कहानी के प्रवर्तक हैं। इनके प्रथम संकलन ‘रंगप्पन कथेगलु’ के प्रकाशन से इस विधा की संभावनाएँ उभर आईं। मास्ति के समृद्ध कथाभंडार में विभिन्न सामाजिक परिदृश्यों, यथार्थों, विसंगतियों एवं कुरूपताओं का चित्रण है और साथ ही भारतीय संस्कृति के उदात्त मूल्यों का प्रतिपादन भी है जो उन्हें परंपरा से पाथेय के रूप में मिले हैं। अतीत का गौरवगान, भारत के महान प्रभुओं का उदात्त चरितगान, भारतीय नारी का त्याग और बलिदान, भक्ति वैराग्य और समर्पण की चरमसीमा को दर्शानेवाली उनकी कहानिय़ों में प्रौढ़ चिन्तन और उदार जीवन दर्शन बिंबित हुआ है। मास्तिजी किसी वाद-विवाद के पक्षधर न रहे, जीवन उनके लिए सबसे प्यारा रहा। मास्तिजी का प्रभाव परिवर्ती कन्नड कहानी साहित्य पर व्यापक रूप से देखा जा सकता है। मास्तिजी ने कन्नड कहानी विधा की जबदस्त नींव डाली जिस पर परिवर्ती कहानी संसार खड़ा है।
मास्तिजी से परिवर्तित कहानी विधा का विकास पिछली शती में समृद्ध रूप से हुआ है। कन्नड कहानी यात्रा के चार पड़ाव हैं- नवोदय धारा, के अन्य प्रमुख हैं मास्ति और इस धारा के अन्य प्रमुख हस्ताक्षर हैं आनंद, कुवेंपु, आनंदकद, गोरूर रामस्वामी अय्यंगार आदि। प्रगतिशील धारा कन्नड की एक सशक्त कथा धारा है इस धारा के पुरोधा हैं अ.न. कृष्णराव जी। प्रगतिशील विचार धारा के समर्थन में प्रतिपादित इनके विचारों ने समकालीन लेखकों को गंभीरता से प्रभावित किया है। इस धारा के अन्य चर्चित कहानीकार हैं त.रा. सुब्बाराव, बसवराज कट्टीमनी, चदुरंग, निरंजन आदि। नव्य कहानी आंदोलन के कन्नड कहानी को नया आयाम दिया। इस कथा धारा के प्रवर्तकों में हैं- बी. सी. रामचन्द्र शर्मा और यू. आर. अनंतमूर्ति, शान्तिनाथ देसाई, यशवंत चित्रलाल, पी. लंकेश. के. सदाशिव, वीरभद्र आदि कहानीकारों ने इस विधा को समृद्ध बनाया है। नव्योत्तर पीढ़ी की कहानीधारा में लिखनेवाले कहानीकारों में जी. एस. सदाशिव, राजशेखर निरमान्वी, राघवेन्द्र, खासनीस, श्रीकृष्ण आलनहल्ली, देवनूर महादेव आदि महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। नव्योत्तर कहानी में विद्रोहात्मक स्वर लेकर जो कथाकार इनमें व्यवस्था के प्रति आक्रमण एवं आक्रोशात्मक प्रवृत्ति है। इस प्रवृति के कथांदोलन को ‘बंड़ाय’ कहते हैं। बरगूर रामचंद्रप्पा, कु. वीरभद्रप्पा, कालेगौड़ नागवार, एस. दिवाकर, बोलुवार मोहमुद कुञी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्नड के दो विशिष्ट एवं चर्चित कहानीकार हैं- के. पी. पूर्णचन्द्र तेजस्वी और बेसगरहल्ली रामण्णा। ये दोनों नव्य कथा आंदोलन के रचनाकारों के समकालीन होते हुए भी नव्य की लीक से हटकर सरल, सहज शैली में अपने समाज की समस्याओं पर कटाक्ष करने में सफल हुए हैं। कन्नड में महिला कथाकारों की लंबी सूची है। बीसवीं शती के आरंभिक चरण से आज तक ये प्रमुख कथा लेखिकाएँ कन्नड कहानी विधा को समृद्ध करने में योगदान देती आ रही हैं- कोडगिन गौरम्मा, त्रिवेणी, राजलक्ष्मी, एन. राव, वीणा शांतेश्वर, एम. के. इंदिरा, अनुपमा निरंजन, गीता कुलकर्णी, सारा अबूबक्कर, प्रेमा भट, वैदेही आदि। वर्तमान कन्नड कहानी का परिदृश्य निराशाजनक नहीं है। गत बीस-पच्चीस वर्षों में कई कहानीकार आए हैं जिन्होंने महत्त्वपूर्ण कहानी लेखन किया है। इनमें जयंत कायकिणि, सिद्धलिंग, पट्टणइट्टी, रामचंद्र देव, मोग्ल्लि गणेश, न. डिसोजा, अमरेश नुगुडोणि, जयप्रकाश माविनकुलि के नाम उल्लेखनीय हैं। कन्नड के सात साहित्यकार भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं। मास्ति और अनंतमूर्ति तो इस विधा के सर्वाधिक चर्चित ही नहीं अपितु इस विधा को गति देनेवाले कहानीकार रहे हैं। अन्य साहित्यकारों का योगदान भी कम महत्त्व का नहीं है।
कन्नड में सचमुच में बड़ी संख्या में कहानीकार आए हैं। हर वर्ग और विचारधारा के कहानीकार कहानियाँ लिख रहे हैं। कन्नड कहानियों के पीछे एक सौ वर्षों का इतिहास है। कालखण्ड में हजारों कहानियाँ लिखी गई हैं। ये कहानियाँ अपने-अपने समय और समाज के साथ संवाद करने में सक्षम रही हैं।
प्रस्तुत कथा संकलन में हमने 24 कन्नड कथाकारों की एक-एक कहानी को चुना है। हमें मालूम है कि इतने ही नहीं, इनसे ज्यादा कथाकारों को यहाँ स्थान मिलता था। मगर इस संकलन की सीमा में मात्र इतनी कहानियों को ही हम ले पाए हैं। और हाँ, हमारा यह दावा भी नहीं है कि हमने इन कथाकारों की सर्वश्रेष्ठ रचना को ही चुना है। इस संदर्भ में हम पूरे विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हमने हर लेखक की उत्तम एवं प्रतिनिधित्व कहानी का चयन किया है जो कि चर्चित और पाठकों से सराही गई हैं। ये कहानियाँ हिन्दी पाठकों को पसन्द आएँगी, ऐसी आशा है।
कन्नड कहानियों के हिन्दी अनुवादों के संकलन बहुत कम प्रकाशित हैं। कन्नड की श्रेष्ठ कहानियों का परिचय देने के हमारे इस उपक्रम के पीछे कन्नड कहानीकारों का हार्दिक सहयोग रहा है। अनुवाद के लिए अनुमति माँगते हुए मैंने कहानीकारों एवं कहानी के स्वामित्व रखने वाले बन्धुओं के नाम पत्र लिखे तो सभी ने सहर्ष अनुमति दे कर इस सारस्वत कार्य में पूरा सहयोग दिया है। अतः इन महानुभावों के प्रति विश्वविद्यालय की ओर से आभार प्रकट करना मेरा परम कर्त्तव्य है।
इस संकलन के विद्वान अनुवादकों के सहयोग का मैं स्मरण करना चाहता हूँ जिनके बिना यह संकलन तैयार न हो पाता। अनुवादकों के परिशीलन के कार्य में हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी ने हाथ बँटाया है। संपादक मंडल के सभी सदस्यों का स्नेह और परिश्रम सदा मेरे साथ रहा। इस संकलन के प्रकाशन के संदर्भ में इनका आभार मान रहा हूँ।
मैसूर विश्वविद्यालय के मानवीय कुलपति आदरणीय प्रो. जे. शशिधर प्रसाद जी, कुलसचिव श्री एन. डी. तिवारी और वित्ताधिकारी श्री एम. महादेव स्वामी जी सदा उत्तर प्रदेश सरकार के एनडोमेंट के इस सारस्वत यज्ञ में हम सभी का उत्साहवर्धन करते आ रहे हैं, ये हमारे लिए प्रेरणा के पुंज हैं। मैं इन सबका हृदय से ऋणी हूँ।
यह हिन्दी संस्करण इलाहाबाद के प्रसिद्ध प्रकाशन लोकभारती से प्रकाशित हो रहा है और इसे संभव बनाया मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो. एस. एन. हेगडे जी ने। उनका मानना था कि हिन्दी प्रकाशन द्वारा यह संकलन प्रकाशित होगा तो कन्नड कहानियों को हिन्दी पाठकों तक पहुँचने में कष्ट नहीं होगा और इन कहानियों का अच्छा प्रचार-प्रसार होगा। इस प्रकाशन-योजना को मंजूर करके उन्होंने हमें उपकृत किया है। अतः इस संदर्भ में प्रो. हेगडे जी का मैं आभार मान रहा हूँ।
और अंत में, लोकभारती प्रकाशन के साहित्यप्रेमी, सरल, सज्जन और स्नेही मित्र श्री दिनेश चन्द्र जी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ जिन्होंने बड़ी श्रद्धा और आस्था से यह पुस्तक प्रकाशित की है।
वेंकटशामी का प्रणय
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मास्ति वेंकटेश अय्यंगार
(1893-1986)
‘कन्नड कहानी के प्रवर्तक’ और ’कन्नड की
संपत्ति’ के रूप में ख्याति प्राप्त मास्ति वेंकटेश अय्यंगार
कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, अनुवादक और आलोचक थे। कर्नाटक के
कोलार जिले मालूर तालूकके मास्ति नामक गाँव में इनका जन्म हुआ। 1914 में
मास्ति ने मद्रास विश्वविद्यालय से एम.ए. परीक्षा पास की। तदुपरांत मैसूर
रियासत की सिविल सर्विस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर असिस्टेंट कमिश्नर बने।
1930 में जिलाधिकारी बने।
मास्ति वेंकटेश अय्यंगार का रचना संसार समृद्ध है। बिन्नह, अरुण तावरे, चेलुवु, गौडरमल्ली, नवरात्री आदि इसके कविता संग्रह हैं। ‘श्रीराम पट्टाभिषेक’ इनका महाकाव्य है। इनकी लिखी सैकड़ों कहानियाँ 10 भागों में प्रकाशित हैं। चेन्नबसव नायक और चिकवीर राजेन्द्र-मास्ति के दो बृहत् उपन्यास हैं। काकनकोटे, ताळीकोटे, यशोधरा आदि नाटक हैं। लियर महाराजा, चंडमारूत, द्वादषरात्री, हैमलेट आदि इनके कन्नड अनुवाद नाटक हैं। मास्तिजी की आत्मकथा ‘भाव’ तीन भागों में प्रकाशित है। मास्ति ‘जीवन’ पत्रिका चलाते थे। 1944 से 1965 तक वे उसके संपादक थे।
मास्ति केन्द्र साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कारों से समाट्टत थे। मैसूर विश्वविद्यालय ने मानद डी. लिट उपाधि से उन्हें सम्मानित किया था। 15 वीं कन्नड साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष पद उन्हें मिला था। ऐसे कई सम्मान राज्य एवं राष्ट्रस्तर पर मास्ति को प्राप्त हुए थे।
इस बार मैं छुट्टियों में रामस्वामी के गाँव गया था। एक शाम मैं और रामस्वामी दोनों एक बाग से लौटकर आ रहे थे जिसका काम उसने अभी-अभी हाथ में लिया था। वापस आते समय हम एक पेड़ के नीचे बैठे। वह एक सुंदर जगह थी। दूर से तालाब का घेरा दिखाई दे रहा था। उसके नीचे से होकर खेतों का खुला मैदान था। उसकी दाईं ओर एक आम का बगीचा। बाईं ओर गाँव के और लोगों की खेती-बाड़ी। तालाब का पानी खेतों से होकर, हम जहाँ बैठे थे, वहीं बगल में एक छोटा नाला बनकर बह रहा था। हमारे सामने खेतों के किनारे एक हरा चौक दिखाई देता था। उस दिन गाँव के सारे पशु पहले ही गाँव लौट चुके थे। आसपास कोई नहीं था। सूरज की किरणें सीधी तरह आँखों पर पड़ते हुए सामनेवाले खेत, बाग-बगीचे सबको अपने-अपने रंग में चमका रही थी मानों हमारे हाथ लग सकें। शहर में पला मेरा मन थोड़ा बहुत समझ सका था कि गाँव के जीवन का आनन्द क्या होता है ? मैंने रामस्वामी से कहा कि यह जगह बड़ी सुन्दर है।
रामस्वामी ने बताया- ‘‘बिलकुल ठीक। यह हमारे गाँव की सबसे सुंदर जगह है। इसलिए मेरे पिता जी ने यहाँ यह पेड़ लगवाया। इसके नीचे बैठने के लिए मैंने यह पत्थर गढ़वाया।’’ मैंने जवाब दिया- ‘‘हाँ आप जैसे सुधी लोगों ने वहाँ बगीचा बनवाया है। यह इस चौक में चारों ओर चार पेड़ लगाकर बीच में एक और पेड़ लगाकर पंचवटी बना दिया है।’’
रामस्वामी ने कहा-‘‘वह भी ठीक है। यहाँ हमारे गाँव के नाई के बेटे वेंकटशामी का कब्र है। वह बीच वाला नीम का पेड़ कब्र की चोटी पर लगाया गया है। मरते समय उसने इच्छा प्रकट की थी कि उसे यहीं गाड दें। यह खेत उसके बाप का है। बेटे की इच्छा के अनुसार बाप ने उसकी लाश को यहीं गड़वाकर इन पेड़ों को लगाया। वह एक प्रेम कहानी है।’’
मैंने कहा- ‘‘प्रेम कहानी ! मुझे क्यों नहीं सुनाते हो ? रामस्वामी ने वह कहानी मुझे सुनाई।
मास्ति वेंकटेश अय्यंगार का रचना संसार समृद्ध है। बिन्नह, अरुण तावरे, चेलुवु, गौडरमल्ली, नवरात्री आदि इसके कविता संग्रह हैं। ‘श्रीराम पट्टाभिषेक’ इनका महाकाव्य है। इनकी लिखी सैकड़ों कहानियाँ 10 भागों में प्रकाशित हैं। चेन्नबसव नायक और चिकवीर राजेन्द्र-मास्ति के दो बृहत् उपन्यास हैं। काकनकोटे, ताळीकोटे, यशोधरा आदि नाटक हैं। लियर महाराजा, चंडमारूत, द्वादषरात्री, हैमलेट आदि इनके कन्नड अनुवाद नाटक हैं। मास्तिजी की आत्मकथा ‘भाव’ तीन भागों में प्रकाशित है। मास्ति ‘जीवन’ पत्रिका चलाते थे। 1944 से 1965 तक वे उसके संपादक थे।
मास्ति केन्द्र साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ के पुरस्कारों से समाट्टत थे। मैसूर विश्वविद्यालय ने मानद डी. लिट उपाधि से उन्हें सम्मानित किया था। 15 वीं कन्नड साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष पद उन्हें मिला था। ऐसे कई सम्मान राज्य एवं राष्ट्रस्तर पर मास्ति को प्राप्त हुए थे।
इस बार मैं छुट्टियों में रामस्वामी के गाँव गया था। एक शाम मैं और रामस्वामी दोनों एक बाग से लौटकर आ रहे थे जिसका काम उसने अभी-अभी हाथ में लिया था। वापस आते समय हम एक पेड़ के नीचे बैठे। वह एक सुंदर जगह थी। दूर से तालाब का घेरा दिखाई दे रहा था। उसके नीचे से होकर खेतों का खुला मैदान था। उसकी दाईं ओर एक आम का बगीचा। बाईं ओर गाँव के और लोगों की खेती-बाड़ी। तालाब का पानी खेतों से होकर, हम जहाँ बैठे थे, वहीं बगल में एक छोटा नाला बनकर बह रहा था। हमारे सामने खेतों के किनारे एक हरा चौक दिखाई देता था। उस दिन गाँव के सारे पशु पहले ही गाँव लौट चुके थे। आसपास कोई नहीं था। सूरज की किरणें सीधी तरह आँखों पर पड़ते हुए सामनेवाले खेत, बाग-बगीचे सबको अपने-अपने रंग में चमका रही थी मानों हमारे हाथ लग सकें। शहर में पला मेरा मन थोड़ा बहुत समझ सका था कि गाँव के जीवन का आनन्द क्या होता है ? मैंने रामस्वामी से कहा कि यह जगह बड़ी सुन्दर है।
रामस्वामी ने बताया- ‘‘बिलकुल ठीक। यह हमारे गाँव की सबसे सुंदर जगह है। इसलिए मेरे पिता जी ने यहाँ यह पेड़ लगवाया। इसके नीचे बैठने के लिए मैंने यह पत्थर गढ़वाया।’’ मैंने जवाब दिया- ‘‘हाँ आप जैसे सुधी लोगों ने वहाँ बगीचा बनवाया है। यह इस चौक में चारों ओर चार पेड़ लगाकर बीच में एक और पेड़ लगाकर पंचवटी बना दिया है।’’
रामस्वामी ने कहा-‘‘वह भी ठीक है। यहाँ हमारे गाँव के नाई के बेटे वेंकटशामी का कब्र है। वह बीच वाला नीम का पेड़ कब्र की चोटी पर लगाया गया है। मरते समय उसने इच्छा प्रकट की थी कि उसे यहीं गाड दें। यह खेत उसके बाप का है। बेटे की इच्छा के अनुसार बाप ने उसकी लाश को यहीं गड़वाकर इन पेड़ों को लगाया। वह एक प्रेम कहानी है।’’
मैंने कहा- ‘‘प्रेम कहानी ! मुझे क्यों नहीं सुनाते हो ? रामस्वामी ने वह कहानी मुझे सुनाई।
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