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धर्मयुद्ध

अर्जुनदेव चारण

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2180
आईएसबीएन :9788126022557

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धर्मयुद्ध साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत राजस्थानी नाटक धरमजुद्ध का हिन्दी अनुवाद है

Dharmyuddh

धर्मयुद्ध साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत राजस्थानी नाटक धरमजुद्ध का हिन्दी अनुवाद है, जिसमें डॉ अर्जुनदेव चारण के दो रंग नाटक धरमजुद्ध तथा जेठवा-ऊजली संकलित हैं। डॉ अर्जुनदेव चारण न केवल एक प्रौढ़ नाट्य लेखक हैं, बल्कि खुद एक सुलझे हुए सुविख्यात रंग-निर्देशक भी हैं। यही कारण है कि उनके ये दोनों नाटक नाट्यभाषा और रंगभाषा के विरल संतुलन को साधे हुए हैं तथा भारतीय भाषाओं के साझे रंगमंच के लिए वरेण्य कोटि के रंगालेखों के रूप में भी देखे जा सकते हैं।

इन दोनों नाटकों के केन्द्र में राजस्थान के अपने विशिष्ट सांस्कृतिक संदर्भों के साथ उभरा एक ऐसा नारी-विमर्श है, जो अपनी व्याप्ति में आज समग्र भारतीय भाषाओं के रचनात्मक लेखन तक आसानी से आवाजाही करने वाला तत्त्व है। इन नाटकों में स्त्री-मुक्ति अथवा स्त्री की निजी व्यक्ति-अस्मिता के प्रश्नों को वाचाल किस्म की बौद्धिक बहस के बरक्स एक गहन नाट्यानुभव और दतनुरूप निपुण कोटि के नाट्य-भाषा के तनाव के रूप में सामने रखा गया है। यही कारण है कि राजस्थानी भाषी प्रेक्षकों के अलावा इतर भाषाओं के रंग-दर्शकों ने भी इस नाट्यानुभव का सहज साक्षात्कार राजस्थान के बाहर हुई इनकी नाट्य-प्रस्तुतियों में किया है।

धर्मयुद्ध


‘रम्मत’, जोधपुर की ओर से अर्जुनदेव चारण के निर्देशन में यह नाटक धर्मयुद्ध 18 नवंबर 1987 को पहली बार जोधपुर में मंचित हुआ।

सेठ - महेश माथुर
माँ - सुमन घोष
पद्मा - निर्मला पुरोहित
नगिया - भवानी सिंह चौहान
कामदार - दीपक भटनागर
पंडित - राजेन्द्र व्यास
धीरां - कुसुम चौहान
मुकुंद - प्रकाश पुरोहित
स्त्री - सुमन घोष
कुत्ता - परमानंद
गायक - कामेश्वर माथुर
आदमी 1 - चंद्रप्रकाश माथुर
आदमी 2 - जितेन्द्र घोष
आदमी 3 - परमानंद
आदमी 4 - महेन्द्र माथुर
समूह - महेश माथुर, राजेन्द्र व्यास, भवानी
सिंह चौहान, प्रकाश पुरोहित,
जितेन्द्र घोष, परमानंद, महेन्द्र
माथुर, कुसुम चौहान, चंद्रप्रकाश
माथुर।
संगीत - रामदेव गौड़

(पहला अंक)


(मंच पर प्रकाश होते ही गायक और समूह दर्शकों के सम्मुख आते हैं, इस समूह में अभिनय करनेवाले सभी अभिनेता शामिल हैं। ये अभिनेता अपना-अपना अभिनय दिखलाकर पुनः समूह में जाकर मिल जाएँगे। यह समूह नाटक के दौरान मंच पर अपना स्थान बदलते हुए अभिनय करेगा।)
गायक : धर्म की जड़ सदैव हरी रहती है।
समूह : समय के बोये बीज उपजते हैं।
समूह : बीज उपजते हैं।
गायक : नहीं तो, धान व्यर्थ जाता है।

समूह : व्यर्थ जाता है।
गायक युद्ध और प्रसव की पीड़ा भोगने वाला ही जानता है।
समूह : भोगनेवाला ही जानता है।
गायक : कलियुग नाम कर्ज से उपजा, इसमें मीन न मेख।
घर घर लाज उलाँघे बैठी, सीता लक्ष्मण रेख।।
(समूह दोहे को दुहराता है। एक स्त्री और पुरुष आते हैं। यह स्त्री माँ है और उसके साथ उसका पति सेठ है)
माँ : बंद करो, बंद करो यह पाखंड।
गायक : तुम्हें क्या दुःख है बेटी ? मैं तो धर्म की कथा सुनाने आया हूँ और तुम इसे पाखंड कहती हो !
माँ : एक प्रश्न है जोशीजी, यदि सीता लक्ष्मण-रेखा को नहीं लाँघती तो क्या रामायण पूरी हो पाती ?
गायक : स्वयं के दुःख का दोष धर्म को क्यों बेटी ?
माँ : रामायण धर्म नहीं है जोशीजी।
गायक : वो हमें धर्म सिखाता है...।

(समूह बिखर कर अलग-अलग आदमियों में बँट जाता है।)
आदमी 1 : ऐ....रामायण को गाली मत निकाल।
आदमी 2 : कौन है यह धर्मभ्रष्ट ?
सेठ : चलो, क्यों जिद्द करती हो।
गायक : इसे बोलने दो। क्रोध को हौसले में बदलना ही तो धर्म सिखाता है।
माँ : मैं आप सबसे पूछना चाहती हूँ कि अहल्या को शाप किसने दिया ?
आदमी 3 : गौतम ऋषी ने।
माँ : क्यों ?

आदमी 4 : यह भी भला कोई पूछने की बात है, उसने अपनी मर्यादा जो तोड़ दी, इसलिए।
माँ : उसमें अहल्या का क्या दोष था ? मैं जानती हूँ कि आप सब के पास इसका कोई जवाब नहीं है। पर उसका उद्धार किसने किया ?
आदमी 1 : भगवान श्रीराम ने।
माँ : उसी भगवान ने बाद में अपनी पत्नी को क्यों छोड़ दिया ? जवाब दो ? गौतम और राम में क्या भेद है ? मैं आप सबसे पूछना चाहती हूँ कि स्त्री की पहचान क्या है ? जब भार्या होने का भ्रम टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर जाए तब पर-पुरुष आकर उद्धार करेगा ? हर बार धरती के फटने का इंतजार करना पड़ेगा ?
आदमी 2 : ए-बूढ़े, ले जा इसे यहाँ से।

माँ : तुम कौन से अजर-अमर रहोगे, तुम्हारे पिता की उम्र के हैं, तहजीब से बोला नहीं जाता।
आदमी 2 : चुप रह, कुलनाशिनी !
माँ : कुल का नाश तो तुमने किया है, माँ जाये के लड्डू खाकर प्रसन्न हुई होगी
आदमी 2 : तेरी तो...
(समूह के दूसरे आदमी, आदमी 2 को पकड़ लेते हैं।)
गायक : शांति, शांति। ऊं शांति, शांति।
भाई से भाई लड़े, करे पड़ौसी रार।
धर्म छोड़ जब चले, बस्ती होत उजाड़।।
धर्म की जड़ सदैव हरी रहती।
समूह : सदैव हरी रहती है।

माँ : धर्म के गीत गाते तो बरसों बीत गए तुम लोगों को, कभी मनुष्यता के गीत भी गाए हैं ? कथा सुननी है तो आज मुझसे सुनो, मेरी कहानी, मेरी बेटी की कहानी ! उसके प्रश्न का उत्तर दो। मैं हर युग में देह धारण करती हूँ, कोई न्याय करेगा, मेरी कोख के साथ जन्मी के साथ ? की पर की धर्म ध्वजा लेकर फेरनेवाला यह समाज, यह युग, कभी भी उसकी पीड़ा की ओर ध्यान नहीं देता।
गायक : तो आज तुम्हारी कथा कहें बेटी।

माँ : आपको क्या मालूम मेरी कहानी ?
गायक : स्त्री का तो जन्म ही एक कथा बनाता है, बेटी ! तुम्हारी कथा उससे अलग थोड़े ही होगी ?
आदमी 3 : गद्दी क्यों छोड़ी जोशीजी ?
गायक : आदमी की बात कहने सुनने के खातिर धरातल पर आना पड़ता है और अब तो मैं भी तुम्हारी ही तरह एक सुननेवाला मात्र हूँ। कहानी तो आज माँ सुनाएगी।
(गायक गाने लगता है और समूह उसे दोहराता है।)

गायक : तुम कथा सुनाओ माते,
हम तेरे ही सुर में गाते
तुम अपने दुःख-सुख कहना
और सीख जगत को देना
चले मरुत यह साँझ-सवेरे
बेटी के भाग सँवारे
यह अगन है उसकी श्वासा,
पूरन हो जिससे आशा।
बेटी का स्वागत गाता,
यह नित-नित सूरज आता।
दुःख विपदा से मत डरना,
निजता की साखी भरना।
यह गगन यह धरती तू ही,
यह जगती सँवारती तू ही।
जग-जननी का ध्यान धरेंगे,
नारी की साख भरेंगे।
आकाश को तू ही धरती ???
जग-जननी का ध्यान धरेंगे
नारी की साख भरेंगे।

(समूह गाते-गाते पीछे खिसक जाता है। प्रकाश माँ के चेहरे पर है।)
माँ : युग बीत गये, एक प्रश्न
उसने किया था...।
(पद्मा का आगमन।)
पद्मा : माँ, स्त्री की पहचान क्या है ?
माँ : क्यों पूछती है ?
पद्मा : मैं दूसरों से अलग कैसे ?
माँ : तुम मेरी पुत्री हो, अपने पिता की एकलौती लाडली

बेटी।
पद्मा : मेरे बजाय तो पिताजी पैसों का ध्यान अधिक रखते हैं....प्रेम के लिए तो मन की जरूरत पड़ती है न !
माँ : ये पैसे वे जोड़ क्यों रहे हैं, उनके पैर तुम्हारे सुख की ख़ातिर ही तो दौड़ रहे हैं, बेटी ! इससे यह अर्थ मत लगा कि हमारे पास मन है ही नहीं।
पद्मा : मैंने तुम्हारी बात थोड़े ही की है माँ।
माँ : मैं उनसे अलग नहीं हूँ। उनसे जुड़ी हुई है मेरी पहचान, और यह जुड़ाव ही मेरा धर्म है।
(सेठ का आगमन।)
सेठ : धर्म की शिक्षा किसे दे रही हो पद्मा की माँ ?
माँ : ये आ गए हैं तुम्हारे पिताजी, जो पूछना हो इनसे पूछ।
सेठ : क्या बेटी ?
माँ : पूछ रही है कि स्त्री की पहचान क्या है ?

सेठ : विवाह होने पर समझ आएगी बेटी।
पद्मा : स्त्री की पहचान विवाह से बनती है ?
माँ : पुरुष के बिना स्त्री को ठिकाना कहाँ।
पद्मा : यदि कोई विवाह न करे तो ?
माँ : हमेशा उल्टे प्रश्न पूछती हो।
पद्मा : जिस स्त्री का पति मर जाए फिर...वह ?
माँ : नर्क मिलता है उसे जीते जी।
पद्मा : यह तो अन्याय है।
माँ : इस बस्ती में न्याय-अन्याय की बातें तू मत कर।
पद्मा : क्यों ?
माँ : यह प्रश्न पूछने का अधिकार स्त्री को नहीं है।
पद्मा : तो उसका क्या अधिकार है ?

सेठ : अधिकार तो समान लोगों का होता है बेटी।
पद्मा : घर को दुकान क्यों समझते हैं लोग, ऐसे स्थान पर तो रहना ही नहीं चाहिए।
सेठ : कहीं भी चली जाओ बेटी, इन प्रश्नों का यही उत्तर मिलेगा।
पद्मा : पर स्त्री की पहचान तो मनुष्य जाति की पहचान होती है। स्त्री बिना समाज...
सेठ : इसीलिए तो कहते हैं कि वह पहचान विवाह से बनती है।
पद्मा : यदि कोई लड़की विवाह न करे तो क्या उसकी कोई पहचान नहीं होती। यह क्यों होता है कि विवाह न करनेवाला आदमी तो यहाँ पूजा जाता है, संत कहलाता है, और विवाह न करने वाली स्त्री, विधवा व कुलटा कहलाती है।
सेठ : इन प्रश्नों का उत्तर तो धर्म के पास है बेटी। एक वही है अजर-अमर।
पद्मा : वह तो आज अजर-अमर है पर उसको धारण करने वाला आदमी ?

सेठ : देह तो नश्वर है बैटी।
पद्मा : शरीर ही तो धर्म का आधार है बेटी।
पद्मा : शरीर धर्म का आधार है या धर्म शरीर का, पिताजी ?
माँ : दोनों एक दूसरे को पुष्ट करते हैं, एक-दूसरे से जुड़ी हुई है उनकी पहचान, उनकी मर्यादा।
पद्मा : धर्म समाज की आवश्यकता है या समाज धर्म की ?

सेठ : बात एक ही है बेटी। धर्मविहीन समाज मरे हुए की ज्यों जीता है और समाजविहीन धर्म पथ भ्रष्ट होकर हुए जीता है। पद्मा की माँ, मेरे लिए खाना ले आओ। इसकी बातों के आल-जाल में फँस गया तो भूखे ही सोना पड़ेगा।
तुम्हारी इन बातों के उत्तर गुरुजी देंगे बेटी, उन्हीं से पूछा कर ऐसे प्रश्न आज वे आए नहीं ?
माँ : आने वाले ही होंगे। अकेले जीव और पूरा गाँव ठहरा। अपना तो धर्म गिने चाहे कर्म जोशीजी ही हैं।
सेठ : सच कह रही हो तुम। मैं तो आश्चर्य करता हूँ कि इतनी बातें, इतना ज्ञान उनमें आया कैसे ?
माँ : और उन्होंने उसे धारण कैसे किया ?
(खाँसने की आवाज़।)

माँ : लो, आ गए, जोशीजी।
(जोशी का आगमन)
जोशीजी : रास्ते में जीभ कटी, तभी जान पाया कि कि कोई मेरी चुगली कर रहा है। क्या कोई गलती हो गई सेठजी।
सेठ- : इसे रामायण-महाभारत पढ़ाते-पढ़ाते घर में महाभारत करवाएँगे क्या जोशीजी ?
जोशीजी : राम-राम-राम मुझे तो युद्ध के नाम से चिढ़ है। मनुष्य का होना मात्र ही प्रेम का सटीक अर्थ है। इसी से मनुष्य का भला होता है।
प्रीत किए फूले-फले,
प्रीत किए सुख होय।
पद्मा : नगर ढिंढोरा पीटती,
कि और न करियो कोय।

जोशीजी : तुम्हारी बातें मनुष्य अगर मान ले बेटी तो अनर्थ हो जाए, धरती अपनी धुरी से खिसक जाए। अंधेर-घोर अंधेरे हो जाए !
पद्मा : प्रकाश कहाँ है, गुरुदेव ?
जोशी : सूरज को हाथ से ढाँपने की कोशिश कर के आदमी अपनी अक़्ल की कलई खोलता है।
पद्मा : पर जो रात को भी उसे देख सकने का भ्रम पाले हुए हैं, ऐसे लोगों को क्या बुलाएँ, गुरुजी !
जोशी : हमें अँधा न कहो बेटी ! रात का होना ही भ्रम है। तभी तो भोर होती है।
पद्मा : अगर इसी बात को उलटकर कह दें तो, गुरुदेव ?
जोशी : तू मुझसे ज्यादा गुणवंती हो गई हो बेटी।

पद्मा : नाराज न हों, गुरुदेव। मैं जब-जब आपसे प्रश्न करती हूँ आप नाराज़ हो जाते हैं।
जोशी : वे प्रश्न जो धर्म के विरुद्ध हों या उन पर दया दिखाकर, मैं अपना जन्म नहीं बिगाड़ना चाहता।
पद्मा : जिज्ञासा तो धर्म का मूल है गुरुदेव।
जोशी : जानने की आकांक्षा में वस्तु को तोड़ डालना जिज्ञासा नहीं कहलाया करता।
पद्मा : पर धर्म कोई वस्तु तो नहीं है। उसे खिलौना तो हमने ही बना डाला है।
सेठ : मुझे लगता है ऐसे प्रश्न आज कोई पहली बार नहीं आए हैं गुरु-शिष्या के बीच में।
जोशी : यह स्त्री की मर्यादा से बाहर निकलना चाहती है।

पद्मा : मर्यादा, धर्म, मनुष्य जीवन, पाप, पुण्य, इन तंतुओं में मनुष्य को क्यों उलझा रहे हो, उसे एक बार आज़ाद कर तो करो, वह अपनी दौड़ दौड़े तो सही।
जोशी : ये जो छुट्टे सांड फिरते हैं तुमने देखे होंगे बेटी—इनकी गति क्या होती होगी ?
पद्मा : मनुष्य और जानवर में जरा भी फ़र्क़ नहीं करते, गुरुदेव ?
सेठ : उतना ही फ़र्क़ है, जितना तुममें और तुम्हारे गुरुदेव में है।
जोशी : अक़्ल के लिए अनुभव की आवश्यकता होती है और अनुभव के लिए उम्र की।
पद्मा : अक़्ल अगर उम्र से ही आती तो सारे कुत्ते गंगा-स्नान कर आते गुरुदेव !
जोशी : इतना गुरूर मत कर, बेटी। (मौन) इन दिनों किसकी सोहबत कर रही हो ?




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