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दूसरी बारी

एम. टी. वासुदेवन नायर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2179
आईएसबीएन :81-260-0645-5

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मलयालम से हिन्दी अनूदित उपन्यास...

doosri bari

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मलयाळम से हिन्दी में अनूदित प्रस्तुत उपन्यास दूसरी बारी (रण्टामुषम) में महाभारत के पात्र भीम के विलक्षण चरित्र से जुड़े कई अछूते प्रसंगों और अनसुलझे प्रश्नों को इसके लेखक श्री एम.टी. वासुदेवन नायर ने नये सन्दर्भो में रखा हैं। भीम की इस अप्रतिम पात्रता को मानवीय वृत्तियों के आलोक में रखते हुए जो विश्वनीयता पैदा हो गयी है, उससे यह कृति निसंदेह विशिष्ट बन गई है। इस आख्यान को भीम की जुबानी प्रस्तुत करते हुए लेखक ने एक अभिनय कथा-शैली की प्रणयन किया है, जिससे प्रत्येक दृष्य बन्ध में उनकी उपस्थिति बनी रहती है। विभिन्न प्रसंगो एवं प्रस्थानों को भीम न केवल अपनी आँखों से बल्कि अपने विवेक से भी शब्दांकित करते जाते हैं और अपने दुर्दम्य स्वभाव के अनुरूप तत्क्षण अपनी प्रतिक्रिया भी अभिव्यक्त कर देते हैं। यही कारण है कि उपन्यास की अन्तर्वस्तु महाबलि भीम की मानसिकता से रची-बसी है। चतुर्दिक् होने वाली घटनाओं, दुरभिसिंधियों, षणयंत्रों और चक्रान्तो को भेदते जाने के साथ ही उनकी पात्रता द्रौपदी के मामले में बहुत ही संवेदनशील हो गयी हैं क्योंकि द्रौपदी पर अग्रज युधिष्ठिर और अनुज अर्जुन के साथ दो भाइयों-नकुल और सहदेव का भी समान अधिकार है। पति के आलावा भीम द्रौपदी के हर संकट का त्राता और उसका सखा भी है-इसलिए उसकी भूमिका बड़ी जटिल और संश्लिष्ट हो गई है। दूसरी ओर भीम की ब्याहता पत्नी हिडिम्बा और पुत्र महाबली घटोत्कच भी उनके भाव-संसार में विद्यमान रहते हैं। घटोत्कच जब महाभारत के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होता है तो पिता भीम का ह्रदय हाहाकार हो उठता है और बचपन से लेकर प्रौढत्व तक की दुर्धर्ष और जंगम यात्रा में भीम सारे महात्वपूर्ण प्रस्थानों पर अविचल चट्टान की तरह खड़े रहते हैं और सारी स्थितियाँ मानो उन्हें छू-छूकर बहती चली जाती हैं।

.सूतो, मागधो, हम कुरुवंश की गाथाएँ आगे भी गाएँ। कुरु और उनके पुत्र प्रतीप का स्तुति-गान प्रस्तुत करें। प्रतीप के पुत्र शान्तनु की भी स्तुति करें। हम विष्णु पाद से जन्मी गंगा मैया, जिसने प्रेम, पाप और जनि-मृति के भी दर्शन किये थे, स्तुति-गीत गाएँ। गंगा में जन्मे शान्तनु पुत्र भीष्म की भी स्तुति करें, जिसने अपने अटल व्रत से देवताओं को भी अचम्भित कर डाला था। मत्स्यगन्धी से जन्मे शान्तनु पुत्र विचित्रवीर्य का जयगान करें। विचित्रवीर्य के क्षेत्रों में कृष्ण द्वैपायन के नियोग से जन्मे धृतराष्ट्र और पाण्डु की स्तुति करें। कृष्ण द्वैपायन व्यास के अनुग्रह से दासी से जन्मे धर्मात्मा की जय गाएँ !
फिर हम युधिष्ठिर की स्तुति करें।

चन्द्रवंश के संवरण को सूर्यपुत्री तपती में जन्मे कुरु की हम स्तुति करें ! साथियो हम आगे भी सूर्य और चन्द्रवंश की महिमा का गान करें।

यात्रा


सागर का रंग काला था। एक महल और महानगर को निगलने पर भी लहरें तीर पर सिर टकराकर गरज रही थीं मानो उनकी भूख शान्त नहीं हुई। चट्टान के ऊपर खड़े हैरानी और अविश्वास के साथ नीचे देखते रहे। दूर पुराने महल के जयमण्डप के ऊपर हो सकता है, कुछ जगह पर पानी निश्चल था, मानो वह काल की लीलास्थली हो जहाँ उत्सव-क्रीड़ाओं के उपरान्त काल विश्राम कर रहा हो। उसके सामने चैत्यस्तम्भ का झुका हुआ शीर्ष आकाश की ओर उभर रहा था। नीचे समस्त किनारों पर जहाँ तक दृष्टि पहुँच सकती है प्राकारों के टूटे-टूटे पत्थरों के टुकड़े बिखरे पड़े थे। लहरों के थपेड़ों से बचकर बिना छिन्न-छिन्न हुए एक रथ रेत में हल घुसेड़कर पड़ा था।

द्वारिका की पुरानी सुख-समृद्धि के भग्नावशिष्ट, जिन्हें प्रलय ने चबाकर फेंक दिया है, किसी यज्ञ की बलिवेदी पर प्राण तजे हजारों पशुओं की लाशों की तरह किनारे की गीली बालू में बिखरे पड़े थे।
युधिष्ठिर ने अशान्त मन को शान्त होने की चेतावनी दी, ‘‘याद रखो, हर आरम्भ का अन्त होता है।’’
महाप्रस्थान के पहले पितामह कृष्ण द्वैपायन ने भी जो कुछ कहा, रे मन, उसे याद रख !
अर्जुन, जिसे दुरन्त का पहले ही साक्षी होना पड़ा समुद्र के समीप गये बिना दूर खड़ा रहा।

द्वारिका भय से काँप रही थी। रक्षक के पहुँचने के आश्वासन से स्त्रियों सहित सब लोग उनको चारों ओर से घेरकर खड़े रहे। कहा जाता है कि काले शरीर पर काला वस्त्र पहने और अपने बड़े सफेद दाँत दिखाकर हँसते हुए एक स्त्री-रूप घूम रहा था। उसका सपना देखकर अन्तःपुर चौंकता था। प्रौढ़ा स्त्रियों ने अपशकुन की सूचना पहले ही दे दी थी। दिन दुपहरी में सियार अन्धेरी गुफ़ा से बाहर निकलकर शिकार की खोज में नगर के मध्य में खड़े फेंकराने लगे। आपत्ति से बचाने आये अर्जुन को देखकर वे आश्वस्त हुए। अपने करवेग और गाण्डीव की शक्ति में विश्वास धरे चारों ओर खड़ी नारियों को यह कहकर सान्त्वना देनी चाही कि सब एक दुःस्वप्न है। परन्तु वह निष्फल हो गया। जबकि दस्यु लोग उसकी आँखों के सामने उन औरतों को लेकर जंगलों में ग़ायब हो गये तब वह पुराना वीर धनुर्धर अपने शक्ति क्षय की याद में मन-ही मन-रोया। कृष्ण के अन्त:पुर की अंगनाओं की लाज ही अपनी आँखों सामने उन झाड़ियों में ठुकराई गयी थी। उनके रुदन की हिलोरों की गूँज अब भी मन में शान्त नहीं हुई। तब दूर पर जनशून्य नगर के आलम्ब और आवरणहीन शरीर पर प्रलय की लहरों के कठोर करों और भूखे वक़्त्रों का आक्रमण शुरू हो चुका था। उस अहंकार की हँसी जिसने यदुवंश के इतिहास को माँज दिया था, तीर पर टकराती लहरों में अर्जुन ने तब भी सुनी।

महायुद्ध के उपरान्त कुरुक्षेत्र की शून्यता में कबन्धों के बीच से, सूखे रक्त की नदियों से होकर चलते वक़्त दुःख का अनुभव नहीं हुआ था। युद्ध क्षत्रियों का धर्म है। विजय के दूसरी तरफ़ मृत्यु भी है। तब कृष्ण यह सोचकर मौन चल रहे थे कि सब कर्म रूपी चौसर के बिसात की गोटी की चाल का भाग है। किसी व्याध के शर से परे कृष्ण अपने अन्त्य के सम्बन्ध में पहले ही जानते थे क्या ? कृष्ण तो थे हथियार और आत्मबल से युक्त। अर्जुन ने एक लम्बी उसाँस छोड़कर याद किया। नरनारायणों में अब नर मात्र रह गया।
महाप्रस्थान के लिए निकलते वक़्त मुड़कर न देखने का निश्चय किया गया था; केवल रास्ते में ही नहीं, पीछे छोड़े जीवन के पथों पर कहीं भी मुड़कर नहीं देखना है। समुद्रों का आरव सुनकर दूर खड़े अर्जुन ने स्वयं अपने मन को सचेत किया ‘मुड़कर मत देखो।’’

द्रौपदी, सुभद्रा, चित्रांगदा, उलूपी आदि अनगिनत अंगनाओं जिनके नाम तक याद न कर पाते, जिन्दगी में कोई न थी। बाल्यकाल में शास्त्रों का अध्ययन किये ब्राह्मण कहा करते थे कि ये सब केवल रेतस के होम को लिए ज्वलित अग्निज्वालाएँ हैं। नहीं तो शरसन्धानी को विजय के मुहूर्त में दिखाने के आभूषण मात्र।
सब कुछ निगलकर ओंठ चाटते इस समुद्र की सतह में विलीन छोटे राज्य और वंश के श्रीवृद्धि करके उस आदमी ने स्नेह की अपार वर्षा की थी। असीम स्नेह की व्यापकता का बोध भी प्रथमतः और अन्ततः उसी ने कराया था।
एकदा, उस गुरु में सम्पूर्ण स्नेह के दर्शन करने चाहे जो सब लोगों के सामने मुझे लक्ष्य करके मेरे लिए अपने पुत्र से भी बढ़कर प्यारा शिष्य कहकर गर्व के साथ खड़े थे। यह तो था कौमार का स्नेह संकल्प। अर्जुन बालक में आत्मवीर्य को उजागर करना उन दिनों में द्रोणाचार्य के लिए आवश्यक था। फिर जो गुरुदक्षिणा माँगी गयी उसका भार बहुत ज़्यादा तो था ही। उस यागाश्व के प्रति जो विकार हैं, वह भी स्नेह है, जिसे चरने के लिए छोड़ते हैं।

एक सारथी के तन्त्र न होते तो मैं लोकप्रसिद्ध विजेता न होता। अपनी अहन्ता से जिस किसी आपत्ति में जा फँसा हूँ। सबमें बिना अपराधी ठहराये रक्षा के लिए पहुँचे मित्र। आत्महत्या तक के लिए तैयार होने का अवसर आया है। उसकी आख़िरी और छोटी-मोटी अपेक्षा तक निभाने में असमर्थ होकर अन्त:पुर की अंगनाओं को किरातों के हाथों में छोड़ा। ऐसी पराजयी विजय की वीरगाथा के अंश लोग न जाने। अर्जुन ने अपने बड़े भाई युधिष्ठिर की कार्यकुशलता को मन-ही-मन धन्यवाद कहा जिसने महाप्रस्थान के द्वारा अपने जीवन का बोझ उतारने का निश्चय किया।

आपदाओं की ख़बर हस्तिनापुर में पहले ही पहुँच चुकी थी। सुनी बातें अन्त:पुर में जाकर दुहराते वक़्त सहदेव ने नहीं सोचा था कि नाश अतिभयानक है। उसने नकुल की ओर देखा, नकुल समुन्दर के एक ख़ास बिंदु पर देख रहा था। सहदेव ने सोचा लम्बे समय ने अब भी नकुल के शरीर पर अपना प्रभाव नहीं डाला है। केवल पल के, अंशमात्र के अन्तर से ज्येष्ट बने नकुल के मुखड़े पर अब भी युवत्व का तेज है। पेड़ की छाल पहने हुए भी तेजस्वी स्वरूप ! यह सोचकर नकुल हमेशा उठते-बैठते और चलते फिरते हैं कि अन्त:पुर की सुन्दरियाँ खिड़कियों की आड़ में खड़ी अपनी ओर दृष्टिपात करती हैं। कमर पर दाहिने हाथ की मुष्टि जमाये सिर ज़रा नीचे की ओर झुकाये खड़े रहने की आदत अब भी वह छोड़ नहीं सकता।

समन्दर के उस सुदूर स्थान की ओर सहदेव ने देखा जहाँ नकुल की आँखें बड़े ध्यानपूर्वक कुछ ढूँढ़ रही हैं। चैत्य स्तम्भ का ऊपरी शीर्ष भाग जो पहले दिखायी पड़ता था अब और भी निम्न हो गया निम्न हो रहा है। अब कितने क्षणों में वह पूर्ण रूप से अदृश्य होगा, चाहूँ तो मैं अनुमान करके बता सकता हूँ। मन का अभ्यास मेरे लिए हमेशा विनोदपूर्ण कार्य था। आगे किसी को अचम्भे में डालकर आह्लाद पाने की ज़रूरत नहीं, सहदेव ने स्मरण किया। महाप्रस्थान का प्रारम्भ हो चुका। अन्ततः जब स्तम्भ पूर्णतया समुन्दर में डूब गया तो भीम ने कौतुक से उन्मुक्त मन्दहास को रोककर युधिष्ठिर की ओर देखा। वे आँखें मूँद और सिर नवाये खड़े थे। ज्येष्ठ के पीछे सिर झुकाये खड़ी रहनेवाली द्रौपदी से कहने के लिए एक बात याद कर रहा था। समुन्दर के किनारे बिखरे खण्डहरों के बीच रेत में धँसे एकरथ और टूटे एक सिंह स्तम्भ के मध्य में अवरुद्ध पनाली में कुम्हलाई फूल-मालाएँ ! उनके बीच सूर्य प्रकाश में किसी एक आभूषण में जड़े पद्मराग रत्न अग्नि नेत्र की तरह चमकते दिखायी दिये।

नहीं, द्रौपदी कुछ नहीं देखती है। अपने पदतल पर आँख टिकाये द्रौपदी द्वारिका का अन्त न देखने की कोशिश कर रही थी। मन को सुदूर देशों में चरने देकर निश्चल खड़े रहने की आदत द्रौपदी में पहले से ही थी, इसका स्मरण भीम ने किया।
भीम को उन थोड़े दिनों की याद आयी जबकि वे अतिथि एवं विद्यार्थी के रूप में द्वारिका में ठहरे थे। मामाजी के यहाँ पहुँचने के उल्लास का अनुभव उन दिनों में नहीं हुआ था। उम्र का अन्तर बलरामजी के बर्ताव में भी था। समय व्यर्थ न करने की चिन्ता में बुलाने के लिए दूत के आने से पहले आभूषणों को उतारकर, बालों को सिर पर बाँधकर, उत्तरीय से कमर कसकर और देह पर सुअर की चरबी पोते तैयार रहता था। हमेशा यह जिज्ञासा बनी रहती थी कि गदा-युद्ध में गुरुजी ने जो रहस्य शिक्षा दुर्योधन को दी थी वह अपने को भी देंगे कि नहीं ? कई बार सवेरे शिक्षा देने के लिए बुलाने पर भी ऐसा लगता था कि वे वह बात भूल ही जाते। साँझ के समय मद्य की खुमारी में वे जो कुछ कहते थे उसे सुनकर चरणों के निकट बड़े ध्यान से बैठे थे। न जाने शुकाचार्यजी का युद्ध सम्बन्धी दाँव-पेंच कब बतायेंगे जो केवल बलरामजी ही जानते थे ? यह सोचकर कई रात बेचैन रहा कि दुर्योधन के प्रति जो विशेष स्नेह है वह अपने ऊपर भी कराने के लिए क्या कहा जाय, क्या किया जाय ?

विदाई के वक़्त यह निराशा बाहर ज़ाहिर न करने की कोशिश की कि आपने नया कुछ नहीं पाया है।
उस दिन कृष्ण बाहर कहीं थे। मामा वसुदेवजी से दो बार ही मिल पाये। पहुँचने के दिन तथा बाईसवें दिन विदाई लेते वक़्त भी।
द्वारिका की ऋद्धि-वृद्धि देखकर जो अचम्भा हुआ उसकी स्मृतिमात्र कुछ काल तक मन में बनी रही।
युधिष्ठिर चलने लगे थे। अगली बारी अपनी है। भीम भी चले। दुःख छिपाये खड़े अर्जुन को पार कर चट्टानों की सीढ़ियाँ उतरकर फिर समुद्र तीर पर पहुँचे। युधिष्ठिर दूर पहुँच गये थे। बाक़ी लोगों ने भी उनकी पीछा किया होगा। मेरे पीछे अर्जुन, उसके पीछे नकुल। आख़िरकार द्रौपदी के आगे नकुल और पीछे सहदेव।
विविध दैनिक क्रमों से विमुक्त रातें; कोसों पार करते वक़्त ऐसा लगा कि वनवास काल में तीर्थयात्रियों के रूप में जिन भूभागों में चला उनमें कुछ निकट हैं। नहीं, पहले आचार्य लोग और यात्रा के आरम्भ में ज्येष्ठ युधिष्ठिर ने जो कहा उसी का अनुसरण करना है। योगेच्छु मन को ऐसा नहीं सोचना चाहिए।

-हमारे आगे अतीत नहीं है।
-स्मृतियों और प्रतीक्षाओं को मिटा देने पर मन अचंचल हो जाता है। स्फटिक के समान स्वच्छ हो जाता है।
इस रास्ते पर कहीं था न सिरा तीर्थ ?
देखने पर भी अनदेखी के रूप में चलना है, ऐसा नियम है।
हिमालय के श्रृंग दूर दिखायी पड़े तो लगा कि युधिष्ठिर की चाल में तीव्रता आ गयी है। पीछे के पैरों की आहट और हाँफने की आवाज़ सुनते हुए धीरे-धीरे भीम चले।
हिमालय का प्रवण तल। वह शतश्रृंग किस दिशा में है जिसने नन्हे बचपन में अपने को लाड़-प्यार किया था। उन ऋषियों का तपोवन क्या वहीं है जिन्होंने हमारा उपनयन किया था। हमारी धात्री, माँ, शतश्रृंग अन्त्य यात्रा करनेवाले भीम को, पाण्डवों को तुम दूर खड़े देखती हो क्या ?

चमकते हिमालय के पश्चिम के उतार में गंगा किनारे के एक वन के सम्बन्ध में भीम ने फिर स्मरण किया-सूखा वन; गत वर्षान्त में गिरी मंजरियों की गन्ध से युक्त मधूक मूल : चट्टानों का टीला जिस पर बकरे-बकरियाँ शिलाजित चाटते हैं; प्रफुल्लित कुटजों की सुगन्ध वाहिनी साँवली सुन्दरियों के नेत्र की चमक, उन्मत्त यौवन के उच्छृंखल लीला-विलास देखकर लज्जित और मौन पड़े रहे छायांचल, अपने निर्वसन पौरुष को अधमुँदी आँखों से निहारकर हँस रहे वे वन कहाँ हैं, जिसके नाम न याद हैं कहाँ हैं वे ?
फिर उतार-चढ़ाव को पार करके दूसरी तरफ़ पहुँचे तो सामने केवल कँटीली झाड़ियों की मरुस्थली थी। यात्रा जारी रखनी है। दूर के मेरु को पार करने पर इस महायात्रा का अन्त होता है। फिर योग-निद्रा में सम्पूर्ण शान्ति होती है। एक हिचकी और संयमित विलाप सुनकर भीम खड़ा रहा। वह आवाज़ किसी भी कोलाहल में वह अलग पहचान सकता है।
आगे बढ़कर जानेवाले युधिष्ठिर के कानों तक पहुँचने की आवाज़ में भीम ने बुलाकर कहा, ‘‘ज्येष्ठ ! ठहरो, द्रौपदी गिर पड़ी है।’’

युधिष्ठिर ने गतिवेग को नियन्त्रित किये बिना तथा मुड़कर देखे बिना कहा, ‘‘आश्चर्य नहीं सहदेव, देवपद पाने की आत्मशक्ति को उसने पहले ही नष्ट किया।’’ भीम अचम्भे में पड़ गये, युधिष्ठिर सर्वथा सुयोग्य पत्नी के सम्बन्ध में ही यह बात कर रहे हैं क्या ! हवा में बह आये युधिष्ठिर के शब्द साफ़ सुनायी पड़े, ‘‘उसने सिर्फ अर्जुन को ही प्यार किया। राजसूय के अवसर पर मेरे निकट बैठे हुए भी उसकी आँखें अर्जुन की ओर थीं। यात्रा जारी रखो, गिरने वालों की प्रतीक्षा किये बिना यात्रा जारी रखो।’’ युधिष्ठिर चल पड़ते हैं। पैरों के चलने की आहट उनके नज़दीक पहुँच गयी। रास्ता रोके महामेरु के श्रृंग पर देखते हुए खड़े रहनेवाले अपने को स्पर्श किये बिना परिक्रमा करके अर्जुन आगे बढ़े तो मैंने कहा, ‘द्रौपदी गिर गयी।’’
अर्जुन ने नहीं सुना। कँटीली झाड़ियों को कँपाते हुए चलनेवाली हवाओं ने अपनी धीमी आवाज़ें न सुनी होगीं क्या ? भीम को सन्देह हुआ। दुबारा कहने के लिए शब्द न निकले। फिर श्रम सीकर से तर तथा तपे स्वर्ण के समान चमकते नकुल का सुन्दर रूप बाईं तरफ़ से आगे बढ़ा तो कुछ बकते हुए सुनाई पड़ा।
‘‘किसी को भी प्रतीक्षा करने के लिए समय नहीं।’’

छोटू, अपने लिए हमेशा छोटू माद्री कुमार सहदेव, धराशायी द्रौपदी को बाँहों में लेकर अपने को पार करने की प्रतीक्षा में भीम खड़े रहे। पीछे द्रौपदी को छोड़ सहदेव अकेले नहीं आयेगा। द्रौपदी सहदेव के लिए पाँचवी बारी की पत्नी ही नहीं थी; बल्कि उसने मातृममता भी उस पर उँड़ेल दी थी।
आख़िर सहदेव बिना दायें-बायें देखे अग्रगामियों का अनुसरण करते हुए ध्यान-निरत कम्पित अधरों से आगे बढ़ा तो भीम महाप्रस्थान के नियम भूले। वे मुड़कर खड़े रहे। समस्त नियमों और शास्त्रों को भूलते एक पल में, अदृश्य शक्तियों के आवाहित मेरु के श्रृंग उनके पीछे पड़ गये।
भीम अपने थके चरणों को घसीटकर फिर उसी रास्ते से लौटकर चले जिससे होकर वे आगे बढ़े थे।
कँटीली झाड़ियों के बीच सूखी जमीन पर शिथिल पड़ी द्रौपदी के पास भीम खड़े रहे। भीगी साँसों से भूमि को चुम्बन किये हुए उसके कन्धों की हड्डियाँ हिलीं। घुटना टेके उसके समीप बैठकर कन्धे पर हाथ रखना चाहा कि हाथ खींचकर भीम ने बुलाया, ‘‘द्रौपदी !’’

विवश पड़ी द्रौपदी हिली, फिर मुश्किल से उठ बैठी, चारों ओर घूमती दृष्टि कुछ भी न देख पाती थी, उसकी आँखें चमकती देख भीम सन्तुष्ट हुए।
भीम को लगा कि उनमें निराशा झलकती है। युधिष्ठिर और अर्जुन रुके नहीं। कोई नहीं रुका। उन्होंने दुहराया-
‘‘मैं यहाँ प्रस्तुत हूँ।’’
दृष्टि दृढ़ हुई, फिर आर्द्र हो गयी।
उसने आगे बढ़े हुओं के पीछे मरुस्थली की शून्यता में दृष्टि दौड़ाई। कोई नहीं। शान्ति के खोजियों की पद-छाप तक हवा ने पोंछ डाली थी। उसने चकित भीम के मुख की ओर देखा जो यह सोच रहा था कि क्या सेवा करे ? मूक प्रश्नों की भरमार ही द्रौपदी के मुखड़े पर भीम ने देखी।
ओठ, हिले, कठिनाई से जो कुछ कहा, वह व्यक्त नहीं हुआ। यह धन्यवाद है, प्रार्थना है या क्षमा-यह जानने के लिए भीम उद्विग्न हो उठे।
अथवा विदा हो गये लोगों के लिए श्राप है ?

फिर भी ओठों के हिलने की भीम ने प्रतीक्षा की। मन में प्रार्थना जागी : बोलो, आख़िर कुछ तो बोलो।
सम्पूर्ण रूप से विवश द्रौपदी का सिर झुका, आगे दूर कहीं स्वर्ग रथों के पहियों के घूमने के शब्द सुनायी पड़ते हैं जो युधिष्ठिर की अगवानी के लिए आ रहे हैं ? दूर, दूर पर कहीं से ?
सुनायी पड़ते हैं तो कहीं पीछे से। पीछे छूट गये राजमहलों से, वन वीथियों, रणभूमि से...
भीम दुःखी होकर उसकी आँखें खुलने की प्रतीक्षा में उसकी ओर ही ताकते रहे।
फिर मुस्कराये।

तूफ़ान की आहट
(एक)


शतश्रृंग से हस्तिनापुर तक की यात्रा मेरे लिए अव्यक्त है। दृश्य देखने की इच्छा से रथ में यात्रा की। परन्तु रथ-यात्रा अधिकतर निद्रा में बीती। रास्ते के विश्राम स्थानों में पहुँचने पर जागते, फिर सो जाते।
राजमहल के दुर्ग-द्वार पर खड़े रहे तो थोड़ी दूर पर सौध दिखायी पड़े थे। फाटक के दोनों ओर सिंह की मूर्तियों के नीचे कमर पर तलवार लटकाये और हाथ में भाला लिए चार दरबान खड़े थे। उनके लाल शिरोवेष्टन के ऊपर भाले की नोक चमक उठी।

फाटक के बाहर ध्वजस्तम्भ के दोनों ओर जो बड़े नगाड़े बाँध रखे थे उनको देखकर मुझे आश्चर्य हुआ। किसी सन्देह के निवारण के लिए मुड़ा तो माताजी के अचम्भे पर मेरा ध्यान गया। सहदेव को बग़ल में लिए और नकुल को घुटनों से लगाये खड़ी माता का मुख देखकर पाँच साल के बच्चे के मन में एकाएक ऐसा लगा कि माताजी सहमी हुई खड़ी हैं। यह स्पष्ट था कि वह संशय निवारण का समय नहीं है।
शतश्रृंग से जो ऋषि आये उनमें अधिक वयस्क एक थे। उन्होंने ब्राह्मणों को साथ लेकर दरबान के पास जाकर बातें कीं। वे अकेले पास आये तो माताजी ने नाराज होकर पूछा, कितनी देर प्रतीक्षा करनी है ?’’
बूढ़े ऋषि ने कहा, ‘‘राजसभा में दूत गये हैं। पाण्डु हस्तिनापुर के राजा थे, तब पाण्डु पत्नी और पुत्रों का यथोचित स्वागत होना चाहिए।’’

ज्येष्ठ युधिष्ठिर माँ के पीछे चिपके रहे। चार वर्षीय अर्जुन ने खड़े रथों के मध्य में दौड़ खेल करने के बीच एक बार मेरे पास आकर पूछा, ‘‘क्या यही हमारा राज्य है ?’’
मैंने जवाब नहीं दिया।
यात्रा शुरू करने के पहले सबको सजाते वक़्त सेविकाओं से माँजी ने कहा था, ‘‘हम राजधानी वापस जा रहे हैं।’’
दूर पर बड़ी राजधानी और सुख-सुविधाओं के होते हुए भी हम वन में खेमे बनाकर रहते थे, मुझे इस पर आश्चर्य होता था। कुरुवंशीय राजाओं का शिकार के प्रति तीव्र आस्था के सम्बन्ध में नौकरानियाँ कहा करती थीं। अश्वमेध करके बड़े ठाठ से राज करने की बजाय माँ और मौसी को लेकर क्यों वन में रहे, इस सम्बन्ध में मैंने स्वयं कई बार प्रश्न किया है। छः साल तक लम्बे शिकार का शौक समझने में मैं असमर्थ था। मृगया के लिए जानेवाले राजा लोग राज्ञियों को साथ नहीं ले जाया करते।

दुर्ग के बार स्वागत की प्रतीक्षा में रहे तो मुझे मालूम था कि हम हस्तिनापुर के राजकुमार हैं। अन्दर ताऊजी और भाई हैं ! मोतीजड़े आभूषणों को लेकर बड़ी माँ गान्धारी के भेजे दूत वन में आये हैं। फिर पितामह की तरह हमारे लिए आदरणीय भीष्माचार्य के सम्बन्ध में भी बहुत-कुछ सुना है। पिता जी और ताऊजी को पाल पोसकर उन्होंने बड़ा किया था। कहा जाता है कि दादा कृष्ण द्वैपायन हमेशा तपोवनों में घूमते-फिरते थे।

मेरे जन्म के समय ही बड़ी माँ का भी बच्चा हुआ था। दासियों को आपस में कानाफूसी करते मैं सुना है कि अगर अन्धे होने के कारण ताऊजी राज पहले ही हमारे पिता को न सौंपे होते तो वही कुमार युवराज बनते। अब हस्तिनापुर के उत्तराधिकारी बड़े भाई युधिष्ठिर हैं। वन में पिताजी की चिता ज्येष्ठ से ही आज से सत्रह दिन पहले जलवाई गयी थी।
माताजी के पीछे आधा छिपे खड़े ज्येष्ठ की ओर मैंने देखा। मुझे लगा कि वे भयभीत हैं। खेलों में कहीं जऱा स्पर्श करने पर हाय-तोबा करनेवाले इस ज्येष्ठ की विरुदावली का गान सूत और मागध अपनी रचनाओं में करते हैं। चौदह राज्यों को अधीन में करके चक्रवर्ती पद पाने का भी उल्लेख गीतों में है।

तब शंख-ध्वनियाँ हुईं। अन्दर से दुन्दुभियों का घोष हुआ। महल के सामने खड़े हमारी खबर पाने पर हो सकता है लोग जहाँ-तहाँ एकत्र होने लगे। अधिकतर स्त्रियाँ हैं। कोई-कोई हमारी ओर उँगली करके पीछे के लोगों को बता देती हैं। भीड़ बढ़ी तो सामनेवाले और भी आगे बढ़कर हमारे पास खड़े रहे। उनकी ओर ध्यान देते हुए हमारी टोली से अलग खड़े अर्जुन को माताजी ने चुपके से डाँटकर पास खड़ा किया।
दरबान दोनों ओर हटे तो राजसेवकों का दल बाहर आया। उनके पीछे जो आये उनके सामने तेज़ चलनेवाले आदमी पर मेरा ध्यान चला गया। ऊपर किरीट की तरह बाँधे बाल। सफ़ेद दाढ़ी। तेज़ पैर बढ़ाते हुए वे जल्दी-जल्दी आगे पहुँचे।
माताजी ने कहा, ‘‘चलो, चलो।’’

सहदेव को बग़ल से उतारकर माताजी ने उसके सामने माथे के ऊपर श्रद्धांजलि करके वन्दना की। फिर चरणों में घुटने टेके।
माताजी के सिर पर हाथ धर उन्होंने कहा, ‘‘कुमार सब आ गये, यह अच्छा हुआ।’’ माताजी ने ज्येष्ठ की ओर देखकर कहा, ‘‘पितामह को नमस्कार करो।’’ बारीबारी से हमने नमस्कार किये। नमस्कार के लिए माँ के आदेश की प्रतीक्षा में खड़े नकुल और सहदेव दोनों को बाँहों में समेट लिया। तब तक चारों ओर स्त्री-पुरुष दर्शकों की भीड़ बढ़ गयी।
माता का आश्वलेष किये खड़ी दादियों की ओर मेरा ध्यान गया। ऋषियों के आदेशानुसार हमने प्रत्येक को प्रणाम किया।
सब कुछ देखते हुए दूर खड़े एक आदमी मन्दहास कर रहे थे। पितामह के संग में आये थे। उत्तरीय नहीं, आभूषण भी नहीं। लगा कि माथे पर गिरे घुँघराले बालों के बीच से झाँकते नेत्रों में भी मुस्कान है। दुबली-पतली, इकहरी और लम्बी काया। ब्राह्मण नहीं। परन्तु क्षत्रिय के आभूषण भी नहीं।

मालूम हुआ कि स्त्रियों के झुण्ड से बाहर निकली माता का ध्यान तभी उन्हीं पर गया। झटपट उनको नमस्कार किया तो मुस्कुराते हुए उन्होंने जो कुछ कहा, वह मैं नहीं सुना।
माँ की आँखें हमें खोज रही थीं।
‘‘चाचाजी को नमस्कार करो।’’
मेरे पीछे से किसी ने युधिष्ठिर को आगे खड़ा किया।
नमस्कार किये हुए युधिष्ठिर को गले लगाकर उन्होंने कहा, ‘‘मन में जो कल्पना की थी उससे बढ़कर तेजस्वी है, कुमार।’’
समस्त उपचारों के उपरान्त मेरे कन्धों पर हाथ रख पुचकारते हुए पास खड़े किसी से उन्होंने कहा, ‘‘दुर्योधन से ज़्यादा बढ़ाव है भीम को।’’




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