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श्रंगार - प्रेम >> पागल दुनिया

पागल दुनिया

सुधांशु शेखर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2167
आईएसबीएन :81-260-1028-2

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प्रस्तुत है मैथिली उपन्यास....

Pagal Duniya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


यह कैसी सामाजिक विडम्बना है कि इन्सान जो पाने की आकांक्षा करता है,वह उसे कभी नहीं मिल पाता। लेकिन जिसकी आकांक्षा बिल्कुल नहीं रहती वह उसे अनायास ही मिल जाता है। सृष्टि की रहस्यमयता और विलक्षणता मनुष्य के आकर्षण का केन्द्र-बिन्दु है। नारी प्रकृति की ऐसी अनुपम देन है, जो पुरुष की छाया से कभी बच नहीं सकती। नारीत्व की पूर्णता उसके मातृत्व में सन्निहित है। सांसारिक वासनाओं की तृप्ति के लिए वह पुरुष का पतित्व स्वीकार करती है, जो प्रेम के संकुचित दायरे को संकुचित बना देता है। प्रश्न है कि अन्ततः पीछे दौड़ता रहा और कोई वासना के सागर में गोता लगाता रहा। वासना के बिना आदमी जीवित नहीं रह सकता।

वे लोग वासना के कीड़े मान होते हैं जो विष से भरे हुए चुम्बन को प्यार की पहली सीढ़ी मान लेते हैं। वस्तुतः प्रेम भावात्मक होता है और वास्तविक प्रेम की अनुभूति इन्सान को तब होती है,जब शरीर और आत्मा का मिलन होता है। जो हृदय, दो मस्तिष्क और दो बुद्धि के बीच स्थापित होनेवाले सामंजस्य को ही प्रेम की संज्ञा दी गई है। सुख और शान्ति का सीधा सम्बन्ध मन और आत्मा से है। चरम आकांक्षा और मन की शान्ति के लिए इन्सान को साधना की आवश्यकता होती है। पागल दुनिया में निरंजन-कामिनी, अखिल-चाँदनी और धनंजय-चाँदनी इन तीन प्रणय (कलह) कथाओं को एक सूत्र में गूँथकर उपन्यासकार ने पात्रों की तीव्रता से एक ऐसी कृति का निर्माण किया है, जो पाठकों को एक नया आस्वाद और अनुभव प्रदान करेगी।

आत्मकथ्य


प्रेम और वासना को पूरी तरह व्याख्यायित करना आसान काम नहीं। पर मेरी यह धृष्टता होगी या दुस्साहस कि मैंने इस औपन्यासिक कृति के लिए इस विषय को आधार बनाया है। अन्नत: वासना है क्या ? प्रेम का अस्तित्व वासना से कितना भिन्न है ? क्या दोनों दो विषय हैं ? क्या वासना का विकसित रूप ही प्रेम है ? प्रेम केवल शरीरी है या अशरीरी ? इससे जुड़े अनेक सवाल मेरे मन में लेखन के समय उठते रहे और उसका जवाब ढूँढ़ने के प्रयास में मैंने इस उपन्यास के स्वरूप को रूपायित किया। मैं कह नहीं सकता कि मेरा चिन्तन कतिपय चरित्रों के द्वारा सही तरीक़े से स्पष्ट हो पाया है या नहीं। वैसे भी मनुष्य की सृष्टि की तुलना विधाता की सृष्टि से कैसे की जा सकती है ? जहाँ तक इस उपन्यास का सवाल है, मैथिली में यह अनूठा है-पारम्परिक उपन्यास से बिलकुल अलग। इसलिए इसमें स्वाभाविक रूप से न तो आंचलिकता की मिट्टी और पानी और न नितान्त सामयिकता के ही दर्शन होंगे। प्रेम और वासना सार्वजनीन और सार्वकालिक विषय हैं, जिन्हें न तो सामयिकता की आवश्यकता है और न अपेक्षा है आंचलिकता की। वैसे भी प्रबुद्ध इन्सान अभाव-अभियोग के समय और भी प्रबुद्ध हो जाते हैं।

ई बतहा संसार का रचना काल है 1957 ईस्वी-आज से बाईस साल पहले जब मैं 36-37 साल का था। इसकी रचना मैंने मैथिलr में पहले की थी। मैथिली में प्रकाशन का अवसर नहीं मिला, तो मैंने इसे हिन्दी में रूपान्तरित किया। राजकमल प्रकाशन, प्रयाग में पाण्डुलिपि को प्रकाशन के लिए कोई साल भर अपने पास रखा। पर इसे तो पहले मैथिली में ही प्रकाशित होना था। इसलिए मैथिली अकादमी की स्थापना हुई और उसी प्रतिष्ठान के द्वारा मेरे पुराने अनुष्ठान की पूर्णाहुति हुई। मैं कृतज्ञ हूँ अकादमी का और उसके सदस्यों का, विशेष कृतज्ञ हूँ अध्यक्ष का, जो मेरे गुरु तुल्य हैं। कृतज्ञ हूँ निदेशक का, जो मेरे अभिन्न हैं, सभी साहित्यकारों का, जो मेरे अपने हैं। मैं कृतज्ञ हूँ पाठकों का, जिनके मन में मेरे लिए केवल प्रेम ही नहीं, बल्कि घृणा भी रही है; क्योंकि सामूहिक चेतना में हर क़िस्म के लोग होते हैं।
यदि ई बतहा संसार मैथिली को कुछ दे पायगा तो उसे मैं अपने जन्म की सार्थकता समझूँगा। वैसे त्रुटियों के संशोधन के लिए मैं हमेशा नतमस्तक हूँ।

सुधांशु ‘शेखर’ चौधरी

आरम्भिक



किसी भाषा के साहित्य में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जितना महत्त्व मौलिक लेखन का है, उससे कम महत्त्व अनुवाद का नहीं है। लेकिन सहज बोधगम्य और सम्प्रेषणीय अनुवाद का मूल लेखन से भी कठिन काम है। भारत जैसे बहुभाषिक एवं बहुसांस्कृतिक देश के लिए अनुवाद की आवश्यकता के साथ इससे जुड़ी समस्याएँ भी कुछ कम नहीं हैं। इसकी जटिलता को समझना अपने आप में बहुत बड़ी समस्या है। स्रोत्रभाषा से लक्ष्यभाषा में अनुवाद का कार्य सुनने में चाहे जितना सरल लगे, पर व्यवहारत: यह असाधारण रूप से चुनौती और ज़ोख़िम भरा काम है।

सामाजिक दायित्व और एकता की अनिवार्य कड़ी के रूप में भाषा की भूमिका से कौन इनकार सकता है ? भारत जैसे बहुभाषी देश में भाषा की यह भूमिका कुछ अधिक भास्वर है; क्योंकि अनेकता के बीच एकता की अनिवार्यता को भाषा के स्तर पर स्थापित करने का संकल्प अनुवाद के सहयोग से ही पूरा हो सकता है। भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से हमारा देश और परिवेश बहुस्तरीय है। एक साथ कई धर्मों, कई सम्प्रदायों, कई जातियों, कई भाषाओं और कई आचार-विचारों तथा व्यवहारों के समन्वय से भारत की सांस्कृतिक एवं भावात्मक छवि बनी है। इतनी सारी विचारधाराओं, परम्पराओं और ज्ञान-सम्पदाओं के उपकरणों को मिलाकर भारत की समग्र तस्वीर बनती है। इन सबके सम्यक् परिज्ञान के बिना भारतवर्ष के इतिहास और भूगोल की सही जानकारी नहीं मिल सकती है और न भारत की एकता की पहचान हो सकती है। इस कार्य में अनुवाद की उपादेयता सार्वाधिक उल्लेखनीय है।

मैथिली एक प्राचीन तथा समृद्ध भाषा है। पूर्वांचलीय भारतीय आर्य भाषाओं-असमिया, ओड़िया और बाङ्ला की तरह इसमें पूर्वी इलाक़े की तमाम विशेषताओं के साथ कुछ अपनी विशेषताएँ भी सम्मिलित हैं। मैथिली से हिन्दी अनुवाद की यही प्रासंगिकता हैं। दोनों ही भाषाएँ अनिवार्य तौर पर संस्कृत से सीधा संबंध रखती हैं। सत्तर प्रतिशत के आसपास संस्कृत के शब्द मैथिली में हैं। पालि, प्राकृत और अपभ्रंश से होकर मूल संस्कृत के शब्द जब हिन्दी में आते हैं, तो वे मैथिली में यथावत् प्रयुक्त होते हैं। उर्दू को छोड़कर दोनों का वर्ण-क्रम एक जैसा है, जैसे अन्य सभी भारतीय भाषाओं में है- अ, आ से लेकर क्ष, त्र, ज्ञ तक और लिपि भी हिन्दी की भाँति अब मैथिली की भी देवनागरी है।

मैथिली विभक्तिपरक संश्लिष्ट भाषा है और हिन्दी परसर्ग प्रधान वियोगात्मक भाषा है। अत: गति, लय आदि को बनाए रखने में थोड़ी-सी कठिनाई होती है। मैथिली में कभी-कभी एक ही विभक्ति कई रूपों में प्रयुक्त होता है। साहित्यिक एवं मानक हिन्दी की अपेक्षा हिन्दी की बोलियों में मैथिली के साहित्य का अनुवाद और सहज है। साहित्यिक हिन्दी में अनुवाद के द्वारा भाव-बोध आदि की परिपूर्णता एवं निकटता की रक्षा के लिए हिन्दी की बोलियों के कुछ शब्दों का व्यवहार किया गया है। किसी एक संस्कृतिक तथा परम्परा का प्रतिनिधित्व करनेवाली भाषा में अनुवाद करते समय, व्याकरण, समानार्थक शब्द, वाक्य-संरचना आदि से संबद्ध अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है। मैथिली विभक्तियों और कारक चिह्नों की जटिलता के कारण अनुवादक को हिन्दी की विभक्तियों के अनुकूलन एवं अनुरूपन में अनुवादक को हिन्दी की शब्द-सामर्थ्य की गहन जानकारी होनी चाहिए। मैथिली से हिन्दी अनुवाद करते हुए अनुवादक को अनेक प्रस्थानों एवं समस्याओं से गुज़रना पड़ता है। अनुवादक को स्रोत्र एवं लक्ष्य-दोनों भाषाओं के व्याकरण का गहन ज्ञान होना अपेक्षित है। कभी-कभी ऐसी स्थिति आ जाती है कि मैथिली के स्थानिक एवं देशज शब्दों (अगती, ठकमुर्गी, अनठिया, कठजीव, चकभाउर, कठकोकाँडि, अगत्ती, मोइन, अनसोंहात्त) जिनका समानार्थी शब्द या पर्याय हिन्दी में उपलब्ध नहीं होने के कारण इन्हें यथावत् रखना अनुवादक की विवशता हो जाती है, जिससे स्रोत्रभाषा और लक्ष्यभाषा में तालमेल एवं पदान्विति बैठाने में कठिनाई होती है। ऐसी स्थिति में, अनुवादक की भाषा विशेष में दक्षता एवं मर्मज्ञता ही काम आती है।

बाङ्ला, असमिया और मैथिली में लिंगवाचक क्रिया-पदों का अभाव है, जैसे बाङ्ला में ‘राम जाच्छे’ और ‘सीता जाच्छे’ मैथिली में ‘राम जाइत छथि’ और ‘सीता जाइथ छथि’ परन्तु खड़ी बोली में क्रिया-पदों में लिंग का प्रयोग होता है जिसके फलस्वरूप अनुवाद करते समय वाक्य-संरचना पर ध्यान देना पड़ता है कि मूल लेखक का आशय या अभिप्राय क्या है ? अनुवादक को उसके अनुरूप ही अनुवाद करना पड़ता है। यदि उसे मूल भाषा और स्रोत्र भाषा की सही और सटीक जानकारी नहीं रहेगी, तो अनुवाद में प्रमाद रह जायगा।
मैथिली की विभक्तियों से उसके शब्दों का लिंग-निर्णय करना अनुवादक की हिन्दी भाषा में मर्मज्ञता पर निर्भर करता है। अनुवाद एक ऐसी कली है कि अनुवादक को दोनों भाषाओं के शब्दों के आशय को अविकल और यथासम्भव अविकृत रखना पड़ता है, साथ ही पूरे वाक्य के भावों को यथास्थिति में प्रस्तुत करना पड़ता है, ऐसा नहीं करने पर अनूदित कृति पर कुठाराघात ही होगा। मैथिली में लिंग की जानकारी का अनुमान विभक्तियों से नहीं किया जा सकता है।

पूर्वांचलीय भाषाओं में कर्त्ता कारक का कोई चिह्न नहीं प्रयोग होता है। मैथिली भाषा भी इसका अपवाद नहीं है। लेकिन मैथिली से हिन्दी में अनुवाद करते समय कर्त्ता कारक के ‘ने’ चिह्नों के प्रयोग में अनुवादक को कठिनाई होती है कि इस चिह्न का प्रयोग कहाँ किया जाएँ ? यह वाक्य-संरचना पर निर्भर करता है।
सर्वनाम के प्रयोग में भी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, क्योंकि मैथिली व्याकरण में इसके तीन रूप प्रयुक्त होते हैं- ‘अपने’, ‘अहाँ’ और ‘तों’ या ‘तोरा’ लेकिन हिन्दी में केवल दो ही रूप प्रयुक्त होते है- ‘आप’ और ‘तुम’। इसलिए मैथिली के वाक्यों को हिन्दी में रूपान्तरित करते समय मैथिली के उपर्युक्त तीनों रूपों को हिन्दी में समाहित करते समय सतर्क रहना पड़ता है।

लोकोक्तियों और मुहावरों को स्रोत्रभाषा से लक्ष्यभाषा में अनुवाद करते समय मेरा प्रयास रहा है कि मूल अर्थ एवं आशय का दोनों भाषाओं में सन्धान एवं प्रक्षेपण, जिससे लोकोक्तियों और मुहावरों के मूल एवं निहित संकेत सुरक्षित रहें।
मैथिली के पारम्परिक उपन्यासों से बिलकुल अलग विषय को पहली बार स्वीकार कर मैथिली के औपन्यासिक क्षितिज को नव्यतम व्याप्ति प्रदान करने की दृष्टि से ई बतहा संसार (1979) का अन्यतम स्थान है। इस औपन्यासिक कृति में उपन्यासकार सुधांशु ‘शेखर’ चौधरी (1920-1990) ने प्रेम और वासना के दो विरोधी भावों की पृष्ठभूमि में इसके कथानक को विन्यस्त किया है। कथानक की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर मैंने इसे ‘पागल दुनिया’ शीर्षक दिया है। ‘पागल दुनिया’ में निरंजन-कामिनी, अखिल-चाँदनी और धनंजय-चाँदनी- इन तीन प्रणय कथाओं को एक सूत्र में गूँथकर उपन्यासकार ने प्रेम और वासना को व्याख्यायित करने का प्रयास अत्यन्त कुशलता से किया है।

इसमें वर्णित पात्रों का सूक्ष्म विश्लेषण, घटनाओं की जीवन्तता एवं चित्रमयता, स्थल-स्थल पर पात्रों की मानसिक उथल-पुथल का विश्लेषण, विचारों की परिपक्वता, संवादों की प्रवाहमयता और भिन्न-भिन्न कथाओं के सन्तुलित संयोजन ‘पागल दुनिया’ को मैथिली के श्रेष्ठतम उपन्यासों की पंक्ति में खड़ा कर देते हैं। सामाजिक यथार्थ के सूक्ष्म विश्लेषण में उपन्यासकार को सफलता मिली है। वस्तुत: प्रेम और वासना के वशीभूत होकर मनुष्य पागल हो जाता है। मनुष्य वासना-कीट है, जो विषाक्त चुम्बन को भी सम्भावत: प्यार की पहली सीढ़ी मानता है, पर इसके विपरीत प्रेम भावनात्मक होता है और वास्तविक प्रेम की अनुभूति मनुष्य को तब होती है, जब वह अपनी काया और आत्मा का सम्यक् मिलन करा देता है। दो हृदय, दो मस्तिष्क और दो बुद्धि के बीच स्थापित होनेवाले सामंजस्य को ही अनन्य प्रेम की संज्ञा दी गई है। सुख और शान्ति का सीधा संबंध मन और आत्मा से है। चरम आकांक्षा और मन की शान्ति के लिए मनुष्य को इसकी साधना की आवश्यकता होती है।
मैं आभारी हूँ साहित्य अकादेमी के हिन्दी परामर्श मण्डल के प्रति, जिसने मैथिली की इस पुरस्कृत कृति को हिन्दी में प्रस्तुत करने का मुझे अवसर दिया।

प्रेम शंकर सिंह


एक


-मारो ! मारो ! इस पगले को !!
एक ही साथ कई लड़के दौड़ पड़े और ईंट-पत्थरों की बरसात शुरू हो गई। लेकिन पगला उन्मत्त होकर मस्ती के साथ चलता रहा, जैसे उसकी पथरीली देह पर फूलों की बरसात हो रही हो। लेकिन दस क़दम चलकर ज्यों ही उसने लौटना चाहा कि शरारती लड़के दुम दबाकर भागे। कौन किधर गया, पगले ने किसी को नहीं देखा। केवल उसकी आँखें एक युवती पर जाकर टिक गयी। एक विचित्र खौफ़नाक तरीक़े से ठहाका मार उसने युवती को सम्बोधित किया, ‘‘तुम ! तुमने मुझे पत्थर मारा ?’’

युवती डर के मारे इधर-उधर देखने लगी। घबराहट ने उसकी आवाज़ छीन ली। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सी बुदबुदाती खड़ी होकर उसकी ओर देखने लगी-जैसे किसी बाघ के पंजे के नीचे चली आई हो।
पागल झटककर उसके नज़दीक चला आया और आँखों में आँखें डालकर पूँछने लग गया, ‘‘तुमने मुझे पत्थर मारा ?’’
युवती ने बड़ी कोशिशों के बाद ‘ना’ में सिर हिला दिया।
‘‘तो,’’ पागल ने युवती का बायाँ हाथ थामकर कहा, ‘‘तो बोलो-तुम, तुम इस तरह क्यों देख रही हो ?’’ फिर अचानक हाथ छोड़कर कहने लग गया, ‘‘ओह ! समझ गया, तुम मुझसे प्यार करती हो।’’
युवती आँखें फाड़कर सुनती रही।

‘‘तुम मुझे प्यार करती हो ?’’ ग़ुस्से में आकर उसने युवती के दोनों कन्धे पकड़ लिये और उन्हें झकझोरकर पूछने लगा, ‘‘बोलो, तुम मुझे प्यार करती हो ?’’
‘‘नहीं।’’ युवती किसी तरह बोल सकी, ‘‘मैं नहीं जानती हूँ तुम्हें।’’
‘‘तुम मुझे नहीं जानती हो ?’’ पागल ठहाका मारकर कहने लगा, ‘‘लेकिन मैं तुम्हें जानता हूँ। बोलो, तुम औरत हो या नहीं ? औरत को ईश्वर ने प्यार करने के लिए ही बनाया है। मैं हर औरत को प्यार करता हूं। बोलो, तुम औरत हो या नहीं ?’’
युवती कुछ भी जवाब न दे सकी।
‘‘तुम औरत नहीं हो ?’’ पागल चिल्लाकर कहने लगा, ‘‘जवाब दो। तुम औरत हो या नहीं ?’’
युवती ने बेबसी से कहा, ‘‘हाँ।’’

पागल ने युवती के कन्धों पर से हाथ हटा लिया। एक उच्छ्वास-सा अनायास उसके मुँह से निकल गया। वह बोला, ‘‘मैं सारी प्रकृति से प्यार करता हूँ। प्रकृति ने हमें रचा है, इसलिए मैं उसकी हर सृष्टि को प्यार करता हूँ। चाँद, सूरज, तारे, पर्वत, हवा, दुनिया, की सारी चीज़ों को, मैं सबको प्यार करता हूँ। मैं सारी दुनिया से प्यार करता हूँ। लेकिन मुझे ? मैं दुनिया के सामने हाथ फैलाता हूँ, तो बदले में पत्थर मिलते हैं। आख़िर पत्थर को दुनियावालों ने क्या समझा है। सीने के अन्दर में जो पत्थर होता है, उससे अगर कोई मारता है, तो मुझे चोट लगती है, पर बाहरी पत्थर को मैं कोई भी अहमियत नहीं देता।’’

‘‘मुझे जाने दो।’’ युवती डरी हुई भयभीत स्वर में बोली। उसके स्वर में कम्पन था। उसने कहा, ‘‘देर हो रही है।’’
‘‘जाओगी ?’’ पागल ने कहा, ‘‘जाओ, मगर जाने से पहले यह तो बता दो, तुम किसी और इन्सान से प्यार करती हो।’’
‘‘हाँ’’ थोड़ी-सी उल्लसित होकर टालने के ख़याल से युवती ने कहा, ‘‘अपने पति को।’’
‘‘तुमने ‘हाँ’ कहा ?’’ पागल जैसे उछल पड़ा, ‘‘तुम अपने पति को प्यार करती हो। इसका मतलब हुआ कि किसी मर्द से प्यार करती हो और किसी मर्द से प्यार करती हो, तो मुझे भी करती हो।’’
उसने अकस्मात् युवती को अपनी बाँहों में कस लिया और उसके होठों को चूम लिया।
इस आकस्मिक घटना से युवती शर्म से पानी-पानी हो गई। बीच बाज़ार में ऐसी हरकत देखकर लोगबाग पागल को मारने के लिए दौड़े।
मगर वह अपना प्यार लुटाकर पलक झपकते आँखों से ओझल हो गया।

दो


फुटपाथ पर चलते-चलते धनंजय किसी बैठे हुए आदमी से ठोकर खाकर लु़ढ़क गया। उसे ऐसी चोट लगी कि वह धूल से सने कपड़ों को झाड़ना भी भूल गया और उस आदमी पर उबल पड़ा। कड़कते हुए स्वर में उसने कहा, ‘‘अन्धा कहीं का !’’
‘‘मैं...और अन्धा ?’’ इतमीनान के साथ बैठे-बैठे उस आदमी ने कहा, ‘‘चार आँखें तुम्हारे पास हैं-दो अपनी और उधार ली हुई, फिर भी मुझे ही अन्धा बताते हो ? अजीब बातें होती हैं तुम्हारी। अरे ! बोलना सीखो, फिर घर से निकला करो।’’
‘‘मैं अन्धा हूँ ?’’ ग़ुस्से से आग-बबूला होकर धनंजय ने कहा, ‘‘बदतमीज़ कहीं का ! एक ही तमाचे में सारी हेकड़ी निकल जाएगी।’’

वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। बोला, ‘‘बन्दरघुड़की किसी और को देना। मैं तुम्हारे रोब में आनेवाला नहीं हूँ।’’
धनंजय ताव में आ गया। पाँव से निकालकर उसने ताबड़तोड़ दस-बारह जूते उस आदमी की पीठ पर जमा दिए।
‘‘बस,’’ चोट से हाँफते हुए, किन्तु मुस्कुराकर उस आदमी ने कहा, ‘‘इतने में थक गये ? बड़े सुकुमार हो। ज़रा और ज़ोर लगाओ। इस शरीर का पत्थर भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता है। फिर यह तो चमड़ा है और जिसे तुम पिटाई समझ रहे हो वह पिटाई नहीं है, एक तरह का मिलन-ज़िन्दा और मुर्दे चमड़े का मिलन।’’
उस आदमी ने हाथ-सवा हाथ ही लोहे की छड़, जो उसके हाथ में थी, धनंजय की तरफ़ बढ़ा दी। कहने लगा, ‘‘हो जाने दो आज।’’

विवेकशून्य धनंजय ने तपाक से उसके हाथ से लोहे की छड़ छीन ली और दनादन उसके शरीर पर प्रहार करने लग गया।
‘‘मारो, मारते चले जाओ।’’ चोट सहता हुआ भी वह आदमी बोला, ‘‘तब तक लगाते रहो, जब तक तुम्हारा गुस्सा ठण्डा न हो जाए। तुम्हें मारने में सुख मिलता है, मुझे सहते रहने में।’’
एक छड़ उसके सिर पर जा लगी और खून का फ़व्वारा फूट पड़ा।

धर-पकड़ में हल्ला होने से उस जगह कई लोग जमा हो गये थे। कोई धनंजय की क्रूरता की निन्दा कर रहा था, कोई उस आदमी की दृढ़ता पर विसमित था, लेकिन किसी को दोनों का झगड़ा छुड़ाने की बात शायद नहीं सूझ रही थी। तभी तो बेचारा अकारण ही पिट गया और लोग चुपचाप तमाशबीन बने रहे। जब खून से उस आदमी का एक-एक अंग रंग गया, तो धनंजय को होश आया। अनायास उसके हाथ से छड़ ज़मीन पर गिर पड़ी।
‘‘देखो,’’ उस आदमी ने निश्चिन्त होकर कहा, ‘‘मेरे साथ होली ही खेलनी थी, तो पहले बताते। बहाना बनाने की तो ज़रूरत तब होती है, जब मैं इसके लिए तैयार नहीं होता। मैं तो वैसे ही तैयार मिल जाता।’’

धनंजय ने कोई भी जवाब नहीं दिया। वह अपने क़ीमती कपड़ों पर पड़े हुए खून के छींटों को तीखी नज़रो से देख रहा था।
भीड़ के बीच से सम्भ्रान्त परिवार की एक लड़की, जिसकी अवस्था सत्रह-अठारह साल से अधिक की नहीं होगी, निकल आयी और धनंजय के पास जाकर खड़ी हो गयी। उस पर नज़र पड़ते ही अचानक धनंजय के मुँह से निकल पड़ा, ‘‘चाँदनी।’’
‘‘हाँ, मैं !’’ स्वरों में ताना मारते हुए चाँदनी ने कहा, ‘‘मैं काफ़ी देर से तुम्हारी वीरता देख रही थी। तुम्हारी बहादुरी की प्रशंसा अख़बार में छपने लायक़ है। यदि कहो तो आज ही एक लेख भेज दूँ।’’

‘‘चांदनी, यह तो सी नम्बर का बदमाश है।’’ धनंजय ने कहा, ‘‘ऐसे बदमाश आदमी को सज़ा मिलनी ही चाहिए।’’
‘‘तो तुमने मुझे सज़ा दी है ?’’ वह आदमी जल्दी से बोल उठा, ‘‘ग़लत-सरासर ग़लत। तुमने मुझे सज़ा नहीं दी, मुझे प्यार किया है। दुनियावाले मुझसे ऐसा ही प्यार करते हैं। देखा नहीं, खून का दरिया बह गया, पर मेरी आँखों में आँसू की एक बूँद नहीं निकली। आँसू तो निराश प्रेमी की आँखों से गिरते हैं। मैं कोई निराश प्रेमी नहीं।’’

चाँदनी काफ़ी देर से उस आदमी की बातें सुन रही थी, पर उसकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि वह पागल है या और कुछ। उसने अब तक के जीवन में बहुत-से पागलों को देखा है, मगर इस तरह का पागल उसकी नज़र से कभी नहीं गुज़रा। कभी-कभी उसके मुँह से ऐसा कुछ निकल पड़ता था, जिसे अकाट्य सत्य कहा जा सकता है। वह न केवल काफ़ी गंभीर रहता था, बल्कि विचारों में खोया भी रहता था। चाँदनी उसे पागल की संज्ञा दे या और कुछ कहकर पुकारे-यह सोच रही थी कि वह आदमी बोला, ‘‘दो प्रेमियों के बीच तीसरे को दख़ल नहीं देनी चाहिए।’’
अपने मन की जिज्ञासा को दूर करने के उद्देश्य से चाँदनी ने उस आदमी से सवाल किया, ‘‘इस क़दर पिट जाने के बाद भी तुम्हारे मुँह से एक भी बार आह-ओह तक न निकली। आख़िर कौन हो तुम ?’’
‘‘मैं ?’’ उसने जवाब दिया, ‘‘आदमी।’’

‘‘वह तो मैं भी देख रही हूँ...।’’
चाँदनी आगे कुछ बोलने ही वाली थी कि उसने कहा, ‘‘तुम देख रही हो ? मैं सचमुच आदमी हूँ ? लेकिन...’’ धनंजय की ओर इशारा करके वह बोला, ‘‘इस साहब को मैं आदमी तो क्या, जानवर से भी गया-गुज़रा समझता हूँ। इनका रूप-रंग ही बता रहा है कि सातवें आसमान पर रहते हैं। आसमान पर रहनेवालों को धरती पर पड़ी कोई अदना-सी चीज़ कैसे दिखलाई दे भला ?’’
‘‘अच्छा !’’ चाँदनी ने अनायास ही पूछ लिया, ‘‘और मेरी चाल-ढाल से तुम क्या समझते हो ?’’
‘‘रहती तो तुम भी वहीं हो,’’ वह बोला, ‘‘मगर तुम्हारी आँखें काफ़ी बड़ी-बड़ी हैं, इसलिए दूरबीन का काम करती हैं। तुम सभी कुछ देख सकती हो।’’

न जाने क्यों, चाँदनी को उस आदमी की बातें बड़ी अच्छी लग रही थीं, लेकिन सरे बाज़ार देर तक भीड़ में उलझे रहना बहुत ही अखर रहा था उसे। अकेले में उससे कुछ पूछने की लालसा से सराबोर होकर उसने उससे कहा, ‘‘मेरे साथ आओ !’’
‘‘तुम्हारे साथ ? क्यों ?’’ थोड़ी देर रुककर उस आदमी ने चाँदनी से पूँछा, ‘‘तुम मुझे प्यार करती हो ?’’
चाँदनी पसोपेश में पड़ गयी। इतने लोगों के बीच में वह ‘हाँ’ कैसे कहे। किन्तु ‘न’ कहने से तो वह उसके साथ जाएगा नहीं। फिर वह क्या जवाब दे।
चाँदनी बेतरह उलझ गयी। विधाता ने उसके हृदय को कुछ ऐसी धातुओं द्वारा बनाया था, जिसे साहित्यिक भाषा में ‘सहृदय’ कहा जाता है। सहृदय आदमी कभी-कभी सहानुभूति के आवेग में अथवा करुणा की अजस्र धारा में पड़कर ऐसा भी काम कर बैठता है, जो आगे चलकर आफ़तों को न्योता देती है। यह भलमनसाहत ऐसी बीमारी है, जिससे छुटकारा पाना आक्रान्त रोगियों के लिए आसान नहीं होता। वह तो केवल दूसरों की दुनिया बसाना जानते हैं-भलें ही उन्हें अपनी दुनिया से हाथ क्यों न धोना पड़े।

‘‘तुम मुझसे प्यार करती हो ?’’ चाँदनी को चुप देखकर उस आदमी ने पूछा, ‘‘तुम्हें मुझसे प्यार नहीं, फिर किस अधिकार से मुझे अपने साथ ले जाना चाहती हो ?’’
‘‘हाँ, तुम्हें चाहती हूँ, तुम्हें प्यार करती हूँ।’’ चाँदनी के अन्तहृदय ने बोलने के लिए विवश कर दिया, ‘‘तुम जैसे हर आदमी को मैं मन से प्यार करती हूँ।’’

धनंजय अब तक खड़ा ही था, चाँदनी के हृदय का ममत्व, जो एक अजनबी को देखकर सहसा जग पड़ा था, उसे अच्छा नहीं लगा। वह भीतर-ही-भीतर जल उठा। वह नहीं चाहता था कि जिस चाँदनी पर आशा लगाये वह पिछले कई सालों से अपने जीवन को खपा रहा है, वह किसी और के प्रति घड़ी भर के लिए भी आकृष्ट हो, किन्तु चाँदनी के स्वभाव से वह बिलकुल अपरिचित रहा हो- ऐसा भी नहीं था। वह भली-भाँति जानता था कि चाँदनी किसी भी आदमी को असहायावस्था में पड़े हुए देखने की आदी नहीं है अभी जो बेचारा केवल अपनी सनक के चलते पिट चुका है, उसके लिए चाँदनी के हृदय में करुणा का ज्वार उमड़ आना अस्वाभाविक नहीं। यही सोचकर ईर्ष्या की चक्की में पिसते रहने पर भी, उसने ज़वाब खोलने की ज़रूरत नहीं समझी। वह चुपचाप उन दोनों की बातचीत सुनता रहा।
‘‘तुम मुझे प्यार करती हो, तो तुम्हारे साथ ज़रूर चलूँगा।’’ उस आदमी ने कहा, ‘‘लेकिन अपने प्रेमी को भी साथ लेता जाऊँगा।’’ धनंजय को लक्ष्य करके वह बोला, ‘‘क्यों जी, आसमान पर रहनेवाले, चलोगे हमारे साथ ?’’
उस आदमी द्वारा धनंजय के लिए यह सम्बोधन सुनकर वहाँ एकत्र लोग ठहाका मारकर हँस पड़े। धनंजय लज्जा से नतमस्तक हो गया।

तीन


भीड़ से निकलकर उस आदमी को साथ लेकर चाँदनी अपनी कार के नज़दीक चली आयी। कार का दरवाज़ा खोलकर उसने कहा, ‘‘चलो, बैठ जाओ !’’































































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