कहानी संग्रह >> पखेरू पखेरूरामलाल
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प्रस्तुत है उर्दू कहानी संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
(स्वर्गीय) रामलाल (1923-1996) ने अपनी तमाम कहानियों को अपनी जमीन और
अपने विशिष्ट अनुभवों से जोड़े और जुगाए रखा। आधुनिकता के तकाजों और
तमाशों से उन्होंने अपने को वहीं तक जोड़े रखा जहाँ तक वह अपने कहानियों
के पात्रों का जरूरी हिस्सा बन सकता था। एक सामाजिक के नाते उनके अन्दर के
कथाकार और कलाकार ने फ़ौरी समझौते कभी नहीं किये। इस कहानी संग्रह की
अधिकांश कहानियों में पात्रों के भाव-संसार के साथ उन ग्रन्थियों को भी
उधेड़ने की कोशिश दीख पड़ेगी, जो कहानीकार की प्रतिभा और अन्तर्दृष्टि से
सम्भव है। सच्चे और झूठे मान-मूल्यों के टकराव और अन्तर्विरोधों के दौर
में लिखी गयी ये कहानियाँ नाटकीय और दिलचस्प उतार चढ़ाव से भरपूर हैं।
पाठकों के लिए इन कहानियों को पढ़ना अपने दौर को समझने में सहायक होगा।
स्वर्गीय रामलाल की पचास से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हैं, जिनमें कहानी के तेईस संग्रह, सात उपन्यास, पाँच सफरनामे (यात्रावृत) और एक आलोचना पुस्तक शामिल हैं। साहित्य अकादेमी पुरस्कार के साथ उन्हें पंजाबी साहित्य पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, उर्दू अकादेमी पुरस्कार और डेनमार्क, का बुल्लेशाह अवार्ड जैसे कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनकी कुछ रचनाएँ हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषा में भी अनूदित हैं।
स्वर्गीय रामलाल की पचास से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हैं, जिनमें कहानी के तेईस संग्रह, सात उपन्यास, पाँच सफरनामे (यात्रावृत) और एक आलोचना पुस्तक शामिल हैं। साहित्य अकादेमी पुरस्कार के साथ उन्हें पंजाबी साहित्य पुरस्कार, गालिब पुरस्कार, उर्दू अकादेमी पुरस्कार और डेनमार्क, का बुल्लेशाह अवार्ड जैसे कई सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। उनकी कुछ रचनाएँ हिन्दी समेत कई भारतीय भाषाओं के अलावा विदेशी भाषा में भी अनूदित हैं।
पखेरू
किसी से एक लम्बे अन्तराल के बाद अचानक मिल जाने से अचंभा तो होता ही है।
लेकिन इवा ब्राउन से चूँकि फिर कभी मिलने की संभावना थी ही नहीं, इसलिए
हिन्दुस्तान से हज़ारों किलोमीटर दूर स्टॉकहोम की एक उपनगरीय लाइब्रेरी
में उसे देखकर आश्चर्यचकित रह गया।
यह घटना 4 सितम्बर, 1985 की है। उससे मेरी मुलाकात तेरह वर्ष पहले एक टूरिस्ट लॉज़ में हुई थी। अब वह सगतोना कम्यून की पब्लिक लाइब्रेरी में पुस्तकों के एक रैक के पास फ़र्श पर पैरों के बल बैठी थी। इसके पास से गुज़रते समय मैंने उसकी ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। पीठ की ओर से वह स्वीडन की उन हज़ारों गोरी-चिट्टी लड़कियों-जैसी ही दीखी, जिनके सुनहरे या रेतीले केश यदि छोटे-कटे नहीं होते तो उनकी कमर या गर्दन के आस-पास अवश्य ही झूल रहे होते हैं।
अचानक कुछ पत्र-पत्रिकाएँ ऊपरी खाने से फिसल कर इवा ब्राउन के ऊपर गिर पड़ीं और वह बौखला कर चीख़ पड़ी। मैं जाते-जाते पलट कर भागता हुआ सा उसके पास जा पहुंचा। उसकी मदद के लिए मैंने फ़र्श पर बिखरी पत्रिकाएँ उठानी चाहीं तो हम एक-दूसरे की ओर देखते ही रह गए।
पलक झपकते स्मृति के कम्प्यूटर पर अतीत और वर्तमान की असीम राहों को तय करके हम स्थिर हुए तो अनायास ही हँस पड़े। मैंने बड़े अनौपचारिक ढंग से, उसे उसके निक नेम से ही संबोधित करते हुए पूछा, ‘तुम इवा ट्वेण्टी थ्री हो न ?’’
उसने मेरे साथ हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘बेशक़ इवा ट्वेण्टी थ्री और मुझे वह मुलाकात भी अच्छी तरह याद है जब इंडिया में मेरे ट्रैवलिंग चेक गुम हो गये थे। लेकिन अफसोस, तुम्हारा नाम याद नहीं आ रहा है। शायद तुम....!’’
फिर वह शर्मिन्दा सी होकर हँस पड़ी, ‘‘आइ एम सो सॉरी। मेरी याददाश्त कितनी कमजोर होने लगी है। हालांकि बुढ़ापा अभी बहुत दूर है मुझसे ! ठीक कह रही हूँ न ?’’ मैंने उसकी ओर पैनी नज़रों से देखा। वह अब पच्चीस-छब्बीस साल की गोरी-चिट्टी तरो-ताजा लड़की तो नहीं थी, मगर लगभग चालीस की उम्र पर पहुंच कर भी एक स्वस्थ एवं आकर्षक व्यक्तित्व की मालिक अवश्य थी। मुझे सहसा यह भी याद आया कि व स्वीडिश नहीं थी बल्कि उसका जन्म पेरिस में हुआ था। वह अपनी मातृभाषा फ्रांसीसी तो बड़े फर्राटे से बोलती थी, लेकिन अंग्रेज़ी उसे अच्छी तरह नहीं आती थी। बहुत-सी आवश्यक बातें उसे मैंने ही अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के एक कामचलाऊ जेबी शब्दकोष की सहायता से बताई थीं। वह जयशंकर को शयशंकर कहा करती थी। उसके गलत उच्चारण के लिए मैं उसका मज़ाक़ भी उड़ाता था, लेकिन कोशिश करके भी वह ‘ज’ का सही उच्चारण नहीं कर पाती थी।
मैंने उसे अपने नाम का पहला अक्षर बताया तो उसे मेरा पूरा नाम तुरन्त याद आ गया। फिर वह मेरे हाथों से उठाए हुए मैगज़ीन ले-लेकर उन्हें उनकी उचित जगहों पर रखती हुई बोली, ‘‘राम इस काम से निपट लूँ तो मुझे रेस्तोरां ले चलो, बहुत नज़दीक है। पोस्ट ऑफ़िस और बैंक के बीच में। हालाँकि बहुत भरा रहता है, लेकिन हम अपनी बियर उठाकर बाहर बेंच पर बैठ जाएँगे। तुम्हें कहीं और तो नहीं जाना ? सॉरी, मैं तो यह पूछना भूल ही गयी। तुम मुझे कितना समय दे सकोगे ?’’
मेरे कोई उत्तर देने से पहले ही वह अपना काम समाप्त कर चुकी थी। अपने पर्स में से काग़ज़ का एक रुमाल निकाल कर नाक पर आया पसीना पोंछते हुए बोली, ‘‘चलो, अब मैं तुम्हारे बारे में बहुत-सी बातें पूछूँगी।’’ रेस्तोराँ वास्तव में भरा हुआ था। जैसा कि उसने कहा था हम सड़क के किनारे एक बेंच पर जा बैठे, जिसके एक कोने पर लाल चेहरे और गहरे काले बालों वाली एक स्त्री, जो चेहरे-मोहरे से बुल्गारियन लगती थी, अपने बच्चों को आइसक्रीम खिला रही थी।
मैंने कहा ‘‘इवा ट्वेण्टी थ्री, मैं यहाँ अपनी किताब के प्रकाशक के निमंत्रण पर आया हूं। इसके विमोचन की तारीख अभी रखी नहीं गई है, इसलिए और कई दिन रह सकता हूँ, हाँ, तुमसे मिलने की तो कोई उम्मीद हो हो नहीं सकती थी।’’
‘‘इस दुनिया में अब सब कुछ संभव है, क्योंकि यह बहुत छोटी हो गई है।’’ उसने मेरी प्रसन्नता एवं आश्चर्य के मिले-जुले भाव पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे मैं अभी तक विभोर था। ‘‘अच्छा यह बताओ, तुम मुझे अभी तक इवा ट्वेण्टी थ्री कहने पर क्यों तुले हुए हो ? मुझे अच्छी तरह याद है, मैं शिमला वाली लॉज़ के तेईस नम्बर कमरे में ठहरी हुई थी। तुम भी पास-पड़ोस के किसी कमरे में रुके हुए थे। हाँ, याद आ गया। मैं ही अपने चेक चोरी हो जाने के बाद रो-रोकर इस बात को कोसती थी कि मेरे कमरे का नम्बर ही बड़ा अशुभ है और तुमने मेरा दु:ख कम करने के लिए यह नाम मुझे दिया था और मैं कुछ खुश हो गई थी, यह भी मुझे याद है। तुमने मुझे कुछ पैसा भी उधार दिया था, जिसके कारण मैं दिल्ली तक पहुंच सकी थी। लेकिन अब इस घटना का कोई महत्व मेरे लिए रह नहीं गया है और ऐसा हो भी क्यों ? आओ हम दूसरी बातें करें।’’
इस घटना का वास्तव में अब कोई महत्व नहीं रह गया था। जयशंकर नाम के जिस लड़के के साथ उसने पहली बार चरस के सुट्टे लगाए थे, वही इसके पर्स में से पाँच सौ डालरों के यात्री चैक उड़ाकर ग़ायब हो गया था। इवा ने अपने देश के बैंक को टेलेक्स भिजवा कर नई दिल्ली के फ्रांसीसी दूतावास की मारफत एक ड्राफ्ट मँगवा लिया था। दिल्ली पहुँचते ही मुझसे उधार ली हुई रकम मनीआर्डर से लौटा दी थी। दो अजनबी व्यक्तियों के इतने से संबंध का कोई महत्व हो सकता था तो वह यही था कि हमने एक-दूसरे को याद रखा था और अब हम फिर से साथ-साथ बैठे बातें कर रहे थे।
‘‘लेकिन तुम यहाँ कैसे, क्या अपना देश छोड़ चुकी हो।’’
‘‘नहीं-नहीं, मैं अपने प्यारे देश को कैसे छोड़ सकती हूँ ? मर नहीं जाऊँगी। पेरिस तो मेरा प्रियतम है। कुछ लोग तो देखे बिना ही उस पर मोहित हो जाते हैं, केवल तारीफ़ ही सुनकर और मेरी तो रग-रग में उसका लहू दौड़ रहा है भई। यह अलग बात है कि मैं उसे चाहने के बावजूद उससे दूर रहना चाहती हूँ। आप इसे मेरे व्यक्तिगत स्वभाव का नाम दें या मानव-स्वभाव कहें मैं अपने अन्दर की इस प्रबल इच्छा को भी नहीं दबा सकती कि देश-विदेश भटकती फिरूँ। दुनिया भर के लोगों को अपनी आँखों से देखूँ और समझने की कोशिश करूं। आप इसे मेरा पागलपन कह सकते हैं लेकिन मैं जहाँ-जहाँ गई मुझे एक नये जोख़िम का एहसास हुआ। सब जगह लोग अच्छे नहीं है और सब जगह बुरे भी नहीं है। मेरे देश में भी ऐसा ही मिला जुला जन-समूह है। हाँ, काम के जैसे अवसर मुझे पश्चिम में रहकर मिल जाते हैं, वैसे पूर्वी देशों में नहीं मिलते। मैं जानती हूँ कि वे बहुत ही पिछड़े हुए देश हैं। वे अपने करोड़ों व्यक्तियों को नौकरी नहीं देते तो मुझ-जैसे मेहमान पक्षियों को कैसे देंगे ? और वह भी अस्थायी क्यों दें ? इस बात के लिए मुझे शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है। बस यूँ ही कह गई हूँ, बुरा मत मानना। मैं पूर्वी देशों से कई दूसरे कारणों से प्यार भी करती हूं।’’
‘‘अच्छा यह बताओ तुम यहां कितने दिनों के लिए और हो ? कोई जॉब कर रही हो ?’’
‘‘अभी तो मेरे पास एक महीने के लिए काम है। सोशल डिपार्टमेंट की एक लड़की छुट्टी पर है। उसकी जगह काम करते हुए दो महीने तो बीत चुके हैं। अच्छा तुम बताओ कहाँ ठहरे हो ? वहाँ का फ़ोन नम्बर दे सकते हो ? क्या मैं तुम्हें फ़ोन कर सकूँगी ? मेरा नम्बर तो तुम नोट कर ही लो। यह मेरे ब्वाय फ्रेण्ड का है। उसी के साथ रह रही हूं। आजकल वह एक द्वीप पर अपनी माँ के साथ गया हुआ है। बेचारी बूढी़ पिछली सर्दियों में बर्फ़ पर फिसल गई थी। इसकी एक टाँग प्लास्टर में है। कल फ़्रेडी का फ़ोन आया था। अगले हफ्ते लौटने की कोशिश करेगा, तब तक उसकी माँ की अपंग लोगों के अस्पताल में रहने की कार्यवाही पूरी हो जायेगी। अब तुम मेरा साथ दो तो हम तनिक एक स्टोर से भी हो आएँ। कुछ खाने-पीने की चीज़ें लेनी हैं क्या तुम मेरी मदद नहीं करोगे राम?’’
वह जल्दी-जल्दी बातें करने की आदी थी, जो बेहद लुभावनी होती थीं। उसके व्यक्तित्व का एक गुण यह भी था कि दूसरों को अपनी सहायता के लिए तुरंत अपने वश में कर लेती थी। वैसे भी मैं कुछ देर और उसके साथ रहना चाहता था। कई दिनों के बाद अपने मेज़बानों के काउन्टी हाउस से निकलने का एक सुनहरा अवसर मिल गया था और संयोगवश बाहर निकलते ही इवा ब्राउन से मुलाकात हो गई थी। वह भी मेरे साहचर्य से बोर नहीं हो रही थी। इसीलिए जब वह स्टोर से अपने दोनों हाथों में प्लास्टिक के फूले हुए थैले उठाए बस में सवार होने के लिए जल्दी-जल्दी सड़क की ओर चल दी तो मैं खुले आकाश तले, बेंच पर बैठा, उसी के बारे में सोचता रह गया। शिमला से चलने से पहले उसने मुझसे भारत के कुछ दार्शनिक स्थलों के बारे में पूछा था और मैंने उसे बिहार में स्थित नालंदा के खंडहरों और महाराष्ट्र की अजन्ता और एलोरा की सैकड़ों वर्ष पुरानी गुफाओं के बारे में न केवल विस्तार से बताया था, बल्कि उसकी डायरी में उन स्थानों तक पहुँचने के लिए रेल और सड़क के रास्ते तक बना कर दे दिए थे।
अचानक ट्रेन चल पड़ी थी तो वह हड़बड़ा कर भागी-भागी अपने कम्पार्टमेंट तक पहुंची थी। इसी घबराहट में अपनी डायरी भी उठाना भूल गयी थी, जिसे मैंने गाड़ी छूट जाने के बाद देखा। मैंने उसमें उसका पता ढूँढ़ना चाहा लेकिन उसने तो कहीं अपना नाम तक नहीं लिखा था। अधिकतर पन्नों पर फ्रांसीसी भाषा में ही बहुत कुछ लिखा था। किसी-किसी पन्ने पर उसने रेखाचित्र भी बना रखे थे। बीच के दो पन्नों पर फैला हुआ एक पैनोरामा भी बनाया था, जिसमें मानव-खोपड़ियाँ, मंदिर, बुद्ध की प्रतिमा, मेज़ पर शराब की बोतलें और गिलास, चेहरों से रहित जन-समूह और हाथी, घोड़े और मजारों के अलावा दो मानवी स्केच भी थे, जिनमें एक उसका अपना था। खुले-खुले झूलते बाल और आश्चर्यचकित आँखें। दूसरा स्केच शायद उसके किसी सहयात्री ब्वाय फ्रेण्ड का रहा होगा, जिसके चेहरे पर सिर्फ दाढ़ी थी, मूँछें नहीं थी। बहुत लम्बे समय के बाद एक फ्रेंच जानने वाले से उसकी डायरी पढ़वा सका था तो पता लगा था कि वह यूरोप के बाहर तुर्की, क्वेत, अफगानिस्तान पाकिस्तान, भारत और नेपाल तक में घूम आई है। उसके विचारों को पढ़ने के बाद मुझे एक ऐसी संवेदनशील पाश्चात्य लड़की की मानसिकता को जानने में बड़ी सहायता मिली, जो कलाकार होने के अतिरिक्त कवयित्री भी थी।
‘‘एक आदमी देखा जो पहाड़ जैसा है, उसे नाम ले-लेकर पुकार रहा है, उसे यक़ीन है, उसकी आवाज़ सुन सकती है, लेकिन वह अपनी आज़ादी बरकरार रखना चाहती है। गरचे उसका दिल भरा हुआ है, लेकिन वह खोखला है, तभी हज़ार मील से, दूर से वह, फिर पुकारता है, उसे अपने करीब देखना चाहता है, उदास है उसके बिना, कैक्टस की तरह। वह भी अपनी आज़ादी बरकरार रखना चाहता है।’’
इस्तांबुल पहुँचने के लिए पहले तो एक नाव में लिफ्ट मिली, फिर एक लॉरी में जगह मिल गई। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के कारण किसी होटल में जगह पाना कठिन हो गया, आखिर एक विक्टोरियन सराय-जैसे होटल में स्वयं को धांसना पड़ा। सेलों के पर्दे गहरे रंग के थे और लम्बे-लम्बे सोफ़े आमने-सामने की पंक्तियों में रखे हुए थे। किराए में सवेरे का नाश्ता शामिल था। खाने और ड्रिंक्स का ख़र्चा अलग देना पड़ता था। शॉवर गरम और बिछौना आरामदायक। मटरगश्ती करने बाहर निकली तो तुर्की का बाज़ार देखते ही उस पर आशिक़ हो गई। सँकरी और अँधेरी गलियाँ, जूते मरम्मत करने वाले मोची, स्यामी बिल्लियाँ और सुन्दर समुद्र-तट वापस आते ही घोडे़ बेच कर सो गई।’’
‘‘अगले दिन एक बस से सफर, जो पहले तो एक गलत सड़क पर पड़ गई, फिर लौटकर सही दिशा में चली। मेरे दो सहयात्री जेकब और सूज़ा फ्रांसीसी थे। वे कुवैत जा रहे थे। लॉरी का ड्राइवर अंग्रेजी भाषा में फ्रांसीसियों को कोस रहा था। उसे मालूम हुआ कि हम फ्रांसीसी हैं, तो क्षमा माँगने लगा। मैंने गुस्से से कहा, तुम्हारी यह क्षमा-याचना मुझे स्वीकार नहीं। तुम्हें वास्तव में किसी के कारण दु:ख पहुँचा होगा, इसके बाद हम मित्र बन गए। उससे मैंने एक देशी सिगरेट भी ली।’’
‘‘क़स्बे की एक ख़ास गली, ढलान पर बनी दुकानें। तरह-तरह के सामान, प्लास्टिक के जूते, टोपियाँ, प्लेट्स, फल। क्या मैं पूर्णतया स्वतंत्र हूँ ? शायद नहीं उन अर्थों में तो हरगिज़ नहीं, जिनमें महात्मा बुद्ध या कोई सूफी सन्त हो सकता है। बुनियादी कारणों को ध्यान में रखते हुए अपराध स्वीकार किए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर यौन-इच्छा को किसी दूसरी ओर मोड़कर उसका औचित्य तलाश कर लिया जाता है। वातावरण, अन्य कारणों के पीछे छुपे प्रेरकों को स्पष्ट रूप से सभी लोग नहीं समझ सकते। अधिकांश लोगों के मन के अन्दर एक बड़ा रहस्यपूर्ण मुन्सिफ़ छिपा रहता है, जो स्वयं अपने निशाचरी क्रिया-कलापों के कारण उलझन में रहा करता है।’’
‘‘बनारस के घाट पर एक स्त्री गंगा में पत्थर की एक छोटी-सी मूर्ति नहलाने के लिए आई थी। दृष्टि उठा कर ऊपर देखती है तो केवल नीले-नीले आकाश का विस्तार। मैं उस स्त्री से मूर्ति के बारे में पूछती हूँ। वह दोनों बाँहें फैलाकार अपनी भाषा में कुछ कहती है, जिसे मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती। यात्रियों के पैरों के साथ गंगा का पानी सीढ़ियों तक आया हुआ है। भारी नितम्बों वाली स्त्रियाँ बार-बार डुबकी लगाती हैं। पानी की लहरें चक्कर खा-खाकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगती हैं। उनके काले-पीले और लाल रंग के परिधानों में घेरेदार स्कर्ट (लहँगा) और ब्लाउज शामिल हैं, जिन पर बेल-बूटे काढ़े गए हैं। उनका कशीदा पाश्चात्य देशों की कारीगरी पर भारी है। उनकी गहरी काली आँखें धूप में चमक-चमक उठती हैं। उनकी भीगी हुई लम्बी और काली केश-राशि उनके कंधों और गर्दन के आस-पास बिखर-बिखर उठती है।
एक भीड़-भाड़ वाली पतली गली, लकड़ी के अनगिनत खोखे, काले फ्रेम की हज़ारों साइकिलें और रिक्शे, लकड़ी और पत्थर से बनी शिव और गौतम बुद्ध की मूर्तियां बेचने के लिए। एक बच्चा सीढ़ियों वाली गली में खेल रहा है। उसका जन्म भी शायद इन्हीं सीढ़ियों पर हुआ होगा। कुछ लोग ‘राम नाम सत्य है’ कहते पास से गुजर रहे हैं। उनके कंधों पर सफ़ेद कपड़े़ में लिपटी हुई अर्थी है, जिस पर गेंदे के फूल पडे़ हैं। कोई मातम नहीं, किसी दु:ख की अभिव्यक्ति नहीं। मौत इसी सिक्के का दूसरा चेहरा है। मरघट पर मुर्दे को एक चिता पर रख दिया जाता है, फिर आग लगा दी जाती है। बच्चे वहाँ भी खेल रहे हैं। गाढ़े धुएँ में किसी मनुष्य की चर्बी जलने की तेज गंध घुलमिल गई है। धुआँ आग की लपटों में से निकल-निकल कर आकाश की ओर जा रहा है।’’
‘‘ऐसा लगता है कि मैंने पच्चीस साल की उम्र में अपना आधा जीवन समाप्त कर लिया है। हालाँकि सामूहिक जन-जीवन की धारा मेरे सामने पूरे उत्साह के साथ बह रही है, विभिन्न धर्म-सिद्धान्तों के बीच से होकर, जिनका अवश्य ही आपस में कोई संबंध है। यहाँ मनुष्य का अहम् अपने सही स्थान पर है। एक ओर स्तूप है, बहुत ऊँचा। इसके पास पूरे आदर भाव से साथ जाओ। क्या हम इनके संसार को ठीक तरह समझ सकते हैं ? क्या हम संपूर्ण संसार को समझ सकते हैं, जिसके साथ हम जुड़े हुए हैं और नहीं भी जुड़े हैं ? भगवान एक चेचक से बिगड़े़ चेहरे की आँखों में भी चमक रहा है। यहाँ कारोबारी स्तर पर सौंदर्य का कोई मूल्य नहीं। यह तो त्वचा की गहराई तक भी उतरा हुआ महसूस नहीं होता। लेकिन यह अपनी राहें स्वयं बनाता हुआ चल रहा है। दु:ख की अनुभूति सबको है, लेकिन इसे बड़े धैर्य एवं शालीनता के साथ सहन कर लिया जाता है। एक सीमित जीवन, एक सीमित मरण। और फिर मृत्युपरान्त जीवन, जिसके बारे में पश्चिम का भी अपना दृष्टिकोण है। यहाँ दु:ख की अनुभूति इतनी शांत और स्तब्ध क्यों है ?
शायद इसीलिए इतनी आसानी से यह सहन करने योग्य बन जाता है (जैसे यह भी भगवान की किसी योजना का अंग हो) हज़ारों विचार एक दूसरे से टकराते हैं, जैसे धूप की किरणें एक दूसरे में घुलती-मिलती रहती हैं और इनमें धूल-मि्टटी के झंझावात भी उठ-उठ कर शामिल होते रहते हैं, जिनका रंग सुनहला होता है और जिनकी चमक-दमक आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है। अनगिनत मकानों और सँकरी तथा अँधेरी गलियों के ऊपर भी वही आकाश चमक रहा है। ऊपर उठें तो यह सब नीचे और पीछे रह जाता है और हम हर ओर फैले सौंदर्य के जादू में खो जाते हैं। यहाँ भीमकाय पहाड़ हैं, एक-दूसरे के बहुत पास और खड़े एवं हिम से ढँके हुए।
मेरे सामने फूलों की एक दूकान है। पीले-पीले फूलों से भरी हुई। यह पीले फूल मानव की बुनियादी ईमानदारी जैसे दीख पड़ते है। बड़े-बड़े भारतीय फल, अंगूरों के गुच्छे। यहाँ भी यह रस से भरे हुए हैं, बल्कि हमारी दुनिया से कुछ अधिक ही।
‘‘नमस्ते !’’
‘‘हैलो !’’
‘‘बाय-बाय !’’...
और एक आशा भरा महीन स्वर-पैसा, पैसा, पैसा, पैसा। एक ऐसी रट जिसके सामने झुकते ही बने। छोटे-छोटे बच्चों की क़तार-दर-क़तार इनकी अबोध फैली-फैली आँखें, इनके काले शरीरों पर जड़ी़ हुई अनगिनत आँखें।
आज भोर में उठकर पूरे दिन को उगते देखा। एक औसत से दिन की दिनचर्या नेपाल की हैप्पी कॉटेज में बारह बजे जागी। पनीर, टमाटर, ऑमलेट, टोस्ट, शहद और कॉफी के साथ नाश्ता तीन रुपये पचास पैसे में। डाकघर जाकर मालूम किया, डैडी की चिट्ठी आकर रखी हुई थी। चलते-चलते एक मिल्क बार के सामने फिर रुक गई। दूध का गिलास पिया, दो सौ ग्राम पनीर भी खाया। वहीं जॉर्ज और मॉनीक मिल गए, जो पशुपतिनाथ के मन्दिर भी जा रहे थे। वहाँ से लौटे तो लीफ़ और दूसरे लोग मिल गए। वह सब महल देखने जा रहे थे।
दो नीबू खरीदे। दो पहाड़ों के पीछे सूर्य को डूबते देखा, अच्छा लगा। कॉटेज में वापसी, टूरिस्टों के साथ गप-शप चायख़ाने में टोस्ट, शहद और चाय। बिस्तर लपेट कर लीफ़ के साथ फिर चायख़ाने में। अपनी एक चूड़ी पच्चीस रुपयों में बेच दी। गलियों में निरुद्देश्य घूमती फिरी। अचानक वहाँ एक नारंगी रंग की कमीज़ भी सौ रुपये में दे दी। इसके बाद मन्दिर की ओर। वहाँ लीफ़ मिल गया। हम लोग पहले ‘हंगरी आई’ गए। वहाँ से मैं अकेली ‘ड्रैगन’ पहुंची। चाऊमीन, टोमाटो स़ॉस, पनीर, टोस्ट खाया और संगीत भी सुना। फिर बाहर आकर कुछ बिस्कुट खरीदे। रात बेहद ठंडी थी। देर भी हो गई थी।
मैं रोज़ ही मरती हूँ और फिर पैदा हो जाती हूँ। शरीर वृद्ध होने की एक नई चेतना के साथ, पुराने शरीर को विदाई देकर नए शरीर में प्रविष्ट हो जाती हूँ। भारत में जीवन का कोई मूल्य नहीं है।
क्या इंश्योरेंस विभाग भरपाई करेगा, जब उसे लिखा जाएगा, ‘‘डियर सर, मेरी एक टाँग बनारस में एक भैंस ने अपने बायें सींग से कुचल दी थी ?’’ जवाब आएगा, ‘‘आपको कष्ट उठाना पड़ा इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।’’ यह बड़ा अद्भुत संसार है, जहाँ साँवले रंग के लोग बिना टायर ट्यूब के भी रिक्शा दौड़ाते ले जाते हैं, और धूल-धूसरित, बारिश में भीगते भी जाते हैं। यहाँ अपने अफसर के सामने ऐसे पत्र टाइप करके पेश करने का कोई रिवाज नहीं है जिनकी बाईं ओर पौने दो इंच का हाशिया भी छोड़ा जाता है। क्या इन्हें मालूम है कि इसी धरती पर इनके जैसा एक और संसार भी है, जहाँ लोग अधिक स्वतंत्र हैं और साठ से दो सौ डॉलर तक देकर पूरी शान से बेड़ पर सोते हैं ? यहाँ तो बस भीड़ है और गायें हैं और अपार शोर है, जो उनके ऊपर से रात की हवा की तरह गुज़र जाता है। साधारण आदमी की संवेदनशीलता बस इतनी ही है कि वह हर बात को भगवान की इच्छा समझ कर चुपचाप स्वीकार कर लेता है।’’
‘‘लन्दन का पुल गिर रहा है। अब तक एक दूसरा पुल उसके निकट ही बना देना चाहिए था, ताकि नदी शिव के मन्दिर के पास से होकर बहती रहे। बहुत-से बन्दर उछलते-कूदते फिरते हैं। लाल रंग की बसें मुसाफिरों से भरी हुई हैं। ‘मेमसाहब यू लाइक चाय ? यू कम टू माई नाइस रस्टोराँ, यू हेव गुड फूड हियर।’ और आगे किसी गली में कोई मेरे साथ-साथ चलता हुआ कानों में फुसफुसाता है, ‘यू वांट चेंज मनी ?’ ये लो शिकागो के गैंगस्टरों के स्वर में क्यों नहीं बात करते, जबकि अंग्रेज़ी बोल सकते हैं ? और आगे किसी गली में ब्लैक मार्केट है, जैसा काबुल में था। लगता है यह सब एक ही नियम-कानून के अनुसार किया जा रहा हो, पर यह जगह मवेशियों का मेला क्यों मालूम होती हैं ? बीचों-बीच एक चौकोर मैदान, आसपास बने हुए छोटे-छोटे चौकोर कमरे और मुस्कुराते हुए चेहरे। नो नॉट टुडे, थैंक यू। रिक्शे पास से गुज़र जाते हैं और अक्सर ट्रैफिक बन्द हो जाता है।
यह घटना 4 सितम्बर, 1985 की है। उससे मेरी मुलाकात तेरह वर्ष पहले एक टूरिस्ट लॉज़ में हुई थी। अब वह सगतोना कम्यून की पब्लिक लाइब्रेरी में पुस्तकों के एक रैक के पास फ़र्श पर पैरों के बल बैठी थी। इसके पास से गुज़रते समय मैंने उसकी ओर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया। पीठ की ओर से वह स्वीडन की उन हज़ारों गोरी-चिट्टी लड़कियों-जैसी ही दीखी, जिनके सुनहरे या रेतीले केश यदि छोटे-कटे नहीं होते तो उनकी कमर या गर्दन के आस-पास अवश्य ही झूल रहे होते हैं।
अचानक कुछ पत्र-पत्रिकाएँ ऊपरी खाने से फिसल कर इवा ब्राउन के ऊपर गिर पड़ीं और वह बौखला कर चीख़ पड़ी। मैं जाते-जाते पलट कर भागता हुआ सा उसके पास जा पहुंचा। उसकी मदद के लिए मैंने फ़र्श पर बिखरी पत्रिकाएँ उठानी चाहीं तो हम एक-दूसरे की ओर देखते ही रह गए।
पलक झपकते स्मृति के कम्प्यूटर पर अतीत और वर्तमान की असीम राहों को तय करके हम स्थिर हुए तो अनायास ही हँस पड़े। मैंने बड़े अनौपचारिक ढंग से, उसे उसके निक नेम से ही संबोधित करते हुए पूछा, ‘तुम इवा ट्वेण्टी थ्री हो न ?’’
उसने मेरे साथ हाथ मिलाते हुए कहा, ‘‘बेशक़ इवा ट्वेण्टी थ्री और मुझे वह मुलाकात भी अच्छी तरह याद है जब इंडिया में मेरे ट्रैवलिंग चेक गुम हो गये थे। लेकिन अफसोस, तुम्हारा नाम याद नहीं आ रहा है। शायद तुम....!’’
फिर वह शर्मिन्दा सी होकर हँस पड़ी, ‘‘आइ एम सो सॉरी। मेरी याददाश्त कितनी कमजोर होने लगी है। हालांकि बुढ़ापा अभी बहुत दूर है मुझसे ! ठीक कह रही हूँ न ?’’ मैंने उसकी ओर पैनी नज़रों से देखा। वह अब पच्चीस-छब्बीस साल की गोरी-चिट्टी तरो-ताजा लड़की तो नहीं थी, मगर लगभग चालीस की उम्र पर पहुंच कर भी एक स्वस्थ एवं आकर्षक व्यक्तित्व की मालिक अवश्य थी। मुझे सहसा यह भी याद आया कि व स्वीडिश नहीं थी बल्कि उसका जन्म पेरिस में हुआ था। वह अपनी मातृभाषा फ्रांसीसी तो बड़े फर्राटे से बोलती थी, लेकिन अंग्रेज़ी उसे अच्छी तरह नहीं आती थी। बहुत-सी आवश्यक बातें उसे मैंने ही अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के एक कामचलाऊ जेबी शब्दकोष की सहायता से बताई थीं। वह जयशंकर को शयशंकर कहा करती थी। उसके गलत उच्चारण के लिए मैं उसका मज़ाक़ भी उड़ाता था, लेकिन कोशिश करके भी वह ‘ज’ का सही उच्चारण नहीं कर पाती थी।
मैंने उसे अपने नाम का पहला अक्षर बताया तो उसे मेरा पूरा नाम तुरन्त याद आ गया। फिर वह मेरे हाथों से उठाए हुए मैगज़ीन ले-लेकर उन्हें उनकी उचित जगहों पर रखती हुई बोली, ‘‘राम इस काम से निपट लूँ तो मुझे रेस्तोरां ले चलो, बहुत नज़दीक है। पोस्ट ऑफ़िस और बैंक के बीच में। हालाँकि बहुत भरा रहता है, लेकिन हम अपनी बियर उठाकर बाहर बेंच पर बैठ जाएँगे। तुम्हें कहीं और तो नहीं जाना ? सॉरी, मैं तो यह पूछना भूल ही गयी। तुम मुझे कितना समय दे सकोगे ?’’
मेरे कोई उत्तर देने से पहले ही वह अपना काम समाप्त कर चुकी थी। अपने पर्स में से काग़ज़ का एक रुमाल निकाल कर नाक पर आया पसीना पोंछते हुए बोली, ‘‘चलो, अब मैं तुम्हारे बारे में बहुत-सी बातें पूछूँगी।’’ रेस्तोराँ वास्तव में भरा हुआ था। जैसा कि उसने कहा था हम सड़क के किनारे एक बेंच पर जा बैठे, जिसके एक कोने पर लाल चेहरे और गहरे काले बालों वाली एक स्त्री, जो चेहरे-मोहरे से बुल्गारियन लगती थी, अपने बच्चों को आइसक्रीम खिला रही थी।
मैंने कहा ‘‘इवा ट्वेण्टी थ्री, मैं यहाँ अपनी किताब के प्रकाशक के निमंत्रण पर आया हूं। इसके विमोचन की तारीख अभी रखी नहीं गई है, इसलिए और कई दिन रह सकता हूँ, हाँ, तुमसे मिलने की तो कोई उम्मीद हो हो नहीं सकती थी।’’
‘‘इस दुनिया में अब सब कुछ संभव है, क्योंकि यह बहुत छोटी हो गई है।’’ उसने मेरी प्रसन्नता एवं आश्चर्य के मिले-जुले भाव पर कोई ध्यान नहीं दिया, जिससे मैं अभी तक विभोर था। ‘‘अच्छा यह बताओ, तुम मुझे अभी तक इवा ट्वेण्टी थ्री कहने पर क्यों तुले हुए हो ? मुझे अच्छी तरह याद है, मैं शिमला वाली लॉज़ के तेईस नम्बर कमरे में ठहरी हुई थी। तुम भी पास-पड़ोस के किसी कमरे में रुके हुए थे। हाँ, याद आ गया। मैं ही अपने चेक चोरी हो जाने के बाद रो-रोकर इस बात को कोसती थी कि मेरे कमरे का नम्बर ही बड़ा अशुभ है और तुमने मेरा दु:ख कम करने के लिए यह नाम मुझे दिया था और मैं कुछ खुश हो गई थी, यह भी मुझे याद है। तुमने मुझे कुछ पैसा भी उधार दिया था, जिसके कारण मैं दिल्ली तक पहुंच सकी थी। लेकिन अब इस घटना का कोई महत्व मेरे लिए रह नहीं गया है और ऐसा हो भी क्यों ? आओ हम दूसरी बातें करें।’’
इस घटना का वास्तव में अब कोई महत्व नहीं रह गया था। जयशंकर नाम के जिस लड़के के साथ उसने पहली बार चरस के सुट्टे लगाए थे, वही इसके पर्स में से पाँच सौ डालरों के यात्री चैक उड़ाकर ग़ायब हो गया था। इवा ने अपने देश के बैंक को टेलेक्स भिजवा कर नई दिल्ली के फ्रांसीसी दूतावास की मारफत एक ड्राफ्ट मँगवा लिया था। दिल्ली पहुँचते ही मुझसे उधार ली हुई रकम मनीआर्डर से लौटा दी थी। दो अजनबी व्यक्तियों के इतने से संबंध का कोई महत्व हो सकता था तो वह यही था कि हमने एक-दूसरे को याद रखा था और अब हम फिर से साथ-साथ बैठे बातें कर रहे थे।
‘‘लेकिन तुम यहाँ कैसे, क्या अपना देश छोड़ चुकी हो।’’
‘‘नहीं-नहीं, मैं अपने प्यारे देश को कैसे छोड़ सकती हूँ ? मर नहीं जाऊँगी। पेरिस तो मेरा प्रियतम है। कुछ लोग तो देखे बिना ही उस पर मोहित हो जाते हैं, केवल तारीफ़ ही सुनकर और मेरी तो रग-रग में उसका लहू दौड़ रहा है भई। यह अलग बात है कि मैं उसे चाहने के बावजूद उससे दूर रहना चाहती हूँ। आप इसे मेरे व्यक्तिगत स्वभाव का नाम दें या मानव-स्वभाव कहें मैं अपने अन्दर की इस प्रबल इच्छा को भी नहीं दबा सकती कि देश-विदेश भटकती फिरूँ। दुनिया भर के लोगों को अपनी आँखों से देखूँ और समझने की कोशिश करूं। आप इसे मेरा पागलपन कह सकते हैं लेकिन मैं जहाँ-जहाँ गई मुझे एक नये जोख़िम का एहसास हुआ। सब जगह लोग अच्छे नहीं है और सब जगह बुरे भी नहीं है। मेरे देश में भी ऐसा ही मिला जुला जन-समूह है। हाँ, काम के जैसे अवसर मुझे पश्चिम में रहकर मिल जाते हैं, वैसे पूर्वी देशों में नहीं मिलते। मैं जानती हूँ कि वे बहुत ही पिछड़े हुए देश हैं। वे अपने करोड़ों व्यक्तियों को नौकरी नहीं देते तो मुझ-जैसे मेहमान पक्षियों को कैसे देंगे ? और वह भी अस्थायी क्यों दें ? इस बात के लिए मुझे शिकायत करने का कोई अधिकार नहीं है। बस यूँ ही कह गई हूँ, बुरा मत मानना। मैं पूर्वी देशों से कई दूसरे कारणों से प्यार भी करती हूं।’’
‘‘अच्छा यह बताओ तुम यहां कितने दिनों के लिए और हो ? कोई जॉब कर रही हो ?’’
‘‘अभी तो मेरे पास एक महीने के लिए काम है। सोशल डिपार्टमेंट की एक लड़की छुट्टी पर है। उसकी जगह काम करते हुए दो महीने तो बीत चुके हैं। अच्छा तुम बताओ कहाँ ठहरे हो ? वहाँ का फ़ोन नम्बर दे सकते हो ? क्या मैं तुम्हें फ़ोन कर सकूँगी ? मेरा नम्बर तो तुम नोट कर ही लो। यह मेरे ब्वाय फ्रेण्ड का है। उसी के साथ रह रही हूं। आजकल वह एक द्वीप पर अपनी माँ के साथ गया हुआ है। बेचारी बूढी़ पिछली सर्दियों में बर्फ़ पर फिसल गई थी। इसकी एक टाँग प्लास्टर में है। कल फ़्रेडी का फ़ोन आया था। अगले हफ्ते लौटने की कोशिश करेगा, तब तक उसकी माँ की अपंग लोगों के अस्पताल में रहने की कार्यवाही पूरी हो जायेगी। अब तुम मेरा साथ दो तो हम तनिक एक स्टोर से भी हो आएँ। कुछ खाने-पीने की चीज़ें लेनी हैं क्या तुम मेरी मदद नहीं करोगे राम?’’
वह जल्दी-जल्दी बातें करने की आदी थी, जो बेहद लुभावनी होती थीं। उसके व्यक्तित्व का एक गुण यह भी था कि दूसरों को अपनी सहायता के लिए तुरंत अपने वश में कर लेती थी। वैसे भी मैं कुछ देर और उसके साथ रहना चाहता था। कई दिनों के बाद अपने मेज़बानों के काउन्टी हाउस से निकलने का एक सुनहरा अवसर मिल गया था और संयोगवश बाहर निकलते ही इवा ब्राउन से मुलाकात हो गई थी। वह भी मेरे साहचर्य से बोर नहीं हो रही थी। इसीलिए जब वह स्टोर से अपने दोनों हाथों में प्लास्टिक के फूले हुए थैले उठाए बस में सवार होने के लिए जल्दी-जल्दी सड़क की ओर चल दी तो मैं खुले आकाश तले, बेंच पर बैठा, उसी के बारे में सोचता रह गया। शिमला से चलने से पहले उसने मुझसे भारत के कुछ दार्शनिक स्थलों के बारे में पूछा था और मैंने उसे बिहार में स्थित नालंदा के खंडहरों और महाराष्ट्र की अजन्ता और एलोरा की सैकड़ों वर्ष पुरानी गुफाओं के बारे में न केवल विस्तार से बताया था, बल्कि उसकी डायरी में उन स्थानों तक पहुँचने के लिए रेल और सड़क के रास्ते तक बना कर दे दिए थे।
अचानक ट्रेन चल पड़ी थी तो वह हड़बड़ा कर भागी-भागी अपने कम्पार्टमेंट तक पहुंची थी। इसी घबराहट में अपनी डायरी भी उठाना भूल गयी थी, जिसे मैंने गाड़ी छूट जाने के बाद देखा। मैंने उसमें उसका पता ढूँढ़ना चाहा लेकिन उसने तो कहीं अपना नाम तक नहीं लिखा था। अधिकतर पन्नों पर फ्रांसीसी भाषा में ही बहुत कुछ लिखा था। किसी-किसी पन्ने पर उसने रेखाचित्र भी बना रखे थे। बीच के दो पन्नों पर फैला हुआ एक पैनोरामा भी बनाया था, जिसमें मानव-खोपड़ियाँ, मंदिर, बुद्ध की प्रतिमा, मेज़ पर शराब की बोतलें और गिलास, चेहरों से रहित जन-समूह और हाथी, घोड़े और मजारों के अलावा दो मानवी स्केच भी थे, जिनमें एक उसका अपना था। खुले-खुले झूलते बाल और आश्चर्यचकित आँखें। दूसरा स्केच शायद उसके किसी सहयात्री ब्वाय फ्रेण्ड का रहा होगा, जिसके चेहरे पर सिर्फ दाढ़ी थी, मूँछें नहीं थी। बहुत लम्बे समय के बाद एक फ्रेंच जानने वाले से उसकी डायरी पढ़वा सका था तो पता लगा था कि वह यूरोप के बाहर तुर्की, क्वेत, अफगानिस्तान पाकिस्तान, भारत और नेपाल तक में घूम आई है। उसके विचारों को पढ़ने के बाद मुझे एक ऐसी संवेदनशील पाश्चात्य लड़की की मानसिकता को जानने में बड़ी सहायता मिली, जो कलाकार होने के अतिरिक्त कवयित्री भी थी।
‘‘एक आदमी देखा जो पहाड़ जैसा है, उसे नाम ले-लेकर पुकार रहा है, उसे यक़ीन है, उसकी आवाज़ सुन सकती है, लेकिन वह अपनी आज़ादी बरकरार रखना चाहती है। गरचे उसका दिल भरा हुआ है, लेकिन वह खोखला है, तभी हज़ार मील से, दूर से वह, फिर पुकारता है, उसे अपने करीब देखना चाहता है, उदास है उसके बिना, कैक्टस की तरह। वह भी अपनी आज़ादी बरकरार रखना चाहता है।’’
इस्तांबुल पहुँचने के लिए पहले तो एक नाव में लिफ्ट मिली, फिर एक लॉरी में जगह मिल गई। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेले के कारण किसी होटल में जगह पाना कठिन हो गया, आखिर एक विक्टोरियन सराय-जैसे होटल में स्वयं को धांसना पड़ा। सेलों के पर्दे गहरे रंग के थे और लम्बे-लम्बे सोफ़े आमने-सामने की पंक्तियों में रखे हुए थे। किराए में सवेरे का नाश्ता शामिल था। खाने और ड्रिंक्स का ख़र्चा अलग देना पड़ता था। शॉवर गरम और बिछौना आरामदायक। मटरगश्ती करने बाहर निकली तो तुर्की का बाज़ार देखते ही उस पर आशिक़ हो गई। सँकरी और अँधेरी गलियाँ, जूते मरम्मत करने वाले मोची, स्यामी बिल्लियाँ और सुन्दर समुद्र-तट वापस आते ही घोडे़ बेच कर सो गई।’’
‘‘अगले दिन एक बस से सफर, जो पहले तो एक गलत सड़क पर पड़ गई, फिर लौटकर सही दिशा में चली। मेरे दो सहयात्री जेकब और सूज़ा फ्रांसीसी थे। वे कुवैत जा रहे थे। लॉरी का ड्राइवर अंग्रेजी भाषा में फ्रांसीसियों को कोस रहा था। उसे मालूम हुआ कि हम फ्रांसीसी हैं, तो क्षमा माँगने लगा। मैंने गुस्से से कहा, तुम्हारी यह क्षमा-याचना मुझे स्वीकार नहीं। तुम्हें वास्तव में किसी के कारण दु:ख पहुँचा होगा, इसके बाद हम मित्र बन गए। उससे मैंने एक देशी सिगरेट भी ली।’’
‘‘क़स्बे की एक ख़ास गली, ढलान पर बनी दुकानें। तरह-तरह के सामान, प्लास्टिक के जूते, टोपियाँ, प्लेट्स, फल। क्या मैं पूर्णतया स्वतंत्र हूँ ? शायद नहीं उन अर्थों में तो हरगिज़ नहीं, जिनमें महात्मा बुद्ध या कोई सूफी सन्त हो सकता है। बुनियादी कारणों को ध्यान में रखते हुए अपराध स्वीकार किए जाते हैं। उदाहरण के तौर पर यौन-इच्छा को किसी दूसरी ओर मोड़कर उसका औचित्य तलाश कर लिया जाता है। वातावरण, अन्य कारणों के पीछे छुपे प्रेरकों को स्पष्ट रूप से सभी लोग नहीं समझ सकते। अधिकांश लोगों के मन के अन्दर एक बड़ा रहस्यपूर्ण मुन्सिफ़ छिपा रहता है, जो स्वयं अपने निशाचरी क्रिया-कलापों के कारण उलझन में रहा करता है।’’
‘‘बनारस के घाट पर एक स्त्री गंगा में पत्थर की एक छोटी-सी मूर्ति नहलाने के लिए आई थी। दृष्टि उठा कर ऊपर देखती है तो केवल नीले-नीले आकाश का विस्तार। मैं उस स्त्री से मूर्ति के बारे में पूछती हूँ। वह दोनों बाँहें फैलाकार अपनी भाषा में कुछ कहती है, जिसे मैं बिल्कुल नहीं समझ पाती। यात्रियों के पैरों के साथ गंगा का पानी सीढ़ियों तक आया हुआ है। भारी नितम्बों वाली स्त्रियाँ बार-बार डुबकी लगाती हैं। पानी की लहरें चक्कर खा-खाकर सीढ़ियाँ चढ़ने लगती हैं। उनके काले-पीले और लाल रंग के परिधानों में घेरेदार स्कर्ट (लहँगा) और ब्लाउज शामिल हैं, जिन पर बेल-बूटे काढ़े गए हैं। उनका कशीदा पाश्चात्य देशों की कारीगरी पर भारी है। उनकी गहरी काली आँखें धूप में चमक-चमक उठती हैं। उनकी भीगी हुई लम्बी और काली केश-राशि उनके कंधों और गर्दन के आस-पास बिखर-बिखर उठती है।
एक भीड़-भाड़ वाली पतली गली, लकड़ी के अनगिनत खोखे, काले फ्रेम की हज़ारों साइकिलें और रिक्शे, लकड़ी और पत्थर से बनी शिव और गौतम बुद्ध की मूर्तियां बेचने के लिए। एक बच्चा सीढ़ियों वाली गली में खेल रहा है। उसका जन्म भी शायद इन्हीं सीढ़ियों पर हुआ होगा। कुछ लोग ‘राम नाम सत्य है’ कहते पास से गुजर रहे हैं। उनके कंधों पर सफ़ेद कपड़े़ में लिपटी हुई अर्थी है, जिस पर गेंदे के फूल पडे़ हैं। कोई मातम नहीं, किसी दु:ख की अभिव्यक्ति नहीं। मौत इसी सिक्के का दूसरा चेहरा है। मरघट पर मुर्दे को एक चिता पर रख दिया जाता है, फिर आग लगा दी जाती है। बच्चे वहाँ भी खेल रहे हैं। गाढ़े धुएँ में किसी मनुष्य की चर्बी जलने की तेज गंध घुलमिल गई है। धुआँ आग की लपटों में से निकल-निकल कर आकाश की ओर जा रहा है।’’
‘‘ऐसा लगता है कि मैंने पच्चीस साल की उम्र में अपना आधा जीवन समाप्त कर लिया है। हालाँकि सामूहिक जन-जीवन की धारा मेरे सामने पूरे उत्साह के साथ बह रही है, विभिन्न धर्म-सिद्धान्तों के बीच से होकर, जिनका अवश्य ही आपस में कोई संबंध है। यहाँ मनुष्य का अहम् अपने सही स्थान पर है। एक ओर स्तूप है, बहुत ऊँचा। इसके पास पूरे आदर भाव से साथ जाओ। क्या हम इनके संसार को ठीक तरह समझ सकते हैं ? क्या हम संपूर्ण संसार को समझ सकते हैं, जिसके साथ हम जुड़े हुए हैं और नहीं भी जुड़े हैं ? भगवान एक चेचक से बिगड़े़ चेहरे की आँखों में भी चमक रहा है। यहाँ कारोबारी स्तर पर सौंदर्य का कोई मूल्य नहीं। यह तो त्वचा की गहराई तक भी उतरा हुआ महसूस नहीं होता। लेकिन यह अपनी राहें स्वयं बनाता हुआ चल रहा है। दु:ख की अनुभूति सबको है, लेकिन इसे बड़े धैर्य एवं शालीनता के साथ सहन कर लिया जाता है। एक सीमित जीवन, एक सीमित मरण। और फिर मृत्युपरान्त जीवन, जिसके बारे में पश्चिम का भी अपना दृष्टिकोण है। यहाँ दु:ख की अनुभूति इतनी शांत और स्तब्ध क्यों है ?
शायद इसीलिए इतनी आसानी से यह सहन करने योग्य बन जाता है (जैसे यह भी भगवान की किसी योजना का अंग हो) हज़ारों विचार एक दूसरे से टकराते हैं, जैसे धूप की किरणें एक दूसरे में घुलती-मिलती रहती हैं और इनमें धूल-मि्टटी के झंझावात भी उठ-उठ कर शामिल होते रहते हैं, जिनका रंग सुनहला होता है और जिनकी चमक-दमक आँखों में चकाचौंध पैदा कर देती है। अनगिनत मकानों और सँकरी तथा अँधेरी गलियों के ऊपर भी वही आकाश चमक रहा है। ऊपर उठें तो यह सब नीचे और पीछे रह जाता है और हम हर ओर फैले सौंदर्य के जादू में खो जाते हैं। यहाँ भीमकाय पहाड़ हैं, एक-दूसरे के बहुत पास और खड़े एवं हिम से ढँके हुए।
मेरे सामने फूलों की एक दूकान है। पीले-पीले फूलों से भरी हुई। यह पीले फूल मानव की बुनियादी ईमानदारी जैसे दीख पड़ते है। बड़े-बड़े भारतीय फल, अंगूरों के गुच्छे। यहाँ भी यह रस से भरे हुए हैं, बल्कि हमारी दुनिया से कुछ अधिक ही।
‘‘नमस्ते !’’
‘‘हैलो !’’
‘‘बाय-बाय !’’...
और एक आशा भरा महीन स्वर-पैसा, पैसा, पैसा, पैसा। एक ऐसी रट जिसके सामने झुकते ही बने। छोटे-छोटे बच्चों की क़तार-दर-क़तार इनकी अबोध फैली-फैली आँखें, इनके काले शरीरों पर जड़ी़ हुई अनगिनत आँखें।
आज भोर में उठकर पूरे दिन को उगते देखा। एक औसत से दिन की दिनचर्या नेपाल की हैप्पी कॉटेज में बारह बजे जागी। पनीर, टमाटर, ऑमलेट, टोस्ट, शहद और कॉफी के साथ नाश्ता तीन रुपये पचास पैसे में। डाकघर जाकर मालूम किया, डैडी की चिट्ठी आकर रखी हुई थी। चलते-चलते एक मिल्क बार के सामने फिर रुक गई। दूध का गिलास पिया, दो सौ ग्राम पनीर भी खाया। वहीं जॉर्ज और मॉनीक मिल गए, जो पशुपतिनाथ के मन्दिर भी जा रहे थे। वहाँ से लौटे तो लीफ़ और दूसरे लोग मिल गए। वह सब महल देखने जा रहे थे।
दो नीबू खरीदे। दो पहाड़ों के पीछे सूर्य को डूबते देखा, अच्छा लगा। कॉटेज में वापसी, टूरिस्टों के साथ गप-शप चायख़ाने में टोस्ट, शहद और चाय। बिस्तर लपेट कर लीफ़ के साथ फिर चायख़ाने में। अपनी एक चूड़ी पच्चीस रुपयों में बेच दी। गलियों में निरुद्देश्य घूमती फिरी। अचानक वहाँ एक नारंगी रंग की कमीज़ भी सौ रुपये में दे दी। इसके बाद मन्दिर की ओर। वहाँ लीफ़ मिल गया। हम लोग पहले ‘हंगरी आई’ गए। वहाँ से मैं अकेली ‘ड्रैगन’ पहुंची। चाऊमीन, टोमाटो स़ॉस, पनीर, टोस्ट खाया और संगीत भी सुना। फिर बाहर आकर कुछ बिस्कुट खरीदे। रात बेहद ठंडी थी। देर भी हो गई थी।
मैं रोज़ ही मरती हूँ और फिर पैदा हो जाती हूँ। शरीर वृद्ध होने की एक नई चेतना के साथ, पुराने शरीर को विदाई देकर नए शरीर में प्रविष्ट हो जाती हूँ। भारत में जीवन का कोई मूल्य नहीं है।
क्या इंश्योरेंस विभाग भरपाई करेगा, जब उसे लिखा जाएगा, ‘‘डियर सर, मेरी एक टाँग बनारस में एक भैंस ने अपने बायें सींग से कुचल दी थी ?’’ जवाब आएगा, ‘‘आपको कष्ट उठाना पड़ा इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।’’ यह बड़ा अद्भुत संसार है, जहाँ साँवले रंग के लोग बिना टायर ट्यूब के भी रिक्शा दौड़ाते ले जाते हैं, और धूल-धूसरित, बारिश में भीगते भी जाते हैं। यहाँ अपने अफसर के सामने ऐसे पत्र टाइप करके पेश करने का कोई रिवाज नहीं है जिनकी बाईं ओर पौने दो इंच का हाशिया भी छोड़ा जाता है। क्या इन्हें मालूम है कि इसी धरती पर इनके जैसा एक और संसार भी है, जहाँ लोग अधिक स्वतंत्र हैं और साठ से दो सौ डॉलर तक देकर पूरी शान से बेड़ पर सोते हैं ? यहाँ तो बस भीड़ है और गायें हैं और अपार शोर है, जो उनके ऊपर से रात की हवा की तरह गुज़र जाता है। साधारण आदमी की संवेदनशीलता बस इतनी ही है कि वह हर बात को भगवान की इच्छा समझ कर चुपचाप स्वीकार कर लेता है।’’
‘‘लन्दन का पुल गिर रहा है। अब तक एक दूसरा पुल उसके निकट ही बना देना चाहिए था, ताकि नदी शिव के मन्दिर के पास से होकर बहती रहे। बहुत-से बन्दर उछलते-कूदते फिरते हैं। लाल रंग की बसें मुसाफिरों से भरी हुई हैं। ‘मेमसाहब यू लाइक चाय ? यू कम टू माई नाइस रस्टोराँ, यू हेव गुड फूड हियर।’ और आगे किसी गली में कोई मेरे साथ-साथ चलता हुआ कानों में फुसफुसाता है, ‘यू वांट चेंज मनी ?’ ये लो शिकागो के गैंगस्टरों के स्वर में क्यों नहीं बात करते, जबकि अंग्रेज़ी बोल सकते हैं ? और आगे किसी गली में ब्लैक मार्केट है, जैसा काबुल में था। लगता है यह सब एक ही नियम-कानून के अनुसार किया जा रहा हो, पर यह जगह मवेशियों का मेला क्यों मालूम होती हैं ? बीचों-बीच एक चौकोर मैदान, आसपास बने हुए छोटे-छोटे चौकोर कमरे और मुस्कुराते हुए चेहरे। नो नॉट टुडे, थैंक यू। रिक्शे पास से गुज़र जाते हैं और अक्सर ट्रैफिक बन्द हो जाता है।
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लोगों की राय
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