भाषा एवं साहित्य >> चयनम् चयनम्अरुण प्रकाश
|
5 पाठकों को प्रिय 271 पाठक हैं |
प्रस्तुत है 25 वर्षों में प्रकाशित सभी अनूठी रचनाओं का संग्रह...
Chayanam
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
साहित्य अकादेमी की स्थापना के पूर्व आलम यह था कि भारतीय भाषा के जानकार शेक्सपीयर के बारे में अधिक जानते थे, बनिस्बत बाङ्ला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर के। मराठी के भक्त कवि तुकाराम से तमिष़ अनजान थे। राजस्थानी की मीरां को असमियाभाषी नहीं जानते थे। साहित्य से इतने समृद्ध, बहुलतावादी देश के विभिन्न साहित्यों के पारस्परिक अपरिचय को दूर करने के लिए साहित्य अकादेमी ने न केवल पुस्तक-प्रकाशन और कार्यक्रम-आयोजनों का माध्यम अपनाया है, वरन यह अंग्रेजी में 1957 से इंडियन लिटरेचर तथा हिन्दी में 1980 के समकालीन भारतीय साहित्य जैसी पत्रिकाओं का नियमित प्रकाशन भी करती आ रही है। ये पत्रिकाएँ विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित श्रेष्ठ समकालीन साहित्य और विमर्श का आईना हैं।
चयनम् अकादेमी की द्विमासिक हिन्दी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के पिछले 25 वर्षों में प्रकाशित रचनाओं से एक चयन है। इस पत्रिका ने भारतीय साहित्य के विविधतापूर्ण चलन, आन्दोलनों और रूपों को सामने लाने के प्रयत्न किए हैं। रूप के स्तर पर नवोन्मेष और विषय के स्तर पर जनतांत्रिकता इस दौर की विशेषता रही है। समकालीन भारतीय साहित्य ने बाईस भारतीय भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद के माध्यम से निरंतर नए भारतीय लेखन के विविध विषयों, रूपों और रंगों को प्रस्तुत करने के प्रयत्न किए है। यही कारण है कि चयनम् में बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में प्रभावी विभिन्न रुझानों तथा इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में उभरते प्रमुख रुझानों को देखा जा सकता है।
साहित्य अकादेमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित इस चयनम् में कविता कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा, साक्षात्कार तथा आलोचनात्मक लेखों के साथ-साथ एक उपन्यासिका का भी समावेश किया गया है।
भारत के समकालीन साहित्य में रुचि रखनेवाले प्रत्येक पाठक को निश्चित रूप से यह चयन रुचिकर लगेगा।
चयनम् अकादेमी की द्विमासिक हिन्दी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के पिछले 25 वर्षों में प्रकाशित रचनाओं से एक चयन है। इस पत्रिका ने भारतीय साहित्य के विविधतापूर्ण चलन, आन्दोलनों और रूपों को सामने लाने के प्रयत्न किए हैं। रूप के स्तर पर नवोन्मेष और विषय के स्तर पर जनतांत्रिकता इस दौर की विशेषता रही है। समकालीन भारतीय साहित्य ने बाईस भारतीय भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद के माध्यम से निरंतर नए भारतीय लेखन के विविध विषयों, रूपों और रंगों को प्रस्तुत करने के प्रयत्न किए है। यही कारण है कि चयनम् में बीसवीं सदी के आखिरी दशकों में प्रभावी विभिन्न रुझानों तथा इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में उभरते प्रमुख रुझानों को देखा जा सकता है।
साहित्य अकादेमी की स्वर्ण जयंती के अवसर पर प्रकाशित इस चयनम् में कविता कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, आत्मकथा, साक्षात्कार तथा आलोचनात्मक लेखों के साथ-साथ एक उपन्यासिका का भी समावेश किया गया है।
भारत के समकालीन साहित्य में रुचि रखनेवाले प्रत्येक पाठक को निश्चित रूप से यह चयन रुचिकर लगेगा।
दो शब्द
साहित्य अकादेमी के 50 वर्ष और हमारी पत्रिका समकालीन भारतीय साहित्य के 25 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में यह संचयन प्रकाशित हो रहा है। पिछली एक चौथाई सदी से भी अधिक समय से समकालीन भारतीय साहित्य ने भारतीय साहित्य के विविधतापूर्ण चलन, आंदोलनों और रूपों को सामने लाने के प्रयत्न किए हैं। रूप के स्तर पर नवोन्मेष और विषय के स्तर पर जनतांत्रिकता इस दौरे की विशेषता रही है।
जब समकालीन भारतीय साहित्य की शुरुआत हुई थी, तब आधुनिकतावादियों की पीढ़ी लेखन में सक्रिय ही थी। देश के समाज और जीवन में आए बदलावों के मद्देनज़र कथा और कविता के मुहावरे में आमूल परिवर्तन आ चुका था। साहित्य में नागर जीवन के सुख-दु:ख, उतार-चढ़ाव, विशेषकर एकाकीपन, बेगानापन और जड़विहीनता के एहसास-जैसी चीज़ें आ गई थीं। भारत के आजाद हो जाने के बावजूद हमारी सामाजिक व्यवस्था में ग़रीबों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों का हाशियाकरण जारी रहा। आम आदमी को महसूस होने लगा कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने उसे निराश किया है, इसलिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और रूपों में, मूल्यों में आई गिरावट तथा शोषण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश उभरने लगा।
लेकिन वह दौर नए सामाजिक आंदोलनों का भी था। स्त्रियाँ निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में पितृसत्ता के विरुद्ध संगठित होने लगीं। भीमराव आंबेडकर की धरती पर दलित आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और वह भारत के विभिन्न भागों में फैलने लगा था। कई सदियों से चल रहे अपने हाशियाकरण को लेकर आदिवासी सचेत हो गए थे और वे अपनी धरती तथा सुखी जीवन की माँग करने लगे थे। आपातकाल के दौरान स्वतंत्रता के दमन के काले अनुभवों के बाद मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन तेज़ होते गए।
अनुचित व्यापार-व्यवहारों के विरुद्ध उपभोक्ता आंदोलन की शुरुआत हो गई। प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग तथा वायु एवं जल प्रदूषण में वृद्धि के कारण पर्यावरण एक प्रमुख मुद्दा बन गया। धार्मिक पुनरुत्थानवाद, बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण के चलते मानवीकरण और समरूपता के विरुद्ध विभिन्न प्रकार के अधिकार पर बल देने के आंदोलनों को महत्त्व मिलने लगा।
इन बदलावों को साहित्य ने सौम्य तरीक़े से रूपायित करना शुरू किया और इस प्रक्रिया में साहित्य भी बदल गया। ये ज़रूर है कि साहित्य को समाजशास्त्र नहीं बनाया जा सकता, लेकिन साहित्य में सामाजिक परिवर्तनों का असर व्यक्तियों, मानवीय संबंधों और एहसासों की नई संरचनाओं को व्यक्त ज़रूर करता है। संक्षेप में कहें को माहौल का मनुष्य के आंतरिक जीवन और उस पर पड़नेवाले प्रभावों को साहित्य रूपायित करता ही है। यह प्रभाव बहुधा रूप और भाषा के स्तर पर भी दिख जाता है। भाषा-शैली, प्रांतीय और सामुदायिक लोकभाषाओं के उपयोग, नई लयों और गलियों – सड़कों से उठाई गई छवियों, एक ही विषय तथा एक ही चरित्र पर रचना के केन्द्रित होने की पद्धति की समाप्ति, विभिन्न विधाओं में मेलजोल, महाकथा और महाकविता, आदिरूपों और प्रतीकों के नए प्रयोग-जैसी चीज़ों से इस प्रक्रिया को समझा जा सकता है। सौन्दर्ययशास्त्र के पुराने नियमों पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं और नए सौन्दर्यशास्त्र ने आकार लेना शुरू कर दिया है। यह रोज़मर्रापन का सौन्दर्यशास्त्र है, जो कई बार स्त्रीवादी, दलित अथवा आदिवासी साहित्य में विचलन के रूप में दिखाई देता है।
22 भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद का यह संचयन नए भारतीय लेखन के विविध विषयों, रूपों और रंगों का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में प्रभावी विभिन्न रुझानों तथा इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में उभरते प्रमुख रुझानों का प्रतिनिधित्व हो पाया है। मुझे विश्वास है कि भारत के समकालीन साहित्य में रुचि रखनेवाला प्रत्येक पाठक इस संचयन का स्वागत करेगा और इसे पढ़कर आनंद उठाएगा।
मैं इस उत्कृष्ठ चयन के लिए संपादक को बधाई देता हूँ और इस विविधतापूर्ण चयन के पठन सुख में शामिल होने के लिए पाठकों को आमंत्रित करता हूँ।
जब समकालीन भारतीय साहित्य की शुरुआत हुई थी, तब आधुनिकतावादियों की पीढ़ी लेखन में सक्रिय ही थी। देश के समाज और जीवन में आए बदलावों के मद्देनज़र कथा और कविता के मुहावरे में आमूल परिवर्तन आ चुका था। साहित्य में नागर जीवन के सुख-दु:ख, उतार-चढ़ाव, विशेषकर एकाकीपन, बेगानापन और जड़विहीनता के एहसास-जैसी चीज़ें आ गई थीं। भारत के आजाद हो जाने के बावजूद हमारी सामाजिक व्यवस्था में ग़रीबों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और स्त्रियों का हाशियाकरण जारी रहा। आम आदमी को महसूस होने लगा कि राष्ट्रीय नेतृत्व ने उसे निराश किया है, इसलिए जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और रूपों में, मूल्यों में आई गिरावट तथा शोषण और भ्रष्टाचार के विरुद्ध आक्रोश उभरने लगा।
लेकिन वह दौर नए सामाजिक आंदोलनों का भी था। स्त्रियाँ निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में पितृसत्ता के विरुद्ध संगठित होने लगीं। भीमराव आंबेडकर की धरती पर दलित आंदोलन की शुरुआत हो चुकी थी और वह भारत के विभिन्न भागों में फैलने लगा था। कई सदियों से चल रहे अपने हाशियाकरण को लेकर आदिवासी सचेत हो गए थे और वे अपनी धरती तथा सुखी जीवन की माँग करने लगे थे। आपातकाल के दौरान स्वतंत्रता के दमन के काले अनुभवों के बाद मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन तेज़ होते गए।
अनुचित व्यापार-व्यवहारों के विरुद्ध उपभोक्ता आंदोलन की शुरुआत हो गई। प्राकृतिक संसाधनों के दुरुपयोग तथा वायु एवं जल प्रदूषण में वृद्धि के कारण पर्यावरण एक प्रमुख मुद्दा बन गया। धार्मिक पुनरुत्थानवाद, बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था और भूमंडलीकरण के चलते मानवीकरण और समरूपता के विरुद्ध विभिन्न प्रकार के अधिकार पर बल देने के आंदोलनों को महत्त्व मिलने लगा।
इन बदलावों को साहित्य ने सौम्य तरीक़े से रूपायित करना शुरू किया और इस प्रक्रिया में साहित्य भी बदल गया। ये ज़रूर है कि साहित्य को समाजशास्त्र नहीं बनाया जा सकता, लेकिन साहित्य में सामाजिक परिवर्तनों का असर व्यक्तियों, मानवीय संबंधों और एहसासों की नई संरचनाओं को व्यक्त ज़रूर करता है। संक्षेप में कहें को माहौल का मनुष्य के आंतरिक जीवन और उस पर पड़नेवाले प्रभावों को साहित्य रूपायित करता ही है। यह प्रभाव बहुधा रूप और भाषा के स्तर पर भी दिख जाता है। भाषा-शैली, प्रांतीय और सामुदायिक लोकभाषाओं के उपयोग, नई लयों और गलियों – सड़कों से उठाई गई छवियों, एक ही विषय तथा एक ही चरित्र पर रचना के केन्द्रित होने की पद्धति की समाप्ति, विभिन्न विधाओं में मेलजोल, महाकथा और महाकविता, आदिरूपों और प्रतीकों के नए प्रयोग-जैसी चीज़ों से इस प्रक्रिया को समझा जा सकता है। सौन्दर्ययशास्त्र के पुराने नियमों पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं और नए सौन्दर्यशास्त्र ने आकार लेना शुरू कर दिया है। यह रोज़मर्रापन का सौन्दर्यशास्त्र है, जो कई बार स्त्रीवादी, दलित अथवा आदिवासी साहित्य में विचलन के रूप में दिखाई देता है।
22 भाषाओं की रचनाओं के हिन्दी अनुवाद का यह संचयन नए भारतीय लेखन के विविध विषयों, रूपों और रंगों का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें बीसवीं सदी के आख़िरी दशकों में प्रभावी विभिन्न रुझानों तथा इक्कीसवीं सदी की शुरूआत में उभरते प्रमुख रुझानों का प्रतिनिधित्व हो पाया है। मुझे विश्वास है कि भारत के समकालीन साहित्य में रुचि रखनेवाला प्रत्येक पाठक इस संचयन का स्वागत करेगा और इसे पढ़कर आनंद उठाएगा।
मैं इस उत्कृष्ठ चयन के लिए संपादक को बधाई देता हूँ और इस विविधतापूर्ण चयन के पठन सुख में शामिल होने के लिए पाठकों को आमंत्रित करता हूँ।
के. सच्चिदानंद
सचिव
साहित्य अकादेमी
सचिव
साहित्य अकादेमी
संपादक की ओर से...
साहित्य अकादेमी की स्थापना के पूर्व आलम यह था कि भारतीय भाषा के जानकार शेक्सपीयर के बारे में अधिक जानते थे, बनिस्बत बाङ्ला के रवीन्द्रनाथ ठाकुर के। मराठी के भक्त कवि तुकाराम से तमिष़ अनजान थे। राजस्थानी की मीरां को असमियाभाषी नहीं जानते थे। साहित्य से इतने समृद्ध, बहुलतावादी देश के विभिन्न साहित्यों के बीच ही इतना अपरिचय था कि साहित्य अकादेमी को अनुवाद के पुल के निर्माण में योगदान करना पड़ा। अकादेमी का एक प्रमुख उद्देश्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद के ज़रिए परस्पर परिचय कराना है। अंग्रेजी में इंडियन लिटरेचर पत्रिका की शुरूआत 1957 में हुई। इसमें भारतीय भाषाओं के साहित्य का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया जाने लगा। यह पत्रिका अपने प्रकाशन के 49 वें वर्ष में चल रही है। इसके प्रवेशांक की संपादकीय टिप्पणी में कृष्ण कृपलानी ने लिखा : ‘‘...इसका उद्देश्य बहुत छोटा है। भारत की विभिन्न भाषाओं के लेखकों और पाठकों का परिचय आपस में बढ़े, हमें इससे सहयोग देना है।’’
इंडियन लिटरेचर की तर्ज़ पर ही 1980 में समकालीन भारतीय साहित्य का प्रकाशन शुरू किया गया। इस पत्रिका ने अपने प्रकाशन का 25वाँ वर्ष पूरा कर लिया है। शानी संस्थापक संपादक थे। उनके बाद विजयदान देथा के अतिथि-संपादन में दो अंक निकले। फिर गिरधर राठी आए। 2004 में मैंने संपादन सँभाला। पिछले 25 वर्षों में संपादक के रूप में बड़ा योगदान शानी और गिरधर राठी का ही रहा। यह पहले त्रैमासिक निकलती थी, अब द्विमासिक निकलती है। साहित्य अकादेमी को स्वर्ण जयंती के अवसर पर समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशिक रचनाओं और लेखों में से चयन कर एक संग्रहणीय पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की योजना बनी। काम बहुत बड़ा था, इसलिए इसमें समय भी लगा।
बहरहाल, इस चयन को प्रतिनिधि चयन माना जाए, हमारा ऐसा कोई दावा नहीं है।
मूल हिन्दी रचना का चयन संपादकीय टीम करती है, पर अनूदित रचनाओं का प्राथमिक चयन तो अनुवादक ही करते हैं और उस चयन में से चुनने का काम संपादक का होता है। कई बार संपादत भी रचना का चयन कर अनुवाद करवाता है। इस चयन में उपलब्धता एक बड़ा कारक होती है। उपलब्धता में भी कई पेचोख़म होते हैं। मूल रचना का चयन उचित न हो, मूल लेखक से अनुवाद-प्रकाशन की अनुमति न मिले या अनुवाद का ही स्तर अच्छा न हो। अनेक नगरों में आज भी हिन्दी टाइपिंग समस्या है और दूसरी तरफ अनुवादक की लिखावट अपठनीय हो तो संकट। ये सभी उपलब्धता को प्रभावित करते हैं।
उपलब्ध अनूदित साहित्य में से चयन के क्रम में हिन्दी पाठकों को ध्यान में रखना होता है। साथ ही यह भी कि हिन्दी साहित्य किसे अनूठा मानेगा। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रस्तुत संकलन में गुजराती के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट का लेख—‘हास्य मेरा पहला प्रेम’ संकलित है। मूल गुजराती में लिखे इस सैद्धान्तिक लेख को हिन्दी में किसी पत्रिका में उद्धृत किया गया था, जिस पर मेरी नज़र गई। मुझे लगा कि यह पूरा लेख मिल जाए तो हिन्दी पाठकों को अनूठा लगेगा, क्योंकि हिन्दी में हास्य पर सैद्धान्तिक लेख का आभाव है। मैंने इसकी अनुमति लेने की कोशिश की तो पता चला कि यह तो हिन्दी में पहले से अनूदित है। काफ़ी प्रयत्न के बाद वह अनुवाद देखने को मिला। लेकिन उस अनुवाद ने मुझे निराश किया। प्रायः तीन महीने में जाकर विनोद भाई से संपर्क हो पाया। उन्होंने अनुमति दे दी, जगदीश चंद्रिकेश ने उसका सुंदर अनुवाद किया। एक तो लेख की सघन अंतर्वस्तु, ऊपर से रंजर प्रस्तुति ! पाठकों से इतनी सराहना मिली कि हम गद्गद हो गए।
साहित्य में सारी विधाएँ एक जैसी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पातीं। अलग-अलग भाषाओं में भी विधाओं की लोकप्रियता अलग हो सकती है। मसलन बाङ्ला में यात्रा-वृत्तांत जितना लोकप्रिय है, उतना हिन्दी में नहीं। इसलिए बाङ्ला में यात्रा-वृत्तांत लिखे भी ख़ूब जाते हैं। हिन्दी में अलोचना ख़ूब लिखी-पढ़ी जाती है, मैथिली या कोंकणी में उसकी स्थिति वैसी नहीं है। हिन्दी पट्टी में तीर्थयात्राओं का भारी महत्त्व है, पर क़ायदे का कोई तीर्थ यात्रा-वृत्तांत भी हिन्दी में नहीं मिलता। हिन्दी के प्रख्यात यात्रा-वृत्तांत लेखक कृष्णनाथ प्रायः अपवाद ही हैं। उनका एक मात्र यात्रा- वृत्तांत का महत्त्व असंदिग्ध रहेगा, भले ही वह विधा सारी भाषाओं में समरूप लोकप्रिय हो, न हो। इसलिए चयन में निबंध, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण, आलोचना, साक्षात्कार, रेखाचित्र और आलोचना विधि को शामिल किया गया है। एक ही विधा में 22 भाषाओं की रचना मिलने की संभावना हो सकती है, तब इसमें श्रेष्ठ को ही चुनना होगा। इसीलिए मुज्तबा हुसैन जैसे व्यंग्यकार के रेखाचित्रों को चुना गया, क्योंकि एक तो रेखाचित्र-जैसी अल्प लोकप्रिय विधा की रचना थी, दूसरे व्यंग्य के टोन में लिखी गई थी।
कविता और कहानी में 22 भाषाए प्रतिनिधित्व पा गई हैं, लेकिन हम यह नहीं कहते कि ये सर्वश्रेष्ठ भी हैं। वस्तुतः ये श्रेष्ठ रचना की बानगी हैं और समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हुईं, सो वही उनकी सीमा भी है।
जब कई विधाओं की बानगियाँ इकट्ठा हो पाईं तो सोचा गया कि इनका क्रम क्या हो ? क्या सारी कविताएँ एक खंड में कर दी जाएँ ? फिर यह लगा कि कविता और कहानी का खंड़ बहुत बेडौल और मोटा दिखेगा, जबकि अन्य खंड कृशकाय दिखेंगे।
साथ ही पाठक सिर्फ़ अपनी रुचि का खंड ही नहीं, दूसरे खंड भी पढ़ें; इसलिए बड़े खंड़ों की रचनाओं को उपखंडों में बाँटकर अन्य विधाओं के साथ-साथ रख दिया गया। इस कारण से पाठकों को गद्य या पद्य की एकरसता का सामना नहीं करना पड़ेगा। प्रायः संकलनों के संपादन में यह पद्धति नहीं अपनाई जाती। यह पद्धति प्रयोग तो है, पर पाठकों को रुचिकर लगेगा, ऐसी उम्मीद है।
श्रेष्ठ रचनाओं की बानगियों से सजा यह गुलदस्ता सुरुचिपूर्ण लगे, इस कोशिश में सबसे बड़ा हाथ उन रचना पुष्पों का हैं, जो इस चयन में खिलखिला रहे हैं। अकादेमी के 50 वर्ष होने को आए तो उत्सव में कार्यक्रमों झड़ी लग गई। यह चयन श्रेष्ठ रचना का उत्सव है।
इस संग्रह की असमिया कहानी ‘बोहाग’ में प्रेम का उजाला है तो जगन्नाथ प्रसाद दास की ओड़ियों कविता ‘कालाहाँडी’ में हमारे जनतंत्र का अँधेरा है। सलाहुद्दीन परवेज़ अपनी उर्दू नज़्म ‘माँ’ में जो नज़रिया अपनाते हैं, वही नज़रिया पंजाबी कवि मोहनजीत की कविता ‘माँ’ में नहीं है। यह वैपरीत्य हमें जीवन के राग-विराग को समझने, सराहने और उसके सौन्दर्य को आत्मसात करने में सहायता देता है।
यह समय-बद्ध संचयन नहीं है, इसलिए इसकी प्रकाशन-अवधि को रचना में समय के प्रतिनिधित्व का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए। उपमहाद्वीप जितने बड़े इस देश के समाजों के विकास की अलग-अलग अवस्थाएँ हैं। इन समाजों में कोई अपने भीतर तीन हज़ार वर्ष पुराने समय का मानस लेकर इक्कीसवीं सदी में जीता है तो कोई उससे पहले भी। समय का यह दोहरापन हमें बार-बार चौंकाता है। अमानुष से हमें मानुष बने हज़ारों साल बीत गए, फिर भी आज ग़रीबी किसी को कितना अमानुष बना सकती है, यह हम बाङ्ला कथाकार कानाइ कुंडू की कहानी ‘अमृत मंथन’ पढ़कर जान सकते हैं।
साहित्य में बदली जनतांत्रिक के चलते अब भारतीय समाजों के रुद्ध स्त्री-स्वर और दलित-स्वर सुनाई देने लगे हैं। वहाँ एक तरफ़ सहज किल्लोल है तो मर्मान्तक चीत्कार भी है। अरुणा लोखंडे के मराठी लेख ‘दलित महिलाओं के आत्मकथन’, ए.पी.पुणालेकर के आलेख ‘दलित वर्ग, दलित साहित्य और वृद्ध समाज’ और प्रख्यात मराठी दलित लेखक शरण कुमार लिम्बाले की कविता को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। इस उपमहाद्वीप में काल का ही नहीं, देश का भी अंतर होता है। प्रतिभा नंदकुमार की कन्नड कविता ‘हम लड़कियाँ ही ऐसी....’ का स्त्री इंदिरा गोस्वामी की असमिया कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ की स्त्री में देशांतर के बावजूद समानता दिख सकती है। लेकिन देशांतर, जिसे आज के समाजशास्त्री विस्थापन भी कहते हैं, सांस्कृतिक भिन्नता और सांस्कृतिक अपरिचय के चलते पीड़ा भी पैदा करता है।
भारत में संस्कृत और तमिष़ जैसी पुरानी भाषाएँ हैं तो उर्दू और अग्रेंज़ी जैसी नई भाषाएँ भी। अनेक भाषाएँ क्षेत्र विशेष में केन्द्रित हैं तो कुछ भाषाएँ मसलन् अंग्रेज़ी, सिन्धी, उर्दू, हिन्दी अनेक क्षेत्रों/प्रांतों में बोली जाती हैं। इस विविधता के भीतर की कई तरहें हैं। हिन्दी में छांदिक कविता उतार पर है तो उर्दू और मलयाळम् में छांदिक कविता का बोलबाला है।
हिन्दी कवि नागार्जुन और राजस्थानी में मीठेश निर्मोही एक साथ पेड़ के लिए चिन्तित दीखते हैं तो पर्यावरण जैसा प्रश्न सामने आ जाता है। हिन्दी के युवा कवि अंशु मालवीय पूछते हैं- यह बच्चा किस प्रकार गया है ? ये हमारे जीवन के नए प्रश्न हैं।
इस चयन में महज़ ज़िन्दगी के सवाल नहीं हैं, बल्कि साहित्यिक सांस्कृतिक सवाल भी हैं। उर्दू के ख्याति प्राप्त आलोचक आले अहमद सुरूर बीसवीं सदी के इस प्रश्न ‘क्या साहित्य विफल है ?’ का समाधान ढूँढ़ते हैं। जहाँ प्रकाशन जगत पाठकों की कमी और पुस्तकों के युग के अवसान पर विलाप करता है। हिन्दी के सुख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने अपने व्याख्यान में ‘आत्मकथा, जीवनी और संस्मरण’ जैसी अप्रचलित विधाओं के सैद्धांतिक पक्ष पर रोशनी डाली हैं। निर्मल वर्मा परंपरा-बोध में द्वंद को रेखांकित करते हैं तो प्रसिद्ध नाट्यकर्मी शुंभ मित्र नाट्य कला को विस्तार से परिभाषित करते हैं।
विचारों की गति तेज़ होती है। पश्चिम से चलकर उन्हें भारत आने में देर नहीं लगती और यदि यहाँ की हवा-पानी-मिट्टी से सहयोग मिले तो वे जड़ें जमा लेती हैं। नएपन की ललक में हम बहुधा अपनी जड़ों को भूल जाते हैं। कई बार तो पश्चिमी अवधारणा के सम्मुख हम अपनी हीनता-ग्रंथि का प्रदर्शन भी करने लगते हैं। ‘असत्य आत्म गौरव’ निश्चय ही अनुचित है और वह हमें आगे देखने से रोकता है। पर हम इन अतिवादों से बचते हुए पश्चिमी अवधारणा को भारतीय अवधारणा के बरक्स तो देख ही सकते हैं। प्रो.गोपी चंद्र का नारंग लेख ‘संस्कृत भाषा-दर्शन और संरचनावादी एवं उत्तर-संरचनावादी चिन्तन’ इस तरह का लेख है, जो हमें बताता है, इन पर भारतीय भाषा दर्शन का कितना प्रभाव है।
इस चयन की चमक रचना से है और रचनाकारों से भी। भैरप्प, विजय तेन्दुलकर, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, त्रिलोचन शास्त्री, नागार्जुन, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, आले अहमद सुरूर, गोपीचंद्र नारंग, अली सरदार जाफ़री, प्रतिभा रीय, सुनील गंगोपाध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, अमृता प्रीतम, केशव रेड्डी, योसफ़ मेकवान, शरणकुमार लिम्बाले, निर्मल वर्मा, शंभु मित्र, ओ.एन.वी. कुरुप से लेकर युवा अंग्रेजी कथाकार मित्रा फुकन तक इस चयन में उपस्थित हैं। यहाँ सारे नामों को गिनाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कुछ ही पृष्ठों के बाद रचना और रचनाकारों के रहस्य-लोक का द्वार पाठकों का इंतजार कर रहा है।
किसी पुस्तक में पृष्ठों की संख्या-सीमा तो रहती ही है। इस संचयन में भी यह सीमा बार-बार आड़े आती रही। फिर भी केशव रेड्डी के तेलुगु उपन्यास ‘आख़िरी झोंपड़ी’ जैसी अनूठी उपन्यासिका को सम्मिलित करने से हम अपने को रोक नहीं पाए।
इस संचयन के संपादन में अकादेमी परिवार के मधुमालती जैन, देवेन्द्र कुमार, देवेश और लक्ष्मी कुमारी भगत ने सहयोग दिया। मैं इनका आभारी हूँ।
इंडियन लिटरेचर की तर्ज़ पर ही 1980 में समकालीन भारतीय साहित्य का प्रकाशन शुरू किया गया। इस पत्रिका ने अपने प्रकाशन का 25वाँ वर्ष पूरा कर लिया है। शानी संस्थापक संपादक थे। उनके बाद विजयदान देथा के अतिथि-संपादन में दो अंक निकले। फिर गिरधर राठी आए। 2004 में मैंने संपादन सँभाला। पिछले 25 वर्षों में संपादक के रूप में बड़ा योगदान शानी और गिरधर राठी का ही रहा। यह पहले त्रैमासिक निकलती थी, अब द्विमासिक निकलती है। साहित्य अकादेमी को स्वर्ण जयंती के अवसर पर समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशिक रचनाओं और लेखों में से चयन कर एक संग्रहणीय पुस्तक पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की योजना बनी। काम बहुत बड़ा था, इसलिए इसमें समय भी लगा।
बहरहाल, इस चयन को प्रतिनिधि चयन माना जाए, हमारा ऐसा कोई दावा नहीं है।
मूल हिन्दी रचना का चयन संपादकीय टीम करती है, पर अनूदित रचनाओं का प्राथमिक चयन तो अनुवादक ही करते हैं और उस चयन में से चुनने का काम संपादक का होता है। कई बार संपादत भी रचना का चयन कर अनुवाद करवाता है। इस चयन में उपलब्धता एक बड़ा कारक होती है। उपलब्धता में भी कई पेचोख़म होते हैं। मूल रचना का चयन उचित न हो, मूल लेखक से अनुवाद-प्रकाशन की अनुमति न मिले या अनुवाद का ही स्तर अच्छा न हो। अनेक नगरों में आज भी हिन्दी टाइपिंग समस्या है और दूसरी तरफ अनुवादक की लिखावट अपठनीय हो तो संकट। ये सभी उपलब्धता को प्रभावित करते हैं।
उपलब्ध अनूदित साहित्य में से चयन के क्रम में हिन्दी पाठकों को ध्यान में रखना होता है। साथ ही यह भी कि हिन्दी साहित्य किसे अनूठा मानेगा। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट किया जा सकता है। प्रस्तुत संकलन में गुजराती के प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य लेखक विनोद भट्ट का लेख—‘हास्य मेरा पहला प्रेम’ संकलित है। मूल गुजराती में लिखे इस सैद्धान्तिक लेख को हिन्दी में किसी पत्रिका में उद्धृत किया गया था, जिस पर मेरी नज़र गई। मुझे लगा कि यह पूरा लेख मिल जाए तो हिन्दी पाठकों को अनूठा लगेगा, क्योंकि हिन्दी में हास्य पर सैद्धान्तिक लेख का आभाव है। मैंने इसकी अनुमति लेने की कोशिश की तो पता चला कि यह तो हिन्दी में पहले से अनूदित है। काफ़ी प्रयत्न के बाद वह अनुवाद देखने को मिला। लेकिन उस अनुवाद ने मुझे निराश किया। प्रायः तीन महीने में जाकर विनोद भाई से संपर्क हो पाया। उन्होंने अनुमति दे दी, जगदीश चंद्रिकेश ने उसका सुंदर अनुवाद किया। एक तो लेख की सघन अंतर्वस्तु, ऊपर से रंजर प्रस्तुति ! पाठकों से इतनी सराहना मिली कि हम गद्गद हो गए।
साहित्य में सारी विधाएँ एक जैसी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर पातीं। अलग-अलग भाषाओं में भी विधाओं की लोकप्रियता अलग हो सकती है। मसलन बाङ्ला में यात्रा-वृत्तांत जितना लोकप्रिय है, उतना हिन्दी में नहीं। इसलिए बाङ्ला में यात्रा-वृत्तांत लिखे भी ख़ूब जाते हैं। हिन्दी में अलोचना ख़ूब लिखी-पढ़ी जाती है, मैथिली या कोंकणी में उसकी स्थिति वैसी नहीं है। हिन्दी पट्टी में तीर्थयात्राओं का भारी महत्त्व है, पर क़ायदे का कोई तीर्थ यात्रा-वृत्तांत भी हिन्दी में नहीं मिलता। हिन्दी के प्रख्यात यात्रा-वृत्तांत लेखक कृष्णनाथ प्रायः अपवाद ही हैं। उनका एक मात्र यात्रा- वृत्तांत का महत्त्व असंदिग्ध रहेगा, भले ही वह विधा सारी भाषाओं में समरूप लोकप्रिय हो, न हो। इसलिए चयन में निबंध, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण, आलोचना, साक्षात्कार, रेखाचित्र और आलोचना विधि को शामिल किया गया है। एक ही विधा में 22 भाषाओं की रचना मिलने की संभावना हो सकती है, तब इसमें श्रेष्ठ को ही चुनना होगा। इसीलिए मुज्तबा हुसैन जैसे व्यंग्यकार के रेखाचित्रों को चुना गया, क्योंकि एक तो रेखाचित्र-जैसी अल्प लोकप्रिय विधा की रचना थी, दूसरे व्यंग्य के टोन में लिखी गई थी।
कविता और कहानी में 22 भाषाए प्रतिनिधित्व पा गई हैं, लेकिन हम यह नहीं कहते कि ये सर्वश्रेष्ठ भी हैं। वस्तुतः ये श्रेष्ठ रचना की बानगी हैं और समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हुईं, सो वही उनकी सीमा भी है।
जब कई विधाओं की बानगियाँ इकट्ठा हो पाईं तो सोचा गया कि इनका क्रम क्या हो ? क्या सारी कविताएँ एक खंड में कर दी जाएँ ? फिर यह लगा कि कविता और कहानी का खंड़ बहुत बेडौल और मोटा दिखेगा, जबकि अन्य खंड कृशकाय दिखेंगे।
साथ ही पाठक सिर्फ़ अपनी रुचि का खंड ही नहीं, दूसरे खंड भी पढ़ें; इसलिए बड़े खंड़ों की रचनाओं को उपखंडों में बाँटकर अन्य विधाओं के साथ-साथ रख दिया गया। इस कारण से पाठकों को गद्य या पद्य की एकरसता का सामना नहीं करना पड़ेगा। प्रायः संकलनों के संपादन में यह पद्धति नहीं अपनाई जाती। यह पद्धति प्रयोग तो है, पर पाठकों को रुचिकर लगेगा, ऐसी उम्मीद है।
श्रेष्ठ रचनाओं की बानगियों से सजा यह गुलदस्ता सुरुचिपूर्ण लगे, इस कोशिश में सबसे बड़ा हाथ उन रचना पुष्पों का हैं, जो इस चयन में खिलखिला रहे हैं। अकादेमी के 50 वर्ष होने को आए तो उत्सव में कार्यक्रमों झड़ी लग गई। यह चयन श्रेष्ठ रचना का उत्सव है।
इस संग्रह की असमिया कहानी ‘बोहाग’ में प्रेम का उजाला है तो जगन्नाथ प्रसाद दास की ओड़ियों कविता ‘कालाहाँडी’ में हमारे जनतंत्र का अँधेरा है। सलाहुद्दीन परवेज़ अपनी उर्दू नज़्म ‘माँ’ में जो नज़रिया अपनाते हैं, वही नज़रिया पंजाबी कवि मोहनजीत की कविता ‘माँ’ में नहीं है। यह वैपरीत्य हमें जीवन के राग-विराग को समझने, सराहने और उसके सौन्दर्य को आत्मसात करने में सहायता देता है।
यह समय-बद्ध संचयन नहीं है, इसलिए इसकी प्रकाशन-अवधि को रचना में समय के प्रतिनिधित्व का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए। उपमहाद्वीप जितने बड़े इस देश के समाजों के विकास की अलग-अलग अवस्थाएँ हैं। इन समाजों में कोई अपने भीतर तीन हज़ार वर्ष पुराने समय का मानस लेकर इक्कीसवीं सदी में जीता है तो कोई उससे पहले भी। समय का यह दोहरापन हमें बार-बार चौंकाता है। अमानुष से हमें मानुष बने हज़ारों साल बीत गए, फिर भी आज ग़रीबी किसी को कितना अमानुष बना सकती है, यह हम बाङ्ला कथाकार कानाइ कुंडू की कहानी ‘अमृत मंथन’ पढ़कर जान सकते हैं।
साहित्य में बदली जनतांत्रिक के चलते अब भारतीय समाजों के रुद्ध स्त्री-स्वर और दलित-स्वर सुनाई देने लगे हैं। वहाँ एक तरफ़ सहज किल्लोल है तो मर्मान्तक चीत्कार भी है। अरुणा लोखंडे के मराठी लेख ‘दलित महिलाओं के आत्मकथन’, ए.पी.पुणालेकर के आलेख ‘दलित वर्ग, दलित साहित्य और वृद्ध समाज’ और प्रख्यात मराठी दलित लेखक शरण कुमार लिम्बाले की कविता को इसी आलोक में देखा जाना चाहिए। इस उपमहाद्वीप में काल का ही नहीं, देश का भी अंतर होता है। प्रतिभा नंदकुमार की कन्नड कविता ‘हम लड़कियाँ ही ऐसी....’ का स्त्री इंदिरा गोस्वामी की असमिया कहानी ‘देवीपीठ का रक्त’ की स्त्री में देशांतर के बावजूद समानता दिख सकती है। लेकिन देशांतर, जिसे आज के समाजशास्त्री विस्थापन भी कहते हैं, सांस्कृतिक भिन्नता और सांस्कृतिक अपरिचय के चलते पीड़ा भी पैदा करता है।
भारत में संस्कृत और तमिष़ जैसी पुरानी भाषाएँ हैं तो उर्दू और अग्रेंज़ी जैसी नई भाषाएँ भी। अनेक भाषाएँ क्षेत्र विशेष में केन्द्रित हैं तो कुछ भाषाएँ मसलन् अंग्रेज़ी, सिन्धी, उर्दू, हिन्दी अनेक क्षेत्रों/प्रांतों में बोली जाती हैं। इस विविधता के भीतर की कई तरहें हैं। हिन्दी में छांदिक कविता उतार पर है तो उर्दू और मलयाळम् में छांदिक कविता का बोलबाला है।
हिन्दी कवि नागार्जुन और राजस्थानी में मीठेश निर्मोही एक साथ पेड़ के लिए चिन्तित दीखते हैं तो पर्यावरण जैसा प्रश्न सामने आ जाता है। हिन्दी के युवा कवि अंशु मालवीय पूछते हैं- यह बच्चा किस प्रकार गया है ? ये हमारे जीवन के नए प्रश्न हैं।
इस चयन में महज़ ज़िन्दगी के सवाल नहीं हैं, बल्कि साहित्यिक सांस्कृतिक सवाल भी हैं। उर्दू के ख्याति प्राप्त आलोचक आले अहमद सुरूर बीसवीं सदी के इस प्रश्न ‘क्या साहित्य विफल है ?’ का समाधान ढूँढ़ते हैं। जहाँ प्रकाशन जगत पाठकों की कमी और पुस्तकों के युग के अवसान पर विलाप करता है। हिन्दी के सुख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने अपने व्याख्यान में ‘आत्मकथा, जीवनी और संस्मरण’ जैसी अप्रचलित विधाओं के सैद्धांतिक पक्ष पर रोशनी डाली हैं। निर्मल वर्मा परंपरा-बोध में द्वंद को रेखांकित करते हैं तो प्रसिद्ध नाट्यकर्मी शुंभ मित्र नाट्य कला को विस्तार से परिभाषित करते हैं।
विचारों की गति तेज़ होती है। पश्चिम से चलकर उन्हें भारत आने में देर नहीं लगती और यदि यहाँ की हवा-पानी-मिट्टी से सहयोग मिले तो वे जड़ें जमा लेती हैं। नएपन की ललक में हम बहुधा अपनी जड़ों को भूल जाते हैं। कई बार तो पश्चिमी अवधारणा के सम्मुख हम अपनी हीनता-ग्रंथि का प्रदर्शन भी करने लगते हैं। ‘असत्य आत्म गौरव’ निश्चय ही अनुचित है और वह हमें आगे देखने से रोकता है। पर हम इन अतिवादों से बचते हुए पश्चिमी अवधारणा को भारतीय अवधारणा के बरक्स तो देख ही सकते हैं। प्रो.गोपी चंद्र का नारंग लेख ‘संस्कृत भाषा-दर्शन और संरचनावादी एवं उत्तर-संरचनावादी चिन्तन’ इस तरह का लेख है, जो हमें बताता है, इन पर भारतीय भाषा दर्शन का कितना प्रभाव है।
इस चयन की चमक रचना से है और रचनाकारों से भी। भैरप्प, विजय तेन्दुलकर, अज्ञेय, फणीश्वरनाथ रेणु, त्रिलोचन शास्त्री, नागार्जुन, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, आले अहमद सुरूर, गोपीचंद्र नारंग, अली सरदार जाफ़री, प्रतिभा रीय, सुनील गंगोपाध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, अमृता प्रीतम, केशव रेड्डी, योसफ़ मेकवान, शरणकुमार लिम्बाले, निर्मल वर्मा, शंभु मित्र, ओ.एन.वी. कुरुप से लेकर युवा अंग्रेजी कथाकार मित्रा फुकन तक इस चयन में उपस्थित हैं। यहाँ सारे नामों को गिनाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि कुछ ही पृष्ठों के बाद रचना और रचनाकारों के रहस्य-लोक का द्वार पाठकों का इंतजार कर रहा है।
किसी पुस्तक में पृष्ठों की संख्या-सीमा तो रहती ही है। इस संचयन में भी यह सीमा बार-बार आड़े आती रही। फिर भी केशव रेड्डी के तेलुगु उपन्यास ‘आख़िरी झोंपड़ी’ जैसी अनूठी उपन्यासिका को सम्मिलित करने से हम अपने को रोक नहीं पाए।
इस संचयन के संपादन में अकादेमी परिवार के मधुमालती जैन, देवेन्द्र कुमार, देवेश और लक्ष्मी कुमारी भगत ने सहयोग दिया। मैं इनका आभारी हूँ।
अरुण प्रकाश
आले अहमद सुरूर
क्या साहित्य विफल है?
लगभग सत्तर वर्ष पहले जब टी.एस. एलियट ने कहा कि उपन्यास मर चुका है, और बाद में जब एडमंड विल्सन ने घोषणा की कि एक ‘मरती हुई विधा’ है, तो उनका आशय यही था कि दूसरे रूप और पद्धतियाँ उनका स्थान ले लेंगी। उन्होंने यह नहीं कहा कि साहित्य एक मरती हुई कला है। लेकिन इन दिनों कोई ख़ास रूप या विधा नहीं, बल्कि संरचित भाषिक प्रवचन का संपूर्ण माध्यम ही आक्रमणों के घेरे में है। दूरदर्शन और अन्य आधुनिक तकनीकी चमत्कारों के सम्मुख मुद्रित शब्द अपना आकर्षण खो रहा है। यह एक वास्तविक ख़तरा है कि किताबें बेकार हो चलें और मुद्रण केवल अल्पतम उपयोगितापरक कामों तक सीमित हो जाए।
संयुक्त राज्य अमेरिका की एक जीवंत बौद्धिक पत्रिका कमेण्टरी के संपादक नॉर्मन पोडहोरेट्ज ने 1974 में सैटरडे रिव्यू में एक लेख में स्वीकार किया था, ‘‘दुनियाँ में अब तक कि पीढ़ियों में सार्वाधिक शिक्षित होने के बावजूद नई पीढ़ी फिल्मों की अपेक्षा किताबों की, भावना की अपेक्षा विवेक की, विम्बों की अपेक्षा शब्दों की ओर निम्न की अपेक्षा उच्चतर संस्कृति की कम चिन्ता करती है। इस प्रकार वे एक ऐसे भविष्य के लिए अभ्यस्त हो, जहाँ साहित्य का अस्तित्व भी नहीं रहेगा।’’
तथ्य फिर भी यह है कि किताबें पहले से ज़्यादा छप और बिक रही हैं और शायद पढ़ी जाती होंगी। यह सही है, जैसा कि एक समीक्षक ने टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेण्ट में कुछ अरसा पहले इशारा किया था कि उनमें अधिकांश ‘कूड़ा’ होंगी। भरत में हालत और भी बदतर होगी, लेकिन शायद कुछ विश्वास के साथ यह दावा किया जा सकता है कि अधिकांश भारतीय भाषाओं में अभी भी कुछ उम्दा किताबें आ रही हैं और कविता तथा गद्य में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए जा रहे हैं। भारतीय भाषाओं में आपस में और विदेशी साहित्य से पहले से अधिक अनुवाद देखे जा सकते हैं।
साहित्य के विभिन्न रूपों और विधाओं के बीच की सीमा-रेखाएँ धुँधली पड़ने लगी है। भाषा ख़ुद बदल रही है, नैतिक सवालों पर बहस जारी है, यद्यपि नैतिक समाधानों का प्रचलन नहीं रहा, विचारधारा की पकड़ ढ़ीली होती जा रही है तथा संशयवाद, संदेह और निराशा, अँधी आस्था, सुनिश्चित मताग्रहों और अस्पष्ट सामान्यीकरण की जगह लेते जा रहे हैं। भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में टैगोर, इक़बाल और प्रेमचंद्र जैसे महान नाम इस समय नहीं हैं। महानों का दौर समाप्त हो गया है। आकाश पर कवि छाए नहीं हैं। यह गद्य का, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा और आलोचना का दौर है। कुछ रचनाकारों ने आलोचकों की वर्तमान हैसियत पर विरोध प्रकट किया है। आलोचक कई बार नए लेखकों की प्रतिभा को पहचानने में असफल रहे हैं; वे अधिकांशतः पुरानी अभिरुचियों में ही शरण लेते रहे हैं; विचारधारा की अपनी तालाश के मारे वे साहित्य के मूल्यांकन में नाकामयाब रहे हैं; फिर भी एक परिप्रेक्ष्य के लिए, एक मूल्यबोध और संस्कृति की खोज के लिए और इस दौर की बढ़ती हुई बर्बरता में एक सामाजिक चेतना, एक नैतिक ताने-बाने के लिए और भाषा नामक रहस्य के सम्मान के लिए आलोचक का महत्त्व है। साहित्यिक संवेदना में एक बदलाव है और आलोचक ही है, जो बताता है कि ‘नवीकरण’ क्यों महत्त्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी भिन्नताएँ और अन्वेषण हैं, जो दोषपूर्ण शिक्षा, परिवार के टूटने, बढ़ते हुए आर्थिक तनावों, स्थान-परिवर्तन और परिवेश तथा प्रकृति से अलगाव के कारण सामान्य जनता को अस्पष्ट लगते हैं। यह आलोचक का काम है कि वह सामान्य पाठक को नए की संपन्न संभावनाओं से परिचित कराए; और पुराने तथा परिचित के साथ तुलनात्मक विश्लेषण कर नए का महत्त्व प्रतिपादित करे, पाठक को मानसिक क्षितिज का विस्तार करे, उसे सह-अनुभूति विकसित करने योग्य बनाए और साथ ही उसमें बदलाव में निरंतरता को समझने तथा जीवन को धैर्यपूर्वक और समग्रता में देखने की सामर्थ्य विकसित करें।
पाठक आमतौर पर रूढ़िवादी होते हैं, वे सामान्यतया साहित्य में अपनी स्थापित मर्यादाओं की स्वीकृति या एक स्वप्न-जगत में पलायन चाहते हैं। साहित्य एक झटके में उन्हें अपने आस-पास के उस जीवन के प्रति सचेत करता है, जिससे उन्होंने आँखें मूँद रखी थीं। शुतुरमुर्ग़ अफ्रीका के रेगिस्तानों में नहीं मिलते; वे हर जगह बहुतायत में उपलब्ध है। प्रौद्योगिकी के इस दौर का नतीजा जीवन के हर गोशे में नक़द फ़सल के लिए बढ़ता हुआ पागलपन है; और हमारे राजनीतिज्ञ, सत्ता के दलाल, व्यापारी, नौकरशाह- सभी लोगों को इस भगदड़ में नहीं पहुँचने, जैसा दूर करते हैं वैसा करने, चूहादौड़ में शामिल होने और कुछ-न-कुछ हासिल कर लेने को जिए जा रहे हैं। हम थककर साँस लेना और अपने चारों ओर निहारना, हवा के पेड़ में से गुज़रते वक्त पत्तियों की मनहर लय-गतियों को और फूलों के जादुई रंगों को, फूली सरसों के चमकदार पीलेपन को, खिले मैदानों की घनी हरीतिमा को मर्मर ध्वनि के सौन्दर्य, हिमाच्छादित शिखरों की भव्यता, समुद्र तट पर पछाड़ खाकर बिखरती हुई लहरों के घोस को देखना-सुनना भूल गए हैं।
कुछ लोग सोचते हैं कि पश्चिम का आधुनिकतावाद और भारत तथा अधिकांश तीसरी दुनिया के नव औपनिवेशिक चिन्तन के साथ अपनी जड़ों से अलगाव, व्यक्तिवादी अजनबियत में हमारा अनिवार्य बेलगाम धँसाव, अचेतन के बिम्ब, बौद्धिकता से विद्रोह, यह घोषणा की ‘दिमाग़ अपनी रस्सी के अंतिम सिरे पर है’, यथार्थवाद का विध्वंस, काम का ऐन्द्रिक सुख मात्र रह जाना और मानवीय भावनाओं का व्यावसायीकरण तथा निम्नस्तरीयकरण इस अँधी घाटी में आ फँसने की वजह है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण इतिहास की एक सच्चाई है, कि नई समस्याओं को जन्म देने और विज्ञान को अधिक जटिल बनाने के बावजूद आधुनिकीकरण, एक तरह से, मानव जाति की नियति है।
वे यह भी भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण सौ फीसदी पश्चिमी करण नहीं है, बल्कि एक बिन्दु के बाद यह अपना रास्ता ख़ुद बनाता है। हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि भारतीय पुनर्जागरण उदीयमान बुर्जुआ वर्ग़ द्वारा अपनी ज़रूरतों के लिए अपहृत कर लिया गया और अधूरा ही रह गया। हमें मशीम द्वारा मनुष्य के विस्थापन, महानगरों के जंगलों का निर्माण और प्रगति के नाम पर सत्ता की राजनीति को भी समझना चाहिए। आधुनिकता के बहुत से आयाम हैं, लेकिन पश्चिम में पूँजीवाद की भूमिका से सीख लेते हुए भारत में भी इसे समग्र मनुष्य के बारे में महसूस करने और सोचने को हतोत्साहित किया और ऊब तथा मनुष्य में छिपे पशुत्व के रसातल में उदास चिन्तन के रेगिस्तान को बढ़ावा दिया है। मानवता और मानवीयता की जगह बर्बरता और पशुत्व ने ले ली है। ‘नवता’, स्टीफ़ोन स्पेण्डर द्वारा प्रयुक्त पद, की तालाश में कुछ लोगों ने अच्छे लेखन को ‘प्रतिक्रांतिकारी’ मान लिया। उनकी राय में साहित्य यथास्थिति पर हमारे अक्रोश की धीर को कुंठित करता और हमें केवल मानसिक जगत में रहने के लिए प्रेरित करता है।
मेरा सुझाव है कि विवेकहीन आधुनिकता के बावजूद आधुनिकता की दिशा में धैर्यपूर्वक सुयोजित प्रयास होने चाहिए। यथार्थवाद का अर्थ व्यर्थ के ब्यौरे नहीं होने चाहिए और न स्वस्थ काम को अश्लील लेखन में ढलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि क्लासिकी साहित्य ने काम-व्यवहार को भी अपनी परिधि में लिया, पर उसमें लोलुप संतोष नहीं हैं। एक आलोचक किसी नाली में भी झाँक सकता है, पर वह नाली-निरीक्षक नहीं होता। लेखक का कार्य दुनिया को बदलना नहीं, समझना है।
साहित्य क्रांति नहीं करता; वह मनुष्यों के दिमाग़ बदलता और उन्हें क्रांति की ज़रूरत के प्रति जागरूक बनाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि पक्षधर साहित्य, साहित्य का एक प्रकार मात्र है, कि विचारधारा सर्जनात्मक दृष्टि को बाधित कर सकती है, गो यह उसे एक दिशा भी देती है। साहित्य में ‘चाहिए’ को भी ध्यान में रखा जा सकता है, पर उसका मुख्य सरोकार ‘है’ से होता है। जब पाठक को लगता है कि उसे एक शो-रूम में ले आया गया है तो वह फँसा हुआ महसूस करता है; जब वह एक खिड़की से दुनिया को देखता है तो उसमें प्रत्येक चीज़ को देखने की उत्सुकता और जिज्ञासा जागती है। साहित्य राजनीतिक हो सकता है और धार्मिक, रहस्यवादी, दार्शनिक भी, लेकिन उसे किसी दर्शन या विचारधारा को हथौड़ा नहीं बनाना चाहिए। दोस्तोएव्स्की ने एक बार कहा था कि केवल ‘सौंदर्य’ ही दुनिया को बचा सकता है। मेरे ख़याल में सौन्दर्य से उसका तात्पर्य उपयोगिता के उस संकीर्ण अर्थ से था, जिसका उपदेश कॉडवेल ने दिया। सौन्दर्य से उसका तात्पर्य शायद था पूर्णता की खोज में सक्रिय मनुष्य : परिचित और अपरिचित में, जीवन की खुशी और दुःख में, संगति और असंगति के सौंदर्य, वक्र गतियों और उज्जवल भावों का, उत्प्रेरक विचारों का, निराशा के अतल में आशा का, प्रभावित यौवन और थके-हारे युग का सौंदर्य; मनुष्य में दिव्यत्व के कंपन का और आज एक पेड़ लगाने का सौंदर्य; मार्टिन लूथर के शब्दों में, यह जानते हुए भी कि यह दुनिया कल समाप्त हो सकती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका की एक जीवंत बौद्धिक पत्रिका कमेण्टरी के संपादक नॉर्मन पोडहोरेट्ज ने 1974 में सैटरडे रिव्यू में एक लेख में स्वीकार किया था, ‘‘दुनियाँ में अब तक कि पीढ़ियों में सार्वाधिक शिक्षित होने के बावजूद नई पीढ़ी फिल्मों की अपेक्षा किताबों की, भावना की अपेक्षा विवेक की, विम्बों की अपेक्षा शब्दों की ओर निम्न की अपेक्षा उच्चतर संस्कृति की कम चिन्ता करती है। इस प्रकार वे एक ऐसे भविष्य के लिए अभ्यस्त हो, जहाँ साहित्य का अस्तित्व भी नहीं रहेगा।’’
तथ्य फिर भी यह है कि किताबें पहले से ज़्यादा छप और बिक रही हैं और शायद पढ़ी जाती होंगी। यह सही है, जैसा कि एक समीक्षक ने टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेण्ट में कुछ अरसा पहले इशारा किया था कि उनमें अधिकांश ‘कूड़ा’ होंगी। भरत में हालत और भी बदतर होगी, लेकिन शायद कुछ विश्वास के साथ यह दावा किया जा सकता है कि अधिकांश भारतीय भाषाओं में अभी भी कुछ उम्दा किताबें आ रही हैं और कविता तथा गद्य में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रयोग किए जा रहे हैं। भारतीय भाषाओं में आपस में और विदेशी साहित्य से पहले से अधिक अनुवाद देखे जा सकते हैं।
साहित्य के विभिन्न रूपों और विधाओं के बीच की सीमा-रेखाएँ धुँधली पड़ने लगी है। भाषा ख़ुद बदल रही है, नैतिक सवालों पर बहस जारी है, यद्यपि नैतिक समाधानों का प्रचलन नहीं रहा, विचारधारा की पकड़ ढ़ीली होती जा रही है तथा संशयवाद, संदेह और निराशा, अँधी आस्था, सुनिश्चित मताग्रहों और अस्पष्ट सामान्यीकरण की जगह लेते जा रहे हैं। भारतीय साहित्यिक परिदृश्य में टैगोर, इक़बाल और प्रेमचंद्र जैसे महान नाम इस समय नहीं हैं। महानों का दौर समाप्त हो गया है। आकाश पर कवि छाए नहीं हैं। यह गद्य का, उपन्यास, कहानी, आत्मकथा और आलोचना का दौर है। कुछ रचनाकारों ने आलोचकों की वर्तमान हैसियत पर विरोध प्रकट किया है। आलोचक कई बार नए लेखकों की प्रतिभा को पहचानने में असफल रहे हैं; वे अधिकांशतः पुरानी अभिरुचियों में ही शरण लेते रहे हैं; विचारधारा की अपनी तालाश के मारे वे साहित्य के मूल्यांकन में नाकामयाब रहे हैं; फिर भी एक परिप्रेक्ष्य के लिए, एक मूल्यबोध और संस्कृति की खोज के लिए और इस दौर की बढ़ती हुई बर्बरता में एक सामाजिक चेतना, एक नैतिक ताने-बाने के लिए और भाषा नामक रहस्य के सम्मान के लिए आलोचक का महत्त्व है। साहित्यिक संवेदना में एक बदलाव है और आलोचक ही है, जो बताता है कि ‘नवीकरण’ क्यों महत्त्वपूर्ण है। अभिव्यक्ति में कुछ ऐसी भिन्नताएँ और अन्वेषण हैं, जो दोषपूर्ण शिक्षा, परिवार के टूटने, बढ़ते हुए आर्थिक तनावों, स्थान-परिवर्तन और परिवेश तथा प्रकृति से अलगाव के कारण सामान्य जनता को अस्पष्ट लगते हैं। यह आलोचक का काम है कि वह सामान्य पाठक को नए की संपन्न संभावनाओं से परिचित कराए; और पुराने तथा परिचित के साथ तुलनात्मक विश्लेषण कर नए का महत्त्व प्रतिपादित करे, पाठक को मानसिक क्षितिज का विस्तार करे, उसे सह-अनुभूति विकसित करने योग्य बनाए और साथ ही उसमें बदलाव में निरंतरता को समझने तथा जीवन को धैर्यपूर्वक और समग्रता में देखने की सामर्थ्य विकसित करें।
पाठक आमतौर पर रूढ़िवादी होते हैं, वे सामान्यतया साहित्य में अपनी स्थापित मर्यादाओं की स्वीकृति या एक स्वप्न-जगत में पलायन चाहते हैं। साहित्य एक झटके में उन्हें अपने आस-पास के उस जीवन के प्रति सचेत करता है, जिससे उन्होंने आँखें मूँद रखी थीं। शुतुरमुर्ग़ अफ्रीका के रेगिस्तानों में नहीं मिलते; वे हर जगह बहुतायत में उपलब्ध है। प्रौद्योगिकी के इस दौर का नतीजा जीवन के हर गोशे में नक़द फ़सल के लिए बढ़ता हुआ पागलपन है; और हमारे राजनीतिज्ञ, सत्ता के दलाल, व्यापारी, नौकरशाह- सभी लोगों को इस भगदड़ में नहीं पहुँचने, जैसा दूर करते हैं वैसा करने, चूहादौड़ में शामिल होने और कुछ-न-कुछ हासिल कर लेने को जिए जा रहे हैं। हम थककर साँस लेना और अपने चारों ओर निहारना, हवा के पेड़ में से गुज़रते वक्त पत्तियों की मनहर लय-गतियों को और फूलों के जादुई रंगों को, फूली सरसों के चमकदार पीलेपन को, खिले मैदानों की घनी हरीतिमा को मर्मर ध्वनि के सौन्दर्य, हिमाच्छादित शिखरों की भव्यता, समुद्र तट पर पछाड़ खाकर बिखरती हुई लहरों के घोस को देखना-सुनना भूल गए हैं।
कुछ लोग सोचते हैं कि पश्चिम का आधुनिकतावाद और भारत तथा अधिकांश तीसरी दुनिया के नव औपनिवेशिक चिन्तन के साथ अपनी जड़ों से अलगाव, व्यक्तिवादी अजनबियत में हमारा अनिवार्य बेलगाम धँसाव, अचेतन के बिम्ब, बौद्धिकता से विद्रोह, यह घोषणा की ‘दिमाग़ अपनी रस्सी के अंतिम सिरे पर है’, यथार्थवाद का विध्वंस, काम का ऐन्द्रिक सुख मात्र रह जाना और मानवीय भावनाओं का व्यावसायीकरण तथा निम्नस्तरीयकरण इस अँधी घाटी में आ फँसने की वजह है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण इतिहास की एक सच्चाई है, कि नई समस्याओं को जन्म देने और विज्ञान को अधिक जटिल बनाने के बावजूद आधुनिकीकरण, एक तरह से, मानव जाति की नियति है।
वे यह भी भूल जाते हैं कि आधुनिकीकरण सौ फीसदी पश्चिमी करण नहीं है, बल्कि एक बिन्दु के बाद यह अपना रास्ता ख़ुद बनाता है। हमें इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि भारतीय पुनर्जागरण उदीयमान बुर्जुआ वर्ग़ द्वारा अपनी ज़रूरतों के लिए अपहृत कर लिया गया और अधूरा ही रह गया। हमें मशीम द्वारा मनुष्य के विस्थापन, महानगरों के जंगलों का निर्माण और प्रगति के नाम पर सत्ता की राजनीति को भी समझना चाहिए। आधुनिकता के बहुत से आयाम हैं, लेकिन पश्चिम में पूँजीवाद की भूमिका से सीख लेते हुए भारत में भी इसे समग्र मनुष्य के बारे में महसूस करने और सोचने को हतोत्साहित किया और ऊब तथा मनुष्य में छिपे पशुत्व के रसातल में उदास चिन्तन के रेगिस्तान को बढ़ावा दिया है। मानवता और मानवीयता की जगह बर्बरता और पशुत्व ने ले ली है। ‘नवता’, स्टीफ़ोन स्पेण्डर द्वारा प्रयुक्त पद, की तालाश में कुछ लोगों ने अच्छे लेखन को ‘प्रतिक्रांतिकारी’ मान लिया। उनकी राय में साहित्य यथास्थिति पर हमारे अक्रोश की धीर को कुंठित करता और हमें केवल मानसिक जगत में रहने के लिए प्रेरित करता है।
मेरा सुझाव है कि विवेकहीन आधुनिकता के बावजूद आधुनिकता की दिशा में धैर्यपूर्वक सुयोजित प्रयास होने चाहिए। यथार्थवाद का अर्थ व्यर्थ के ब्यौरे नहीं होने चाहिए और न स्वस्थ काम को अश्लील लेखन में ढलना चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि क्लासिकी साहित्य ने काम-व्यवहार को भी अपनी परिधि में लिया, पर उसमें लोलुप संतोष नहीं हैं। एक आलोचक किसी नाली में भी झाँक सकता है, पर वह नाली-निरीक्षक नहीं होता। लेखक का कार्य दुनिया को बदलना नहीं, समझना है।
साहित्य क्रांति नहीं करता; वह मनुष्यों के दिमाग़ बदलता और उन्हें क्रांति की ज़रूरत के प्रति जागरूक बनाता है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि पक्षधर साहित्य, साहित्य का एक प्रकार मात्र है, कि विचारधारा सर्जनात्मक दृष्टि को बाधित कर सकती है, गो यह उसे एक दिशा भी देती है। साहित्य में ‘चाहिए’ को भी ध्यान में रखा जा सकता है, पर उसका मुख्य सरोकार ‘है’ से होता है। जब पाठक को लगता है कि उसे एक शो-रूम में ले आया गया है तो वह फँसा हुआ महसूस करता है; जब वह एक खिड़की से दुनिया को देखता है तो उसमें प्रत्येक चीज़ को देखने की उत्सुकता और जिज्ञासा जागती है। साहित्य राजनीतिक हो सकता है और धार्मिक, रहस्यवादी, दार्शनिक भी, लेकिन उसे किसी दर्शन या विचारधारा को हथौड़ा नहीं बनाना चाहिए। दोस्तोएव्स्की ने एक बार कहा था कि केवल ‘सौंदर्य’ ही दुनिया को बचा सकता है। मेरे ख़याल में सौन्दर्य से उसका तात्पर्य उपयोगिता के उस संकीर्ण अर्थ से था, जिसका उपदेश कॉडवेल ने दिया। सौन्दर्य से उसका तात्पर्य शायद था पूर्णता की खोज में सक्रिय मनुष्य : परिचित और अपरिचित में, जीवन की खुशी और दुःख में, संगति और असंगति के सौंदर्य, वक्र गतियों और उज्जवल भावों का, उत्प्रेरक विचारों का, निराशा के अतल में आशा का, प्रभावित यौवन और थके-हारे युग का सौंदर्य; मनुष्य में दिव्यत्व के कंपन का और आज एक पेड़ लगाने का सौंदर्य; मार्टिन लूथर के शब्दों में, यह जानते हुए भी कि यह दुनिया कल समाप्त हो सकती है।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book