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कहानी संग्रह >> पिता के मित्र

पिता के मित्र

अशोकमित्रन्

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2137
आईएसबीएन :81-260-0696-x

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प्रस्तुत है तमिल कहानी संग्रह....

pita ke mitra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

तमिल के लोकप्रिय लेखक श्री अशोकमित्रन् का जन्म 22 जुलाई 1931 को सिकन्दराबाद (आन्ध्रप्रदेश) में हुआ। आपका मूल नाम जगदीश त्यागराजन् है लेकिन पाठक वर्ग आपके उपनाम से ही अधिक परिचित हैं।
आपने लेखन-कार्य को ही अपनी आजीविका बना लिया है। आपको लेखन से सम्बन्धित कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इनमें इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया पुरस्कार, ए.आई.आर. नाट्य-लेखन तथा इलक्किय चिन्तने पुरस्कार, सैन्तोम पुरस्कार तथा अग्नि पुरस्कार सम्मिलित हैं। आपकी कई रचनाएँ प्रकाशित हैं, जिनमें उपन्यास और कथा-संग्रह दोनों ही सम्मिलित हैं।

प्रस्तुत कहानी-संकलन अप्पाविन स्नेहिदर के अतिरिक्त उनके कई कहानी-संग्रह और उपन्यास भी प्रकाशित हैं। आपकी कहानियों को पढ़ते हुए पाठकों को ऐसा लगता है मानो कोई दिलचस्प एलबम हाथ लग गया हो। आपकी कहानियाँ पाठकों की जिज्ञासा को निरंतर बनाए रखती है, जैसा कि प्रस्तुत संकलन की कहानियों को पढ़ने पर भी पता चलेगा। इन कहानियों में निरूपित पात्रों का जीवन के प्रति एक अलग दृष्टिकोण होता है। परिवेश तथा परिस्थितियों के प्रति उनका यही वैशिष्ट्य लेखक की पूँजी बन गया।
साहित्य अकादेमी द्वारा प्रस्तुत कहानी-संग्रह को वर्ष 1996 के लिए तमिल की श्रेष्ठ कृति होने के नाते पुरस्कृत किया जा चुका है।

यह संग्रह आत्मकथा तो नहीं ?

छोटी कविता भी अगर रसिकों को भा जाय, तब आधी शताब्दी तक जी सकती है। गद्य में यह सम्भव नहीं है। कविता याद रहती है, याद की जा सकती है। कहानी या लेख नहीं। कहानी या लेख का पाठक वही इकाइयाँ याद रखता है, जो उसके मनोभाव से, दृष्टिकोण से, मेल रखती हैं। इसी शर्त पर कि कहानी याद रह जाए।
लम्बी समयावधि से कहानियाँ लिखने वाला किसी भी कारण इन्हें एक बार फिर पढ़े, तब एक तथ्य सामने आता है। कुछ नाम, न जाने क्यों, बार-बार आते हैं। एक ही घटना विभिन्न दृष्टिकोण से देखी, परखी गयी है। कई बार कहानियों का घटनास्थल, वही बस्ती है, वही सड़क।

आश्चर्य का विषय नहीं है यह। यह गलती भी नहीं है। कहानी अपने ही परिणाम में किसी भी घटना का पूरा व्योरा दे सकती है। बाद में, उसी लेखक की किसी और रचना में पुरानी कहानी के पात्र आ जायें, वही गाँव, वही शहर, घटनास्थल हो, तब विवाद निरर्थक है। प्रसिद्ध लेखक भी इस प्रकार के दोहराव पर प्रतिबन्ध नहीं लगाते हैं।
पाठक यदि कहानियाँ पढ़कर उन्हें भुला दें, तब समस्या है ही नहीं। लेकिन, विस्तृत जानकारी वाले सतर्क पाठक एक प्रश्न से जूझने पर विवश हैं। कहानियों के पात्र, परिस्थिति, वास्तविकता पर आधारित न होते, तब बार-बार जन्म कैसे, क्यों लेते हैं ? ये कहानियाँ कहीं आत्मकथा तो नहीं ‍?
कुछ वर्ष पूर्व जब मेरी रचना....भूमध्यरेखा का आठारवाँ हिस्सा....प्रकाशित हुई, तब यही प्रश्न उठाः ये कहानियाँ आत्मकथा तो नहीं हैं ?

जवाब ‘हाँ’ या ‘ना’ में भी हो सकता है।
‘‘एक हमारा साथ नहीं देते हैं। आप इसी कारण विरोधी पक्ष के हैं।’’ हाँ या नहीं में जवाब देकर, इस प्रकार सोचनेवालों का काम आसान बना दिया जा सकता है।
यथार्थ, आसानी से पकड़ में नहीं आता है। इस संग्रह की कई कहानियों के पात्रों का परिचय है, इनका संबंध वास्तविकता से, यथार्थ ही से है। लेकिन ये कहानियाँ उन्हीं पात्रों की नहीं हैं। इतना लेकिन होने के नाते, मैं कह सकता हूँ। इन्हें मैं जानता हूं। कहानियों के माध्यम से इनके प्रति आभार व्यक्त करना भी हमारा उद्देश्य था। इन कहानियों की रचना परिश्रम से ही की गयी थी। इस, परिश्रम का आनन्द असीमित था।

इसके पूर्व भी प्रकाशन के पूर्व, एक कहानी-संग्रह को पढ़ा, तब यही अनुभूति हुई, कि सब एक ही कहानी के अंश हैं। इस संग्रह को पढ़ते हुए भी वही अनुभूति हुई। कभी-कभीर किसी कहानी के कारकों और आकार को बढ़ाकर, उसे नया, विस्तृत रूप देने को भी मन करता है। अन्तःकरण कहता है, यह अनुचित होगा। एक-एक कहानी की अपनी सीमा है, अपना ढ़ाँचा। इस बन्धन को तोड़ दिया जाए, तब यह कहा जा सकता है, कि कहानी को किसी भी तरह बढ़ाने का प्रयास किया गया है।
मेरी कहानियों में हिन्दू, मुसलमान और ईसाई पात्र हैं। ये अपनी पूर्ण आकृति के साथ उभरते हैं। सैयद मामा यदि जीवित होते, तब उनकी उम्र सौ से अधिक ही होती।
इन कहानियों को लिखते समय आनन्द की अनुभूति का मैंने उल्लेख किया है। आशा यही है कि पाठक तक भी यह आनन्द पहुँचेगा।

चेन्नई
5 दिसम्बर, 1991

-अशोकमित्रन्

समारोह की शाम


किसी पकड़ से दूर रहे जो
शायद वह हो शहद-सी माठी
मन कहता, वह हिरणी जैसी
मस्ती में, मन काटे चिकोटि

भारत सरकार के तत्त्वावधान में अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्मोत्सव का आयोजन हैदराबाद में हुआ। सूचना दे दी गयी थी। चलचित्र-समारोह और फ़िल्मोत्सव फ़िल्मों का ही उत्सव है। लेकिन, चलचित्र-समारोह राजधानी दिल्ली में ही आयोजित होता आया है। वही समारोह बाद में किसी और महानगर में फ़िल्मोत्सव के नाम से आयोजित किया जाता है। चेन्नई, बंगलौर, मुम्बई, कलकत्ता-सबकी बारी आ चुकी। हैदराबाद की बारी आनी थी। निर्णय अप्रत्याशित नहीं था।
दिल्ली के समारोह में फ़िल्मों का वर्गीकरण होता है। प्रतियोगिता में दर्शायी जाने वाली फ़िल्मों में सर्वोत्तम फ़िल्म, सर्वोंत्तम अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक इत्यादि घोषित किये जाते हैं। दिल्ली के बाहर आयोजित फ़िल्मोत्सव में ऐसा कुछ नहीं होता है। वैसे भी भारत में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों का, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष महत्त्व नहीं है।
मतलब यह कि मेरे लिये फ़िल्मोत्सव का विशेष महत्त्व नहीं है। मन से और चेतना से फ़िल्मों को मेरी राह में लाकर तंग कर रहा हो। पाँव लड़खड़ाते हैं, इस अजीब खेल में। मैं नहीं-नहीं कहता रहता हूँ, लेकिन फ़िल्म मुझ पर आ गिरती है।, मैं भी उन पर गिर पड़ता हूँ।

हैदराबाद के फ़िल्मोत्सव को ही लें। फ़िल्म, चलचित्र-समारोह, फ़िल्मोत्सव इत्यादि मेरी चेतना से जिस दिन हटा दिए गये थे, उसी दिन सामने वाले मकान की छत से मकान-मालिक, उनकी बीवी, उनकी बेटी, सब मिलकर चिल्लायेः ‘‘ज़रा सुनिये तो सही ! सर ! मामा !’’ मेरे घर की ओर मुँह कर सब शोर मचा रहे थे। यह भी याद है- सब ताली बजाकर मुझे पुकार रहे थे। वैसे उनसे कोई वास्ता नहीं था। सामने के मकान वालों को लेकिन मेरी, मेरे परिवार वालों की पूरी जानकारी थी। वे जिस तरह शोर मचा रहे थे, स्पष्ट हो गया कि मामला पेचीदा है। वे मुझको ही बुला रहे थे। मैं सामने वाले मकान की ओर दौड़ा। मैं सीढियाँ चढ़ ही रहा था, जब उन सबों ने शोर मचायाः ‘‘ट्रंक काल ! ट्रंक काल !!’’
मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मालिक ने टेलीफ़ोन की ओर इशारा किया। मैंने रिसीवर को कान में धरा। कोई बहुत तेज़ी से कुछ कह रहा था। निश्चित रूप से कहना कठिन था कि वह क्या कह रहा था !
‘‘बात क्या है ?’’ सामने वाले मकान-मालिक ने और उसके परिवार के सभी सदस्यों ने पूछा।
‘‘कुछ समझ में नहीं आया !’’ मैंने कहा।

‘‘वैसे हैदराबाद ही से आयी थी, कॉल.....कहा तो यही था।’’
‘‘बात यह है, हैदराबाद से मेरे सम्बन्ध न जाने कब के टूट चुके हैं। मेरा ख़याल है, कुछ ग़लती हो गयी है। आप लोगों को तकलीफ़ दी है.....माफ़ी चाहता हूं !’’
उसी शाम वर्दी में कोई घर आया और एक लम्बा लिफ़ाफ़ा पकड़ा गया। लिफ़ाफ़ा खोला तो उसमें था- दूसरे दिन ही हैदराबाद की ओर उड़ान भरने का टिकट।
‘‘बात क्या है भई ? किसके के लिए है टिकट ?’’
‘‘आप ही का नाम है सुन्दरराज ?’’
‘‘हाँ !’’

‘‘बस तो फिर आप ही के लिए है। हमारे ब्रांच मैंनेजर ने भेजा है। आज ही हेड आफ़िस से भी आपकी बातचीत हुई थी, न !’’
‘‘आपके मैंनेजर कौन हैं ? यह कौन-सा दफ़्तर है ? इस समय वह दफ़्तर में होंगे ?’’
‘‘आठ साढ़े-आठ बज ही जाते हैं उनके आने तक, ! हमारा दफ़्तर शाम चार बजते ही जगता है...काम ही ऐसा है काम तब ही शुरू होता है।’’

हैदराबाद के किसी दैनिक चेन्नई शाखा थी वह।
लिफा़फ़े पर ही पता और टेलीफोन नम्बर भी था। मैं लिफ़ाफ़े समेत मूसा की दुकान तक गया। दुकान में कैशबॉक्स के पास ही छोटी-सी अलमारी में टेलीफ़ोन था। अलमारी के नीचे, फ़र्श पर सूखी लाल मिर्च के  बोरे थे। वहाँ कुछ देर खड़े होकर टेलीफ़ोन पर बातचीत, अजीब-अजीब विस्फोटक शोर में बदलते है। रूमाल ढ़ूँढ़ने की नौबत आती है। कैशबॉक्स के दूसरी ओर बात करने की कोशिश का मतलब है, मूसा के सिर के ऊपर ही अपना मुँह रखना। मूसा के सिर को अपने पास आने भी देना सिर्फ़ उसकी बीवी के बस की बात है। मूसा को शायद कोई आपत्ति न हो, लेकिन उससे शादी की हिम्मत सब नहीं कर सकते।

तूफ़ान में बिज़ली के खम्भे की तरह, भौतिक शास्त्र के समतल सिद्धान्त के अन्तिम सिरे पर खड़े होकर मैंने उस वर्दीवाले सन्देसिया के दफ़्तर का नम्बर मिलाया। नम्बर फौरन मिला।
मैंने ‘‘हैलो’’ कहा और उसने भी। मैं फ़ौरन सब समझ गया।
‘‘आप ही ने सुबह दसेक बजे मेरे पड़ोसी के यहाँ फ़ोन किया था न ?’’
‘‘किसके घर ? किसका पड़ोसी ?’’
अब मैंने शहर में अपना पूरा पता दिया, मोहल्ला फलाँ, सड़क नम्बर तीन, घर नम्बर इकत्तीस !
‘‘सुन्दरराज ही न ?’’ उसने सवाल किया।
‘‘हाँ !’’
‘‘सुन्दरम् ! मुझे नहीं पहचाना ?’’
‘‘नहीं। आप ही ने आज ट्रंककॉल किया था ?’’
‘‘किसके नाम ?’’
‘‘मेरे नाम।’’


‘‘तुझे क्यों करता ट्रंककॉल ! तू यहीं तो रहता है !’’
‘‘तो आज सुबह आपने ट्रंककॉल नहीं किया था ?’’
‘‘तुझे क्यों करता ट्रंककॉल, तू यहीं तो रहता है ? वैसे सब कुछ ठीक-ठाक है न ?’’
ज़रा ज़बान सम्भाल के बात करिये ! आप जानते है किससे बात कर रहे हैं !’’
‘‘कौन ? सुन्दरराज ही न ?’’

‘‘हाँ ! सुन्दरराज बोल रहा हूँ ?’’
‘‘क्यों भई, सुन्दरम् ! इस तरह क्यों बात कर रहा है ! अब भी नहीं पहचाना, मैं बोल रहा हूँ ?’’
‘‘आप पहचान तो गये हैं कि मैं नहीं पहचान पाया ! अब बता भी दीजिए कि कौन हैं आप ?’’
‘‘मैं ही हूँ, सउंड अनन्तस्वामी ! अनन्तु, अनन्तु....’’
मेरी समझ में अब भी नहीं आया।
‘‘हाँ भई, अनन्तु हूँ ! क्यों भाई सुन्दरम् इस तरह क्यों बात कर रहा है, जैसे मुझे बिलकुल न जानता हो ? मैं अनन्तु हूँ भई ! ऊपरवाली रेखा का अनन्तु !’’

‘‘ओह ! अनन्तु ! अनन्तु ! अरे तू अख़बार के दफ़्तर में कैसे पहुँच गया ? पत्रकारिता ही है या वही चार सौ बीसी !’’
मैं मज़ाक कर तो रहा था, लेकिन दिल के न जाने किस कोने में दर्द भी उठा। रेखा का ही ज़ख़्म था ! छह बरस बीत गये हैं लेकिन ज़ख़्म भरा नहीं है। यह साफ़ हो गया था।
हैदराबाद के बेंकोजी राव के समाचार-पत्र का चेन्नई प्रतिनिधि बन गया था अनन्तस्वामी। बेंकोजी राव भारत के अंग्रेज़ी समाचार पत्रों के विश्व में प्रवेश करना चाहते थे। उन्हें यह उत्सव के पन्द्रहों दिन उनके अख़बार के विशेष रंग-बिरंगे अंकों की व्यवस्था थी। चाहे ढेर सारी तस्वीरें छाप दी जाएँ, फिर भी अख़बार के चार पृष्ठों को भरने के लिए मुझसे सम्पर्क किया गया था।
उत्सव के एक-एक दिन पाँच-पाँच फ़िल्मों की विस्तृत चर्चा, उत्सव-सम्बन्धी विशेष सूचना, समाचार, टीका, उत्सव में भूल से भटकने वाले, पुराने, प्रकाश खो डालने वाले सितारों से भेंटवार्ता आदि....।
‘‘मेरे अलावा और कौन ?’’

अनन्तस्वामी ने सब कुछ बताया। वह ‘टाइम्स आफ़ इण्डिया’ में हर शुक्रवार प्रकाशित रंगीन अंक का संपादक कर चुका है। उन दिनों ‘फ़िल्म फ़ेयर’ के मुख्य सम्पादक जब भी किसी और नगर में होते थे तो करमचन्द्र ही कार्यभार सम्भालते थे- मुख्य सम्पादक का। जब करमचन्द सम्पादक नियुक्त हुआ, केवल कार्यभार सम्भालने वाला ही नहीं, तब एक बुलबुल उठा था, फूटा था। मुखपृष्ठ की तस्वीर के लिए पत्रिका को हज़ारों की भेंट चढ़ायी जाती। मुखपृष्ठ के लिए कई फ़िल्मी सितारे सम्पादक को, उनके साथियों को, कई दस हज़ारों की भेंट चढ़ाते। एक शर्त-सी थी, यह। इतने हज़ार और मुखपृष्ठ का तस्वीर। क्या था परिणाम ? वास्तव में ख्याति प्राप्त कई अभिनेताओं की तस्वीरें पिछले महीनों में पत्रिका के मुखपृष्ठ पर नहीं छपीं।

इस पाश्वभूमि से अपरिचित था करमचन्द्र। राजकपूर से एक विशेष भेंटवार्ता और विशेष तस्वीर की फ़रमाइश की उसने। उन्होंने कुछेक गालियाँ भी दीं, और यह भी कहा...भाड़ में जाओ...पत्रिका समेत ! करमचन्द्र ने पीछा नहीं छोडा़। ज़ोर लगाया। अब बाहर आ गयी। हुआ क्या ? इसके बाद हज़ारों की रक़म हड़पने वाले धूर्त तीन-चार महीने दुबकते फिरे। लेकिन इस धूर्त ने दुबकते हुए ही सही, करमचन्द के लिए गडढा खोदा था। निजी काम के लिए ट्रंककॉल करने का आरोप लगाया गया। किसी रविवार की शाम जुहू बीच के होटल में पत्रिका की गाड़ी को अवैध रूप से काम में लाने का भी आरोप लगाया गया करमचन्द पर। उन्हें काम से बाहर निकाला गया। उनसे यह भी कहा गया कि वह अपनी ओर से इस्तीफ़ा दे दें।
वहीं करमचन्द आज हैदराबाद आनेवाला है। वह, मैं और चलते-फिरते शब्दों का बैंक की उपाधि अंग्रेजी पत्रकार रंगनाथन् बेंकोजी राव के समाचार-पत्र में अपनी-अपनी रिपोर्ट छपवाने वाले थे।

दो


दूसरे दिन सुबह पौने पाँच बजे मैं चेन्नई के मीनंबाक्कम हवाई अड्डे पर तैयार खड़ा था। एक ज़माना था, जब मैं हर रोज़ हवाई अड्डा पहुँच जाता था। किसी भी प्रकार की रोक या नियमों से रहित यह हवाई अड्डा, धीरे-धीरे बढ़ता ही गया है। दरवाज़े से ही अन्दर बढ़ना, पुलिस का बन्दोबस्त, शीशे की दीवारें, वातानुकूलन, यात्रियों के अलावा सबसे प्रवेश-शुल्क की माँग, यह सब कुछ धीरे-धीरे होते देखा है। इन सबके पूर्व, हवाई अडडा छोटा-सा था अब, इतना बढ़ गया है हवाई अड्डा ! भीड़ यूँ बढ़ रही है, कि लगता है कोई बहुत ही बड़ा बस अड्डा है यह हवाई अड्डा। इसे और बढ़ाया जा रहा है। रातभर, दिनभर काम जारी है। जहाँ देखो यही जताते आड़, मेड़।

सुबह लापरवाही से हज़ामत बनायी। मुँह पर जब रुमाल फेरा, तब ज़ोर से जलन हुई। पिता ने न जाने कब दी थी ‘सेवन ओ क्लॉक’ ब्लेड। पिता को भी न जाने कब किस दोस्त ने यह ब्लेड दी थी उससे क्या कुछ होता है !’’ मैं पिता पर बरस पड़ा था। पिता शायद मेरे भड़कने की ओर ध्यान नहीं दे रहे थे। न जाने किस गहरी सोच में, चिन्ता में डूबे हुए थे पिता !
इसके बाद मुँह पर उस्तरा मैंने श्मशान भूमि पर ही फेरा। मुझसे एक सौ क़दम की दूरी पर पिता जल रहे थे। मुखाग्नि मैंने दी थी। श्मशान का ही था वह नाई, जिसने सिर्फ़ पानी छिडक कर मुँह और सिर के बाल हटाये। उस समय भी सिर और चेहरा जल उठा था। पिता, बेटा एक ही समय जल रहे थे।

बीस बरस बाद भी, मेरे परिवार में, मेरी अपनी ही दुनिया में, औरों द्वारा नोचने के लिए रची गयी मेरी मनोदशा में आये परिवर्तन के बावजूद, वही सेवन ओ क्लॉक ब्लेड, अब पूरी वफ़ादारी के साथ, हर रोज़ बढ़ती दाढ़ी-मूँछ को हटाता है।
उस सुबह, बग़ैर किसी रोशनी के रेज़र ब्लेड को अटकाते समय भी मैंने पिता को याद किया।
अब अँधेरे में भी हज़ामत बनाते समय मुँह पर चोट नहीं लगती। हो सकता है, पिता यह उसी दिन जान गये हों, जब मुझे ब्लेड दिया था। हाय ! उस एक दिन लगी जरा-सी चोट के कारण किस तरह झगड़ा था मैं पिता से ! ‘‘मुझसे ग़लती हो गयी !’’ यह नहीं कह सका मैं। मौक़ा ही नहीं मिला। पिता चल बसे।,

विमान की उड़ान के डेढ़ घण्टे पूर्व ही पहुँच जाने के आदेश के बावजूद उड़ान की तैयारी नहीं शुरू हुई थी। मेज़ से लगी आलमारी इत्यादि के आने के पहले, यात्री ही से सवाल किया जाता था कि वह कहाँ जा रहा है। टिकट, एक पर्चा फाड़ कर लौटा दिया जाता था और सीधा विमान की ओर बढ़ने को कहा जाता था। तब से है जानकारी, विमान-यात्रा की। आज यात्रियों के आराम के लिए ही बना विमान-केन्द्र है और विभिन्न विमान-कम्पनियों के विभिन्न वर्दी वाले कार्यकर्त्ता भी। ख़ूब बातचीत होती है। आपस में हँसकर होती है बातचीत। जब दो जनों की ही होती है बातचीत, तब ऐसा मालूम होता है कि बोले जा रहा है, दूसरा आँख खोले सो रहा है। महिला कार्यकर्ताएँ इधर-उधर बिखरी हुई हैं। पुरुषों की भाँति झुण्ड में ही बढ़ने या ठहरने की उन्हें शायद ज़रूरत नहीं है। जब भी वे अपने सहकर्मियों के पास से गुज़रती हैं, तब ज़रा-सा मुस्कराती हैं। क्षणभर बाद मुस्कराहट ग़ायब हो जाती है। मानों वह वहाँ कभी नहीं खिली हो। उन दिनों, जब मैं विमान-क्रेन्द्र में आने लगा था, वर्दी से ही पता चलता कि कार्यकर्ता कौन है और यात्री कौन। सब एक साथ बातचीत में डूबे होते थे। बगै़र किसी कारण और चेतावनी के यकायक सब दौड़ लगाते थे विमान की ओर बढते थे सब। विमान की ओर कोई एक ज़ीना-सा धकेलता था। ऐसा लगता था कि किसी गाँव से कोई बाहर जा रहा है और सारा गाँव विदा लेने, विदा देने, आया हो।

अब सब कुछ बदल गया है। बिलकुल नया। किसी से कुछ भी पूछते हुए झिझक होती है। किसी से बातचीत भी नहीं हो सकती है। यही सोचकर मैं और कई दर्ज़न अन्य यात्री चुपचाप बैठे हुए थे। सपरिवार यात्री, विमान की ही प्रतीक्षा नहीं कर रहे थे और भी काफ़ी कुछ कर रहे थे।
एक ख़ूबसूरत-सी लड़की के साथ एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति अब आया, जिसके चेहरे पर स्थायी बेचैनी-सी थी। वह उस काउंटर पर गया, जहाँ हैदराबाद लिखा हुआ था और टिकट दिखाया। उसने लड़की को बोर्डिंग कार्ड पकड़ाया। फिर उसने इधर-उधर यूँ देखा, मानों किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। मुझे देखा उसने और क्षणभर के लिए झिझका। फिर पास आया। अब भी ज़रा झिझकते हुए कहा, ‘‘सुन्दरराज ! मैं उठा। ‘‘अनन्तु !’’ मैंने कहा।
‘‘हाँ ! मैं ही !’’
हम दोनों ने हाथ मिलाया।

‘‘अच्छा अब बताओ, यह वेंकोजी का क्या मामला है ?’’ मैंने पूछा। वह सोच में पड़ गया, ‘‘मैंने कल बता दिया था ? तू नशे-वशे में नहीं था न ?’’
‘‘अच्छा ! तुझे कब चिन्ता होने लगी मेरी ? कभी तुझे तंग किया है पीकर ? तू मेरे सामने खड़ा है, इसलिए कर रहा हूँ सवाल।’’
‘‘जा यार, मौज कर ! जब बॉस ने कहा सुन्दरराज को भेजो, तो मेरी समझ में नहीं आया कि बात तेरी ही हो रही थी। बस, अब पता चल गया है, तू ही है और खुशी हो रही है ! वह साहिब बहुत ही अच्छे हैं।’’
‘‘जब तुझे भी नौकरी दे ही दी....


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