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रबीन्द्रनाथ की कविताएँ

रबीन्द्रनाथ टैगोर

प्रकाशक : साहित्य एकेडमी प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2136
आईएसबीएन :9788126024895

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प्रस्तुत है रवीन्द्रनाथ की चुनिन्दा कविताएँ....

Ravindranath ki kavitayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका
1

रवीन्द्रनाथ उन सहित्य स्रष्टाओं में हैं, जिन्हें काल की परिधि में नहीं बाँधा जा सकता। केवल रचनाओं के परिणाम की दृष्टि से भी कम ही लेखक उनकी बराबरी कर सकते हैं। उन्होंने एक हजार से भी अधिक कविताओं की तथा दो हजार से भी अधिक गीतों की रचना की है। इनके अलावा उन्होंने बहुत सारी कहानियाँ, उपन्यास नाटक तथा धर्म शिक्षा राजनीति और साहित्य जैसे विविध विषयों से सम्बन्धित निबन्ध लिखे हैं। एक शब्द में, उनकी दृष्टि उन सभी विषयों की ओर गई है, जिनमें मनुष्य की अभिरुचि है। रचनाओं के गुण गत मूल्यांकन की दृष्टि से वे उस ऊँचाई तक पहुँचे हैं, जहाँ कुछेक महान् व्यक्ति ही पहुँचे हैं। जब हम उनकी रचनाओं के विशाल क्षेत्र और महत्व का स्मरण करते हैं, तो इसमें आश्चर्य नहीं मालूम पड़ता कि उनके प्रशंसक उन्हें इतिहास में शायद सबसे बड़ा साहित्य-स्रष्टा मानते हैं।

किसी प्रतिभावान महान् व्यक्ति के आविर्भाव का कारण बतलाना कठिन है, क्योंकि वे साधारण के व्यतिक्रम ही होते हैं। साथ ही प्रतिभावान व्यक्ति की यह विशेषता भी होती है कि वे जाति के अवचेतन या अर्द्धचेतन मन को अनुप्रेरित करने वाले आवेगों और भावनाओं को रूप देते हैं। इस प्रकार अपनी जाति के साथ उनका एक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसी से यह बात समझी जा सकती है कि जब किसी प्रतिभाशाली व्यक्ति का आर्विर्भाव होता है, तब लोग श्रद्धा और आश्चर्य से उसका अभिनन्दन क्यों करते है ! जनचित्त उसके शब्दों और कार्यों में अपनी उन भावनाओं और आशा-आकांक्षाओं का मूर्त्त रूप पाता है, जिनके हल्के से स्पन्दन का अनुभव तो उसने कर लिया है, लेकिन जिन्हें वह व्यक्त नहीं कर सकता है। प्रतिभावना व्यक्ति भी इस प्रकार के सम्बन्ध से लाभान्वित होते हैं। वे जाति के मस्तिष्क को अनुप्रेरित करने वाली अपरिपक्व भावनाओं और अस्पष्ट आशा-आकांक्षाओं से शक्ति ग्रहण करते हैं। इन दोनों ही दृष्टियों से रवीन्द्रनाथ प्रतिभा के अनूठे उदाहरण हैं। उनकी असाधारणता के सम्बन्ध में कोई प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन साथ ही जिन साधारण लोगों से उन्होंने प्यार किया था जिनके लिए वे जिए थे, उनके जीवन से भी उनका सम्बन्ध गहरा और घनिष्ठ था।
1. देवनागरी-संस्करण की भूमिका का अविकल अनुवाद।

अपने जन्म के स्थान और काल की दृष्टि से भी रवीन्द्रनाथ सौभाग्यशाली थे। उन दिनों पश्चिमी जातियों के आगमन ने भारतीय जीवन की शान्त धारा में आलोड़न पैदा कर दिया था और समस्त देश में एक नये जागरण का संचार हो रहा था। इसके प्रारम्भिक धक्के ने भारतीय मानस में चकाचौंध पैदा कर दी थी उस काल के प्रारम्भिक सुधारकों को पश्चिम का अन्धानुयायी बना दिया था। रवीन्द्रनाथ का जन्म प्रारम्भिक सुधारकों को पश्चिम का अन्धानुयायी बना दिया था। रवीन्द्रनाथ का जन्म तब हुआ, जब शुरू-शुरू की यह अन्धश्रद्धा खत्म हो रही थी, लेकिन पश्चिमी जातियों के लाए हुए आदर्श अब भी क्रियाशील और शक्तिशाली थे। साथ ही विरासत में पाए गए भारतीय मूल्यों के स्वीकार की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही थी। इसलिए यह काल एक ऐसा विशिष्ट प्रतिभा के आविर्भाव के लिए उपयुक्त था, जो अपने में पूर्वी और पश्चिमी मूल्यों का समन्वय कर सके।

केवल काल ही नहीं, स्थान भी उनके उपयुक्त था। संभवतः भारतवर्ष के अन्य भागों की अपेक्षा बंगाल ने इस धक्के का अधिक अनुभव किया था। बंगाल में भी जीवन के इस नये स्पन्दन का प्रभाव सबसे ज्यादा कलकक्ता में ही दीख पड़ा। रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा के विकसित होने में उनका पारिवारिक वातावरण भी सहायक था। उनका परिवार भारतीय जागरण के अग्रदूतों में था। उसने प्राचीन विरासत को छोड़े बिना ही नये जमाने की इस चुनौती को स्वीकार किया था। ब्राह्मण होने के नाते रवीन्द्रनाथ के प्राचीन भारतीय परम्पराओं को बड़े सहज और स्वाभाविक ढंग से अपना लिया। वे केवल साहित्य से ही नहीं, बल्कि संस्कृति में पिरोए गए धार्मिक और सांस्कृतिक आदर्शों से भी प्रभावित हुए। वे भूस्वामी वर्ग के थे, इसलिए मध्ययुगीन मुगल दरबार की मिश्र संस्कृति को बिना किसी हिचक के स्वीकार कर सके थे। इन दोनों बातों में वे संभवतः उन दिनों के अन्य ब्राह्मण जमींदारों से भिन्न नहीं थे, लेकिन वे उनमें से बहुतों के विपरीत आधुनिक जगत् की नई धाराओं के प्रति भी सचेत थे। साथ ही प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय परम्पराओं से सराबोर उनका परिवार पाश्चात्य शिक्षा और जीवन प्रणाली के अग्रणियों में भी था।

रवीन्द्रनाथ की भारतीय विरासत अत्यन्त समृद्ध थी और उनके मन में कोई व्यक्त या अव्यक्त द्विधा या द्वन्द्व नहीं था। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा जाए, तो इस बात को समझना मुश्किल न होगा। उनका समंजस व्यक्तित्व उस भेद-भाव से मुक्त था, जो उनके बहुतेरे समकालीनों की शक्ति का ह्रास कर रहा था।
सचमुच रवीन्द्रनाथ इस विषय में भाग्यशाली थे कि प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय मूल्यों को छोड़े बिना ही उन्होंने नवीन की चुनौती स्वीकार कर ली। जो लोग अपनी ही संस्कृति से विमुख हो चले थे और पश्चिम से प्राप्त प्रेरणा पर ही अधिक निर्भर रहने लगे थे, वे जातीय जीवन से उखड़ से गए। इसी से उनकी प्रेरणाओं के स्रोतों में कमी हो गई और उनकी आध्यात्मिक पूँजी का ह्रास हो गया। यही कारण है कि उनमें से अनेक व्यक्ति प्रतिभाशाली और गुणज्ञ होने के बावजूद, भारतीय जीवन और साहित्य पर गहरा और स्थायी प्रभाव न डाल सके। प्रतिभावा महान् व्यक्ति जाति की अन्तरतम अनुप्रेरणाओं के साथ अपने आपको एक करके जो शक्ति प्राप्त करता है, उसका उन लोगों में अभाव था।

एक और चीज भी थी, जिससे रवीन्द्रनाथ को जन- जीवन के साथ अपने-आपको एक करने में सहायता मिली। जीवन के प्रारम्भिक काल में वे पद्मा नदी के दियारों पर महीनों एक बजरे में रहे और इस प्रकार देश की ग्रामीण संस्कृति के बड़े निकट सम्पर्क में आए। देश के उस अंचल में जीवन की जो अनुभूति उन्हें हुई, उसका मूल देश के आदिम और प्राचीन इतिहास में था। मध्ययुग में पनपनेवाली यह संस्कृति नागरिक संस्कृति से कहीं अधिक गहराई तक लोगों के जीवन में अपनी जड़ें जमा चुकी थी। इस प्रकार रवीन्द्रनाथ ने एक ऐसे जगत् में प्रवेश पाया, जिससे शहर के लोग अपरिचित होते हैं। जातीय चेतना के कुछ गम्भीरतम तलों में उनकी जड़ें जमीं। साधारण लोगों के भरे-पूरे जीवन का संस्पर्श ही उनकी अशेष सृजन-शक्ति के मूल में है और यही कारण है कि उन्हें प्रेरणा शक्ति की कमी कभी नहीं हुई।

रवीन्द्रनाथ के जीवन और उनकी रचनाओं पर विचार करते समय हम उनकी प्रतिभा की अद्भुत जीवन-शक्ति से बार-बार चकित हुए बिना नहीं रह सकते। वे प्रमुख रूप से कवि थे, लेकिन उनकी दिलचस्पियाँ कविता तक ही सीमित नहीं थी। साहित्य के विविध क्षेत्रों में उनकी देन का संकेत हम पहले ही कर चुके हैं। साहित्य को यदि हम व्यापकतम अर्थ में भी लें, तो भी हम पाते हैं कि यह क्षेत्र उनकी समस्त उद्दामता को नहीं समेट सकता। वे संगीतज्ञ भी थे तथा बहुत बड़े चित्र-शिल्पी भी। इसके अलावा धर्म और शिक्षा सम्बन्धी तत्त्व चिन्तन, राजनीति, और सामाजिक सुधार, नैतिक उत्थान में उनका कार्य इतने महत्त्व का है कि वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में गिने जा सकते हैं।

जीवन को पूर्ण और अविभाज्य इकाई मानने में ही रवीन्द्रनाथ की शक्ति निहित है। आदर्शों अथवा संस्कृतियों के द्वन्द्व या विखंडन ने उनकी शक्ति को कभी विभाजित नहीं किया। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने कला और जीवन को अलग- अलग नहीं माना। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में सौन्दर्य शास्त्र के एक नये सिद्धान्त ने यूरोप पर आधिपत्य जमा लिया था। बहुत-से लोग ऐसे थे, जिनका कहना था कि कला के ही उद्देश्य से कला को अपनाना चाहिए; यह कोई जरूरी नहीं कि जीवन से उसका सम्बन्ध हो ही। हवाई महल या गजदन्त-मीनारें ही कलात्मक प्रयासों के प्रतीक और नमूने बन गई थीं। इस सिद्धान्त के पुजारी कहने लगे थे कि कवि और कलाकार सर्वप्रथम स्वप्नचारी होते हैं। रवीन्द्रनाथ ने इस मत को कभी भी स्वीकार नहीं किया कि कला जीवन से विच्छिन्न है। उन्होंने सौन्दर्य को ढूँढ़ा तो अवश्य, लेकिन जीवन की अविभिव्यक्ति के ही रूप में। साथ ही उनका यह भी विश्वास था कि जीवन में तब तक माधुर्य नहीं आता, जब तक वह सौन्दर्य से स्निग्ध न हो जाए। रवीन्द्रनाथ की दृष्टि में कवि-धर्म ही मानव-धर्म है।


2

 


रवीन्द्रनाथ संसार के श्रेष्ठतम गीति-कवियों में गिने जाते हैं। संवेदनाओं की सचाई और भाव-चित्रों की सजीवता उनके पदों के संगीत से मिलकर एक ऐसे काव्य की सृष्टि करती है कि शब्दों के भूल जाने पर भी पद-संगीत पाठक के मन को विभोर किए रहता है। संवेदना, भाव-चित्र और संगीत का इस प्रकार से घुल-मिल जाना उनके प्रारम्भिक जीवन से ही दीख पड़ने लगता है। ‘निर्झरेर स्वप्नभंग’ की रचना उस समय हुई थी। जब वे बीस वर्ष के भी न थे; लेकिन वह आज भी बाङ्ला की और यदि सच पूछा जाए, तो किसी भी भाषा की श्रेष्ठतम गीतियों में हैं। यह कविता केवल अपने संगीत और तीव्रता के कारण ही विशिष्ट नहीं है, बल्कि अपने भाव-चित्रों की सबलता के कारण भी। और शायद इससे भी अधिक महत्त्व की बात यह है कि इसमें प्रकृति और मनुष्य को एकता के ऐसे योग सूत्र से बाँधा गया है, जो कभी टूटने वाला नहीं है। प्रकृति और मनुष्य का यह सायुज्य रवीन्द्रनाथ के काव्य की एक बहुत बड़ी विशेषता रहा है और यह बात उनमें आजीवन बनी रहीं।

धरती को इतने प्राण-पण से प्यार करनेवाला कोई दूसरा कवि शायद कभी नहीं हुआ। रात-दिन अथवा ऋतु-चक्र की शायद ही कोई भावभंगी ऐसी होगी, जिसका गान रवीन्द्रनाथ ने अपनी कविता में न गाया हो। उनके काव्य के जादू ने बंगाल के दृश्य-रूपों की छवि और उसकी ध्वनियों के दृष्यों को बारम्बार अपने भीतर उतार-उतार लिया है। कालिदास के जमाने से ही भारतीय कवियों ने वर्षा-ऋतु का गुण-गान अपूर्व उल्लास के साथ किया है। अपने सैकड़ों गीतों और कविताओं में रवीन्द्रनाथ ने वर्षा के बदलते रूपों का चित्रण किया है। वास्तव में वर्षा-ऋतु सम्बन्धी उनके गीत और उनकी कविताएं हमारी जातीय विरासत का एक अंग हो गई हैं। वर्षा के आगमन के ठीक पहले झुलसी हुई धरती की प्रतीक्षा पहले-पहल के दौंगड़े के बाद भीगी मिट्टी से उठती सोंधी-सोंधी गन्ध नई-नई उगी घास के हरे अंकुरों में प्राणों का स्पन्दन, काले- काले बादल जो प्रातः कालीन स्वच्छ प्रकाश को धुँधला कर देते हैं तथा सांयकालीन छाया में जादू भर देते हैं, रात्रि की स्तब्धता में पड़ती वर्षा की अविराम टप्-टप् ये तथा सैकड़ों अन्य चित्र रवीन्द्रनाथ के मुग्धकारी काव्य में प्राणवान हो-हो उठते हैं। उनमें उन्होंने मानव-हृदय के सुख-दुख का ताना-बाना बुन दिया है। यहां तक कि प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे की मनोदशा को प्रतिबिम्बित करने लगते हैं और उनका पार्थक्य ओझल हो जाता है।

रवीन्द्रनाथ ने दूसरी ऋतुओं को भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। शरद् और वसन्त के भिन्न-भिन्न भावों का चित्रण उन्होंने किया है। नव वसन्त का उद्दाम उन्माद शिशिर-ऋतु का बन्धनों से मुक्ति पाने का भाव, क्षिप्र गति से फूट-फूट उठते रंग और ध्वनियाँ आदि उनकी बहुत सी कविताओं और गीतों में प्रतिबिम्बित हैं। उनमें केवल वसन्त का आनन्द और शक्तिमत्ता ही नहीं, बल्कि उसकी अनित्यता और क्षण-भंगुरता के भाव भी प्रतिफलित हुए हैं। पूर्णता और परिक्वता के भाव लिए शरद् का मेघ-धुला आकाश रवीन्द्रनाथ की बहुत-सी कविताओं में विशेष रूप से प्रकट हुआ है। उनके एक अत्यन्त सफल गीति-नाट्य की रचना शरद को लेकर ही हुई है, जिसमें कार्यसंकुलता के बोझ से मुक्ति पाने का भाव है। शीत और ग्रीष्म काल को भी उन्होंने नहीं भुलाया। अपनी एक सुप्रसिद्ध कविता में रवीन्द्र नाथ ने ग्रीष्म को एक ऐसा कठोर तपस्वी माना है जो साँसें रोके नवजीवन के आविर्भाव की प्रतीक्षा कर रहा है।

केवल प्रकृति सौन्दर्य ने ही रवीन्द्रनाथ को धरती से इतने अट्टू बन्धन में नहीं बाँधा। उन्होंने धरती को इसलिए भी प्यार किया कि वह मनुष्य की वास-स्थली है। अनगिनत कविताओं और गीतों में उन्होंने मनुष्य के प्रति अपने प्रेम को उँड़ेला है। मनुष्य के हृदय की शायद ही कोई ऐसी संवेदना हो, जिसने उनके हृदय को स्पन्दित न किया हो। सुख-दुःख से भरे मानव की गहन प्रेम लीला की हजारों अभिव्यक्तियाँ कुछ ऐसे शब्दों में समायोजित हो गई हैं, जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। नैराश्य, मन की व्यथा तथा निष्फल प्रतीक्षा की असह्य पीड़ा का सजीव चित्रण पाठक को विस्मय में डाल देता है। उन्होंने प्रकृति को मनुष्य के भावावेगों के चिरन्तन साथी के रूप में भी चित्रित किया है। वे जानते थे कि जीवन नाना संघर्षों और प्रचेष्टाओं से भरा हुआ है, और यह संसार त्रुटियों से रहित नहीं है, लेकिन उनका विश्वास यह भी था कि त्रुटियों दोषों, क्लेशों और लालसाओं के कारण हमारा यह सांसारिक जीवन मनुष्य के लिए और भी प्रिय हो उठता है।


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