सामाजिक >> देवी देवीसूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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प्रस्तुत है सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ...
DEVI Suryakant Tripathi Nirala
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
पूज्य पिता महाप्राण पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की मृत्यु गत वर्ष 15 अक्टूबर 1961 को एक लम्बी अवधि की अस्वस्थता के साथ हुई। महाप्राण के अवसान का दिवस हिन्दी संसार के लिए अत्यन्त शोक का दिवस माना गया। महाप्राण का एकमात्र पुत्र होने के कारण मेरे उत्तरदायित्व सहज रूप से बढ़ गए। सबसे बड़ा उत्तरदायित्व यदि था तो यह कि उनकी कृतियों के पुनःप्रकाशन की व्यवस्था करना। कुछ प्रकाशकों ने उनकी कृतियों के प्रकाशन में जिस दरिद्रता का परिचय प्रस्तुत किया था वह महाप्राण के व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं था, इस बात से सम्भवतः मेरे सभी शुभचिन्तकगण सहमत होंगे। अनेक कृतियों के प्रकाशनों ने पुनर्मुद्रण की भी व्यवस्था नहीं की तथा प्रचार-प्रसार के कार्य को भी स्थगित कर रखा। ऐसी परिस्थितियों में यह आवश्यक था कि महाप्राण के देहावसान के पश्चात् मैं उन त्रुटियों को अपनी दृष्टि में रखकर कुछ कार्य करूँ ताकि मेरे दायित्वों के प्रति कोई भी हिन्दी-प्रेमी उँगली न उठा सके।
महाप्राण के देहावसान के एक वर्ष के भीतर ही मेरे निर्देशानुसार उनकी यह कृति सुन्दर सुसज्जित रूप में हिन्दी संसार के सम्मुख प्रस्तुत हो रही है। मैं भली-भाँति इस बात से सुपरिचित हूँ कि अनेक शुभचिन्तक अनेक प्रकार की बात मेरे समक्ष प्रस्तुत करेंगे, मैं उन्हें सुझावों के लिए आमन्त्रित करता हूँ ताकि मेरा पथ-निर्देश होता रहे।
प्रस्तुत प्रकाशित कृति की आलोचना प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य नहीं है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस कृति को हिन्दी के अध्येताओं ने साहित्य की उपलब्धि माना है। हिन्दी के पाठक, विद्वान जिस प्रकार महाप्राण की कृतियों को सहज महत्त्व प्रदान करते रहे, उसी प्रकार वे अभी भी सहयोगपूर्ण महत्त्व देते रहेंगे, ऐसी मुझे आशा है।
महाप्राण के देहावसान के एक वर्ष के भीतर ही मेरे निर्देशानुसार उनकी यह कृति सुन्दर सुसज्जित रूप में हिन्दी संसार के सम्मुख प्रस्तुत हो रही है। मैं भली-भाँति इस बात से सुपरिचित हूँ कि अनेक शुभचिन्तक अनेक प्रकार की बात मेरे समक्ष प्रस्तुत करेंगे, मैं उन्हें सुझावों के लिए आमन्त्रित करता हूँ ताकि मेरा पथ-निर्देश होता रहे।
प्रस्तुत प्रकाशित कृति की आलोचना प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य नहीं है, इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस कृति को हिन्दी के अध्येताओं ने साहित्य की उपलब्धि माना है। हिन्दी के पाठक, विद्वान जिस प्रकार महाप्राण की कृतियों को सहज महत्त्व प्रदान करते रहे, उसी प्रकार वे अभी भी सहयोगपूर्ण महत्त्व देते रहेंगे, ऐसी मुझे आशा है।
रामकृष्ण त्रिपाठी
देवी
1
बारह साल तक मकड़े की तरह शब्दों का जाल बुनता हुआ मैं मक्खियाँ मारता रहा। मुझे यह ख्याल था कि मैं साहित्य की रक्षा के लिए चक्रव्यूह तैयार कर रहा हूँ, इससे उसका निवेश भी सुन्दर होगा और उसकी शक्ति का संचालन भी ठीक-ठीक। पर लोगों को अपने फँस जाने का डर होता था, इसलिए इसका फल उल्टा हुआ। जब मैं उन्हें साहित्य के स्वर्ग चलने की बातें कहता था, तब वे अपने मरने की बातें सोचते थे; यह भ्रम था। इसीलिए मेरी कद्र नहीं हुई। मुझे बराबर पेट के लाले रहे। पर फाकेमस्ती में भी मैं परियों के ख्वाब देखता रहा-इस तरह अपनी तरफ से मैं जितना लोगों को ऊँचा उठाने की कोशिश करता गया, लोग उतना मुझे उतारने पर तुले रहे, और चूँकि मैं साहित्य को नरक से स्वर्ग बना रहा था, इसीलिए मेरी दुनिया भी मुझसे दूर हो गई; अब मौत से जैसे दूसरी दुनिया में जाकर मैं उसे लाश की तरह देखता होऊँ। ‘‘दूबर होते नहीं कबहुँ पकवान के विप्र मसान के कूकर’’ की सार्थकता मैंने दूसरे मित्रों में देखी, जिनकी निगाह दूसरों की दुनिया की लाश पर थी। वे पहले फटीचर थे, पर अब अमीर हो गए हैं, दोमंजिला मकान खड़ा कर लिया है; मोटर पर सैर करते हैं। मुझे देखते हैं जैसे मेरा-उनका नौकर-मालिक का रिश्ता हो। नक्की स्वरों में कहते हैं-‘‘हाँ, अच्छा आदमी है, जरा सनकी है।’’ फिर बड़े गहरे पैठ कर मित्रों के साथ हँसते हैं। वे उतनी दूर बढ़ गए हैं, मैं जिस रास्ते पर था, उसी पर खड़ा हूँ। जिसके लिए मेरी इतनी बदनामी हुई, दुनिया से मेरा नाम उठ जाने को हुआ, जो कुछ था, चला गया, उस कविता को जीते-जी मुझे भी छोड़ देना चाहिए जिसे लोग खुराफात समझते हैं, उसे न लिखना ही तो लोगों की समझ की सच्ची समझ होगी ? रतिशास्त्र, वनिता-विनोद, काम-कल्याण में मश्क़ करते कौन देर लगती है ?
चार किताबों की रूह छानकर एक किताब लिख दूँगा। ‘सीता’, ‘सावित्री’, ‘दमयन्ती’ आदि की पावन कथाएँ आँखें मूँदकर लिख सकता हूँ। तब बीवी के हाथ ‘सीता’ और ‘सावित्री’ आदि देकर बग़ल में ‘चौरासी आसन’ दबानेवाले दिल से नाराज न होंगे। उनकी इस भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने की कोशिश करके ही बिगड़ा हूँ। अब जरूर सँभलूँगा। राम, श्याम जो-जो थे पुजने-पुजाने वाले सब बड़े आदमी थे। बगैर बड़प्पन के तारीफ कैसी ? बिना राजा हुए राजर्षि होने की गुंजाइश नहीं, न ब्राह्मण हुए बगैर बह्मार्षि होने की है। वैश्यर्षि या शूद्रर्षि कोई था, इतिहास नहीं; शास्त्रों में भी प्रमाण नहीं; अर्थात् नहीं हो सकता। बात यह कि बड़प्पन चाहिए। बड़ा राज्य, बड़ा ऐश्ववर्य, बड़े पोथे, तोप-तलवार गोले-बारूद, बन्दूक किर्च रेल तार, जंगी जहाज़-टारपेडो, माइन-सबमेरीन-गैस, पल्टन-पुलिस, अट्टालिका-उपवन आदि-आदि सब बड़े-बड़े इतने कि वहाँ तक आँख नहीं फैलती, इसलिए कि छोटे समझें वे कितने छोटे हैं। चन्द्र, सूर्य, वरुण, कुबेर, यम, जयन्त, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बाक़ायदा बाहिसाब ईश्वर के यहाँ भी छोटे से बड़े तक मेल मिला हुआ है।
होटल के बरामदे में एक आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर लेटा हुआ इस तरह के विचारों से मैं अपनी किस्मत ठोंक रहा था। चूँकि यह तैयारी के बाद का भाषण न था इसलिए इसके भाव में बेभाव की बहुत पड़ी होंगी, आप लोग सँभाल लीजिएगा। बड़े होने के ख़्याल से ही मेरी नसें तन गईं और नाममात्र के अद्भुत प्रभाव से मैं उठ कर रीढ़ सीधी कर बैठ गया। सड़क की तरफ बड़े गर्व से देखा जैसे कुछ कसर रहने पर भी बहुत कुछ बड़ा आदमी बन गया होऊँ। मेरी नज़र एक स्त्री पर पड़ी।
वह रास्ते के किनारे पर बैठी हुई थी एक फटी धोती पहने हुए। बाल काटे हुए। तअज्जुब की निगाह से आने-जाने वालों को देख रही थी। तमाम चेहरे पर स्याही फिरी हुई। भीतर से एक बड़ी तेज भावना निकल रही थी, जिसमें साफ लिखा था-‘‘यह क्या है ?’’ उम्र पच्चीस साल से कम। दोनों स्तन खुले हुए। प्रकृति की मारों से लड़ती हुई, मुरझाकर, मुमकिन किसी को पच्चीस साल से कुछ ज्यादा जँचे। पास एक लड़का डेढ़ साल का खेलता हुआ। संसार को स्त्रियों की एक भी भावना नहीं। उसे देखते ही मेरे बड़प्पन वाले भाव उसी में समा गए, और फिर वही छुटपन सवार हो गया। मैं इसी की चिन्ता करने लगा-‘‘यह कौन है, हिन्दू या मुसलमान ? इसके एक बच्चा भी है। पर इन दोनों का भविष्य क्या होगा ? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी ? यह क्या सोचती होगी ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के सम्बन्ध में ?
इसी समय होटल के नौकर को मैंने बुलाया। उसका नाम है संगमलाल। मैं उसे संग-मलाल कहकर पुकारता था। आने पर मैंने उससे उस स्त्री की बाबत पूछा। संगमलाल मुझे देखकर मुस्कराया, बोला, ‘‘वह तो पागल है, और गूँगी भी है बाबू। आप लोगों की थालियों से बची रोटियाँ दे दी जाती हैं।’’ कहकर हँसता हुआ बात को अनावश्यक जानकर अपने काम पर चला गया।
मेरी बड़प्पनवाली भावना को इस स्त्री के भाव ने पूरा-पूरा परास्त कर दिया। मैं बड़ा भी हो जाऊँ मगर इस स्त्री के लिए कोई उम्मीद नहीं। इसकी किस्मत पलट नहीं सकती। ज्योतिष का सुख-दुःख चक्र इसके जीवन में अचल हो गया है। सहते-सहते अब दुःख का अस्तित्व इसके पास न होगा। पेड़ की छाँह या किसी खाली बरामदे में दोपहर की लू में, ऐसे ही एकटक कभी-कभी आकाश को बैठी हुई देख लेती होगी। मुमकिन, इसके बच्चे की हँसी उस समय इसे ठंडक पहुँचाती हो। आज तक कितने वर्षा, शीत, ग्रीष्म इसने झेले हैं, पता नहीं। लोग नेपोलियन की वीरता की प्रशंसा करते हैं। पर यह कितनी बड़ी शक्ति है, कोई नहीं सोचता। सब इसे पगली कहते हैं, पर इसके इस परिवर्तन के क्या वही लोग कारण नहीं ? किसे क्या देकर, किससे क्या लेकर लोग बनते-बिगड़ते हैं, ये सूक्ष्म बातें कौन समझा सकता है ? यह पगली भी क्या अपने बच्चे की तरह रास्ते पर पली है ? सम्भव है, सिर्फ गूँगी रही हो, विवाह के बाद निकाल दी गई हो, या खुद तकलीफ पाने पर निकल आई हो, और यह बच्चा रास्ते के ख्वाहिशमन्द का सुबूत हो।
मैं देख रहा था, ऊपर के धुएँ के नीचे दीपक की शिखा की तरह पगली के भीतर की परी इस संसार को छोड़कर कहीं उड़ जाने की उड़ान भर रही थी। वह साँवली थी, दुनिया की आँखों को लुभानेवाला उसमें कुछ न था, जो लोग उसकी रुखाई की ओर रुख न कर सकते थे, पर मेरी आँखों को उसमें वह रूप देख पड़ा, जिसे मैं कल्पना में लाकर साहित्य में लिखता हूँ। केवल वह रूप नहीं, भाव भी। इस मौन महिमा, आकार-इंगितों की बड़े-बड़े कवियों ने कल्पना न की होगी। भाव-भाषण मैंने पढ़ा था, दर्शनशास्त्रों में मानसिक सूक्ष्मता के विश्लेषण देखे थे, रंगमंच पर रवीन्द्रनाथ का किया अभिनय भी देखा था, खुद भी गद्य-पद्य में थोड़ा बहुत लिखा था चिड़ियों तथा जानवरों की बोली बोलकर उन्हें बुलानेवालों की भी करामात देखी थी; पर वह सब कृत्रिम था, यहाँ सब प्राकृत। यहाँ माँ-बेटे के मनोभाव कितनी सूक्ष्म व्यंजना से संचारित होते थे, क्या लिखूँ। डेढ़-दो साल के कमजोर बच्चे को माँ मूक भाषा सिखा रही थी आप जानते हैं, वह गूँगी थी। बच्चा माँ को कुछ कहकर न पुकारता था, केवल एक नजर देखता था जिसके, भाव में वह माँ को क्या कहता था, आप समझिए; उसकी माँ समझती थी; तो क्या वह पागल और गूँगी थी ?
चार किताबों की रूह छानकर एक किताब लिख दूँगा। ‘सीता’, ‘सावित्री’, ‘दमयन्ती’ आदि की पावन कथाएँ आँखें मूँदकर लिख सकता हूँ। तब बीवी के हाथ ‘सीता’ और ‘सावित्री’ आदि देकर बग़ल में ‘चौरासी आसन’ दबानेवाले दिल से नाराज न होंगे। उनकी इस भारतीय संस्कृति को बिगाड़ने की कोशिश करके ही बिगड़ा हूँ। अब जरूर सँभलूँगा। राम, श्याम जो-जो थे पुजने-पुजाने वाले सब बड़े आदमी थे। बगैर बड़प्पन के तारीफ कैसी ? बिना राजा हुए राजर्षि होने की गुंजाइश नहीं, न ब्राह्मण हुए बगैर बह्मार्षि होने की है। वैश्यर्षि या शूद्रर्षि कोई था, इतिहास नहीं; शास्त्रों में भी प्रमाण नहीं; अर्थात् नहीं हो सकता। बात यह कि बड़प्पन चाहिए। बड़ा राज्य, बड़ा ऐश्ववर्य, बड़े पोथे, तोप-तलवार गोले-बारूद, बन्दूक किर्च रेल तार, जंगी जहाज़-टारपेडो, माइन-सबमेरीन-गैस, पल्टन-पुलिस, अट्टालिका-उपवन आदि-आदि सब बड़े-बड़े इतने कि वहाँ तक आँख नहीं फैलती, इसलिए कि छोटे समझें वे कितने छोटे हैं। चन्द्र, सूर्य, वरुण, कुबेर, यम, जयन्त, इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक बाक़ायदा बाहिसाब ईश्वर के यहाँ भी छोटे से बड़े तक मेल मिला हुआ है।
होटल के बरामदे में एक आरामकुर्सी पर पैर फैलाकर लेटा हुआ इस तरह के विचारों से मैं अपनी किस्मत ठोंक रहा था। चूँकि यह तैयारी के बाद का भाषण न था इसलिए इसके भाव में बेभाव की बहुत पड़ी होंगी, आप लोग सँभाल लीजिएगा। बड़े होने के ख़्याल से ही मेरी नसें तन गईं और नाममात्र के अद्भुत प्रभाव से मैं उठ कर रीढ़ सीधी कर बैठ गया। सड़क की तरफ बड़े गर्व से देखा जैसे कुछ कसर रहने पर भी बहुत कुछ बड़ा आदमी बन गया होऊँ। मेरी नज़र एक स्त्री पर पड़ी।
वह रास्ते के किनारे पर बैठी हुई थी एक फटी धोती पहने हुए। बाल काटे हुए। तअज्जुब की निगाह से आने-जाने वालों को देख रही थी। तमाम चेहरे पर स्याही फिरी हुई। भीतर से एक बड़ी तेज भावना निकल रही थी, जिसमें साफ लिखा था-‘‘यह क्या है ?’’ उम्र पच्चीस साल से कम। दोनों स्तन खुले हुए। प्रकृति की मारों से लड़ती हुई, मुरझाकर, मुमकिन किसी को पच्चीस साल से कुछ ज्यादा जँचे। पास एक लड़का डेढ़ साल का खेलता हुआ। संसार को स्त्रियों की एक भी भावना नहीं। उसे देखते ही मेरे बड़प्पन वाले भाव उसी में समा गए, और फिर वही छुटपन सवार हो गया। मैं इसी की चिन्ता करने लगा-‘‘यह कौन है, हिन्दू या मुसलमान ? इसके एक बच्चा भी है। पर इन दोनों का भविष्य क्या होगा ? बच्चे की शिक्षा, परवरिश क्या इसी तरह रास्ते पर होगी ? यह क्या सोचती होगी ईश्वर, संसार, धर्म और मनुष्यता के सम्बन्ध में ?
इसी समय होटल के नौकर को मैंने बुलाया। उसका नाम है संगमलाल। मैं उसे संग-मलाल कहकर पुकारता था। आने पर मैंने उससे उस स्त्री की बाबत पूछा। संगमलाल मुझे देखकर मुस्कराया, बोला, ‘‘वह तो पागल है, और गूँगी भी है बाबू। आप लोगों की थालियों से बची रोटियाँ दे दी जाती हैं।’’ कहकर हँसता हुआ बात को अनावश्यक जानकर अपने काम पर चला गया।
मेरी बड़प्पनवाली भावना को इस स्त्री के भाव ने पूरा-पूरा परास्त कर दिया। मैं बड़ा भी हो जाऊँ मगर इस स्त्री के लिए कोई उम्मीद नहीं। इसकी किस्मत पलट नहीं सकती। ज्योतिष का सुख-दुःख चक्र इसके जीवन में अचल हो गया है। सहते-सहते अब दुःख का अस्तित्व इसके पास न होगा। पेड़ की छाँह या किसी खाली बरामदे में दोपहर की लू में, ऐसे ही एकटक कभी-कभी आकाश को बैठी हुई देख लेती होगी। मुमकिन, इसके बच्चे की हँसी उस समय इसे ठंडक पहुँचाती हो। आज तक कितने वर्षा, शीत, ग्रीष्म इसने झेले हैं, पता नहीं। लोग नेपोलियन की वीरता की प्रशंसा करते हैं। पर यह कितनी बड़ी शक्ति है, कोई नहीं सोचता। सब इसे पगली कहते हैं, पर इसके इस परिवर्तन के क्या वही लोग कारण नहीं ? किसे क्या देकर, किससे क्या लेकर लोग बनते-बिगड़ते हैं, ये सूक्ष्म बातें कौन समझा सकता है ? यह पगली भी क्या अपने बच्चे की तरह रास्ते पर पली है ? सम्भव है, सिर्फ गूँगी रही हो, विवाह के बाद निकाल दी गई हो, या खुद तकलीफ पाने पर निकल आई हो, और यह बच्चा रास्ते के ख्वाहिशमन्द का सुबूत हो।
मैं देख रहा था, ऊपर के धुएँ के नीचे दीपक की शिखा की तरह पगली के भीतर की परी इस संसार को छोड़कर कहीं उड़ जाने की उड़ान भर रही थी। वह साँवली थी, दुनिया की आँखों को लुभानेवाला उसमें कुछ न था, जो लोग उसकी रुखाई की ओर रुख न कर सकते थे, पर मेरी आँखों को उसमें वह रूप देख पड़ा, जिसे मैं कल्पना में लाकर साहित्य में लिखता हूँ। केवल वह रूप नहीं, भाव भी। इस मौन महिमा, आकार-इंगितों की बड़े-बड़े कवियों ने कल्पना न की होगी। भाव-भाषण मैंने पढ़ा था, दर्शनशास्त्रों में मानसिक सूक्ष्मता के विश्लेषण देखे थे, रंगमंच पर रवीन्द्रनाथ का किया अभिनय भी देखा था, खुद भी गद्य-पद्य में थोड़ा बहुत लिखा था चिड़ियों तथा जानवरों की बोली बोलकर उन्हें बुलानेवालों की भी करामात देखी थी; पर वह सब कृत्रिम था, यहाँ सब प्राकृत। यहाँ माँ-बेटे के मनोभाव कितनी सूक्ष्म व्यंजना से संचारित होते थे, क्या लिखूँ। डेढ़-दो साल के कमजोर बच्चे को माँ मूक भाषा सिखा रही थी आप जानते हैं, वह गूँगी थी। बच्चा माँ को कुछ कहकर न पुकारता था, केवल एक नजर देखता था जिसके, भाव में वह माँ को क्या कहता था, आप समझिए; उसकी माँ समझती थी; तो क्या वह पागल और गूँगी थी ?
2
पगली का ध्यान ही मेरा ज्ञान हो गया। उसे देखकर मुझे बार-बार महाशक्ति की याद आने लगी। महाशक्ति का प्रत्यक्ष रूप, संसार का इससे बढ़कर ज्ञान देनेवाला और कौन-सा होगा ? राम, श्याम और संसार के बड़े-बड़े लोगों का स्वप्न सब इस प्रभात की किरणों में दूर हो गया। बड़ी-बड़ी संभ्यता, बड़े-बड़े शिक्षालय चूर्ण हो गए। मस्तिष्क को घेरकर केवल यही महाशक्ति अपनी महत्ता में स्थित हो गई। उसके बच्चे में भारत का सच्चा रूप देखा, और उसमें क्या कहूँ, क्या देखा।
देश में शुल्क लेकर शिक्षा देनेवाले बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं। पर इस बच्चे का क्या होगा ? इसके भी माँ है। वह देश की सहानुभूति का कितना अंश पाती है ?-हमारी थाली की बची रोटियाँ, जो कल तक कुत्तों को दी जाती हैं। यही, यही हमारी सच्ची दशा का चित्र है। यह माँ अपने बच्चे को लेकर राह पर बैठी हुई धर्म, विज्ञान, राजनीति, समाज जिस विषय को भी मनुष्य होकर मनुष्यों ने आज तक अपनाया है, उसी की भिन्न, रुचिवाले पथिक को शिक्षा दे रही है-पर कुछ कहकर नहीं। कितने आदमी समझते हैं। यही न समझना संसार है-बार-बार वह यही कहती है। उसकी आत्मा से यही ध्वनि निकलती है-संसार ने उसे जगह नहीं दी-उसे नहीं समझा; पर संसारियों की तरह वह भी है-उसके भी बच्चा है।
एक रोज मैंने देखा, नेता का जुलूस उसी रास्ते से जा रहा था। हजारों आदमी इकट्ठा थे। जय-जयकार से आकाश गूँज रहा था। मैं उसी बरामदे पर खड़ा स्वागत देख रहा था। पगली भी उठ कर खड़ी हो गई थी। बड़े आश्चर्य से लोगों को देख रही थी। रास्ते पर इतनी बड़ी भीड़ उसने नहीं देखी। मुँह फैलाकर, भौंहे सिकोड़कर आँखों की पूरी ताकत से देख रही थी-समझना चाहती थी, वह क्या था। क्या समझी, आप समझते हैं ? भीड़ में उसका बच्चा कुचल गया और रो उठा। पगली बच्चे की गर्द झाड़कर चुमकारने लगी, और फिर कैसी ज्वालामयी दृष्टि से जनता को देखा ! मैं यही समझता हूँ। नेता दस हजार की थैली लेकर गरीबों के उपकार के लिए चले गए-जरूरी-जरूरी कामों में खर्च करेंगे।
एक दिन पगली के पास एक रामायणी समाज में कथा हो रही थी। मैंने देखा, बहुत से भक्त एकत्र थे। एतवार का दिन। दो बजे साहित्य-सम्राट् गो. तुलसीदास की रामायण का पाठ शुरू हुआ, पाँच बजे समाप्त। उसमें हिन्दुओं के मँजे स्वभाव को साहित्य-सम्राट् गो. तुलसीदासजी ने और माँज दिया है, आप लोग जानते हैं। पाठ सुनकर, मँजकर भक्त-मंडली चली। दुबली-पतली ऐश्वर्य-श्री से रहित पगली बच्चे के साथ बैठी हुई मिली। एक ने कहा, इसी संसार में स्वर्ग और नरक देख लो। दूसरे ने कहा, कर्म के दंड हैं। तीसरा बोला, सकल पदारथ हैं जग माहीं; कर्म हीन नर पावत नाहीं। सब लोग पगली को देखते शास्त्रार्थ करते चले गए।
संगललाल ने मुझसे कहा, बाबू, यह मुसलमान है। मैंने उससे पूछा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ। उसने बतलाया, लोग ऐसा ही कहते हैं कि पहले यह हिन्दू थी, फिर मुसलमान हो गई, इसका बच्चा मुसलमान से पैदा हुआ है; पहले यह पागल नहीं थी, न गूँगी; बाद को हो गई। मैंने सुन लिया। संगम ने किस ख्याल से कहा, मैं सोच रहा था। उन दिनों कई आदमियों से बातें करते हुए मैंने पहली का जिक्र किया; साहित्य, राजनीति आदि कई विषयों के आदर्श पर बहस थी; कुछ हँसकर चले गए, कुछ गम्भीर होकर और कुछ-कुछ पैसे उसे देने के लिए देकर।
मैंने हिन्दू, मुसलमान, बड़े-बड़े पदाधिकारी, राजा, रईस सबको उस रास्ते से जाते समय पगली को देखते हुए देखा। पर किसी ने दिल से भी उसकी तरफ देखा, ऐसा नहीं देखा। जिन्हें अपने को देखने-दिखाने की आदत पड़ गई है, उनकी दृष्टि में दूसरे की सिर्फ तस्वीर आती है, भाव नहीं; यह दर्शन मुझे मालूम था। जिन्दा को मुर्दा और मुर्दा को जिन्दा समझना भ्रम भी है और ज्ञान भी; बाड़ियों में आदमी का पुतला देखकर हिरन और स्यार जिन्दा आदमी समझते हैं; उसी तरह ज्ञान होने पर गिलहरियाँ बदन पर चढ़ती हैं-आदमी उन्हें पत्थर जान पड़ता है। ऊपरवाले आदमी पगली को देखते हुए किस कोटि में जाते थे, भगवान जानें !
एक दिन शहर में पल्टन का प्रदर्शन हो रहा था। पगली फुटपाथ पर बैठी थी। मैं इसी बरामदे पर नंगे-बदन खड़ा सिपाहियों को देख रहा था। मेरी तरफ देख-देखकर कितनी सिपाही मुस्कराए। मेरे बालों के बाद मुँह की तरफ देखकर लोग मिस-फ़ैशन कहते हैं। थिएटर, सिनेमा में यह सम्बोधन दशाधिक बार एक ही रोज सुनने को मिला है। रास्ते पर भी छेड़खानी होती है। मैं कुछ बोलता नहीं। क्योंकि सबसे अच्छा जवाब है बालों को कटा देना। पर ऐसा करूँ तो मुझे दूसरे की समझ की खुराक न मिले। मैं सोचता हूँ, आवाज़ कसनेवालों पर एक हाथ रक्खूँ, तो छठी का दूध याद आ जाय, यह वे नहीं देखते। मैं समझ गया सिपाही भी मिस-फ़ैशन से खुश होकर हँस रहे हैं। लत तो है। मेरे ग्रीक-कट पाँच फुट साढ़े ग्यारह इंच लम्बे जरूरत से ज्यादा चौड़े और चढ़े मोढ़ों के कसरती बदन को देखकर किसी को आतंक नहीं हुआ। इसका एक निश्चय कर मैं पगली की तरफ देखने लगा। पगली बैठी थी। सिपाही मिलिटरी ढंग से लेफ्ट-राइट लेफ्ट-राइट, दुरुस्त दर्प से जितना ही पृथ्वी को दहलाते हुए चल रहे थे, पगली उतना ही उन्हें देख-देखकर हँस रही थी। गोरे गम्भीर हो जाते थे। मैंने सोचा मेरा बदला इसने चुका लिया। पगली ने खुशी में अपने बच्चे को भी शरीक करने की कोशिश की-अच्छी चीज, अच्छी तालीम बच्चे को देती है। पगली पास बैठे बच्चे की ओर देखकर चुटकी बजाकर सिपाहियों की तरफ उँगली से हवा को कोंच-कोंचकर दिखा रही थी और हँसती हुई जैसे कह रही थी-‘‘खुश तो हो ? कैसा अच्छा दृश्य है !’’
कई महीने हो चुके। आदान-प्रदान से पगली की मेरी गहरी जान-पहचान हो गई। पगली मुझे अपनी शरीर-रक्षक समझने लगी। उसे लड़के बहुत तंग करते थे। मैं वहाँ होता था तो विचित्र ढंग से मुँह बनाकर मुझसे सहानुभूति की कामना करती हुई अपार करुणा से देखती हुई लड़कों की तरफ इशारा करती थी। मुझे देखकर लड़के भग जाते थे। इस तरह मेरी-उसकी घनिष्ठता बढ़ गई। वह मुझे अपना परम हितकारी मानने लगी। मैं खुद भी पैसा देता था, पगली यह समझती थी। एक दिन मुझे मालूम हुआ उसके पैसे बदमाश रात को छीन ले जाते हैं। यह मनुष्यों का विश्व-व्यापी धर्म सोचकर मैं चुप हो गया। चुरा जाने पर पगली भूल जाती थी, छिन जाने पर, कम प्रकाश में किसी को न पहचान कर रो लेती थी।
एक दिन मेरे एक मित्र ने पगली से मजाक किया। किसी ने उन्हें बतलाया था कि इसके पास बड़ा माल है। मिट्टी में गाड़-गाड़कर इसने बड़े पैसे इकट्ठे किए हैं। मेरे मित्र पगली के पास गए और मुस्कुराते हुए ब्याजवाली बात समझाकर दो रुपये उधार माँगे। उनकी बात सुनकर पगली जी खोलकर हँसी, फिर कमर से तीन पैसे निकालकर निःसंकोच देने लगी।
देश में शुल्क लेकर शिक्षा देनेवाले बड़े-बड़े विश्वविद्यालय हैं। पर इस बच्चे का क्या होगा ? इसके भी माँ है। वह देश की सहानुभूति का कितना अंश पाती है ?-हमारी थाली की बची रोटियाँ, जो कल तक कुत्तों को दी जाती हैं। यही, यही हमारी सच्ची दशा का चित्र है। यह माँ अपने बच्चे को लेकर राह पर बैठी हुई धर्म, विज्ञान, राजनीति, समाज जिस विषय को भी मनुष्य होकर मनुष्यों ने आज तक अपनाया है, उसी की भिन्न, रुचिवाले पथिक को शिक्षा दे रही है-पर कुछ कहकर नहीं। कितने आदमी समझते हैं। यही न समझना संसार है-बार-बार वह यही कहती है। उसकी आत्मा से यही ध्वनि निकलती है-संसार ने उसे जगह नहीं दी-उसे नहीं समझा; पर संसारियों की तरह वह भी है-उसके भी बच्चा है।
एक रोज मैंने देखा, नेता का जुलूस उसी रास्ते से जा रहा था। हजारों आदमी इकट्ठा थे। जय-जयकार से आकाश गूँज रहा था। मैं उसी बरामदे पर खड़ा स्वागत देख रहा था। पगली भी उठ कर खड़ी हो गई थी। बड़े आश्चर्य से लोगों को देख रही थी। रास्ते पर इतनी बड़ी भीड़ उसने नहीं देखी। मुँह फैलाकर, भौंहे सिकोड़कर आँखों की पूरी ताकत से देख रही थी-समझना चाहती थी, वह क्या था। क्या समझी, आप समझते हैं ? भीड़ में उसका बच्चा कुचल गया और रो उठा। पगली बच्चे की गर्द झाड़कर चुमकारने लगी, और फिर कैसी ज्वालामयी दृष्टि से जनता को देखा ! मैं यही समझता हूँ। नेता दस हजार की थैली लेकर गरीबों के उपकार के लिए चले गए-जरूरी-जरूरी कामों में खर्च करेंगे।
एक दिन पगली के पास एक रामायणी समाज में कथा हो रही थी। मैंने देखा, बहुत से भक्त एकत्र थे। एतवार का दिन। दो बजे साहित्य-सम्राट् गो. तुलसीदास की रामायण का पाठ शुरू हुआ, पाँच बजे समाप्त। उसमें हिन्दुओं के मँजे स्वभाव को साहित्य-सम्राट् गो. तुलसीदासजी ने और माँज दिया है, आप लोग जानते हैं। पाठ सुनकर, मँजकर भक्त-मंडली चली। दुबली-पतली ऐश्वर्य-श्री से रहित पगली बच्चे के साथ बैठी हुई मिली। एक ने कहा, इसी संसार में स्वर्ग और नरक देख लो। दूसरे ने कहा, कर्म के दंड हैं। तीसरा बोला, सकल पदारथ हैं जग माहीं; कर्म हीन नर पावत नाहीं। सब लोग पगली को देखते शास्त्रार्थ करते चले गए।
संगललाल ने मुझसे कहा, बाबू, यह मुसलमान है। मैंने उससे पूछा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ। उसने बतलाया, लोग ऐसा ही कहते हैं कि पहले यह हिन्दू थी, फिर मुसलमान हो गई, इसका बच्चा मुसलमान से पैदा हुआ है; पहले यह पागल नहीं थी, न गूँगी; बाद को हो गई। मैंने सुन लिया। संगम ने किस ख्याल से कहा, मैं सोच रहा था। उन दिनों कई आदमियों से बातें करते हुए मैंने पहली का जिक्र किया; साहित्य, राजनीति आदि कई विषयों के आदर्श पर बहस थी; कुछ हँसकर चले गए, कुछ गम्भीर होकर और कुछ-कुछ पैसे उसे देने के लिए देकर।
मैंने हिन्दू, मुसलमान, बड़े-बड़े पदाधिकारी, राजा, रईस सबको उस रास्ते से जाते समय पगली को देखते हुए देखा। पर किसी ने दिल से भी उसकी तरफ देखा, ऐसा नहीं देखा। जिन्हें अपने को देखने-दिखाने की आदत पड़ गई है, उनकी दृष्टि में दूसरे की सिर्फ तस्वीर आती है, भाव नहीं; यह दर्शन मुझे मालूम था। जिन्दा को मुर्दा और मुर्दा को जिन्दा समझना भ्रम भी है और ज्ञान भी; बाड़ियों में आदमी का पुतला देखकर हिरन और स्यार जिन्दा आदमी समझते हैं; उसी तरह ज्ञान होने पर गिलहरियाँ बदन पर चढ़ती हैं-आदमी उन्हें पत्थर जान पड़ता है। ऊपरवाले आदमी पगली को देखते हुए किस कोटि में जाते थे, भगवान जानें !
एक दिन शहर में पल्टन का प्रदर्शन हो रहा था। पगली फुटपाथ पर बैठी थी। मैं इसी बरामदे पर नंगे-बदन खड़ा सिपाहियों को देख रहा था। मेरी तरफ देख-देखकर कितनी सिपाही मुस्कराए। मेरे बालों के बाद मुँह की तरफ देखकर लोग मिस-फ़ैशन कहते हैं। थिएटर, सिनेमा में यह सम्बोधन दशाधिक बार एक ही रोज सुनने को मिला है। रास्ते पर भी छेड़खानी होती है। मैं कुछ बोलता नहीं। क्योंकि सबसे अच्छा जवाब है बालों को कटा देना। पर ऐसा करूँ तो मुझे दूसरे की समझ की खुराक न मिले। मैं सोचता हूँ, आवाज़ कसनेवालों पर एक हाथ रक्खूँ, तो छठी का दूध याद आ जाय, यह वे नहीं देखते। मैं समझ गया सिपाही भी मिस-फ़ैशन से खुश होकर हँस रहे हैं। लत तो है। मेरे ग्रीक-कट पाँच फुट साढ़े ग्यारह इंच लम्बे जरूरत से ज्यादा चौड़े और चढ़े मोढ़ों के कसरती बदन को देखकर किसी को आतंक नहीं हुआ। इसका एक निश्चय कर मैं पगली की तरफ देखने लगा। पगली बैठी थी। सिपाही मिलिटरी ढंग से लेफ्ट-राइट लेफ्ट-राइट, दुरुस्त दर्प से जितना ही पृथ्वी को दहलाते हुए चल रहे थे, पगली उतना ही उन्हें देख-देखकर हँस रही थी। गोरे गम्भीर हो जाते थे। मैंने सोचा मेरा बदला इसने चुका लिया। पगली ने खुशी में अपने बच्चे को भी शरीक करने की कोशिश की-अच्छी चीज, अच्छी तालीम बच्चे को देती है। पगली पास बैठे बच्चे की ओर देखकर चुटकी बजाकर सिपाहियों की तरफ उँगली से हवा को कोंच-कोंचकर दिखा रही थी और हँसती हुई जैसे कह रही थी-‘‘खुश तो हो ? कैसा अच्छा दृश्य है !’’
कई महीने हो चुके। आदान-प्रदान से पगली की मेरी गहरी जान-पहचान हो गई। पगली मुझे अपनी शरीर-रक्षक समझने लगी। उसे लड़के बहुत तंग करते थे। मैं वहाँ होता था तो विचित्र ढंग से मुँह बनाकर मुझसे सहानुभूति की कामना करती हुई अपार करुणा से देखती हुई लड़कों की तरफ इशारा करती थी। मुझे देखकर लड़के भग जाते थे। इस तरह मेरी-उसकी घनिष्ठता बढ़ गई। वह मुझे अपना परम हितकारी मानने लगी। मैं खुद भी पैसा देता था, पगली यह समझती थी। एक दिन मुझे मालूम हुआ उसके पैसे बदमाश रात को छीन ले जाते हैं। यह मनुष्यों का विश्व-व्यापी धर्म सोचकर मैं चुप हो गया। चुरा जाने पर पगली भूल जाती थी, छिन जाने पर, कम प्रकाश में किसी को न पहचान कर रो लेती थी।
एक दिन मेरे एक मित्र ने पगली से मजाक किया। किसी ने उन्हें बतलाया था कि इसके पास बड़ा माल है। मिट्टी में गाड़-गाड़कर इसने बड़े पैसे इकट्ठे किए हैं। मेरे मित्र पगली के पास गए और मुस्कुराते हुए ब्याजवाली बात समझाकर दो रुपये उधार माँगे। उनकी बात सुनकर पगली जी खोलकर हँसी, फिर कमर से तीन पैसे निकालकर निःसंकोच देने लगी।
3
गरमी की तेज लू और बरसात की तीव्र धार पगली और उसके बच्चे के ऊपर से पार हो गई। लोग-जो समर्थ कहलाते हैं-केवल देखते रहे। पास एक खाली मकान के बरामदे में पानी बरसने पर वह आश्रय लेती थी। जब तक वह उठ कर जाय-जाय तब तक उसका बिस्तरा भीग जाता था, वह भी नहा जाती थी। फिर उसी गली में पड़ी रहती। उसका स्वास्थ्य धीरे-धीरे टूटने लगा। उसे तपस्या करने की आदत थी, काम करने की नहीं। उसके हाथ-पैर बैठे-बैठे जकड़ गए थे। पानी पीने के लिए रास्ते के उस पार जाना पड़ता था। पानी की कल उसी तरफ थी। इस पार से उस पार तक इतना रास्ता पार करते उसे आधे घंटे से ज्यादा लग जाता था। एक फर्लांग पर कोई एक्का या ताँगा आता होता, तो पगली खड़ी हुई उसके निकल जाने की प्रतीक्षा करती रहती। उसकी मुद्राएँ देखकर कोई मनुष्य समझ जाता कि उस एक्के या ताँगे से दब जाने का उसे डर हो रहा है। साधारण आदमी तब तक चार बार रास्ता पार करता। एक एक्का निकल जाता, फिर दूसरा आता हुआ देख पड़ता। पगली अपनी जगह जमी हुई चलने के लिए दो एक दफे झूमकर रह जाती। उसकी मुखमुद्रा ऐसी विरक्ति सूचित करती थी-वह इतनी खुली भाषा थी कि कोई भी उसे समझ लेता कि वह कहती है, ‘‘यह सड़क क्या मोटर ताँगे-एक्के वालों के लिए ही है ? इन्हें देखकर मैं खड़ी होऊँ, मुझे देखकर ये क्यों न खड़े हों ?’ बड़ी देर बाद पगली को रास्ता पार करने का मौका मिलता। तब तक उसकी प्यास कितनी बढ़ती थी, सोचिए।
एक दिन हम लोग ब्लैक कुइन खेल रहे थे। शाम को पानी बरस चुका था। पगली उसी खाली मकान के बरामदे पर थी। हम लोगों ने खाना खाकर खेल शुरू किया था। होटल के गेट की बिजली जल रही थी। फुटपाथ पर मेज और कुर्सियाँ डाल दी गई थीं। दस बज चुके थे। बच्चे को सुलाकर पगली किसी जरूरत से बाहर गई थी। उसका बच्चा सोता हुआ करवट बदलकर दो हाथ ऊँचे बरामदे से नीचे फुटपाथ पर आ गिरा, और जोर से चीख उठा। मेरे साथ के खिलाड़ी आलोचना करने लगे, ‘‘जान पड़ता है पगली कहीं गई है, नहीं है।’’ होटल के अमीर-दिल बोर्डर ने संगम से कहा, ‘देख रे, पगली कहीं हो, तो बुला तो दे।’’
इनकी बातचीत में वह भाव था, जिसके चाबुक ने मुझे उठने को विवश कर दिया। मैंने उस बच्चे को दौड़कर उठा लिया। मेरे एक मित्र ने कहा, ‘‘अरे यह गन्दा रहता है।’’ मैं गोद में लेकर उसे हिलाने लगा। उतनी चोट खाया हुआ बच्चा चुप हो गया, क्योंकि इतना आराम उसे कभी नहीं मिला। उसकी माँ इस तरह बच्चे को सुख के झूले में झुलाना नहीं जानती। जानती भी हो, तो उसमें शक्ति नहीं। बच्चे को आँखों के प्यार से गोद का सुख ज्यादा प्यारा है। इसे इस तरह की मारें बहुत मिली होंगी, पर इस तरह का सुख एक बार भी न मिला होगा। इसलिए वह चोट की पीड़ा भूल गया, और सुख की गोद में पलकें मूँदकर बात-की-बात में सो गया। मैंने उसे फिर उसकी जगह पर सावधानी से सुला दिया।
अब धीरे-धीरे जाड़ा पड़ने लगा था। मेरे मित्र श्रीयुत नैथाणी ने कहा, ‘‘एक रोज पगली का बच्चा गिर गया था। आपने गोद में उठा लिया था। दीवान साहब तब जग रहे थे, मुझे भी देखने को जगा दिया।’’ मैं चुप रहा। मन में कहा, ‘‘यह कोई बड़ी बात तो थी नहीं, बुद्ध एक बकरे के लिए जान दे रहे थे। जब हममें बड़ी-बड़ी बातें पैदा होंगी, तब हम इन बातों की छुटाई समझेंगे। आज तो तरीका उल्टा है। जिसकी पूजा होनी चाहिए, वह नहीं पुजता, जो कुछ पुजता है वही अधिक पुजने लगता है।’’
जाड़ा जोरों का पड़ने लगा। एक रोज रात बारह बजे के करीब रास्ते से पिल्ले की-सी कूँ-कूँ सुन पड़ी। मैं एक कहानी समाप्त करके सोने का उपक्रम कर रहा था। होटल में और सब लोग सो चुके थे। मैं नीचे रास्ते के सामनेवाले कमरे में रहता था। होटल का दरवाजा बन्द हो चुका था। पर मैं अपना दरवाजा खोलकर बाहर गया। देखता हूँ, एक पाया हुआ मामूली काला कम्बल ओढ़े बच्चे को लिए पगली फुटपाथ पर पड़ी है। जब उसे दुनिया का अपने आस्तित्व का ज्ञान होता है, तब हाड़ तक छिद जानेवाले जाड़े से काँपकर वह ऐसे करुण स्वर से रोती है। जमीन पर एक फटी-पुरानी ओस से भीगी कथरी बिछी, ऊपर पतला कम्बल। ईश्वर ने मुझे केवल देखने के लिए पैदा किया है। मेरे पास जो ओढ़ना है वह मेरे लिए भी ऐसा नहीं कि खुली जगह सो सकूँ। पुराने कपड़े होटल के नौकर माँग लेते हैं-मथुरा मेरा कुर्ता जो उसके अचकन की तरह होता है, बाँहें काटकर रात को पहनकर सोता है, संगम मेरी धोती से अपनी धोती साँटकर ओढ़ता है, महाराज ने राखी बाँधकर कम्बल माँगा था अभी तक मैं नहीं दे सका। मैं सोचने लगा यह कम्बल पगली को किसने दिया होगा ? याद आया, सामने के धनी बंगाली-घराने की महिलाएँ बड़ी दयालु हैं, कभी-कभी पगली को धोती और उसके लड़के को अँग्रेजी फ्राक पहना देती थीं-उन्हीं ने दिया होगा। ऐसे ही विचार में मेरी आँख लग गई।
होटल के मालिक से नाराज होकर, गुट्ट बाँधकर एक रोज बारह-तेरह बोर्डर निकल गए। सब विद्यार्थी थे। मुझे मानते ते। कुछ कैनिंग कॉलेज के थे, कुछ क्रिश्चियन कॉलेज के। मुझसे उनके प्रमुख दो लॉ-क्लास के विद्यार्थीयों ने आकर कहा, ‘‘जनाब, ऐसा तो हो नहीं सकता कि हम उस महीने का खर्च यहाँ देकर, वहाँ पेशगी फिर एक महीने का खर्च दें-धीरे-धीरे प्रोप्राइटर को रुपए दे देंगे, हमारे पास घर से खर्च तो एक ही महीने का आता है, अब वहाँ जाकर लिखेंगे, खर्च आएगा, तब देंगे। होटल छोड़ने के लिए कई बार हम लोगों से मैनेजर कह चुके हैं। बीच में छोड़ दिया, तो हम कहीं के न हुए। इम्तहान सिर पर है। हमने पहले से अपना इंतजाम कर लिया।’’ मुझे ख्याल आया, अब पगली की रोटियाँ भी गईं। वह अब चल भी नहीं सकती कि दूसरी जगह से माँग लाए। विद्यार्थी मन में यह सोचते हुए गए। (अब मालूम हो रहा है) कि जैसा सड़ा खाना खिलाया है, दामों के लिए वैसे ही सड़क पर चक्कर खिलवाएँगे।
उनके जाने से होटल सूना हो गया। निश्चय हुआ कि इस महीने बाद बन्द कर दिया जाएगा। संगम मेरे पास उस जाड़े में मेरी दी हुई एक बनियानी पहने हुए मुट्ठियाँ दोनों बगलों में दबाए संसार का एक्स (x) बना हुआ सुबह-सुबह आकर बोला, ‘‘बाबू जी, मेरी दो महीने की तनखाह बाकी है, आप दस रुपया काटकर मैनेजर साहब को बिल चुकाइएगा।’’ मैंने उसे धैर्य दिया। दस रुपए की कल्पना से गलकर हँसता हुआ बड़े मित्र-भाव से संगम मुझे देखने लगा। मैंने देखा, हँसते वक्त उसका मुँह नवयुवतियों की आँखों को मात कर कानों तक फैला गया है।
दो-तीन दिन बाद एक मकान किराए पर लेकर मैनेजर को अपनी बेयरर चेक दस्तखत करके देने से पहले मैंने कहा, ‘‘आपको चेक दिलवाने के लिए गंगा-पुस्तकमाला जाता हूँ, चेक में दस रुपए कम होंगे, संगम की दो महीने की तनख्वाह बाकी है। उसने कहा, मेरे रुपए रोककर होटल को रुपए दीजिएगा।’’ मैनेजर यानी प्रोप्राइटर साहब ने संगम को बुलाया। कहा, ‘‘क्यों रे, तू हमें बेईमान समझता है ?’’ संगम सिटपिटा गया, मारे डर के उसकी जबान बन्द हो गई। मैनेजर साहब उसे घूरकर मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आप मुझे ही रुपए दीजिएगा, नौकरों की इस तरह आदत बिगड़ जाएगी।’’ मैं सत्तर रुपए का चेक मैनेजर साहब को देकर किराए के दूसरे मकान में चला आया। मेरे साथ मेरे मित्र कुँअर साहब भी आए।
एक दिन हम लोग ब्लैक कुइन खेल रहे थे। शाम को पानी बरस चुका था। पगली उसी खाली मकान के बरामदे पर थी। हम लोगों ने खाना खाकर खेल शुरू किया था। होटल के गेट की बिजली जल रही थी। फुटपाथ पर मेज और कुर्सियाँ डाल दी गई थीं। दस बज चुके थे। बच्चे को सुलाकर पगली किसी जरूरत से बाहर गई थी। उसका बच्चा सोता हुआ करवट बदलकर दो हाथ ऊँचे बरामदे से नीचे फुटपाथ पर आ गिरा, और जोर से चीख उठा। मेरे साथ के खिलाड़ी आलोचना करने लगे, ‘‘जान पड़ता है पगली कहीं गई है, नहीं है।’’ होटल के अमीर-दिल बोर्डर ने संगम से कहा, ‘देख रे, पगली कहीं हो, तो बुला तो दे।’’
इनकी बातचीत में वह भाव था, जिसके चाबुक ने मुझे उठने को विवश कर दिया। मैंने उस बच्चे को दौड़कर उठा लिया। मेरे एक मित्र ने कहा, ‘‘अरे यह गन्दा रहता है।’’ मैं गोद में लेकर उसे हिलाने लगा। उतनी चोट खाया हुआ बच्चा चुप हो गया, क्योंकि इतना आराम उसे कभी नहीं मिला। उसकी माँ इस तरह बच्चे को सुख के झूले में झुलाना नहीं जानती। जानती भी हो, तो उसमें शक्ति नहीं। बच्चे को आँखों के प्यार से गोद का सुख ज्यादा प्यारा है। इसे इस तरह की मारें बहुत मिली होंगी, पर इस तरह का सुख एक बार भी न मिला होगा। इसलिए वह चोट की पीड़ा भूल गया, और सुख की गोद में पलकें मूँदकर बात-की-बात में सो गया। मैंने उसे फिर उसकी जगह पर सावधानी से सुला दिया।
अब धीरे-धीरे जाड़ा पड़ने लगा था। मेरे मित्र श्रीयुत नैथाणी ने कहा, ‘‘एक रोज पगली का बच्चा गिर गया था। आपने गोद में उठा लिया था। दीवान साहब तब जग रहे थे, मुझे भी देखने को जगा दिया।’’ मैं चुप रहा। मन में कहा, ‘‘यह कोई बड़ी बात तो थी नहीं, बुद्ध एक बकरे के लिए जान दे रहे थे। जब हममें बड़ी-बड़ी बातें पैदा होंगी, तब हम इन बातों की छुटाई समझेंगे। आज तो तरीका उल्टा है। जिसकी पूजा होनी चाहिए, वह नहीं पुजता, जो कुछ पुजता है वही अधिक पुजने लगता है।’’
जाड़ा जोरों का पड़ने लगा। एक रोज रात बारह बजे के करीब रास्ते से पिल्ले की-सी कूँ-कूँ सुन पड़ी। मैं एक कहानी समाप्त करके सोने का उपक्रम कर रहा था। होटल में और सब लोग सो चुके थे। मैं नीचे रास्ते के सामनेवाले कमरे में रहता था। होटल का दरवाजा बन्द हो चुका था। पर मैं अपना दरवाजा खोलकर बाहर गया। देखता हूँ, एक पाया हुआ मामूली काला कम्बल ओढ़े बच्चे को लिए पगली फुटपाथ पर पड़ी है। जब उसे दुनिया का अपने आस्तित्व का ज्ञान होता है, तब हाड़ तक छिद जानेवाले जाड़े से काँपकर वह ऐसे करुण स्वर से रोती है। जमीन पर एक फटी-पुरानी ओस से भीगी कथरी बिछी, ऊपर पतला कम्बल। ईश्वर ने मुझे केवल देखने के लिए पैदा किया है। मेरे पास जो ओढ़ना है वह मेरे लिए भी ऐसा नहीं कि खुली जगह सो सकूँ। पुराने कपड़े होटल के नौकर माँग लेते हैं-मथुरा मेरा कुर्ता जो उसके अचकन की तरह होता है, बाँहें काटकर रात को पहनकर सोता है, संगम मेरी धोती से अपनी धोती साँटकर ओढ़ता है, महाराज ने राखी बाँधकर कम्बल माँगा था अभी तक मैं नहीं दे सका। मैं सोचने लगा यह कम्बल पगली को किसने दिया होगा ? याद आया, सामने के धनी बंगाली-घराने की महिलाएँ बड़ी दयालु हैं, कभी-कभी पगली को धोती और उसके लड़के को अँग्रेजी फ्राक पहना देती थीं-उन्हीं ने दिया होगा। ऐसे ही विचार में मेरी आँख लग गई।
होटल के मालिक से नाराज होकर, गुट्ट बाँधकर एक रोज बारह-तेरह बोर्डर निकल गए। सब विद्यार्थी थे। मुझे मानते ते। कुछ कैनिंग कॉलेज के थे, कुछ क्रिश्चियन कॉलेज के। मुझसे उनके प्रमुख दो लॉ-क्लास के विद्यार्थीयों ने आकर कहा, ‘‘जनाब, ऐसा तो हो नहीं सकता कि हम उस महीने का खर्च यहाँ देकर, वहाँ पेशगी फिर एक महीने का खर्च दें-धीरे-धीरे प्रोप्राइटर को रुपए दे देंगे, हमारे पास घर से खर्च तो एक ही महीने का आता है, अब वहाँ जाकर लिखेंगे, खर्च आएगा, तब देंगे। होटल छोड़ने के लिए कई बार हम लोगों से मैनेजर कह चुके हैं। बीच में छोड़ दिया, तो हम कहीं के न हुए। इम्तहान सिर पर है। हमने पहले से अपना इंतजाम कर लिया।’’ मुझे ख्याल आया, अब पगली की रोटियाँ भी गईं। वह अब चल भी नहीं सकती कि दूसरी जगह से माँग लाए। विद्यार्थी मन में यह सोचते हुए गए। (अब मालूम हो रहा है) कि जैसा सड़ा खाना खिलाया है, दामों के लिए वैसे ही सड़क पर चक्कर खिलवाएँगे।
उनके जाने से होटल सूना हो गया। निश्चय हुआ कि इस महीने बाद बन्द कर दिया जाएगा। संगम मेरे पास उस जाड़े में मेरी दी हुई एक बनियानी पहने हुए मुट्ठियाँ दोनों बगलों में दबाए संसार का एक्स (x) बना हुआ सुबह-सुबह आकर बोला, ‘‘बाबू जी, मेरी दो महीने की तनखाह बाकी है, आप दस रुपया काटकर मैनेजर साहब को बिल चुकाइएगा।’’ मैंने उसे धैर्य दिया। दस रुपए की कल्पना से गलकर हँसता हुआ बड़े मित्र-भाव से संगम मुझे देखने लगा। मैंने देखा, हँसते वक्त उसका मुँह नवयुवतियों की आँखों को मात कर कानों तक फैला गया है।
दो-तीन दिन बाद एक मकान किराए पर लेकर मैनेजर को अपनी बेयरर चेक दस्तखत करके देने से पहले मैंने कहा, ‘‘आपको चेक दिलवाने के लिए गंगा-पुस्तकमाला जाता हूँ, चेक में दस रुपए कम होंगे, संगम की दो महीने की तनख्वाह बाकी है। उसने कहा, मेरे रुपए रोककर होटल को रुपए दीजिएगा।’’ मैनेजर यानी प्रोप्राइटर साहब ने संगम को बुलाया। कहा, ‘‘क्यों रे, तू हमें बेईमान समझता है ?’’ संगम सिटपिटा गया, मारे डर के उसकी जबान बन्द हो गई। मैनेजर साहब उसे घूरकर मेरी ओर देखकर बोले, ‘‘आप मुझे ही रुपए दीजिएगा, नौकरों की इस तरह आदत बिगड़ जाएगी।’’ मैं सत्तर रुपए का चेक मैनेजर साहब को देकर किराए के दूसरे मकान में चला आया। मेरे साथ मेरे मित्र कुँअर साहब भी आए।
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