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दीवार में एक खिड़की रहती थी

विनोदकुमार शुक्ल

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :169
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2114
आईएसबीएन :81-7055-541-8

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प्रस्तुत है एक रोचक सामाजिक उपन्यास...

Deewar Main Ek Khidaki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विनोद कुमार शुक्ल की प्रारम्भिक कहानियों ने ही सचेत पाठकों को चौकन्ना कर दिया था और उसके बाद ‘नौकर की कमीज’ ने पिछले कुछ वर्षों में आखिरकार अपना कालजयी दर्जा स्वीकार करवा ही लिया। ‘‘खिलेगा तो दिखेगा’’ में यह ताकीद की कि विनोद कुमार शुक्ल के कवि ने गद्य को निकष सिद्ध करने के लिए ही गल्प में हस्तक्षेप नहीं किया था, लेकिन जहाँ उनका यह तीसरा उपन्यास ‘‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’’ यह साफ कर देता है कि अब हिन्दी कथा साहित्य का कोई भी मूल्यांकन उन्हें हिसाब में लिए बिना विकलांग तथा अविश्वसनीय रहेगा, वहीं उससे गुज़रना भी बतलाता है कि यह उनके पीछे दोनों उपन्यासों से अलग तो है ही, कई जगह यदि उनसे श्रेष्ठ नहीं है तो उनकी सम्पूर्णता के लिए अनिवार्य है, बल्कि फ़िलहाल हम इन तीनों को एक मुक्त कथात्रयी मान सकते हैं जो कभी भी चतुष्टय, पंचक आदि में बदल सकती है।

 इस उपन्यास में कोई महान घटना, कोई विराट संघर्ष, कोई युग-सत्य, कोई उद्देश्य या संदेश नहीं है क्योंकि इसमें वह जीवन जो इस देश की वह जिंदगी है जिसे किसी अन्य उपयुक्त शब्द के अभाव में निम्नमध्यवर्गीय कहा जाता है, इतने खालिस रूप में मौजूद है कि उन्हें किसी पिष्टकथ्य की जरूरत नहीं है। यहाँ खलनायक नहीं है किन्तु मुख्य पात्रों के अस्तित्व की सादगी, उनकी निरीहता उनके रहने, आने-जाने जीवन-यापन के वे विरल ब्यौरे हैं जिनसे अपने-आप उस क्रूर प्रतिसंसार का अहसास हो जाता है जिसके कारण इस देश के बहुसंख्य लोगों का जीवन वैसा है जैसा कि है। विनोदकुमार शुक्ल इस जीवन में बहुत गहरे पैठ कर दाम्पत्य, परिवार,आस-पड़ोस काम करने की जगह,स्नेहिल गैर-संबंधियों के साथ रिश्तों के जरिए एक इतनी अदम्य आस्था स्थापित करते हैं कि उसके आगे सारी अनुपस्थित मानव-विरोधी ताकतें कुरूप ही नहीं, खोखली लगने लगती हैं। एक सुखदतम अचंभा यह है कि इस उपन्यास में अपने जल, चट्टान, पर्वत, वन, वृक्ष, पशुओं, पक्षियों, सूर्योदय, सूर्यास्त, चंद्र, हवा, रंग, गंध और ध्वनियों के साथ प्रकृति इतनी उपस्थित है जितनी फणीश्वरनाथ रेणु के गल्प के बाद कभी नहीं रही और जो यह समझते थे कि विनोदकुमार शुक्ल में मानव-स्नेहिलता कितनी भी हो, स्त्री-पुरूष प्रेम से वे परहेज करते हैं या क्योंकि वह उनके बूते से बाहर है, उनके लिए तो यह उपन्यास एक सदमा साबित होगा-प्रदर्शनवाद से बचते हुए इसमें ऐन्द्रिकता, माँसलता, रति और श्रृंगार के ऐसे चित्र दिये हैं जो बगैर उत्तेजक हुए आत्मा को इस आदिम संबंध के सौन्दर्य से समृद्ध कर देते हैं और वे चस्पाँ किए हुए नहीं हैं बल्कि नितांत स्वाभाविक हैं-उनके बिना यह उपन्यास अधूरा, अविश्वसनीय, वंध्य होता।

 बल्कि आश्चर्य यह है कि उनकी कविता में यह शारीरिकता नहीं है। विनोदकुमार शुक्ल में पारंपरीणता और प्रयोगधर्मिता ठोसपन और गीतात्मकता गद्यता और पद्यता का अद्वितीय सामंजस्य है। उपन्यास के जिस भारतीय रूप को लेकर जो हास्यास्पद बहस चलती है उससे दूर रेणु के बाद और उनसे अलग हिन्दी में विनोदकुमार शुक्ल ने उसे एक अनूठी संभावना तक बढ़ाया है। निम्नमध्यवर्गीय भारतीय जीवन में एक ऐसा जादू है जो अन्यत्र कहीं नहीं हैं, हालाँकि उसके आधार-भूत मानव-मूल्य सब जगह वहीं हैं और उसका यथार्थवाद विनोदकुमार शुक्ल के यहाँ है और उसमें एक अदम्य देसी आस्था है। सत्यजित राय की श्रेष्ठतम फिल्में ही उनके समीप आ पाती हैं। उनमें मर्मस्पर्शिता और परिहास का निराला-संतुलन है-हिन्दी के कुछ उपन्यास आपको विचलित तो करते हैं लेकिन जीवन की विसंगतियों को लेकर चार्ली चैप्लिन और बस्टर कीहन के मिश्रण में आपको हँसा भी सकें यह माद्दा प्रेमचंद और रेणु के बाद सिर्फ विनोदकुमार शुक्ल में है और उन दोनों से कहीं अधिक है। सबसे बड़ी बात शायद यह है कि उनके पात्रों और घटनाओं में हम अपने को, अपने परिवालों-परिचितों को, अपने आस-पास को बार-बार देखते और पहचानते हैं और अपने पर रोते, हँसते और सोचते हैं।

 भारतीय निम्नमध्यवर्ग को लेकर जितनी गहरी निगाह, समझ और सहानुभूति विनोदकुमार शुक्ल के पास है उतनी और किसी उपन्यासकार में दिखाई नहीं देती। मेरे मन में इसे लेकर जरा भी संदेह नहीं है कि फणीश्वरनाथ रेणु के बाद वे स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के सबसे बड़े उपन्यासकार हैं, भारतीय गल्प-लेखन में भी उन जैसी प्रतिभाएँ कम ही हैं, और जब कोई उत्सुक विदेशी पूछता है तो मैं निस्संकोच कहता हूँ कि समसामयिक हिन्दी उपन्यासकारों में से मैं विनोदकुमार शुक्ल को विश्व कथा-साहित्य में पांक्तेय मानता हूँ। यूँ भी कविता और उपन्यास जैसी दो लगभग विपरीतधर्मा विधाओं में एक साथ ऐसी विलक्षण उपलब्धियों वाला दूसरा जीनियस भारत या उससे बाहर कम से कम मेरी (सीमित) जानकारी और समझ में तो नहीं ही है।

उपन्यास में पहले एक कविता रहती थी


अनगिन से निकलकर एक तारा था।
एक तारा अनगिन से बाहर कैसे निकला था ?
अनगिन से अलग होकर
अकेला एक
पहला था कुछ देर।
हवा का झोंका जो आया था
वह भी था अनगिन हवा के झोंको का
पहला झोंका कुछ देर।
अनगिन से निकलकर एक लहर भी
पहली, बस कुछ पल।
अनगिन का अकेला
अनगिन अकेले अनगिन।
अनगिन से अकेली एक—
संगिनी जीवन भर।


हाथी आगे-आगे निकलता जाता था और
पीछे हाथी की खाली जगह छूटती जाती थी।


आज की सुबह थी। सूर्योदय पूर्व की दिशा में था। दिशा वही रही आई थी, बदली नहीं थी। ऐसा नहीं था कि सूर्य धोखे से निकलता था, उसके निकलने पर सबको विश्वास था। किसी दिन सूर्य बादलों में छुपा हुआ निकला होता पर निकला हुआ जरूर होता था। उसका उदय और अस्त सत्य था। सूर्य के उदय होने के प्रमाण की तरह दिन था और सूर्यास्त के प्रमाण की तरह रात हो जाती थी। अभी रात काली थी। रात के काले में सब काला दिखता था। दिन ऐसा पारदर्शी गोरा था जिसमें जो जिस रंग का था वह रंग साफ दिखता था। रघुवर प्रसाद का रंग काला था। बचपन से सुबह उठने पर उन्हें लगता था कि रात उनके शरीर में लगी रह गई है और हाथ मुँह धोकर फिर नहाकर वह कुछ साफ और तरोताजा हो सकेंगे।
 बीच-बीच में महीनों सुबह उठने पर ऐसा लगना छूट जाता था। ऐसा नहीं था कि उन दिनों चाँदनी रात होती हो।

 महीनों चाँदनी रात नहीं होती थी। बरस भर उजली रात नहीं होती थी। अगर दो-तीन बरस चाँदनी रात होती तो उनका रंग उतना काला नहीं होता। रघुवर प्रसाद का रंग इतना काला नहीं था कि उनकी मूँछें उनके शरीर के रंग से मिली जुली होकर स्पष्ट नहीं दिखती हो। रघुवर प्रसाद बाईस-तेईस बरस के थे। काले रंग के बाद भी और भी काली भौं और बड़ी-बड़ी काली आँखों के कारण वे सुन्दर लगते थे। आज के दिन आज की चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी। खिड़की से जो पेड़ दिख रहे थे, वे आज के पेड़ की तरह दिख रहे थे। आम के पेड़ थे। आम के पेड़ों के बीच वही पुराना नीम का पेड़ आज का पेड़ था। आम के पेड़ों की पत्तियाँ आज हरी थीं। जैसे सब पेड़ों की थीं। आम में बौर आ गई थी। पेड़ बौर से लदे थे। बौर के गन्ध में साँस खींचने से मन को चक्कर आ जाता था। पेड़ों में इतनी बौर लगी थी कि जितनी बौर निकलनी थी सब निकल गई, जिन्हें अगले वर्ष निकलना था, धोखे से इसी वर्ष निकल गई थीं।
खिड़की से पड़ोस की छः सात साल की लड़की ने झाँककर कहा, ‘‘एक आम का बौर तोड़ दो’’ लड़की खिड़की के नीचे रखी ईंटों पर खड़ी थी। रघुवर प्रसाद के कमरे में झाँकने के लिए पड़ोस के छोटे-छोटे बच्चों ने वहाँ ईंटें जमाई थीं। जो बहुत छोटे बच्चे थे। तब भी झाँक नहीं पाते थे।
‘‘काहे के लिए !’’

‘‘पूजा के लिए। बाई मँगाई है।’ लड़की अपनी अम्मा को बाई कहती थी। लड़की सोकर अभी उठी होगी। उसके बाल उसी तरह बिखरे थे जैसे रात भर गहरी नींद सोने से होते थे। दोनों चोटियों में काले फीते थे। एक चोटी का फीता खुलकर लटका हुआ था।
‘‘तुम्हारे पिता सो रहे हैं ?’’
‘‘बाहर गए हैं। तीन दिन के बाद आएँगे। तोड़ दो। बाई नहा ली है।’’
अच्छा रुको !’’
रघुवर प्रसाद उस लड़की के साथ पीछे आम के पेड़ों तक गए। रघुवर प्रसाद को लगा कि लड़की देर से उनके उठने का रास्ता देख रही होगी।
‘‘तुम मेरे उठने का रास्ता देख रही थीं।’’
‘‘हाँ। उठने का रास्ता झाँककर देख रही थी।’’
‘‘तुम पहले से उठ गई थीं ?’’
‘‘हाँ।’’

रघुवर प्रसाद का वह एक छोटा कमरा था जिसमें झाँककर छोटे-छोटे बच्चे अंदर अनेक रास्ते देखते थे। जैसे वे बैठे होते तो उनके खड़े होने का रास्ता। वे पढ़ रहे होते तो उनके सीटी बजाने का रास्ता। चहलकदमी करते हुए उनके लेट जाने का रास्ता। खाली कमरे में अचानक उनके दिख जाने का रास्ता। उनके चाय बनाने के रास्ते से लेकर हर क्षण का रास्ता। बच्चों के उस तरह देखने से रघुवर प्रसाद को फर्क नहीं पड़ता था। बच्चों के आने से उनके कमरे की चारदीवारी के अकेलेपन में एक खिड़की और खुल जाती थी। खिड़की से आने वाली हवा से उनको अच्छा लगता था।
रघुवर प्रसाद ऊँचे थे। उनका हाथ आसानी से खड़े-खड़े बौर तक पहुँच रहा था। फिर भी वे उस बौर की तरफ हाथ बढ़ा रहे थे जहाँ उनका हाथ नहीं पहुँच सकता था। वे उछले और बौर की डाली टूटकर उनके हाथ में आ गई। पर एक आँख भींचकर वे नीचे बैठ गए।
‘‘क्या हुआ ?’’ लड़की ने पूछा।

‘‘बौर का फूल झरकर आँख में चला गया।’’
‘‘फुँक्का मार दूँ ?’’
रघुवर प्रसाद ने कुछ नहीं कहा। लड़की ने फ्रॉक के छोर को उँगली में गुरमेटकर बाँधा और अपनी गरम साँस से फूँका फिर रघुवर प्रसाद के बिलकुल पास जाकर साँस से गरम फ्रॉक के बाधें छोर को आँख पर रखा। ऐसा उसने दो-तीन बार किया।
‘‘बस ठीक हो गया’’ रघुवर प्रसाद ने कहा। उनकी आँख लाल हो गई थी और आँसू आ गए थे।
‘‘ठीक हो गया’’ लड़की ने पूछा।
‘‘हाँ’’ उन्होंने कहा।
रघुवर प्रसाद के हाथ से बौर की डाली लेकर लड़की भाग गई। लौटते समय रघुवर प्रसाद को एक जगह दो ईंट दिखाई दीं। ईंटें मिट्टी से सनी थीं। हाथों में एक-एक ईंट उठाए रघुवर प्रसाद पीछे की खिड़की की तरफ गए। खिड़की के नीचे बच्चों ने ईंटें ठीक से जमाई नहीं थीं। आधी ईंट उठाते बनी होगी इसलिए आधी ईंटें अधिक थीं। किनारे की ईंट के छोर पर पैर पड़ता तो ईंट पलट जाती और बच्चे गिर जाते। ईंटों को उन्होंने जमाया। ईंट के चौरस पर खड़े होकर उन्होंने कमरे में झाँका कि वे कमरे में नहीं थे। छोटे बच्चों के लिए तब भी नीचे होगा। वे ढूँढ़कर दो ईंट और लाए।

कमरे में आकर रघुवर प्रसाद को अपनी शादी का निमंत्रण-पत्र पढ़ने का मन हुआ। शादी हुए बारह दिन हो गए थे। निमंत्रण-पत्र खटिया के नीचे पेटी में था। पेटी निकालने के लिए वे नीचे झुके। उन्होंने सुना ‘‘ग में छोटे उ की मात्रा गुड़िया’’! खिड़की की तरफ उन्होंने देखा एक बच्चा और बच्ची दोनों की ऊंचाई बराबर थी। खिड़की के नीचे की चौखट तक दोनों की ठुड्डी थी। रघुवर प्रसाद ने उन्हें देखा तो दोनों मुस्कुराए। फिर दोनों हँसने लगे। उनकी हँसी सुनकर नीचे बैठी हुई गुड़िया नाम की लड़की भी खड़ी हो गई। रघुवर प्रसाद ने उसे देखकर कहा ‘‘ब में छोटी उ की मात्रा बुढ़िया।’’ ‘‘नहीं ! ग में छोटी उ की मात्रा गुड़िया।’’ नहीं ! ब में छोटी उ की मात्रा बुढ़िया। अच्छा ! अब तुम लोग जाओ।’’ तभी तीनों बच्चे खिड़की से गायब हो गए।
रघुवर प्रसाद को लग रहा था कि पिता छोटू के साथ पत्नी को बिदा कराकर गाँव लिवा लाए होंगे। एक-दो दिन में यहाँ आ जाएँ। शादी के तीन दिन बाद पत्नी मायके चली गई थी। पिता ने पत्नी के जाने के छः दिन बाद रघुवर प्रसाद से बिदा कराने के लिए कहा था। विभागाध्यक्ष ने छुट्टी देने से मना कर दिया था।
रघुवर प्रसाद एक निजी महाविद्यालय में व्याख्याता थे। आठ सौ रुपए मिलते थे। महाविद्यालय इस सत्तर हजार आबादी वाली बस्ती से आठ किलोमीटर दूर था। इस बस्ती के सब तरफ के आखिरी मकान से लगे हुए खेत थे। बीच की बस्ती सबसे पुरानी थी। सभी आखिरी के मकान में बाद के बने हुए थे बस्ती के कुछ इधर-उधर आखिरी के मकान भी पुरानी बस्ती के समय के बने हुए थे। यह ऐसा शहर नहीं था जिसके आखिरी मकान के बाद गाँव की पहली झोंपड़ी शुरू होती। राष्ट्रीय राजमार्ग नं. छः पर आठ किलोमीटर तक फैले खेतों के बाद सबसे नजदीक जोरा गाँव था। शहर फैलते-फैलते नजदीक के गाँव तक पहुँचता तो गाँव शहर का मुहल्ला बन जाता था। गाँव का नाम मुहल्ले का नाम हो जाता था। जोरा गाँव आठ किलोमीटर दूर था इसलिए जोरा गाँव नाम का मुहल्ला नहीं बना था। वहाँ यह महाविद्यालय था। यह खपरैल की छतवाला लम्बी बैरकनुमा दाऊ के बाड़े में था। लाइन से कमरे बने थे। मिट्टी की दो फुट मोटी दीवाल थी। सामने एक लम्बी दालान थी। दीवालें छुही मिट्टी से पूती थीं। बरामदे में बड़े-बड़े आले बने थे। महाविद्यालय राष्ट्रीय राज मार्ग नं. छः पर था इसलिए ट्रकें, टेम्पो, बसें आया-जाया करती थीं। महाविद्यालय के सामने तीन-चार बैलगाड़ियों के खुले बैल घास चरते हुए इधर-उधर घूमते रहते थे।

रघुवर प्रसाद महाविद्यालय जाने के लिए आधा घण्टा पहले राष्ट्रीय राजमार्ग पर खडे हो जाते थे। उन्हें आजकल तीन-चार दिनों से महाविद्यालय की ओर जाता हुए एक हाथी दिखाई दे जाता था। लौटते समय भी एक-दो बार दिखा था। तब हाथी की पीठ पर पेड़ की डाल लदी होती। इसे हाथी खुद सूँड़ से तोड़ता होगा। दाढ़ी और बड़े बालों वाला एक सुन्दर युवा साधू हाथी पर बैठा रहता। साधू का रंग गेहुँआ था। हाथी के माथे, सूँड़ और कान के कुछ हिस्से की खाल ललायी लिए हुए थी और उसमें काले छीटे सुन्दर लगते थे। हाथी युवा होगा। खूबसूरत था। काला हाथी था।
रघुवर प्रसाद ने मन ही मन अपने एक हाथ आगे बढ़ाकर जाते हुए हाथी के रंग से अपने रंग की तुलना की। हाथी की तुलना में उनका रंग साफ था।

कभी-कभी दिख गए काले साँवले मनुष्यों के पश्चात् किसी एक दिन पेड़ों से उन्होंने तुलना की होगी कि आम के पेड़ के शरीर का रंग बिही के पेड़ के शरीर के रंग से बहुत काला था। बिही के पेड़ का रंग गेहुँआ चिकना था। आम के पेड़ के शरीर का रंग और नीम के पेड़ के शरीर का रंग एक काला था। इसी तरह पेड़ पर बैठने वाले पक्षियों से और उड़ते हुए पक्षियों से।
यह सच था कि धरती में पेड़ों की पत्तियों, घास के कारण हरा रंग सबसे अधिक था। आकाश में नीला रंग अधिक था। खुली धरती होने के कारण यह सुविधा थी कि एक मुश्त बहुत सा आकाश दिख जाता था। सुबह शाम आकाश के स्थिर रंगीन होने के बाद भी हरा रंग उड़ता हुए तोतों के झुण्ड के कारण दिखाई देता था। आठ-दस कौवों से बड़ा झुण्ड आकाश में दिखाई नहीं देता था। तोते सटे हुए एक साथ उड़ते दिखाई देते थे। कौवे छितरे-छितरे उड़ते दिखाई देते थे। सफेद बगुले भी छितरे-छितरे उड़ते थे। कोयल पेड़ की डाली में छुपी-छुपी दिखती थी। गिलहरी पेड़ पर अकेली नहीं दिखाई दी। आस-पास दूसरी गिलहरी होती या चिड़िया जरूर होती। तब यह तय नहीं कर पाते थे कि टिट् टिट् बोलती हुई गिलहरी है या चिड़िया। कभी लगता है गिलहरी है कभी लगता है चिड़िया है। तालाब के किनारे के पेड़ पर बैठने वाली रंगीन लंबी चोंच वाली चिड़िया एक छोटी घंटों की तरह चहचहाती है या टुन्टनाती है।

रघुवर प्रसाद को ऑटो का इन्तजार करते हुए जब बहुत देर हो जाती और सामने से हाथी निकल रहा होता तब उनका मन होता था कि हाथी पर बैठ कर महाविद्यालय जाते। हाथी पर बैठे साधू की नजर रघुवर प्रसाद पर पड़ती थी। रघुवर प्रसाद कहते ‘‘मुझे ले चलोगे ?’’ तो हो सकता है साधू हाथी रोक देता। साधू नहीं रोकता तो हाथी खुद रुक जाता।
रघुवर प्रसाद जहाँ ऑटो के लिए खड़े होते थे वहाँ चाय की एक टिपरिया दुकान थी। एक पान का ठेला। साइकिल-पंक्चर सुधारने की दुकान थी। इस दुकान के सामने एक गँदला पानी भरा घमेला था और वहाँ रिम जकड़ने के स्टैण्ड से एक पम्प टिका हुआ होता। चाय और पान की दुकान के सामने जमीन पर धँसी हुई लकड़ी की दो बैंचें थीं। बेंच इतनी प्राकृतिक थी कि लगता था कि पेड़ पर बेंच की तरह उगी थी और काटकर इनके पायों को जमीन पर गाड़ दिया गया।

रघुवर प्रसाद ऑटो का रास्ता देख रहे थे। दूर से रघुवर प्रसाद ने हाथी को आते देखा। रघुवर प्रसाद को लगा यहाँ खड़े होने से जैसे चार ताड़ के पेड़ दिखाई देते हैं। उसी तरह यहाँ खड़े होने से हाथी भी दिखाई देता है। फर्क इतना था कि ताड़ के पेड़ वहीं खड़े होते थे जबकि हाथी आता दिखाई देता था। आता हुआ हाथी सामने रुक गया। साधू हाथी की पीठ पर बँधी रस्सी के सहारे उतरा। रघुवर प्रसाद को लगा कि साधू पान की दुकान से तम्बाकू-चूना लेने आया हो या चाय की दुकान पर चाय पीने। वह साइकिल की दुकान नहीं जाएगा। ऐसा नहीं था कि हाथी के पैर की हवा निकल गई हो। हवा भरवाने की उसकी मंशा नहीं होगी। साधू तंबाकू मलता हुआ रघुवर प्रसाद के पास खड़ा हो गया। धीरे से उसने पूछा ‘‘ऑटो नहीं मिली।’’

‘‘नहीं मिली।’’ रघुवर प्रसाद ने भी धीरे से कहा।
‘‘हाथी पर बैठेंगे ? महाविद्यालय जाना है न।’’
‘‘हाथी पर ! ऑटो तो आता होगा’’ हड़बड़ाकर उन्होंने कहा।
रघुवर प्रसाद को आशा नहीं थी कि वह हाथी पर बैठने को कहेगा। आशा होती तो वे कुछ सोच लेते। सोचने के बाद शायद वे हाथी पर बैठने के लिए तैयार हो जाते। उसके जाने के बाद उन्होंने सोचा कि क्या उन्हें हाथी पर बैठ जाना चाहिए था। हाथी पर चढ़ने और उतरने का भय उन्हें हुआ जबकि वे चढ़े उतरे नहीं थे।
उन्हें देर हो रही थी। इस देरी में बिना कारण वे पान खाना चाहते थे। शायद पान बनते और खाते तक उन्हें ऑटो न मिलने की देरी ठहर जाती या बदल जाती। देरी नहीं जाती, देरी होने का थोड़ा अहसास चला जाता। एक काम के न होने का अहसास दूसरे काम के करने पर भुला दिया जाता है चाहे दूसरा काम, करने जैसे न भी हो। पान खाने के बदले, बैठ जाने का काम किया जा सकता था। बैठ जाना आत्म-समर्पण जैसा होता। जूझना जैसा न होता। पैदल बढ़ जाना जूझना जैसा हो सकता था। पर यह बेकार था। पान खाने की आदत नहीं थी। ऑटो के इन्तजार करने के समय में ऑटो नहीं आ रहा था। पान खाने के समय ऑटो आ जाए। पान खाना—ऑटो पाने का एक टोटका हो सकता था। जुआ खेलना भी हो सकता था। अभी पान के ठेले वाला आदमी रघुवर प्रसाद को इस नजर से नहीं देख रहा था कि रघुवर प्रसाद पान खाएँगे। आज पान खा लेंगे तो कल से रोज, रघुवर प्रसाद पान खाते हैं या नहीं की नजर से देखेगा।

एक ऑटो रुका। बैठने की जगह नहीं थी। दो विद्यार्थी थे। गाँव की औरतें टोकनी लेकर बैठीं थी। झाँककर वे पीछे हट गए। नहीं बैठे। एक विद्यार्थी उनको देखकर उतरने-उतरने को हुआ पर नहीं उतरा। उसे भी समय पर महाविद्यालय पहुँचना था। देर बाद उन्हें ऑटो मिला। महाविद्यालय पहुँचते-पहुँचते उन्हें देर हो गई। आधे दिन की छुट्टी लेनी पड़ी।
रघुवर प्रसाद अच्छा पढ़ाते थे। गणित पढ़ाते थे। कक्षा में पढ़ाते समय अधिकांश समय उनकी पीठ विद्यार्थियों की तरफ रहती। पीठ घुमाए बोलते हुए तख्ते पर लिखते जाते। गणित होने के कारण विद्यार्थी सन्न खाए शान्त रहते। रघुवर प्रसाद दोनों हाथ से लिखते थे। तख्ते पर बाएँ हाथ से लिखना शुरू करते और मध्य तक पहुँचते-पहुँचते दाहिने हाथ से लिखना शुरू कर देते। वे दोनों हाथों से एक जैसा साफ लिखते थे। तख्ते के भर जाने के बाद वे किनारे हट जाते ताकि विद्यार्थी सवाल कॉपी पर उतार लें। बाएँ हाथ की चॉक लिखते-लिखते घिस जाती या टूट जाती तो दाहिनी हाथ से हाथ में रखी सहगो चॉक से लिखना शुरू कर देते थे। यह तत्काल होता था। बाएँ हाथ के बाद दाहिने हाथ से उनका लिखना इस तरह होता था कि हाथ का बदलना पता नहीं चलता था। नए विद्यार्थियों को तब पता चलता था जब वे पुराने हो जाते। पुराने विद्यार्थी इतने आदी हो जाते थे कि नए को बतलाना भूल जाते थे।

विभागाध्यक्ष को भी बहुत बाद में पता चला था कि रघुवर प्रसाद दोनों हाथ से लिखते हैं। जबकि वे उनको बाएँ और दाहिने हाथ से लिखता हुआ कई बार चुके थे। जब वे रघुवर प्रसाद को बाएँ हाथ से लिखता हुआ देखते तो उसे ही सत्य समझते कि रघुवर प्रसाद डेरी हाथ हैं। जब दाहिने हाथ से लिखना देखते तो उनको यही हमेशा सत्य लगता। पहले का सत्य वे भूल जाते थे। दरअसल रघुवर प्रसाद के दोनों दाहिने हाथ थे।

दूसरे दिन ऑटो के इन्तजार में पिछले दिनों की तरह हाथी आते हुए दिखा। हाथी दिखने के बाद रघुवर प्रसाद ने ताड़ के पत्तों को देखा की वहीं हैं। हाथी पर बैठे युवा साधु ने रघुवर प्रसाद को कल उनसे बातचीत हो चुकी थी के परिचय की दृष्टि से देखा। साधू को रघुवर प्रसाद का नाम नहीं मालूम था। अगर मालूम होता तो देखने के परिचय में नाम मालूम है की भी दृष्टि होती। रघुवर प्रसाद को लगा कि वह उनसे नहीं पूछेगा। हाथी पर बैठकर महाविद्यालय जाना ठीक नहीं था। हाथी एक सवारी थी जिसका चलन बन्द हो गया था इस तरह चल रही थी। एक सिक्का जिसका चलन बन्द था, पर है। वह चाहते तो कल हाथी पर बैठ सकते थे। ऑटो के एक रुपए देने पड़ते हैं हाथी के अधिक देने पड़ें ? आठ किलोमीटर हाथी पर बैठकर जाना होगा। इस समय बैठें तो    हास्यास्पद होगा। जैसे हाथी पर बैठा हुआ भूतपूर्व राजा सब्जी खरीदने बाजार आया। सबने अपनी-अपनी सब्जी की टोकनी पीछे खींचकर हाथी के आने का रास्ता चौड़ा किया। तब भी हाथी के लिए घूमकर पलटने की जगह नहीं थी। इस तितर-बितर में भूतपूर्व राजा ने एक सब्जी वाले के पास झोला फेंका कि आधा किलो आलू, एक रुपए की पालक, एक पाव लहसुन और पचास पैसे की अदरक देना। झोले में सब्जी भरकर सब्जी वाली झोले को हाथी की सूँड़ को पकड़ा देगी। हाथी सूँड़ पलटाकर झोला महावत को दे देगा। भूतपूर्व राजा सब्जी के पैसे पूछेगा, फिर एक पोटली में पैसे लपेट कर महावत को देगा। महावत हाथी को देगा। हाथी सब्जी वाली को देगा। इस लेन-देन के बीच में बहुत बड़ा हाथी होगा और उसकी भूमिका होगी। घूमने फिरने के लिए हाथी पर बैठना ठीक है। काम पर जाने के लिए ठीक नहीं। घोड़ा तो भी ठीक होगा।

टैम्पो में हमेशा की तरह गाँव की औरतों और बूढ़ों की भीड़ थी। एक बुड्ढा डंडा लिये हुए बैठा था। विद्यार्थी नहीं थे इसलिए रघुवर प्रसाद ने अन्दर घुसने की कोशिश की। टैम्पो वाले ने जगह बनाने को कहा। टैम्पो में जगह होती तो मिलती। ऐसा नहीं था कि बाहर मैदान से थोड़ी जगह लेते और टैम्पो में रख देते तो जगह बन जाती। बिना जगह वे टैम्पों में घुस गए। जब टैम्पो चली तब उनको लगा कि दम नहीं घुटेगा। लड़कियों-औरतों के बीच बैठे हुए आगे उनको कोई विद्यार्थी देखेगा तो अटपटा नहीं लगेगा, क्योंकि विद्यार्थी सोचेगा कि रघुवर प्रसाद के बैठने के बाद औरतें बैठी होंगी। औरतों के बैठने के बाद रघुवर प्रसाद बैठे होंगे ऐसा विद्यार्थी क्या सोचेगा।
हाथी को निकले हुए समय हो चुका था तब भी हाथी इतने धीरे चल रहा था कि उनका टैम्पो हाथी से आगे निकल गया। डंडे वाले बूढ़े के कन्धे पर कंबल रखा था, जो रघुवर प्रसाद को गड़ रहा था। ठंड को गए हुए कुछ दिन बीत गए थे पर बीते दिनों की आदत की तरह कंबल कंधे पर रखा हुआ था।

विभागाध्यक्ष से रघुवर प्रसाद ने बात की ‘महाविद्यालय आने में कठिनाई होती है सर ! टैम्पो, बस समय पर नहीं मिलती। देर होने पर आधे दिन की छुट्टी लेनी पड़ती है।’’
‘‘स्कूटर नहीं खरीद लेते !’’
‘‘सर इतने पैसे कहाँ से लाऊँगा ?’’
‘‘साइकिल से आया करो।’’
‘‘साइकिल से आने का मन नहीं करता। पिताजी की पुरानी साइकिल है बिगड़ती रहती है।’’
‘‘चलाओगे तो उसकी देखभाल होगी। साइकिल ठीक रहेगी।’’
‘‘यही करना पड़ेगा। आपने स्कूटर कब खरीदी ?’’
‘‘आठ साल हो गए !’’
‘आते-जाते आपको हाथी मिलता है ?’’
‘‘हाँ ! कुछ दिनों से तो रोज मिलता है।’’

‘‘स्कूटर का हॉर्न सुनकर हाथी हट जाता है ?’’
‘‘हाथी सुनकर हटता है यह पता नहीं। महावत सुनकर हटा देता हो।’’
‘‘हाथी तो समझदार होता है। उसको अपने मन से हट जाना चाहिए।’’
‘‘सामने बस, ट्रक को आते देख हाथी किनारे हो जाता होगा।’’
 ‘‘हो तो जाना चाहिए।’’
‘‘हाथी के बाजू से स्कूटर निकालने में आपको डर नहीं लगता ? मैं होता तो मुझको डर लगता।’’
‘‘डर लगता है। हाथी अपनी समझदारी और महावत की समझदारी के साथ-साथ चलता है। दोनों की समझदारी में फर्क पड़ जाए तब मुश्किल होगी।।’’
‘‘यह भी हो सकता है कि महावत की गलती को हाथी संभाल ले।’’
‘‘हाँ। और महावत सही हो तो हाथी से गलती हो जाए।’’
‘‘जी हाँ।’’

‘‘हाथी के पास से निकलते समय, मैं स्कूटर धीमी कर लेता हूँ। हाथी से दूर होकर निकलता हूँ कि अचानक वह घूम जाए तो उसकी सूँड़ की पहुँच की सीमा पर न रहूँ। हाथी से आगे होते ही तुरन्त गति बढ़ा देता हूँ।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘इसलिए कि हाथी इतना बड़ा होता है, सूँड़ लंबी होती है कि सूँड़ बढ़ाकर पकड़ न ले।’’ हँसते हुए विभागाध्यक्ष ने कहा।
‘‘अच्छा बताइए, हाथी बैलगाड़ी से आगे निकल सकता है ?’’
‘‘स्कूटर से जाते हुए यह कैसे पता चलेगा। या तो हाथी पर बैठे रहो या बैलगाड़ी पर तब पता चलेगा।’’
‘‘फिर भी आप क्या सोचते हैं ?’’
‘‘हाथी बैलगाड़ी से आगे निकल जाएगा।’’


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