सामाजिक >> शरम शरमसलमान रश्दी
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प्रस्तुत है सलमान रुश्दी का चर्चित उपन्यास...
Sharam
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भारतीय मूल के विवादास्पद लेखक सलमान रुश्दी अपनी रचनाओं से हमेशा ही चर्चा में रहे हैं, उन्होंने लगभग आधा दर्जन उपन्यास लिखे हैं, इनमें से 'मिडनाइट्स चिल्ड्रन' को 'बुकर प्राइज़' और 'जेम्स टेट ब्लैक प्राइज़' से सम्मानित किया गया। इसे 'बुकर प्राइज़' के पहले पच्चीस वर्षों का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास भी घोषित किया गया। उनका सर्वाधिक विवादास्पद उपन्यास 'दि सैटानिक वर्सेज़' था जिसके लिए उन्हें 'ह्विटब्रेड प्राइज़' दिया गया। 'हारुन ऐंड दि सी ऑव स्टोरीज़' को 'राइटर्स फील्ड' अवार्ड मिला। उनके अन्य उपन्यास हैं 'ग्राइमस और दि मूर्स लास्ट साइ'। यह पुस्तक ‘शेम’ (हिन्दी अनुवाद ‘शरम’) को फ्रांस का प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। इसके अतिरिक्त उनका एक कहानी संग्रह 'ईस्ट वेस्ट', और लेखों का एक संग्रह 'इमेजिनरी होमलैंड्स' भी प्रकाशित हो चुका है। रिपोर्तराज विद्या में उनकी श्रेष्ठता का साक्ष्य 'दि जैगुआर स्माइलः ए निकारागुअन जर्नी' में मिलता है। श्री रुश्दी की पुस्तकों का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
अगर जोर-जबरदस्ती से किसी को ढेर भारी खाना खिलाया जाए तो क्या होगा ?
-खाने वाला बीमार हो जाएगा। वह इस खाने को पचायेगा नहीं। पाठकों वह उल्टी कर देगा।
जिसे इस्लामी ‘कट्टरपन्थ’ कहा जाता है, पाकिस्तान में वह लोगों की वजह से नहीं पनपता। यह उन पर ऊपर से लादा जाता है। मजहब की लफ्फाजी तानाशाह निजामों को रास आती है, क्योंकि लोग मजहब की कद्र करते हैं। और उसके खिलाफ नहीं जाना चाहते। यूँ तानाशाहों का सहारा बनते हैं, वे उनके चारों तरफ ताकतवर लफ्जों का एक घेरा बनाते हैं, ऐसे लफ्ज जिन्हें लोग बेसाख, कमजोर, बेकद्र होते नहीं देखना चाहते।
पर जबरदस्ती गले उतारने वाली दलील अपनी जगह कायम है आप आखिर में इससे आजिज आ जाते हैं, आप मजहब में यकीन खो देते हैं, मजहब में न सही, किसी मुल्क की बुनियाद होने पर। जब तानाशाह ढह जाता है और हम पाते हैं कि उसने साथ अल्लाह को भी ढहा दिया है और मुल्क को वजह देने वाली मिथ को भी तबाह कर दिया है। बाद दो ही रास्ते बचते हैं बिखराव या नई तानाशाही ....नहीं, एक तीसरा रास्ता भी है और मैं इतनी नाउम्मीदी नहीं दिखाऊँगा कि इसके हो सकने से इन्कार करूँ। तीसरा रास्ता है पुरानी की जगह किसी नई मिथ पर यकीन लाना। ऐसी तीन मिथें तुरन्त हाजिर हो जाएँगीः आजादी, बराबरी,. भाईचारा।
मैं तहेदिल से इनकी ताईद करता हूँ।
अगर जोर-जबरदस्ती से किसी को ढेर भारी खाना खिलाया जाए तो क्या होगा ?
-खाने वाला बीमार हो जाएगा। वह इस खाने को पचायेगा नहीं। पाठकों वह उल्टी कर देगा।
जिसे इस्लामी ‘कट्टरपन्थ’ कहा जाता है, पाकिस्तान में वह लोगों की वजह से नहीं पनपता। यह उन पर ऊपर से लादा जाता है। मजहब की लफ्फाजी तानाशाह निजामों को रास आती है, क्योंकि लोग मजहब की कद्र करते हैं। और उसके खिलाफ नहीं जाना चाहते। यूँ तानाशाहों का सहारा बनते हैं, वे उनके चारों तरफ ताकतवर लफ्जों का एक घेरा बनाते हैं, ऐसे लफ्ज जिन्हें लोग बेसाख, कमजोर, बेकद्र होते नहीं देखना चाहते।
पर जबरदस्ती गले उतारने वाली दलील अपनी जगह कायम है आप आखिर में इससे आजिज आ जाते हैं, आप मजहब में यकीन खो देते हैं, मजहब में न सही, किसी मुल्क की बुनियाद होने पर। जब तानाशाह ढह जाता है और हम पाते हैं कि उसने साथ अल्लाह को भी ढहा दिया है और मुल्क को वजह देने वाली मिथ को भी तबाह कर दिया है। बाद दो ही रास्ते बचते हैं बिखराव या नई तानाशाही ....नहीं, एक तीसरा रास्ता भी है और मैं इतनी नाउम्मीदी नहीं दिखाऊँगा कि इसके हो सकने से इन्कार करूँ। तीसरा रास्ता है पुरानी की जगह किसी नई मिथ पर यकीन लाना। ऐसी तीन मिथें तुरन्त हाजिर हो जाएँगीः आजादी, बराबरी,. भाईचारा।
मैं तहेदिल से इनकी ताईद करता हूँ।
एक
डमवेटर
दूर सरहद पर एक शहर है-क.। आसमान से देखने पर वह अक्सर एक बेडौल डम्बल सा जान पड़ता है। किसी ज़माने में वहां तीन प्यारी सी और प्यार भरी बहनें रहती थीं, उनके नाम थे...पर उनके असल नाम तो कभी चलन में आए ही नहीं, ठीक चीनी मिटटी के उन बर्तनों की तरह जो घर के सबसे बेहतरीन बर्तन थे और जिन्हें बहनों की ज़िन्दगी में हुए साझे हादसे की रात एक अलमारी में तालाबन्दी कर दिया गया था। फिर वह अलमारी किसी को याद ही नहीं आई। नतीजतन, जार के ज़माने के रूस की गार्डनर पाटरीज़ के यहाँ से आया हजार बर्तनों वाला ये उम्दा सैट एक ऐसा खानदानी किस्सा बन गया जिसकी हकीकत में सबों का यकीन करीबन खत्म-सा हो चला था।....अब ज़रा भी देर किए बिना बता देना चाहिए कि बहनों का खानदानी नाम शकील था, और (उम्रवार) वे छुन्नी, मुन्नी और बुन्नी के नामों से जानी गयीं।
और एक दिन उनके अब्बा चल बसे।
बूढा शकील अपनी मौत के अठारह बरस पहले रँडुआ हो गया था और उसे अपने शहर को ‘दोजखी गढ़ा’ कहने की आदत हो गयी थी। आखिर की उसकी बड़बड़ाहट एक एकालाप थी, समझ के लगभग परे लगातार, जिसकी बेसिलसिला बहकों के बीच-बीच में घर के नौकरों को गालियों, कसमों और बद्दुआओं की लम्बी झाड़ियाँ सुनाई पड़ी थीं- इतनी शदीद की शकील के बिस्तर के आस-पास की हवा बेहतर ख़दक उठी थी। सबसे अलग-थलग रहने वाले उस तेज़ाबी बूढ़े ने आखिर तकरीब में अपने शहर के लिए ताउम्र पाली गई नफ़रत को एक बार फिर दोहराया था। उसने कभी जिन्नात को पुकारा कि वे बाज़ार के चारों तरफ़ बने अदना धूसर, बेतरतीब ढाँचों को मलबा कर दें तो कभी मौत सने अपने लफ़्जों से केन्टोन्मेट इलाके के ठण्डे, सफेद चूना पुते गरूर को चकनाचूर कर देना चाहा था।
शहर की डम्बलनुमा बनावट के ये दो घेरे थे।: पुराना शहर और कैन्ट। पहले में देसी गुलाम बनाई गई आबादी बसी थी और दूसरे में परदेसी, गुलाम बनाने वाले अंग्रेज या ब्रिटिश साहब। बूढ़ा शकील दोनों ही दुनियाओं से नफ़रत करता था और ढेर बरस अपने ऊँचे, किलेनुमा आलीशान घर में बन्द रहा था जिसके बीचोंबीच कुएँ जैसा एक बेरोशन सहन था। यह घर बाज़ार और कैन्ट दोनों से बराबर की दूरी पर, एक खुले मैदान के बगल में था। मौत के बिस्तर पर पड़े बूढ़े शकील ने इमारत की बाहर खुलने वाली चन्द खिड़कियों से टकटकी बाँध बड़े से पैलेडियन होटल के गुम्बद को देखा। कैन्ट की नागवार गलियों से वह होटल एक छलावे सा ऊपर उभरा था। होटल में सुनहरे पीक़दान थे, पीतल के बटनों वाली वर्दियाँ और बेयरों वाली टोपियाँ पहने पालतू लूता बन्दर थे। ज़िन्दगी से लबरेज अजीबों-गरीब पेड़-पौधों-पीले गुलाबों और सफेद मेग्नोलियाओं और पन्ना जैसे हरे, छत छूते ताड़ों- के बीच गचकारी के प्लास्तर वाला एक बालरूम था जिसमें हर शाम एक बड़ा सा आरकेस्ट्रा बजा करता था। होटल के आलीशान सुनहरे गुम्बद में उस वक्त भी दरारें थीं पर वह अपनी ख़त्म हो चली फानी शानो-शौकत की बोझिल मगरूरियत में तब भी चमक रहा था। मुख्तसर में होटल फ्लैशमैन के उस गुम्बद तले हर सूटेड-बूटेड अंग्रेज अफ़सर और सफेद टाई पहने सिविलियन और नदीदी आँखों घुँघराले बालों वाली औरतें इकट्ठा होती थीं। वे अपने बंगलों से आकर यहाँ जमा हो जाते थे, नाचने के लिए, रंगारंग होने के अपने वहम में साझा करने के लिए।
जबकि हकीकत में वे बस गोरे थे, दरअसल धूसर सफेद-कमज़ोर और बादल-पोसी खाल पर गर्मी के नुकसान देह असर की वजह से; दोपहरी को सूरज के कहर के दौरान, जिगर की फिक्र से कतई बेपरवाह, काली बर्गण्डी पीने की अपनी आदत की वजह से। नाउमम्मीदी से जन्मी रंगरलियों से भारी हुए सामराजवादियों के इस संगीत को बूढ़े ने उस सुनहरे होटल से आते सुना और भरभराती साफ़ आवाज़ में उस ख्वाबीदा होटल की गालियाँ दीं।
वह चिल्लाया, ‘खिड़की बन्द कर दो ताकि मुझे ये हुल्लड़ सुनते न मरना पड़े।’ बूढ़ी नौकरानी हशमत बीबी के खिड़की बन्द करने से उसे थोड़ी राहत मिली। बची-खुची ताक़त समेट उसने अपने दिमाग के जानलेवा, पगलाए बहाव का रास्ता बदल दिया। हशमत बीबी बूढ़े की बेटियों को जोरों से पुकारती कमरे के बाहर दौड़ी ‘जल्दी आओ, तुम्हारे फादर जी खुद को शैतान के हवाले करने जा रहे हैं।’’ बाहर की दुनिया से मुँह मोड़ शकील ने मरते वक्त की अपनी बड़बड़ाहट के गुस्से का रुख खुद की सिम्त मोड़ दिया रूह को हमेशा के लिए दोज़खनशीं होने की सजा देने लगा। ‘खुदा जाने वे क्यों खफ़ा हैं, पर वे कुछ गलत तरीके से रुखसत हो रहे हैं।’’
रँडुए बुढ़ऊ ने अपने बच्चों को पारसी धायों, क्रिस्तानी आयाओं और ज्यादातर इस्लाम के इस्पाती-अख्लाक़ की मदद से पाला था। हालांकि छुन्नी का कहना था कि उन्हें धूप ने ज्यादा सख्त-मिज़ाज, बना दिया था। उसकी मौत के रोज़ तक तीनों लड़कियों को उस भूल-भुलैया-सी इमारत के भीतर ही रखा गया था। बिल्कुल बेतालीम उन्हें जनाना हिस्से में कैद कर दिया गया था। जहाँ वे अपनी खुफिया ज़बाने ईजाद कर आपस में मन–बदलाव करतीं और तस्सवुर किया करतीं कि नंगा मर्द कैसा दिखता होगा।
उन नादान बरसों में मर्द के जननांग की बाबत उनकी सोचे बहुत अटपटी थीं। वे सोचा करती कि वह सीने में बने दो ऐसे छेदों की तरह होता होगा जिनमें उनकी छातियों के निप्पल आराम से समा जाएंगे। बाद के दिनों में वे हैरानी से एक दूसरे को ये बात याद दिलातीं, ‘दरअसल उन दिनों हमें बस यही लगता था कि हमल शायद सीने के जरिए की ठहरता होगा।’ लगातार की इस कैद से तीनों बहनों के बीच लगभग अटूट एक बेहद करीबी रिश्ता बना दिया था। जालीदार पर्दा लगी खिड़की के पीछे बैठ आलीशान होटल के सुनहरे गुम्बद को देखती हुई और नाच के उस अबूझ संगीत की धुनों पर हिलती हुई वे अपनी शामें गुजारतीं....अफवाहें कुछ ऐसी भी हैं कि दोपहर बाद के अलस उनींदेपन में वे ढीले हाथों से वे एक-दूसरे के जिस्मों को टटोला करती और रात में पुरअसर जादू-टोने किया करती ताकि उनके अब्बा को जल्दी मौत आ जाए।
पर बदजुबान तो कुछ भी कह सकते हैं, खासकर उन खूबसूरत औरतों के बारे में जो मर्दों की बेपर्दा कर देने वाली निगाहों से दूर अपनी ज़िन्दगी बसर करती हैं। पर ये करीबन तय शुदा सच्चाई है कि बच्चे वाली बदनामी से बहुत पहले, इन्हीं बरसों के दौरान तीनों बहनों ने-जो अपने कँवारेपन के धुँधले जोशो-खरोश में बच्चों की आरजू किया करती थीं और जवानी की नजदीकियों ने जिन्हें हमेशा के लिए जोड़ दिया था। गुपचुप समझौता किया कि बच्चे आने के बाद भी वे त्रिमूर्ति की तरह एक रहेंगीः यानि कि वे बच्चे की साझी माँ होंगी ! मैं उस गन्दे किस्से के सच या झूठ होने के बारे में कुछ नहीं कह सकता जिसके मुताबिक यह करार गोशानशीन त्रिमूर्ति की माहवारी के मिले जुले खून से लिखा और दस्तखत किया गया। और फिर उसे जलाकर ख़ाक कर दिया गया। वह बस उनकी यादों की सुनसान जगहों में महफूज़ रह गया।
पर बीस सालों में उनके यहाँ बस एक ही बच्चा होना था और उसका नाम होना था उमर खैयाम।
ये सब चौदहवीं सदीं में हुआ था। जाहिर है कि मैं हिज़री कैलेण्डर का इस्तेमाल कर रहा हूँ: ये मत सोचए कि इस तरह के किस्से हमेशा बहुत पहले के वक्तों में ही हुआ करते थे। वक्त दूध की सी आसानी से तो एकसार किया नहीं जा सकता और फिर उन इलाकों में तो अभी हाल तक तेरहवीं सदी का ही बोलबाला था।
हशमत बीबी ने जब लडड़कियों को बताया कि उनके अब्बा का आखिरी वक्त आन पहुँचा है, तो वे अपने सबसे शोख लिबासों में उसके करीब पहुँचीं। उन्होंने पाया कि वह शरम के दमघोंटू शिकन्जे की जकड़ में था-गहरे रन्ज में हाँफता हुआ, खुदा से फरियाद करता हुआ कि उसे हमेशा के लिए जहन्नुम की किसी रेगिस्तानी बस्ती, दोजख के किसी सरहदी इलाके में डाल दिया जाए। फिर वह ख़ामोश हो गया। तब सबसे बड़ी लड़की ने वह इकलौता सवाल पूछ डाला जिसमें तीनों की दिलचस्पी थीः ‘अब्बा, अब हम बहुत अमीर हो जाएँगे न ?’ मरते हुए बूढ़े ने उन्हें गारियाया ‘रंडियो ! इस भरोसो मत रहना।
उसकी बदजुबान मौत के बाद की सुबह पता लगा कि शकील ख़ानदान की किस्मत को लोग दौलत के जिस अतल समन्दर पर सफ़रदराज मानते थे, वह तो सूखा गढ़ा भर है। उसकी माली बदइन्तजामी के दहकते सूरज ने (जिसे वह मर्द के रौबीले मुखौटे, बदमिज़ाजी और बेहद मगरूर तौर-तरीकों-ये बेटियों के लिए सबसे ज़हरीली विरासत विरासत थे-के पीछे ढेरों बरस छिपाए रखने में कामयाब रहा था।) नकदी के तमाम समन्दरों को सुखा डाला था। सो छुन्नी, मुन्नी और बुन्नी ने मातम का सारा वक्त उन कर्जों को निपटाते गुज़ारा जिन्हें माँगने के लिए हिम्मत सूदखोर उसके जीते जी नहीं कर पाए थे, पर जिनकी (चक्रवृद्धि ब्याज समेत) उगाही में अब उन्हें एक लम्हे का भी इन्तजार गवारा न था।
अपने माँ-बाप की खौफ़नाक लापरवाही की लाश पर जश्न मनाने को झपट्टा मार उतरते इन गिद्धों के लिए ख़ानदानी नफ़रत का ज़ज्बा लिए ये लड़कियाँ अपनी उम्र भर की कैद के बाहर आईं। उन्हें क्योंकि इस तहजीब के साथ बड़ा किया गया था कि पैसा उन दो हराम मसलों में से एक है जिनके बारे में किसी अजनबी से नहीं बतियाना चाहिए सो पढ़ने की हज़मत उठाए बगैर ही उन्होंने सूदखोरों के पेश किए कागज़ात पर दस्तख़त कर अपनी मिलकियत गँवा दी। क. के आसपास की लंबी–चौड़ी ज़मीनी जायदाद, जिसमें उस ज्यादातर बंजर इलाके के खूब जरख़ेज खेत और अच्छे-खासे बागीचों का करीबन अस्सी फीसदी शामिल था, हाथ से जाने के बाद आखिर में तीनों बहनों के पास बेछोर मकान के सिवा कुछ नहीं बचा जिसकी साज-सम्भाल नामुमकिन थी। मकान फर्श से छतों तक असबाब से अटा पड़ा था। वफादारी की वजह से उतना नहीं जितना खौफ़ से जो उम्र-कैदियों में बाहर कि दुनिया के लिए अक्सर पैदा हो जाया करता है। और-जैसा की ऊँची खानदान में पले-बढ़े दुनिया भर के लोगों में आम रिवाज है- अपनी तबाही की खबर से जवाब में एक पार्टी देने का फैसला किया।
बाद के बरसों में वे उस बदनाम रात के जश्न के किस्से को बचकाना जोशो-खरोश के साथ एक-दूजे को सुनाया करतीं और इससे उनके भीतर जवान होने का वहम फिर से लौटा आता। लकड़ी के एक पुराने हिंडोले पर बहनों की बगल में बैठी छुन्नी शकील कहना शुरू करती, ‘मैंने न्यौते के कार्ड कैन्ट में छपवाए थे।’ इस पुराने कारनामे पर खुश हो ही-ही करती वह आगे कहती ‘और क्या ख़ूब न्यौते थे ! लकड़ी के सख्त कार्डों पर सोने के उभरे हुए लफ्जों में। वे किस्मत की आँखों में घोपी गई पैनी सींकों की मानिन्दे थे।’ मुन्नी इसमें जोड़ती, ‘और हमारे मरहूम अब्बा की बन्द आँखों में भी। उन्हें ये हरकत बिल्कुल बेशरमी लगती, एक घिनौनापन। अपनी मर्जी हम पर थोपने की अपनी नाकामयाबी का एक सबूत।’ बुन्नी बात जारी रखती, ‘ठीक वैसे, जैसे हमारी तबाही ने ज़िन्दगी के एक और मसले में उन्हें नाकामयाब साबित किया था।’
शुरू में उन्हें लगा था कि मरते वक्त अब्बा जो शर्मिन्दगी महसूस कर रहे थे, उसके पीछे आने वाले दिवाले का अहसास था। पर बाद में उनके ज़ेहन में कुछ ज्यादा ऊँची वजहें आने वाली लगी थीं। छुन्नी सुझाती, ‘हो सकता है मरते वक्त उन्होंने आने वाले की शक्ल देखी हो।’
उसकी बहनें कहतीं ‘बहुत खूब ! तब वे उतनी तकलीफ झेल कर मरे होंगे जितनी ज़िन्दगी भर उन्होंने हमें दी थी।’
समाज में शकील बहनों की आमद की खबर शहर में तेजी से फैल गयी। और शाम जिसका बेताबी से इन्तजार था, मौसिकी के उस्तादों की एक फौज ने पुराने मकान पर हल्ला बोल दिया। बीस वर्षों में पहली दफ़ा सख़्त-मिज़ाज चाल-चलन वाला वह नीरस मकान उनके तीन तार वाले दुम्बीरों, सात तार वाले सारन्दों, बांसुरियों और ढोलों के जश्नी संगीत में सराबोर हो उठा। खाने की चीजों के असलहों के साथ नानबाइयों और हलवाइयों और नाश्ता बनाने वालों की टुकड़ियों ने कूच किया। और वे मकान के भीतर चली आयीं।
और एक दिन उनके अब्बा चल बसे।
बूढा शकील अपनी मौत के अठारह बरस पहले रँडुआ हो गया था और उसे अपने शहर को ‘दोजखी गढ़ा’ कहने की आदत हो गयी थी। आखिर की उसकी बड़बड़ाहट एक एकालाप थी, समझ के लगभग परे लगातार, जिसकी बेसिलसिला बहकों के बीच-बीच में घर के नौकरों को गालियों, कसमों और बद्दुआओं की लम्बी झाड़ियाँ सुनाई पड़ी थीं- इतनी शदीद की शकील के बिस्तर के आस-पास की हवा बेहतर ख़दक उठी थी। सबसे अलग-थलग रहने वाले उस तेज़ाबी बूढ़े ने आखिर तकरीब में अपने शहर के लिए ताउम्र पाली गई नफ़रत को एक बार फिर दोहराया था। उसने कभी जिन्नात को पुकारा कि वे बाज़ार के चारों तरफ़ बने अदना धूसर, बेतरतीब ढाँचों को मलबा कर दें तो कभी मौत सने अपने लफ़्जों से केन्टोन्मेट इलाके के ठण्डे, सफेद चूना पुते गरूर को चकनाचूर कर देना चाहा था।
शहर की डम्बलनुमा बनावट के ये दो घेरे थे।: पुराना शहर और कैन्ट। पहले में देसी गुलाम बनाई गई आबादी बसी थी और दूसरे में परदेसी, गुलाम बनाने वाले अंग्रेज या ब्रिटिश साहब। बूढ़ा शकील दोनों ही दुनियाओं से नफ़रत करता था और ढेर बरस अपने ऊँचे, किलेनुमा आलीशान घर में बन्द रहा था जिसके बीचोंबीच कुएँ जैसा एक बेरोशन सहन था। यह घर बाज़ार और कैन्ट दोनों से बराबर की दूरी पर, एक खुले मैदान के बगल में था। मौत के बिस्तर पर पड़े बूढ़े शकील ने इमारत की बाहर खुलने वाली चन्द खिड़कियों से टकटकी बाँध बड़े से पैलेडियन होटल के गुम्बद को देखा। कैन्ट की नागवार गलियों से वह होटल एक छलावे सा ऊपर उभरा था। होटल में सुनहरे पीक़दान थे, पीतल के बटनों वाली वर्दियाँ और बेयरों वाली टोपियाँ पहने पालतू लूता बन्दर थे। ज़िन्दगी से लबरेज अजीबों-गरीब पेड़-पौधों-पीले गुलाबों और सफेद मेग्नोलियाओं और पन्ना जैसे हरे, छत छूते ताड़ों- के बीच गचकारी के प्लास्तर वाला एक बालरूम था जिसमें हर शाम एक बड़ा सा आरकेस्ट्रा बजा करता था। होटल के आलीशान सुनहरे गुम्बद में उस वक्त भी दरारें थीं पर वह अपनी ख़त्म हो चली फानी शानो-शौकत की बोझिल मगरूरियत में तब भी चमक रहा था। मुख्तसर में होटल फ्लैशमैन के उस गुम्बद तले हर सूटेड-बूटेड अंग्रेज अफ़सर और सफेद टाई पहने सिविलियन और नदीदी आँखों घुँघराले बालों वाली औरतें इकट्ठा होती थीं। वे अपने बंगलों से आकर यहाँ जमा हो जाते थे, नाचने के लिए, रंगारंग होने के अपने वहम में साझा करने के लिए।
जबकि हकीकत में वे बस गोरे थे, दरअसल धूसर सफेद-कमज़ोर और बादल-पोसी खाल पर गर्मी के नुकसान देह असर की वजह से; दोपहरी को सूरज के कहर के दौरान, जिगर की फिक्र से कतई बेपरवाह, काली बर्गण्डी पीने की अपनी आदत की वजह से। नाउमम्मीदी से जन्मी रंगरलियों से भारी हुए सामराजवादियों के इस संगीत को बूढ़े ने उस सुनहरे होटल से आते सुना और भरभराती साफ़ आवाज़ में उस ख्वाबीदा होटल की गालियाँ दीं।
वह चिल्लाया, ‘खिड़की बन्द कर दो ताकि मुझे ये हुल्लड़ सुनते न मरना पड़े।’ बूढ़ी नौकरानी हशमत बीबी के खिड़की बन्द करने से उसे थोड़ी राहत मिली। बची-खुची ताक़त समेट उसने अपने दिमाग के जानलेवा, पगलाए बहाव का रास्ता बदल दिया। हशमत बीबी बूढ़े की बेटियों को जोरों से पुकारती कमरे के बाहर दौड़ी ‘जल्दी आओ, तुम्हारे फादर जी खुद को शैतान के हवाले करने जा रहे हैं।’’ बाहर की दुनिया से मुँह मोड़ शकील ने मरते वक्त की अपनी बड़बड़ाहट के गुस्से का रुख खुद की सिम्त मोड़ दिया रूह को हमेशा के लिए दोज़खनशीं होने की सजा देने लगा। ‘खुदा जाने वे क्यों खफ़ा हैं, पर वे कुछ गलत तरीके से रुखसत हो रहे हैं।’’
रँडुए बुढ़ऊ ने अपने बच्चों को पारसी धायों, क्रिस्तानी आयाओं और ज्यादातर इस्लाम के इस्पाती-अख्लाक़ की मदद से पाला था। हालांकि छुन्नी का कहना था कि उन्हें धूप ने ज्यादा सख्त-मिज़ाज, बना दिया था। उसकी मौत के रोज़ तक तीनों लड़कियों को उस भूल-भुलैया-सी इमारत के भीतर ही रखा गया था। बिल्कुल बेतालीम उन्हें जनाना हिस्से में कैद कर दिया गया था। जहाँ वे अपनी खुफिया ज़बाने ईजाद कर आपस में मन–बदलाव करतीं और तस्सवुर किया करतीं कि नंगा मर्द कैसा दिखता होगा।
उन नादान बरसों में मर्द के जननांग की बाबत उनकी सोचे बहुत अटपटी थीं। वे सोचा करती कि वह सीने में बने दो ऐसे छेदों की तरह होता होगा जिनमें उनकी छातियों के निप्पल आराम से समा जाएंगे। बाद के दिनों में वे हैरानी से एक दूसरे को ये बात याद दिलातीं, ‘दरअसल उन दिनों हमें बस यही लगता था कि हमल शायद सीने के जरिए की ठहरता होगा।’ लगातार की इस कैद से तीनों बहनों के बीच लगभग अटूट एक बेहद करीबी रिश्ता बना दिया था। जालीदार पर्दा लगी खिड़की के पीछे बैठ आलीशान होटल के सुनहरे गुम्बद को देखती हुई और नाच के उस अबूझ संगीत की धुनों पर हिलती हुई वे अपनी शामें गुजारतीं....अफवाहें कुछ ऐसी भी हैं कि दोपहर बाद के अलस उनींदेपन में वे ढीले हाथों से वे एक-दूसरे के जिस्मों को टटोला करती और रात में पुरअसर जादू-टोने किया करती ताकि उनके अब्बा को जल्दी मौत आ जाए।
पर बदजुबान तो कुछ भी कह सकते हैं, खासकर उन खूबसूरत औरतों के बारे में जो मर्दों की बेपर्दा कर देने वाली निगाहों से दूर अपनी ज़िन्दगी बसर करती हैं। पर ये करीबन तय शुदा सच्चाई है कि बच्चे वाली बदनामी से बहुत पहले, इन्हीं बरसों के दौरान तीनों बहनों ने-जो अपने कँवारेपन के धुँधले जोशो-खरोश में बच्चों की आरजू किया करती थीं और जवानी की नजदीकियों ने जिन्हें हमेशा के लिए जोड़ दिया था। गुपचुप समझौता किया कि बच्चे आने के बाद भी वे त्रिमूर्ति की तरह एक रहेंगीः यानि कि वे बच्चे की साझी माँ होंगी ! मैं उस गन्दे किस्से के सच या झूठ होने के बारे में कुछ नहीं कह सकता जिसके मुताबिक यह करार गोशानशीन त्रिमूर्ति की माहवारी के मिले जुले खून से लिखा और दस्तखत किया गया। और फिर उसे जलाकर ख़ाक कर दिया गया। वह बस उनकी यादों की सुनसान जगहों में महफूज़ रह गया।
पर बीस सालों में उनके यहाँ बस एक ही बच्चा होना था और उसका नाम होना था उमर खैयाम।
ये सब चौदहवीं सदीं में हुआ था। जाहिर है कि मैं हिज़री कैलेण्डर का इस्तेमाल कर रहा हूँ: ये मत सोचए कि इस तरह के किस्से हमेशा बहुत पहले के वक्तों में ही हुआ करते थे। वक्त दूध की सी आसानी से तो एकसार किया नहीं जा सकता और फिर उन इलाकों में तो अभी हाल तक तेरहवीं सदी का ही बोलबाला था।
हशमत बीबी ने जब लडड़कियों को बताया कि उनके अब्बा का आखिरी वक्त आन पहुँचा है, तो वे अपने सबसे शोख लिबासों में उसके करीब पहुँचीं। उन्होंने पाया कि वह शरम के दमघोंटू शिकन्जे की जकड़ में था-गहरे रन्ज में हाँफता हुआ, खुदा से फरियाद करता हुआ कि उसे हमेशा के लिए जहन्नुम की किसी रेगिस्तानी बस्ती, दोजख के किसी सरहदी इलाके में डाल दिया जाए। फिर वह ख़ामोश हो गया। तब सबसे बड़ी लड़की ने वह इकलौता सवाल पूछ डाला जिसमें तीनों की दिलचस्पी थीः ‘अब्बा, अब हम बहुत अमीर हो जाएँगे न ?’ मरते हुए बूढ़े ने उन्हें गारियाया ‘रंडियो ! इस भरोसो मत रहना।
उसकी बदजुबान मौत के बाद की सुबह पता लगा कि शकील ख़ानदान की किस्मत को लोग दौलत के जिस अतल समन्दर पर सफ़रदराज मानते थे, वह तो सूखा गढ़ा भर है। उसकी माली बदइन्तजामी के दहकते सूरज ने (जिसे वह मर्द के रौबीले मुखौटे, बदमिज़ाजी और बेहद मगरूर तौर-तरीकों-ये बेटियों के लिए सबसे ज़हरीली विरासत विरासत थे-के पीछे ढेरों बरस छिपाए रखने में कामयाब रहा था।) नकदी के तमाम समन्दरों को सुखा डाला था। सो छुन्नी, मुन्नी और बुन्नी ने मातम का सारा वक्त उन कर्जों को निपटाते गुज़ारा जिन्हें माँगने के लिए हिम्मत सूदखोर उसके जीते जी नहीं कर पाए थे, पर जिनकी (चक्रवृद्धि ब्याज समेत) उगाही में अब उन्हें एक लम्हे का भी इन्तजार गवारा न था।
अपने माँ-बाप की खौफ़नाक लापरवाही की लाश पर जश्न मनाने को झपट्टा मार उतरते इन गिद्धों के लिए ख़ानदानी नफ़रत का ज़ज्बा लिए ये लड़कियाँ अपनी उम्र भर की कैद के बाहर आईं। उन्हें क्योंकि इस तहजीब के साथ बड़ा किया गया था कि पैसा उन दो हराम मसलों में से एक है जिनके बारे में किसी अजनबी से नहीं बतियाना चाहिए सो पढ़ने की हज़मत उठाए बगैर ही उन्होंने सूदखोरों के पेश किए कागज़ात पर दस्तख़त कर अपनी मिलकियत गँवा दी। क. के आसपास की लंबी–चौड़ी ज़मीनी जायदाद, जिसमें उस ज्यादातर बंजर इलाके के खूब जरख़ेज खेत और अच्छे-खासे बागीचों का करीबन अस्सी फीसदी शामिल था, हाथ से जाने के बाद आखिर में तीनों बहनों के पास बेछोर मकान के सिवा कुछ नहीं बचा जिसकी साज-सम्भाल नामुमकिन थी। मकान फर्श से छतों तक असबाब से अटा पड़ा था। वफादारी की वजह से उतना नहीं जितना खौफ़ से जो उम्र-कैदियों में बाहर कि दुनिया के लिए अक्सर पैदा हो जाया करता है। और-जैसा की ऊँची खानदान में पले-बढ़े दुनिया भर के लोगों में आम रिवाज है- अपनी तबाही की खबर से जवाब में एक पार्टी देने का फैसला किया।
बाद के बरसों में वे उस बदनाम रात के जश्न के किस्से को बचकाना जोशो-खरोश के साथ एक-दूजे को सुनाया करतीं और इससे उनके भीतर जवान होने का वहम फिर से लौटा आता। लकड़ी के एक पुराने हिंडोले पर बहनों की बगल में बैठी छुन्नी शकील कहना शुरू करती, ‘मैंने न्यौते के कार्ड कैन्ट में छपवाए थे।’ इस पुराने कारनामे पर खुश हो ही-ही करती वह आगे कहती ‘और क्या ख़ूब न्यौते थे ! लकड़ी के सख्त कार्डों पर सोने के उभरे हुए लफ्जों में। वे किस्मत की आँखों में घोपी गई पैनी सींकों की मानिन्दे थे।’ मुन्नी इसमें जोड़ती, ‘और हमारे मरहूम अब्बा की बन्द आँखों में भी। उन्हें ये हरकत बिल्कुल बेशरमी लगती, एक घिनौनापन। अपनी मर्जी हम पर थोपने की अपनी नाकामयाबी का एक सबूत।’ बुन्नी बात जारी रखती, ‘ठीक वैसे, जैसे हमारी तबाही ने ज़िन्दगी के एक और मसले में उन्हें नाकामयाब साबित किया था।’
शुरू में उन्हें लगा था कि मरते वक्त अब्बा जो शर्मिन्दगी महसूस कर रहे थे, उसके पीछे आने वाले दिवाले का अहसास था। पर बाद में उनके ज़ेहन में कुछ ज्यादा ऊँची वजहें आने वाली लगी थीं। छुन्नी सुझाती, ‘हो सकता है मरते वक्त उन्होंने आने वाले की शक्ल देखी हो।’
उसकी बहनें कहतीं ‘बहुत खूब ! तब वे उतनी तकलीफ झेल कर मरे होंगे जितनी ज़िन्दगी भर उन्होंने हमें दी थी।’
समाज में शकील बहनों की आमद की खबर शहर में तेजी से फैल गयी। और शाम जिसका बेताबी से इन्तजार था, मौसिकी के उस्तादों की एक फौज ने पुराने मकान पर हल्ला बोल दिया। बीस वर्षों में पहली दफ़ा सख़्त-मिज़ाज चाल-चलन वाला वह नीरस मकान उनके तीन तार वाले दुम्बीरों, सात तार वाले सारन्दों, बांसुरियों और ढोलों के जश्नी संगीत में सराबोर हो उठा। खाने की चीजों के असलहों के साथ नानबाइयों और हलवाइयों और नाश्ता बनाने वालों की टुकड़ियों ने कूच किया। और वे मकान के भीतर चली आयीं।
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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