उपन्यास >> पारो - उत्तरकथा पारो - उत्तरकथासुदर्शन प्रियदर्शिनी
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देवदास की कहानी में सभी जानते हैं कि क्या हुआ? परंतु उसके आगे क्या हुआ कभी-कभी यह जानने की इच्छा भी होती है...
पारो- कहाँ हो देवदास ? यहीं हूँ-तुम्हारे पास पारो। दिखाई क्यों नहीं देते ?
तुम्हारे और मेरे बीच यह आत्म-अनात्म का परदा है पारो। यह अंतरिक्ष है और वह पृथ्वी। यह पूरी कायनात हमारे बीच प्रहरी बन कर खड़ी है पारो! कैसे आऊँ तुम तक ? तब मुझे आने की आज्ञा दे दो न देवदास ? जब भी आने की ज़िद्द करती हूँ, तुम मेरा हाथ पकड़ लेते हो। हाँ पारो! यह ठीक नहीं है। यह निर्णय हमारा नहीं होता। पर तुम ने तो यह निर्णय स्वयं लिया नहीं री पारो! कितनी भोली है तूं, मेरा इस तरह उस मार्ग पर बढ़ निकलना मेरी नियति थी। नियति न होती तो क्या तुम्हारे द्वार तक पहुँच कर भी तुम्हें एक झलक देख न पाता! यों तो तुम्हारे बिना जीने का मेरा हठ बेमानी था। मैं क्या करूँ देवदास? जिया नहीं जाता!
क्यों! मैं रोज तो आता हूँ तुम्हारे पास। तुम्हें पुकारता हूँ, तुम सुनती हो न! हाँ देव! मैं गाँव की संकरी गलियों से गुजरूँ तब, खेत खलियान में जाऊँ तब, चिड़ियों की गुटरगूं में भी मुझे पारो की अनुगूंज सुनाई देती है देवदास-क्या वह तुम्हीं होते हो? जानते हो-मैं उस आवाज का पीछा करती-करती जब कहीं नहीं पहुँचती तो धूप में पीछे चलती परछाईं को ही पलट-पलट कर देखती हूँ कि कहीं तुम मेरे पीछे तो नहीं चल रहे ? पगली! एक हँसी की आवाज गूंजती है और पारो फिर नींद से जाग जाती है और 'देवदास' उस के मुख से स्वपन में ही मुखर रूप लेता है जो साथ वाले कमरे में सोए रायसाहब के कानों से जा टकराता है...। वही बड़बड़ाहट में निकला शब्द 'देवदास' पारो के पति-रायसाहब के अहम् को लील गया था।
अरे! हरिया कहाँ जा रहे हो-थाली सजाए साहब! मेमसाहब का खाना ले जा रहा हूँ... रुक जायो! आज से यह खाना वहाँ नहीं जाएगा! क्यों साहब! मुझे तुम्हें जबाब देना है क्या ? नहीं-हरिया चुपचाप थाली लेकर लौट गया था। अन्दर से रानी माँ की आवाज गूंजी थी-वीरेन! यह क्या कर रहा है ? कुछ नहीं माँ! मैंने सब सुन लिया है।
तो मैंने ठीक ही किया है न माँ ? नहीं! तुम ने ठीक नहीं किया। कानूनन वह तुम्हारी पत्नी है, न भी हो तो एक इन्सान है; उसे भूखे रखने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है। पर माँ उसने मेरा अपमान किया है, सारे घर के सामने, बच्चों के सामने, घर के करिन्दों के सामने और समाज के सामने... तुम ने भी तो किया है-चुपके से... अन्दर घुसकर । मैंने क्या किया है माँ, उसे मान-सम्मान, रोटी-कपड़ा-ऐशोआराम- सब तो दिया है। इस सब का वास्ता देकर-दयानतदारी दिखा रहे हो आप क्या याद दिलाना चाहती हैं माँ! यही कि हम ने उसे धोखे में रख कर विवाह किया। उसी की उम्र के बच्चों को छुपा कर- फिर भी उस ने कुछ नहीं कहा। यह उनकी विवशता थी-उनकी गरीबी थी। गरीब होने से क्या मर्यादा कम हो जाती है स्त्री की! तुम जानते हो उस ने तुम्हारे ऐश्वर्य का मोह कभी नहीं किया फिर भी माँ-मैं पुरुष हूँ...पराये मर्द का अस्तित्व क्यों सहूँ...
अच्छा तो तुम सब कर सकते हो क्योंकि आज तक तुम करते आये हो यहीं नहीं-उस ने दूसरा घाव भी झेला-जहाँ तुम ने उसे पत्नी पद देने से इन्कार कर दिया! आप को कैसे मालूम!
औरत हूँ औरत की चार आँखें होती हैं। सूक्ष्म दृष्टि से स्त्री सब देख लेती है जो तुम लोगों को सामने से भी दिखाई नहीं देता- ... मैंने सच ही कहा था- मैं अभी भी अपनी राधा से प्यार करता हूँ.. । तो उसे ब्याह कर ही क्यों लाये... ।
बच्चों के लिए, आप के लिए और पारो की माँ की जरूरतें पूरी करने के लिए ये दोनों कारण अलग हैं उनमें पार्वती के लिए कुछ नहीं था। फिर भी वह सती-सावित्री की तरह अपना धर्म निभाती रही है, यह उसकी महत्ता नहीं तो क्या है। फिर वह देवदास का नाम सुनते ही पागल क्यों हो उठी।
क्योंकि वह उस का प्यार था और मैं! एक स्वार्थी पति, सामाजिक प्राणी, एक जमींदार-जो केवल अपने ही घेरे में ताकता है। आप मेरी मां हैं। हूँ-लेकिन एक औरत भी हूँ... मैंने उन जमींदारों के तेवर उम्र भर देखे और निभाये हैं इस लिए मैं पार्वती के साथ अन्याय न होने दूंगी।
आप सरासर गलत हैं यहाँ वही होगा जो मैं चाहूँगा तुम आज मालिक हो लेकिन मैं अभी जिंदा हूँ चाहूँ तो आज भी तम्हें बेदखल कर सकती हूँ-वीरेन! आप होश में नहीं हैं, पता नहीं क्या-क्या कहे जा रही हैं।
और वीरेन बुदबुदाता भुनभुनाता बाहर निकल गया। आज उस की सहनशक्ति कम हो गई है क्योंकि वह रायसाहब जो हो गया है।
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