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पटकथा और अन्य कहानियाँ

अजय नावरिया

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :139
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2092
आईएसबीएन :81-8143-503-6

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ सात कहानियों का संग्रह...

pathkatha aur anya kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मिसेज देशमुख ने एक दिन मुझे उनके सामने ही खींच लिया था। देशमुख की उपस्थिति मुझे हताश कर रही थी। वे वृद्ध थे। ‘‘ऐसा है?’’ देशमुख को दिखाते हुए मिसेज देशमुख ने मेरा गुप्तांग हथेली में भरकर ऐसे उठाया था जैसे भाला उठाते हैं, फेंकने से पहले। देशमुख की आँख एकबारगी पूरी खुली थी, फिर मुँद गई थी। आँख की कोर से दो बूँद चू गई थी चुपचाप। मिसेज देशमुख ने भी देखा था। मिसेज देशमुख के चेहरे पर मैंने एक आध्यात्मिक सुकून देखा था। यह प्रतिशोध की आध्यात्मिकता। ऐसा ही आध्यात्मिक सुकून मैंने हमेशा बाबा के चेहरे पर भी पाया था। उस दिन उन्होंने मुझे ज्यादा पैसे दिए थे। मैंने चुपचाप पैसे रख लिए थे पर आँखों में सवाल चुपचाप नहीं बैठे थे। शायद उन्होंने वह इबारत पढ़ ली थी। ‘‘तुम मेरे प्रतिशोध में सहयोगी बने इसलिए।’’ वह बोली थी।

‘‘मौत एक घटना है सुजाता बस...।’’ भास्कर ने सुजाता के चेहरे को अपनी दोनों हथेलियों से थामकर अपने चेहरे के सामने किया। एक सत्य घटना, इस सच से हमें ताकत मिलनी चाहिए न कि यह हमारी सारी ताकत को सोखने का कारण बने। और देखो, यह गाढ़ा सच हम रोज देख रहे हैं, तब तो हमें अपने जीने की ताकत और मौत की तरफ उदासीनता को और बढ़ा देना चाहिए। मौत एक सच है, जीवन भी एक सच है....दोनों ही सम्भावनापूर्ण सच हैं...जब तक जीवन है, हमें उसकी एक-एक बूंद निचोड़ लेनी चाहिए। अगर हम मौत सीखेंगे तो सूफियों से सीखेंगे और जिन्दगी सीखेंगे तो सन्तों से सीखेंगे। सुजाता एक अन्तरंग साथी की तरह भास्कर को सुन रही थी। उसके चेहरे पर वही अमृतपूर्ण आलोक बरस रहा था, जिसे लोग सामान्यतः प्रेम कहते हैं, वही आलोक भास्कर की आँखों में रोशन था। ‘‘तय करो सुजाता कि हम जिम्मेदार जीवन के लिए लड़ेंगे न कि मृत्यु और मृत्यु के बाद की अमृत्यु के लिए।’’ भास्कर के आसपास जीवन की प्रभा दिपदिपाने लगी थी, सुजाता उसी घेरे में थी। इसी रास्ते पर चलकर हम हमेशा जिन्दा रहेंगे, भले यह संसार मर जाए ! हम जीवन के अनुयायी हैं, किसी व्यक्ति के नहीं।

समर्पण


अपनी उस परम्परा को जिसने स्वाभिमान, समानता और स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करना सिखाया...


सार्थकता के लिए


मेरी ये कहानियाँ मेरे सपनों की रचनात्मक रूपाकृतियाँ भर हैं-इन्हें आप सुविधा के लिए कहानियाँ कह-समझ सकते हैं, लेकिन इनको पूरा समझने के लिए, इनको सपनों के ही रूप में समझा जा सकता है। क्या भारतीय समाज और संस्कृति में ऐसे सपने देखना समाजविरोधी और धर्मविरोधी नहीं समझा जाता ? क्या रचनाकार धर्मादेशों या फतवों से डरकर सपने देखना छोड़ देता है ? क्या उसे छोड़ देना चाहिए ? निर्भीकता की अपनी इसी परम्परा से मैंने भी अपने लिए साहस चुना और सँजोया।
यह संयोग नहीं है कि इन कहानियों के मुख्यपात्र या स्वप्नदर्शी प्रोटोगानिस्ट दलित हैं। आज के समाज में यह भी एक अपरिहार्य स्थिति है कि उनका पल-पल  सामना गैर-दलितों से होता है और वहाँ अपने आत्मसम्मान और अस्मिता को बचाए रखना बहुत मुश्किल है। यह एक ऐसी भूल-भुलैया है जिसमें जा कर दलित अक्सर निकलने का रास्ता भूल जाता है और उन्हीं में उन जैसा बनने की कोशिश करता है या उससे अपेक्षा की जाती है कि वह उनके बनाए मानदंडों के हिसाब से जीवन-निर्वाह करें साहित्य में इससे अलग क्या हुआ है ?

इन कहानियों के क्रम को मेरी समझ के क्रमिक विकास के रूप में भी यदि समझा जाए तो शायद बहुत अनुचित नहीं होगा। इस क्रम में जितना अनुचित समझे जाने की सम्भावना है, उतना मेरे लेखों और आगामी कहानियों से सुधारा या स्पष्ट किया जा सकता है। कहानी मेरे लिए निजी से सामाजिक के बीच बनने वाला पुल है। रचनाकार इस पुल से दूसरों तक पहुँचता भी है और दूसरों को खुद तक आने का आमन्त्रण भी देता है। यह न्यूनतम एक्टीविज्म, हो सकता है कि दूसरों को अखरे, पर रचना के स्तर पर इससे अधिक एक्टीविज्म मुझे रचना की हत्या ही लगता है। रचनाधर्मिता में अधर्मिता से बचा ही जाना चाहिए, शायद इसीलिए मैंने अधिकतम सामाजिकता के लिए दूसरे क्षेत्रों को चुना। यह द्वन्द्व भी कई सालों की उम्र का है, पर आखिरकार मुझे रास्ता मिला और मैंने इस पर बढ़ना शुरू किया।

यूरोप में जिस तरह मार्क्स के दर्शन की जरूरत और सार्थकता है वैसे ही यहाँ भारत में डॉ. अम्बेडकर के दर्शन की जरूरत और सार्थकता है। जब यह दर्शन भारत में सर्वस्वीकार्य हो जाएगा, शायद तभी मार्क्स के दर्शन की स्वीकार्यता भी बन पाएगी। जब वे एक दूसरे के पूरक के रूप में देखे जाएँगे, तभी ये पूरे समझे जाएँगे-वरना तो इन्हें एक-दूसरे के विरोधी के रूप में ही विरोधी ‘प्रोजेक्ट’ करते रहेंगे। यह साझी जिम्मेदारी है-पर पहल सम्पन्नों और सवर्णों को ही करनी होगी। दक्षिण अफ्रीका में गोरों की वर्तमान पीढ़ी ने भी अपने पूर्वजों के कुकृत्यों के लिए सामूहिक ‘कन्फैशन’ करके यह शुरूआत की थी। अभी तक एक शुरुआत कथा-साहित्य में किसी गैर-दलित कथाकार की नहीं दिखाई दी है। दलितों पर साहित्य लिखने से कहीं अच्छा है कि वे आत्मभर्त्सनापरक रचनाएँ साहित्य को दें ताकि आपसी संवाद और विश्वास बन सके।
अन्त में यही कि हम सब मिलकर ऐसे आधुनिक साहित्य का सृजन करें जहाँ मेहनतकशों को इज्जत दी जाती हो और पोंगापंथी निठल्लेपन को दुरुस्त कर उपयोगी कामों में प्रवृत्त किया जाए। डॉ.अम्बेडकर और मार्क्स का सपना इस सपने से क्या अलग है। क्या हमारा अब तक का साहित्य ‘लोकतान्त्रिकता’ के इस स्वरूप से अब तक जुड़ा ? यह एक बड़ा सवाल है।


नयी दिल्ली

अजय नावरिया


एस धम्म सनंतनो



‘‘कोटे का है साला...बीमारी....जात छुपाता है’’, आवाज़ आ रही थी, बहुत मद्धिम पर एकदम स्पष्ट और लगातार बार-बार वही आवाज़ मैं सुन रहा था, पर बस सुन ही सकता था, न कुछ करने की स्थिति में था, न हिलने डुलने की, वो नींद नहीं थी....पर क्या मैं जाग रहा था ? आँखें तो बन्द थीं शायद, क्योंकि वो मैंने नीलिमा के झिंझोड़ने पर ही खोली थीं, पर आँखें खोलते ही मैंने आँखें नहीं मली थीं, न ही अविश्वास से नीलिमा को देखा था, जैसा कि अचानक जागने या जगा देने पर देखा जाता है, और भी बहुत कुछ था, जो सुनाई पड़ रहा था, पर आँखें खोलीं तो बस यही आवाज़ याद थी। मैं भाग रहा था, बहुत सारी मक्खियाँ कॉलेज का स्टाफ रूम, कुछ रूखे, झड़े पेड़ों की तस्वीर-सी पता नहीं चेतना का कौन-सा स्तर था। अचेतन, अवचेतन, अर्द्धचेतन, सचेतन, कुचेतन और न जाने कितने चेतन, आदमी और उसकी बुद्धि और उसके शब्द और उसका पाखण्ड या फिर वे बस विचारों की एक द्वाभा थी..एक झुटपुटा।
नीलिमा ने कुछ कहा था और चली गई थी, पर मैं.. मैं वहाँ न था ? शायद उसके कहे अल्फा़ज भी उसके पीछे-पीछे चले गए थे, उनके पदचिन्ह भी पीछे न रहे थे।

गाँव छोड़े पचास-साठ बरस हो गए। दादा जी जब तक जिन्दा थे, बताते थे कि नेहरु जी जब मरे, तब 20 बरस का था दया। दया दो बरस का रहा होगा, जब रात को चुपचाप तेरी दादी और मैं दया को लेकर गाँव से इस शहर में चले आए। दादा जी की काली बडी-बड़ी आँखों में झिलमिलाहट होती, उनके ताँबई रंग में आड़ी-तिरछी लकीरें होती, दादा जी बहुत हँसमुख थे, बात-बात पर उनका मजाक करना हमें बहुत अच्छा लगता था, वे कुछ नहीं तो छह फीट से भी अधिक लम्बे थे, असलियत कुछ और थी; जो हमें बहुत बाद में पता लगी। गाँव के एक सवर्ण के अत्याचारों से परेशान होकर उसे खूब कूट-पीटकर, उसका मुँह और हाँथ-पैर बाँधकर एक सूखे कुएँ में फेंक आए थे दादा जी। पता लगने के भय से वह चुपचाप उसी रात गाँव छोड़कर भाग आए थे। हमें लोग कहते कि वे बहुत गुस्से वाले थे, पर हम विश्वास न करते। दादा जी हम पर कभी गुस्सा न होते थे। कभी भी। क्या इस तरह भी परिवर्तन सम्भव होता है ?

अक्सर जिद करने पर दादा जी हमें पुरानी बातों को सुनाते, जो हम कहानियों की तरह चाव से सुनते। वे बड़ी खाट पर लेटे रहते। मैं और मिलिन्द उनकी बाजुओं और छाती पर पसरे-पसरे मुँह खोले कहानी सुनते रहते। हम दोनों भाइयों में दादा जी के पेट पर हाथ रखकर लेटे-लेटे कहानी सुनने के लिए झगड़ा हो जाता। मिलिन्द मुझसे दो साल बड़ा था। दादा जी उसे समझाते। हर कहानी के बाद दादा जी की आँखों में बिला नागा सफेद हँस के जैसा कुछ झिलमिलाता हुआ तैरता था और कहानी के अन्त में वे बिला नागा कहते, ‘‘आदमी रोया नहीं करते।’’ फिर चुपके से आँख पोंछ लेते। ये हम देखते थे। उनकी कहानियाँ बहुत रोचक लगती थी। उनकी कहानियों में कुछ ठाकुर थे, कुछ पुजारी, कुछ और पता नहीं कितने किस्म के लोग। मैं जब फिल्म देखता तो मुझे ठाकुर, जमींदार और पुजारी लोग बुरे लगते क्योंकि फिल्मों में वे लोगों को बिना बात पीटते या पिटवाते थे।

जब तक दादा जी जिन्दा रहे, मैंनें कभी किसी को गाँव जाते नहीं देखा।
पर गाँव के लोग अक्सर हमारे घर आते थे। हमारा घर पचास गज के प्लाट में बना था। दो बकरियाँ आँगन में हमेशा बँधी रहती थीं। दादा जी हमेशा पिता जी को समझाते, ‘‘दया गाय भैंस से अच्छी बकरियाँ हैं, थोड़ी-सी सेवा और जगह से ही खुश रहती हैं, मेरे बाद भी इन बकरियों को रखना।’’ वे बड़े प्यार से बकरियों को पुचकारते, पर दादा जी के बाद एक बकरी मर गई और दूसरी पिता जी ने बुआ को दे दी।

पचास गज का प्लाट भी दादा जी की व्यवहार-कुशलता के कारण ही मिल सका। दादा जी जब गाँव से शहर आए थे, तब बड़े नाले की पास वाली झुग्गियों में रहे थे। पिता जी सत्रह बरस के हो गए थे और नवीं जमात में पढ़ते थे। बुआ पिता जी से छह-सात साल छोटी थी और तीसरी चौथी पढ़कर घर पर काम में हाथ बँटाती थी। पिता जी से पहले चार भाई गाँव में हुए थे, पर उनमें से कोई सर्दी से, कोई पीलिया से, बुखार से मर गया था। छह सन्तानों में दो ही बचीं। एक दिन सरकारी आदमियों का झुग्गियों में दौरा हुआ। प्रधान को खिल- पिलाकर दादा जी ने अपना और पिता जी का नाम अलग-अलग झुग्गियों में दिखा दिया। सरकारी खातों में क्या भरा गया, पता नहीं। हाँ सरकारी आदमियों ने प्रधान के घर खूब दावत उड़ाई। दादा जी बताते हुए खूब हँसते कि उस रात बडे बाबू तो पेंट-कमीज उतारकर कच्छे में नाचने लगे। कहानी सुनकर हम खूब हँसते। प्रधान भी हमारी जात का था। नेतागिरी करता था, पर ब्याह नहीं किया था उसने। जब शहर की गन्दगी साफ करने का ख़याल सरकार को आया तो शहर से दूर जे.जे. कॉलोनी कटी। तब बराबर के पच्चीस-पच्चीस गज के दो प्याल हमें मिले। इस तरह पचास गज का प्लाट हमारा बना।

गाँव से बिरादरी के लोग आते और दादा जी के सामने खूब रोते। उन पर खूब अत्याचार होता था। मारपीट से जुड़ी बातें हमें समझ में आती थीं। दादाजी उन्हें दिलासा देते। गाँव से दो-चार और परिवार भी बीच शहर आकर बस गए थे। महानगरों में लगातार बढ़ती भीड़ पर सेमिनारों या गोष्ठियों में क्यूँ लोग बेरोजगारी को ही रोए जाते हैं ? बेइज्जत होने की बात कोई क्यूँ नहीं उठाता ? महानगरों में बढ़ते जनसंख्या घनत्व का एक बड़ा अंश दलित जातियों का है।

फिर दादा जी के सौ बरस पूरे हो गए। मैं चौथी क्लास में था। पिता जी की तरक्की का कागज देखकर वे बड़ी राहत से लेट गए थे। पिताजी दसवीं में थे। तभी उनकी चपरासी की नौकरी लग गई थी। दादा जी ने उस महकमे के बड़े अधिकारी के घर की मरम्मत और एक नया कमरा डाला था। दादा जी ने गाँव छोड़ने के साथ-साथ ही पुश्तैनी काम छोड़ दिया था। बेलदारी करते-करते वे मिस्त्री बन गए थे। बहुत हुनरवाले और व्यावहारिक थे दादा जी। पर फिर भी वे ठेकेदार नहीं बन सके। यह नौकरी उसी सेवा का मेहनताना थी। बाद में पिताजी ने नाइट स्कूल से दसवीं की थी। उन्होंने उस रात मुझे भेजकर पिताजी को बुलाया था, ‘‘दया, गाँव की जमीन के टुकड़े का लोभ मत करना। वहाँ तुम मत जाना, मत जाना कभी वहाँ। आदमी जहाँ की यादें सींचे, वही उसे अपनी लगने लगती है। तुम यहाँ रहना, सुन रहे हो न, यहीं रहना, कोई नहीं है वहाँ तेरे लिए बोलने वाला। कोई वक्त नहीं बदला है। सिर्फ सरूप बदल गया है। पाखण्ड बढ़ गया है।’’ पिता जी चुपचाप सुनते रहे और हाँ- हाँ में सिर हिलाते रहे।

हम दादा जी के देहान्त के बाद भी दो साल तक उसी बस्ती में रहे। मकान किराए पर न चढ़ाते तो बुआ की शादी का कर्ज न पटता। दादी की जिद के चलते उन वक्तों में बुआ को आधा किलो चाँदी और चवन्नी-भर की पाँच सोने की चीज दी थी। दादी कहती, ‘मेरी कौन-सी दो चार हैं। एक है क्या उसका भी लाड़ न करूँ।’’ कहते हैं माँ उन दिनों भुनभुनाती रहती थी। किराए और पिताजी की तनख्वाह से धीरे-धीरे कर्ज पट गया था। वक्त का पंछी पंख खोलता है, तो फड़फड़ाने की आवाज नहीं होती। माँ के तर्क मजबूत थे। शायद यही वजह थी कि अन्ततः पिता जी सरकारी मकान में रहने की बात मान गए थे। माँ चरसियों, शराबियों, जुआरियों और चारों की सोहबत से हमें बचाना चाहती थी। वह उस सरकारी स्कूल की स्तुति गाती जहाँ कोई एक गुरु जी ही पूरे स्कूल को संटी के जोर से सँभाले रहते।

दादा जी के हाथों से लगी मिट्टी वाले मकान को पिता जी ने जूता गाँठने वाले मजदूरों को किराए पर दे दिया। वे बीस लोग थे, जो सुबह अपनी-अपनी लकड़ी की पेटी लेकर अपने ठियों पर निकल जाते और शाम ढले वापस आते। वे बहुत बेफ्रिक लोग थे, पर बहुत ईमानदार। उन्होंने हमेशा किराया समय पर दिया। वे गरीब पर इज्जतदार लोग थे। मैं जब-जब शाम को पिता जी के साथ किराया लेने गया, वे खाना बना रहे होते थे। खाना बनाते-बनाते गाना गा रहे होते। उनमें से कोई एक ढफली बजाने लगता, कोई अहाकर ताल देता। ये फिल्मी गाने नहीं होते थे। उनकी अपनी भाषा के थे। मुझे कुछ-कुछ समझ में आता था, क्योंकि दादा जी के गाँव के लोग यही भाषा बोलते थे। माँ भी पिता जी से कभी-कभी इसी भाषा में बात करती थी, पर हमसे सभी हिन्दी में बात करते। हमें वह भाषा कभी नहीं सिखाई गई। उल्टे बोलने पर डाँट पड़ती। क्या गँवार बनोगे ? यह अपराध था, जैसे नीलिमा राहुल को सब्जियों फलों के नाम हिन्दी में बोलने पर डाँटती है। उन मजदूरों के गीतों में कोई औरत परदेस गए अपने पति को याद करती थी या उनमें किसी सुन्दर औरत के नैन-नक्श के कंटीले होने की चर्चा होती थी। मैं पिता जी से पूछता, ‘‘ये लोग मोची हैं न ?’’ नहीं रैगर जाति के।’’ पिता जी अनमने से संक्षिप्त जवाब देते। ‘‘पर अपनी कालोनी में जो जूता ठीक करता है, वह तो मोची है।’’ मैं अविश्वास से पिता जी से कहता और सोचता कि एक ही काम करनेवाले दो आदमी अलग-अलग कैसे हो सकते हैं ? ‘‘हाँ-हाँ इनके दो नाम है।’’ पिता जी जैसे पल्ला छुड़ाते, उनको लगता जैसे मैं उनकी जान खा रहा हूँ। ‘‘और हमारी जात ?’’ मैंने पूछ ही लिया था। उनके चेहरे की परिचित गम्भीरता और गहरी हो गई थी। पर वे चुप रहे, पिता जी और दादा जी के स्वभाव में एक भारी फर्क यह भी था। दादा जी खूब हँसते-हँसाते थे। पिता जी को हँसते-मुस्कराते देखना एक असाधारण घटना होती थी। पर मेरे बार-बार पूछने पर वे मुस्कराए थे। ‘‘हमारी जात एस.सी. है, बाबा साहेब ने यही जात बताई है हम सबकी।’’ वे मुस्कराते हुए बोले थे, पर उनकी कनपटियों पर हल्का गड्डा पड़ गया था। मैं जानता था पिता जी डॉ.अम्बेडकर की बात कर रहे थे।

‘‘पर पिता जी, हमारी किलास में एक लड़का पड़ता है, उसके पिता जी भी मोची हैं, गुरु जी ने जब उससे किलास में उसकी जात पूछी तो उसने खुद को चमार बताया था। क्या मोची भी चमार होते हैं ? क्या वे अलग होते हैं ?’’
‘‘नहीं...सब एक हैं। हम सभी एक हैं। और अब तुम चुप रहो। दिमाग मत खाओ।’’ पिता जी ने आँख दिखाई। उनकी आँखें हमारे लिए लालबत्ती हुआ करती थी।

सरकारी कॉलोनी में आने से दो बदलाव आए। एक तो स्कूल में पूरे अध्यापक मिले जबकि यह भी सरकारी स्कूल था। दूसरे माँ को ‘बहू’ कहना छोड़कर मम्मी कहना शुरू किया। पहला परिवर्तन थोड़ा मुश्किल जरूर था। पर तालमेल बैठ गया। पर माँ को ‘बहू’ से मम्मी कहने में बहुत शर्म महसूस होती। दादा जी दादी जी हमेशा माँ के बहू कहते थे सो हम भी कहने लगे, पर यहाँ सारे बच्चे हम पर हँसते। तब हमने हारकर कभी बहू कभी मम्मी कहते कहते, आखिर मम्मी शब्द स्वीकार कर ही लिया। पिता जी धीरे-धीरे पाया बन गए। दो-एक बरस ने वह आदत बना दी। हमें नए परिवेश के अनुसार संस्कारित किया जाने लगा था। इस कॉलोनी में हमें बड़ी असहजता महसूस हुई, यहाँ सुबह दस साढ़े दस के बाद एकदम मुर्दनी छा जाती। ब्लॉक में बस पुराने कपड़ों के बदले बर्तन देने वालों की आवाजें टकराती घूमतीं। माँ हमें बाहर न निकलने देती। गर्मियों की छुट्टियों में घर बदला था, हम दोनो भाई अपनी पुरानी बस्ती को याद करते और खिड़कियों की ग्रिल के पार देखते रहते। माँ डाँटती कि लू लग जाएगी। हम गुस्से से चिल्लाते, फिर यहाँ क्यों आए ? अपनी उस बस्ती में तो हमें लू नहीं लगती थी। वहाँ तो सब बाहर बैठे रहते थे, घूमते रहते थे।’’ हमें पुराने दोस्त बहुत याद आते।

बस्ती में थोडा़ दूर एक नाला था और उस पार खेत ही खेत थे। हम सब दोस्त दोपहर भर नाला टापते रहते थे। गुलेल बनाकर कबूतर फाख्ते मारते थे। वहाँ सूखी झाड़ियाँ जलाकर उन्हें भूनकर खा जाते थे। हम में से ही एक लड़का घर से नमक और माचिस की तीलियाँ चुराकर लाता था। फिर कूड़ेदान से माचिस का खोखा ढूँढ़ा जाता, आग जलाई जाती। नमक बुरककर हम भुने माँस को खाते मेरा मन खाने को बिल्कुल न करता था।
‘‘मैं नहीं खाऊँगा। बहू को पता लगा तो बहुत मारेगी। तू जानता है न चिमटा गरम करके पिचकाती है वो।’’ मैं बहाना करता, मुझे उसमें बिल्कुल स्वाद न आता था। हर बार यही बहाना करता था।
‘‘अबे खा ले साले। बहू को कौन बताएगा।’’ उनमें से कोई कहता।
‘‘क्या पता ? साले तुम से ही कोई बता देगा।’’
‘‘नहीं बताएँगे।’’

‘‘कसम खाओ पहले, फिर खाऊँगा।’’ मैं विवश होते ही हुज्जत करता।
भाई माँ की कसम, धरती माँ की कसम।’’ सब धरती पर हाथ रखकर कसम खाते। इसी बीच कोई खड़ा होकर कसम पक्की करता, ‘‘अंडी-मंडी-संडी जो कसम तोड़े उसकी माँ पक्की रंडी।’’ फिर कोई कसम न तोड़ता था, विद्या पढ़ाई की कसम तो सरकारी कॉलोनी में जाने के बाद जानी, वहाँ बच्चे विद्या-पढ़ाई की कसम ही खाते थे। अपनी-अपनी जरूरत और सीमाएँ थीं।
इस तरह सबके जिद करने पर थोड़ा-सा खाना पड़ता, जिसे कभी-कभी नजर बचाकर मैं थूक देता था। वे सब बहुत गरीब थे। उनके घरों की छतों पर तिरपालें थीं। उनके घरों पर इस बात का पता था शायद पर कोई उन्हें मना न करता था। शायद यह मौन स्वीकृति थी और मजबूरी भी।

उनमें से अधिकांश दोस्त पढ़ने नहीं जाते थे। कोई काँच बीनता था, कोई जूता-पॉलिश करता था। कोई गन्ने के जूस की दुकान पर गिलास धोता था, कोई साइकिल पंक्चर लगाने का काम करता था। उनके पास थोड़े पैसे जरूर रहते थे। उनसे वे फिल्में देखते थे, बीड़ी-सिगरेट पीते थे। समोसे, कचौड़ी और पान भी खाते थे। मुझे भी वे साथ-साथ खिलाते और पिलाते भी। छुट्टियों में कभी-कभी मैं भी बिना घर पर बताए दोस्तों के कसम खाने के बाद काँच बीनने या जूता-पॉलिश करने जाता। शुरू में शर्म आती थी, पर बार-बार करते रहने पर शर्म भी जाती रही। घर पर यह बात किसी को पता न लगती। ये काम मैं घर से हमेशा बहुत दूर और अनजान जगहों पर करता था। मेरे साफ कपड़ों और तेल चुपड़े बालों को देखकर लोग मुझसे पूछते, ‘‘पढ़ते क्यों नहीं ? जूता पॉलिश क्यों करते हो ?’’ पढ़ता हूँ चौथी क्लास में।’’ मैं आँख चुराते हुए जवाब देता और अपने दोस्त चपेटा से जूता लेकर क्रीम लगाने लगता। ‘‘साब ये भौत तेज है, पढ़ाई-लिखाई में, अपनी मरजी से कोई करता है साब। पेट के लिए करता है। इसके माँ-बाप नहीं है। अनाथ है। साब अनाथ।’’ चपेटा किसी देखी हुई फिल्म का डायलॉग बोलकर बहुत दयनीय-सी शक्ल बनाता। चपेटा इतना कुशल था कि कभी-कभी तो बोलते-बोलते रोने भी लगता था, मैं चपेटा की तरफ देखता रह जाता। लोग दया करके हमें दो-दो रुपए देते कभी पाँच रुपए तक मेरे हाथ में रख जाते, जबकि पॉलिश करने की सिर्फ अठन्नी हम लेते थे। चपेटा हर इतवार को मुझे जरूर साथ ले जाता था। जाने से पहले कसम खाई जाती और फिर उसे पक्का किया जाता।

चपेटा जब पैदा हुआ था, तब वह पीलिया की चपेट में आ गया था। उसकी माँ उसका पीलिया झड़वाने बस्ती के पास के गूजरों (किसान) के गाँव के मन्दिर में गई। वहाँ का पुजारी ही पीलिया का झाड़ा लगाया करता था। झाड़ा लगवाने के बाद माँ ने पण्डित से उसका नाम रखने को कहा था, ‘‘इस पर पीलिया बाबा का कोप है बचने वाला तो नहीं है। अगर बचे तो चपेटा रख दियो। फिर बाबा दोबारा कोप नहीं करेगा। नाम से पता चल जाएगी।’’
‘‘ऐ पण्डित जी, अभी रख दूँ क्या ?’’ चपेटा की माँ ने पूछा था।
‘‘रख दे, क्या पता इसी से तंदुरुस्ती आ जाए।’’ वह बोला था, ऐसा हम सुनते थे।
चपेटा रोंदू, भीक्या, राजकुमार, सुट्टल और गनेशी से मेरी खूब छनती थी। राजकुमार और मैं ही स्कूल जाते, चौथी क्लास में साथ-साथ हम सभी लगभग हम उम्र थे।

उस दिन दोपहर वैसी ही थी। तेज और गर्म। फाख्ते कबूतर भी नाले के पास छाया में बैठे थे। और हम ? हम हस्तमैथुन में जुटे थे। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। तभी एक गूजर (किसान) ने आकर पकड़ लिया दो, थप्पड़ लगाए थे उसने। ऐसा झन्नाटेदार थप्पड़ जिन्दगी में फिर कभी न खाया। ‘‘सालों भागों इंगे तै, अभी तै नसें तोड़ डालोगे, हिजड़े हो जाओगे, हिजड़े’’ वह भगाते हुए पीछे से चिल्लाया था। बस वह शब्द हमारी समझ में आया था, ‘हिजड़ा’ बच्चा होने पर घाघरा उठाकर नाचने वाला। फिर हमने कभी इकसठ बासठ नहीं किया था...चाहकर भी।

माँ शायद बस्ती में इन्हीं बदकारियों से हमें बचाना चाहती थी। पर कई सालों बाद उस दिन सरल किसान कितना याद आया था, जब पता लगा था कि इस बीच गनेशी सात बच्चों का बाप बन चुका था। एक का मैं और तीन का राजकुमार पुरानी। बस्ती न रही, दोस्त न रहे। नए समाज, नई दुनिया में एक हीनता बोध, एक नफरत लिए हम पढ़े-बढ़े। इस आधुनिक पढ़े-लिखे समाज में प्रत्यक्ष हिंसा नहीं थी हमारे लिए। प्रत्यक्ष नफरत भी नहीं। दबी आवाजें थीं, चीरती हँसी थी, व्यंग्य-भरी मुस्कराहटें थीं और...व्यंग्यपूर्ण विशेषण। ये पड़ोस का बूढ़ा पीपल उसकी शाखाओं में अटकी वह लाल पतंग, ‘‘पापा उतार दो न यह पतंग..देखो अभी फटी नहीं है।’’ राहुल जिद कर रहा है, नहीं बेटा वो तो बुरी तरह उलझी है।’’ मैं कह रहा हूँ, ‘‘आप ट्राई तो करो।’’ वह रुआंसा हो गया है। ‘‘उफ् ये पीपल कितना शोर करते हैं। पीपल के पत्ते, मेरी पतंग।’’ राहुल गुर्राया।

काश खून ने खून को पहचाना होता। इस पीपल की कैसी दुर्दशा होती तब और वह पतंग..नहीं जब वह लहकता लाल पतंगा होती, तब स्वाहा, वेद, पुराण, मनुस्मृति, व्यासस्मृति, गीता, रामचरितमानस....धूँ-धूँ-धूँ अरे...पकड़ों-पकड़ों जंगल में बनी इस कुटिया से यह कौन अय्याश, तुंदियल, राजकुमारियों को भोगनेवाला शिखाधारी महल की ओर भागा जाता है। यह तो जाति का जन्मदाता कोई मनुष्य है। इसकी कुटिया...धूँ-धूँ-धूँ इसकी धोती खुल रही है। धोती में लहकता पतंगा लगा है अरे ये हुजूम ? कहाँ बढ़ा जा रहा है ये ? राजमहल की तरफ ? ये कौन है ? अरे ये तो जोशी जी हैं, यादव जी हैं, वाल्मीकि जी हैं, कबीर के सूर्य को ग्रहण लगाने वाले आलोचक और समर्थक भी, अरे ये तो मैं हूँ, मैं ही हूँ, हाँ मैं भी, मैं भी हूँ...मैं भी, सबके हाथों में मशाल है, सब लहकते पतंगे हैं। हर पतंगे में लाल रंग है, नीला भी साथ-साथ वो अलग हो ही कैसे सकते हैं। जनभाषा में नारे हवा में तैर रहे हैं, एस धम्म सनंतनों..एस धम्म सनंतनों...एस धम्म सनंतनों, राहुल-राहुल दादा जी।

‘‘उठ जाइए अब, आँखें बन्द किए क्यों पड़े हो।’’ दूर कहीं से एक आवाज धीरे-धीरे तैरती आ रही है, क्या नीलिमा..हाँ, नीलिमा। एस धम्म सनंतनो।

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