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विष्णु प्रभाकर संपूर्ण कहानियाँ - मुरब्बी

विष्णु प्रभाकर

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :335
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2038
आईएसबीएन :81-7315-411-2

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प्रभाकर जी की संपूर्ण कहानियों का संग्रह....

Vishnu Prabhakar Part-1 Murabbi

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी कथा-साहित्य के सुप्रसिद्ध गाँधीवादी रचनाकार श्री विष्णु प्रभाकर अपने पारिवारिक परिवेश से कहानी लिखने की ओर प्रवृत्त हुए। बाल्यकाल में ही उन दिनों की प्रसिद्ध रचनाएँ उन्होंने पढ़ डाली थीं।
उनकी प्रथम कहानी नवंबर 1931 के ‘हिन्दी मिलाप’ में छपी। इसका कथानक बताते हुए वे लिखते हैं-‘परिवार का स्वामी जुआ खेलता है शराब पीता है, उस दिन दिवाली का दिन था। घर का मालिक जुए में सबकुछ लुटाकर शराब के नशे में धुत्त दरवाजे पर आकर गिरता है। घर के भीतर अंधकार है। बच्चे तरस रहे हैं कि पिताजी आएँ और मिठाई लाएँ। माँ एक ओर असहाय मूकदर्शक बनकर सबकुछ देख रही है। यही कुछ थी वह मेरी पहली कहानी।’
सन् 1954 में प्रकाशित उनकी कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’ काफी लोकप्रिय हुई। लेखक का मानना है कि जितनी प्रसिद्धि उन्हें इस कहानी से मिली, उतनी चर्चित पुस्तक ‘आवारा मसीहा’ से भी नहीं मिली।
श्री विष्णुजी की कहानियों पर आर्यसमाज, प्रगतिवाद और समाजवाद का गहरा प्रभाव है। पर अपनी कहानियों के व्यापक फलक के मद्देनजर उनका मानना है कि ‘मैं न आदर्शों से बँधा हूँ न सिद्धान्तों से। बस, भोगे हुए यथार्थ की पृष्ठभूमि में उस उदात्त की खोज में चलता आ रहा हूँ। झूठ का सहारा मैंने कभी नहीं लिया।’
उदात्त, यथार्थ और सच के धरातल पर उकेरी उनकी संपूर्ण कहानियाँ हम पाठकों की सुविधा के लिए आठ खंडों में प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कहानियाँ मनोरंजक तो हैं ही, नव पीढ़ी को आशावादी बनानेवाली, प्रेरणादायी और जीवनोन्मुख भी हैं।

मेरी कथायात्रा

सबसे पहले कहानी लिखने की बात मेरे में कैसे उठी-यह तो अब ठीक-ठीक याद नहीं। हाँ, प्रेरणा की बात अवश्य बताई जा सकती है। मेरे परिवार में मेरी माँ पहली पढ़ी-लिखी नारी थीं। यह उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक की बात है। उनके पास पुस्तकों का एक बक्स था। उन्हीं को फाड़-फाड़कर मैंने छापे के अक्षरों की महिमा को पहचाना। कुछ बडा हुआ तो पिताजी की दुकान पर टोकरे में भरी पुस्तकें खोज निकाली। वहीं, ‘किस्सा हातमताई’, और ‘किस्सा छबीली मटियारी’ से लेकर राधेश्याम कथावाचक की ‘रामायण’, ‘प्रेमसागर’ और ‘सुखसागर’ तक का पारायण किया। वहीं ‘चंद्रकान्ता’, फिर उसकी संतति, फिर ‘भूतनाथ’ की रोचक कहानियाँ पढ़ीं। पढ़ते-पढ़ते सोचता था, कैसे लिखीं इन्होंने ये किताबें। क्या मैं भी ऐसा लिखा सकता हूँ !
कस्बे में शिक्षा का प्रबंध भी अच्छा नहीं था। पंडितजी की पाठशाला थी।
मौलवी साहब का एक मदरसा था या फिर तीसरी कक्षा तक एक सरकारी स्कूल था।
बारी-बारी सब में पढ़ मैं। एक मास्टर साहब से अंग्रेजी भी पढ़ी। माँ इससे संतुष्ट न थीं। उनके छोटे भाई अर्थात् हमारे मामाजी हिसार (पंजाब) में गवरमेंट कैटल फार्म में काम करते थे, बी.ए. पास थे, आर्यसमाजी थे। वहाँ हाईस्कूल भी था। इसलिए मेरी माँ ने हम दोनों भाइयों को उनके पास भेज दिया। बड़े भाई वहीं रहकर दसवीं पास कर चुके थे। मेरी उम्र भी बारह बरस की हो रही थी। तब एक दिन हमारे चाचा हम दोनों भाईयों को हिसार ले गए और मामाजी के पास छोड़ आए।
तब मामाजी ने अपने प्रभाव से मुझे वहाँ के आर्यसमाज के सी.ए.वी. हाईस्कूल में छठी में दाखिल करवा दिया और छोटे भाई को पाँचवीं में। यह इसलिए हुआ कि हम लोगों की हिन्दी बहुत अच्छी थी। हिसार में तो हरियाणवी बोली जाती है। हमारी भाषा सुनकर सब चकित रह जाते थे। वैसे हमारे यहाँ की बोलचाल की भाषा कौरवी थी। वह भी अटपटी थी, पर स्कूल में जो हिन्दी पढ़े थे वह शुद्ध थी।
स्तर भी ऊँचा था, सुनने में मीठी लगती थी। तीसरी कक्षा में हमने भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रतापनारायण मिश्र, मैथलीशरण गुप्त –सबके पाठ व कविताएँ पढ़ ली थीं।
उन दिनों आर्यसमाज का बड़ा प्रभाव था। आर्यसमाजी देशभक्त भी थे और शिक्षा में भी आगे बढ़े हुए थे। लड़कियाँ भी पढ़ती थीं, पर उनके स्कूल अलग थे।

मामाजी के घर में बहुत सी किताबें थीं। फिर आर्यसमाज का पुस्तकालय भी था। खूब पढ़ा मैंने प्राचीन साहित्य। वेद (हिंदी भाष्य), पुराण, बाइबिल, कुरान, महाभारत, रामायण- सब पढ़ डाले। इसके अतिरिक्त प्रेमचन्द, प्रसाद, बंकिम, रवींद्र, शरत और खांडेकर आदि उस समय के लेखकों से भी परिचय हुआ। पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में अपना नाम भी छापे में देखने की इच्छा प्रबल हो उठी। यह सन् 1926 की बात है। आठवीं कक्षा में पढ़ता था। एक दिन चुपचाप ‘बाल सखा’ पत्रिका को एक पत्र लिखा और आश्चर्य, वह छप भी गया। कितना खुश हुआ मैं, कैसे बताऊँ ! मेरे साथी मेरी ओर गर्व से देखने लगे। परिणाम यह हुआ कि पढ़ने-लिखने की लालसा बलवती होती चली गई।
शुद्ध हिंदी बोलता था, इसलिए स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में मेरी धाक जम गई थी। कुमार सभा में भाषण देने लगा। दसवीं पास करने के बाद तो आर्यसमाज में भी भाषण देने लगा। बाद में तो गुरूद्वारों, मसजिदों, जनसभाओं-सभी जगह मेरी पुकार होने लगी।
हाँ, तब चुपके-चुपके लिखा भी करता था। लाहौर में उन्हीं दिनों हिंदी में एक नया पत्र निकला ‘हिंदी मिलाप’। दिवाली के अवसर पर मैंने स्वामी दयानन्द के जीवन पर एक लिखित भाषण दिया। उसी को मैंने लेख के रूप में उस पत्रिका को भेज दिया। आर्यसमाज की पत्रिका थी, लेख तुरंत स्वीकृत हो गया। तब मेरी क्या दशा हुई ! बाप रे ! मेरा लेख छपेगा !मैं लेखक...न-न ! नाम मैंने अपना नहीं दिया था, क्योंकि तब मैं सरकारी नौकर था। यह त्रासद कहानी भी मुझे लेखक बनाने में सहायक हुई और मैंने अपना छद्म नाम रखा- ‘प्रेम-बंधु’। कई वर्ष चला यह नाम।
तभी लिखी एक कहानी- वही दिवाली, वही आर्यसमाज। परिवार का स्वामी जुआ खेलता है, शराब पीता है, उस दिन दिवाली का दिन था। घर का मालिक जुए में सबकुछ लुटाकर शराब के नशे में धुत्त दरवाजे पर आ गिरता है। घर के भीतर अंधकार है। बच्चे तरस रहे हैं कि पिताजी आएँ और मिठाई लाएँ।
माँ एक ओर असहाय मूकदर्शक बनकर सबकुछ देख रही है। यही कुछ थी वह मेरी पहली कहानी।
यह बात नवंबर 1931 की है शायद। कहानी लिखकर ‘हिंदी मिलाप’ को भेज दी। तुरंत प्रकाशित भी हो गई। आज वह कहानी कहाँ है, कौन जाने ! मैंने किसी को बताया भी नहीं था। पंजाब से भाई साहब के साथ घर लौट रहा था। मेरठ में अचानक उन्होंने उसे पढ़ लिया। कहानी का प्लॉट उन्हें बहुत अच्छा नहीं लगा, लेकिन भाषा बहुत अच्छी लगी। तब मैं अपने को रोक न सका। उनसे कहा कि यह कहानी मैंने लिखी है।
यहाँ एक बात और स्पष्ट करना आवश्यक है। अपने प्रारंभिक जीवन में मुझे वह जीवन जीना पड़ा जो मैं जीना नहीं चाहता था। वही अंतर्द्वंद्व, घुटन और संत्रास का कारण बना। बात यह हुई कि सन् 1925 की प्लेग की महामारी में हमारा परिवार नष्ट हो गया। जो कमाऊ पूत थे वे चल बसे। हमारा सबकुछ नष्ट हो गया। दसवीं पास करते न करते परिवार गरीबी के चंगुल में फँस गया था। मन था स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने और आगे पढ़ने के लिए लाहौर जाने का। कल्पना की जा सकती है कि तब मेरे मन की क्या हालत हुई !

प्रारंभ में क्लास फॉर ऑफिसर की दफ्तरी की नौकरी करने को विवश होना पड़ा। आश्चर्य की बात यह है कि फॉरेन के सबसे बड़े अफसर सुपरिटेंडेंट मि. स्मिथ इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और उसके बाद शीघ्र ही मुझे क्लर्क की नौकरी मिल गई। वह आजकल की तरह आपा-धापी का युग नहीं था। सब काम आसानी से हो जाते थे। चालीस रुपये वेतन भी मुझे मिला। लेकिन मन में जो पीड़ा थी वह दूर न हो सकी। डायरी के हर पन्ने पर लिखता था-Better to die.
और भी यातनाएँ सहीं मैंने; पर वे मेरी इतनी निजी हैं कि किसी से बाँटने की इच्छा नहीं होती। यही तो मेरी शक्ति थी।
शुरू में मैंने कविताएँ लिखीं। वह युग गद्यकाव्य का भी था, तो मैंने कुछ गद्यकाव्य भी लिखे, फिर कहानी भी लिखी; पर अंतत: कहानी लिखना ही मुझे रास आया।
उन दिनों की नौकरी आज के जैसी न थी। दफ्तर में बारह घंटे खटने पर भी ओवरटाइम एलांउस की बात कोई सोच भी नहीं सकता था।
बड़ी लंबी कहानी है और त्रासद भी। यद्यपि मैं कांग्रेस में सीधा काम न कर सका, पर मेरे मित्र वहाँ थे और कार्यक्रम हम सब मिलकर ही बनाते थे। कांग्रेस में सीधे भाग नहीं ले सका, लेकिन आर्य समाज का तो मैं कार्यकारिणी का सदस्य बन गया। उन दिनों पारसी थियेटर का बहुत जोर था और उसके द्वारा हम लोग आजादी की लड़ाई से संबंध रखने वाले नाटक भी खेला करते थे। शुरू-शुरू में तो पाँच पांडवों में गाँधी जी युधिष्ठिर थे, मौलाना शौकत अली भीम, मोहम्मद अली अर्जुन और मोतीलाल नेहरू तथा देशबंधु चितरंजन दास नकुल-सहदेव बनते थे।
मैंने इन नाटकों में कृष्णावतार में राजा उग्रसेन का अभिनय किया, श्रवण कुमार में राजा दशरथ का और धर्माधर्म युद्ध में भगवान कृष्ण का।
उस समय नारियाँ स्टेज पर नहीं आती थीं, पुरुष ही उनका पार्ट करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है ‘उषा-अनिरुद्ध’ नाटक में उषा का अभिनय एक सिख किशोर ने किया था। हमारा इस नाटक को खेलने का उद्देश्य देश भक्ति को जगाना था। बड़े-बड़े अफसर भी देखने आते थे, लेकिन कोई हमें पकड़ नहीं सका। वह क्रांतिकारियों का युग भी था। हमारा उनसे भी संबंध था।
उस समय पंजाब में हिंदी का प्रचार का तो बहुत था, लेकिन शुद्ध हिन्दी कम लोग जानते थे, फिर भी आर्य समाज के प्रभाव के कारण कई अच्छे दैनिक व मासिक पत्र निकलते थे। उनमें मेरी कहानियाँ छपती थीं। जाँत-पाँत तोड़क मंडल के संस्थापक संतराम बी.ए. ने बहुत काम किया। ‘युगांतर’ पत्र निकाला। स्वाधीनता संग्राम में भी काम किया। लगभग एक सौ दो वर्ष की आयु में उनका देहावसान उनकी पुत्री के घर पर दिल्ली में हुआ।

सफलता का एहसास तो किसी-न-किसी रूप में शुरू में ही रहा होगा। किशोर और युवक ही सफलता का दावा न करेंगे तो कौन करेगा ! इसलिए परिस्थितियों के कारण कुंठाग्रस्त रहने पर भी सफलता कहीं-न-कहीं मेरे मानस के क्षितिज पर मँडरा रही थी। उसका एक और कारण भी था। प्रारंभ से ही मुझे लगभग सभी मित्रों और विशेषकर मेरे बड़े भाई तथा मामा जीने निरंतर प्रोत्साहित किया। यद्यपि संपादकों में ‘आर्य मित्र’, आगरा के संपादक पं. हरिशंकर वर्मा और ‘युगांतर’, लाहौर के संपादक पं. संतराम बी.ए. भी मेरे प्रारंभिक प्रेरणादाता थे; परंतु सुप्रसिद्ध कहानीकार चन्द्रगुप्त विद्यालंकार ने जब मेरी कहानियों की प्रशंसा की तब मैं सही रूप से आश्वस्त हो सका।
सन् 1934 की बात है। लाहौर से मासिक ‘अलंकार’ का प्रकाशन शुरू हुआ था। उसके कहानी स्तंभ के संपादक थे चन्द्रगुप्त जी। मैंने चार कहानियाँ एक साथ उन्हें भेजकर उनकी राय जाननी चाही। उन्होंने मुझे मनोविज्ञान की ओर ध्यान देने की बात सुझाई और दो कहानियाँ उस पत्र में छापीं, फिर पत्र ही बंद हो गया। उनमें से एक कहानी ‘स्नेह की ज्वाला’ कहानी संग्रह ‘संघर्ष के बाद’ में संकलित है। शेष कहानियों का क्या हुआ ? कुछ पता नहीं। ‘स्नेह की ज्वाला’ पर शरतचन्द्र का प्रभाव स्पष्ट है। वे मेरी वेदना, व्यथा के बहुत पास थे। पाठकों के पत्र भी आने लगे।
6 जून, 1940 की बड़ी तलाशी में सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। तलाशी का पता मुझे पहले ही लग चुका था, इसलिए मैंने अपना सब अपत्तिजनक सामान पड़ोस के मित्र परिवार के पास रखवा दिया था; लेकिन पुलिस को इतनी बड़ी संख्या में देखकर मेरे मित्र घबरा गये और मेरी सारी सामग्री अग्नि को भेंट कर दी। इस प्रकार 6 जून, 1940 से पहले के मेरे महत्त्वपूर्ण दस्तावेज, डायरियाँ, पुस्तकें आदि सब अग्नि की भेंट चढ़ गये।
पत्र व्यवहार मेरा प्रेमचन्द्र से भी हुआ था। उन्होंने मेरी रचनाएँ अपने साप्ताहिक पत्र ‘जागरण’ में छापी थीं। कई कहानियाँ भी छापने के लिए रखी थीं, पर वह उनमें कुछ सुधार करना चाहते थे, लेकिन व्यस्तता के कारण न कर सके। फिर कुछ समय बाद उनका देहावसान हो गया।
प्रेमचंदजी के देहावसान के बाद मैं बनारस उनके घर भी गया और ‘हंस’ में बराबर लिखता रहा। इस प्रकार ‘हंस’ से मेरे संबंध सघन होते चले गये। मैं उनके परिवार में भी रहा।
सबसे पहले ‘हंस’ की संपादिका बनीं प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी, उनके बाद जैनेंद्र जी आये। जैनेंद्र जी से मेरा परिचाय उन्हीं दिनों हुआ। उन्होंने मेरी कहानी पढ़कर जो शब्द लिखे उन्हें मैं आज भी अपने अंतर में सुरक्षित रखे हुए हूँ।
‘हंस’ से संबंध गहन होते ही, सर्वश्री गुलाबराय, सियाराम शरण गुप्त, यशपाल, भगवती प्रसाद बाजपेई, अज्ञेय, अश्क, भदंत, आनंद कौशल्यायन, सुदर्शन, त्रिलोचन भास्कर, शमशेर बहादुर सिंह आदि सुप्रसिद्ध लेखकों से धीरे-धीरे मेरा परिचय हो गया।

‘हंस’ के अतिरिक्त ‘वीणा’, ‘विश्वामित्र’, ‘माया’, ‘सुधा’, ‘माधुरी’, ‘हिमाचल’ आदि उस युग के लगभग प्रसिद्ध पत्रों में मेरी रचनाएँ छपने लगीं। ज्योतिषाचार्य पं. सूर्यनारायण व्यास, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, भगवती चरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, इलाचन्द्र जोशी जैसे उस युग के सभी प्रसिद्ध लेखकों ने मुझे अपना लिया।
मैंने दो सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। लगभग एक सौ पचास कहानियाँ संग्रह में आ गईं। कुछ खो गईं, कुछ को मैंने खो जाने दिया।
एक लंबा इतिहास है मेरी कहानियों का। कुछ कहानियाँ बहुत लोकप्रिय हुईं, जैसे ‘धरती अब भी घूम रही है’। यह कहानी सन् 1954 के अंत में लिखी थी और जनवरी 1955 के कहानी विशेषांक ‘पथिक’ में प्रकाशित हुई। प्रसिद्ध आलोचकों ने इस कहानी को स्वीकार नहीं किया, लेकिन आश्चर्य यह है कि मैं इस कहानी के कारण इतना प्रसिद्ध हुआ, जितना मैं अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आवारा मसीहा’ के कारण भी नहीं हुआ। मैंने कभी इन बातों में रुचि नहीं ली। बहस नहीं की, कभी विरोध नहीं किया।
मैं यह अवश्य स्वीकार करूँगा कि मैं निश्चय ही कोई बड़ा लेखक नही हूँ। बड़ी कटु समीक्षा हुई मेरी कहानियों की, लेकिन अनेक पाठकों ने उतना ही उनको सराहा भी। समाज के कई स्तर होते हैं। कुछ लोग प्रबुद्ध होते हैं, गहरे पैठते हैं, वैसे ही रचनाओं को पसंद भी करते हैं। कुछ व्यक्ति साधारण समझ के होते हैं, उन्हें विभोर करने वाली भावुक कहानियाँ अच्छी लगती हैं। और भी कारण हैं। इसलिए हमें अपने आलोचकों के प्रति कभी दुर्भावना नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि वे हमें सोचने पर विवश करते हैं।
मेरी कहानियाँ अनेक परिवर्तनों से गुजरीं। प्रेमचंदजी के समय में ही जैनेंद्र, अज्ञेय और इलाचंद्र जोशी ने मनोवैज्ञानिक कहानियाँ लिखीं। साम्यवाद के प्रभाव के कारण प्रगतिशील आंदोलन भी शुरू हुआ।
सन् 1955 का कहानी विशेषांक ‘पथिक’ एक महत्त्वपूर्ण कृति है। वह पुराने युग का अंत है और नये युग का आरंभ है। पुराने लेखकों में मंटो की कहानी ‘विवेक टोवा’, ‘टेकसिंह’, ‘रांगेय राघव की’, ‘गदर’, उग्र की ‘पतिव्रता’ तथा मेरी कहानी ‘धरती अब भी घूम रही है’ इसमें प्रकाशित हुईं और साथ ही नये आने वाले कहानीकारों में शेखर जोशी, अमरकांत, उषा प्रियवंदा, कमलेश्वर आदि नित्य नये अनेक कहानीकारों की कहानियाँ प्रकाशित हुईं। इस विशेषांक के साथ एक युग समाप्त हुआ और दूसरे युग का आरंभ हुआ।
लेकिन वास्तविक परिवर्तन तो कहानी के सन् 1955 को अगले विशेषांक से शुरू होता है। आजादी के तुरंत बाद कई वर्ष तक हिन्दी साहित्य में गत्यावरोध रहा।
यह सब मैंने संक्षेप में इसलिए दिया कि उस समय की कहानी की स्थिति स्पष्ट हो सके। मैं बराबर लिखता रहा और प्रगतिशील आंदोलन से मैं सघन रूप से जुड़ा रहा। मुझे याद है कि कॉफी हाउस में इन दिनों इन आंदोलनों की बड़ी चर्चा हुआ करती थी। सभी बड़े-बड़े साहित्यकार नाना नगरों के कॉफी हाउसों की ही देन हैं। कोलकाता, शिमला, लखनऊ, इलाहाबाद और दिल्ली के कॉफी हाउसों में खोजा जाय तो हिन्दी के साहित्य का बहुत बड़ा इतिहास मिलेगा। मैं भी निरंतर कॉफी हाउसों में जाता रहता था। वाद-विवाद भी होते थे। ऐसे ही एक प्रसंग में दिल्ली में जैनेंद्रजी ने मेरी ओर देखा और कहा, ‘विष्णु, तुम्हारी जिज्ञासा मरती जा रही है।’
मैं तो काँप उठा, जिज्ञासा ही मर गई तो कहानी कहाँ से आएगी। बहुत सोचने के बाद सामने आया कि जैनेंद्रजी कह रहे थे कि तुम कहानी लिखने की ओर ध्यान न देकर, आंदोलनों की ओर ध्यान दे रहे हो। उन्होंने मुझसे यह भी कहा था, यथार्थ का अतिक्रमण करने के बाद ही कहानी बनती है।

यह तो एक घटना है। पूरा इतिहास लिखा जा सकता है कॉफी हाउस की गोष्ठियों पर; लेकिन मैं अपने इस संग्रह की कहानियों की चर्चा करना चाहता हूँ।
मेरे कहानी संकलन को सुविधा के लिए आठ खंडो में विभाजित किया गया है और हर खंड का नाम मेरी एक कहानी के नाम पर रखा गया है। वे आठ कहानियाँ इस प्रकार हैं-
पहला खंड : मुरब्बी
दूसरा खंड : आश्रिता
तीसरा खंड : अभाव
चौथा खंड : मेरा वतन
पाँचवा खंड : एक और कुंती
छठा खंड : धरती अब भी घूम रही है
सातवाँ खंड : पुल टूटने से पहले
आठवाँ खंड : जिंदगी एक रिहर्सल

‘धरती अब भी घूम रही है’ को छोड़कर जो कहानियाँ हैं उनको अधिकतर समीक्षकों के द्वारा सराहा गया है। यह हो सकता है कि उस युग के अनुसार लोगों को जो कहानियाँ अच्छी लगीं, वे शायद अब न लगें; परंतु ‘मुरब्बी’, ‘अभाव’, ‘मेरा वतन’, ‘पुल टूटने से पहले’, ‘जिंदगी एक रिहर्सल’ को तो बहुत से मित्रों ने सराहा है, मतभेद यहाँ भी हो सकता है। मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ कि कोई भी वस्तु हमेशा के लिए अच्छी या बुरी नहीं होती। कुछ लोगों ने ‘अभाव’ कहानी को पुराने युग की अंतिम श्रेष्ठ कहानी कहा है।
सन् 1953-54 में अन्तरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी ‘शरीर से परे’ को हिन्दी विभाग में प्रथम पुरस्कार मिला था। वात्स्यायनजी ने इसका अनुवाद करने से इन्कार कर दिया, क्योंकि उनकी दृष्टि में इसमें भाव से अधिक भाषा का सौंदर्य है; लेकिन भीष्म साहनीजी ने इसका बहुत सुंदर अनुवाद किया कि इंग्लैंड से इसकी प्रशंसा का पत्र मेरे पास आया। एक और बात इस कहानी के बारे में कहना चाहूँगा। यह प्रेम कहानी है। कुछ लोगों ने इसकी बेहद प्रशंसा की, कुछ ने मुझे धमकियाँ भी दीं। धमकियाँ तो मुझे खैर बहुत मिलती रहीं और ऐसे पत्र भी मिलते रहे कि आपको कहानी लिखनी नहीं आती तो क्यों लिखते हैं और लिखते ही हैं तो मेरे ‘कहानी संग्रह’ को पढ़कर लिखिए। कोई अंत नहीं इन प्रतिक्रियाओं का।
विकास की रेखाएँ बहुत स्पष्ट हैं। भाव बोध भी बदलता ही है। प्रारंभ में मैं आर्य समाज के प्रभाव में आया, फिर गाँधी जी की उँगली पकड़ ली। मैं प्रेम का भूखा था, गाँधी जी प्रेम के अवतार थे। शरत भी प्रेममय थे। शुरू-शुरू में मेरी कहानियों में आर्य समाज के सुधारवाद का प्रभाव है, तो उसके तुरंतबाद देशभक्ति और उदात्त मानवता, जो अहिंसा और प्रेम का ही प्रतिरूप है, मुझे प्रिय रहे। मेरे आंतरिक दर्द के कारण। जैनेंद्र जी के शब्दों में-मेरी कृतियों में भावना की मुलामियत कुछ अधिक है। प्रगतिवाद और समाजवाद का प्रभाव भी मुझ पर है; लेकिन यह भी सच है कि इसके बावजूद मैं ‘हृदय’ में ही विश्वास करता हूँ। मेरा समाजवाद और कुछ नहीं, उदात्त मानवता की खोज का ही दूसरा नाम है। मेरे कहने का ढंग सपाट हो सकता है, इसलिए मेरे आलोचक मुझे सृजक नहीं मानते। मुझे कोई आपत्ति नहीं है; पर उदात्तता की तड़प कहीं-न-कहीं मुझे परेशान किये रहती है। मैं न आदर्शों से बँधा हूँ, न सिद्धांतों से। बस भोगे हुए यथार्थ की पृष्ठ भूमि में उस उदात्त की खोज में चलता चला आ रहा हूँ। मेरे पास वह कला भले ही न हो जो कहानी को कहानी बनाती है, पर झूठ का सहारा मैंने कभी नहीं लिया। इतिहास में मेरा नाम अंकित होना चाहिए ऐसी लालसा मेरे मन में कभी नहीं रही। अब तक जितना बटोरा है वही प्राण शेष होने तक यथेष्ट है।
आलोचक कहते रहे हैं कि मुझपर शरतचंद्र का प्रभाव है। मैंने भी स्वीकार किया है कि मेरे परिवेश के वे ही सबसे अधिक पास हैं। उनसे मैंने सबसे अधिक पाया है। औरों से भी पाया है। प्रेमचंद, रवींद्र, तालस्तॉय, गोर्की-इन सभी से कुछ-न-कुछ पाया है; पर यह पाना अपने को खोना कभी नहीं रहा। मेरी दुर्बलताएँ मेरी ही हैं। इन महान् सृजकों के पीछे अपनी क्षुद्रता को नहीं छुपाऊँगा।

देश विदेश में कौन श्रेष्ठ है-यह बता सकने की क्षमता होती तो स्वयं न श्रेष्ठ बन जाता। न जाने किन-किन में मैंने नाना रूपों में, नाना स्तरों पर महानता पायी, फिर मुझे नाम तो याद रहते ही नहीं, बस प्रभाव अंकित हो जाता है। ‘साँप’ कहानी कभी नहीं भूलूँगा; पर किसने लिखी, कभी याद नहीं रहा ! जो अच्छा लगता है वह अपना निजी हो जाता है। फिर यदि मैं कहूँ कि वेदव्यास कवि ही नहीं, सबसे बड़े उपन्यासकार भी थे तो सुधी गण मेरी बुद्धि पर तरस खाकर आगे बढ़ जाएँगे। तो यह स्थिति आने ही क्यों दूँ !
आज राजनीति में जो दल-बदलू हैं, वैसा मेरे साथ कभी नहीं हुआ; पर दृष्टि विकसित होती है। वैसा मेरे साथ भी हुआ। कभी नहीं थका। जितनी क्षमता है उतना आगे ही बढ़ा हूँ। मैं न सिद्धांतवादी हूँ, न रूढ़िवादी। गतिमय जीवन में मेरा अटूट विश्वास है। मेरी दुर्बलताएँ मेरी असफलता का परिणाम हैं। सारी विसंगतियों के बावजूद मेरी मनुष्य में आस्था है। संपूर्ण मनुष्य में। खंडों में बँटे मनुष्यों में नहीं। एक विश्व का अर्थ एक जन ही है। यह ग्रह जैसे चुंबकीय शक्ति के सहारे जुड़े हैं। वैसे ही क्या मनुष्य भी नहीं जुड़ा ! मनीषी तालस्तॉय को एक आठ वर्ष के बच्चे ने लेखक बनने की इच्छा प्रकट करते हुए उनका आशीर्वाद चाहा था।
उसके उत्तर में उन्होनें लिखा था, आपकी लेखक बनने की अकांक्षा का यह अर्थ हुआ कि आप सांसारिक प्रख्याति सम्मान के प्रत्याशी हैं। यह केवल अकांक्षा का अहंकार है। मनुष्य की एक ही इच्छा होनी चाहिए कि वह दयार्द्र हो। किसी को आघात न पहुँचाए, किसी से घृणा न करे, किसी के दोषदर्शी न हो, वरन् प्रत्येक व्यक्ति के प्रति ममताग्र ही हो।
कबीर की तरह गहरे पानी पैठकर देखेंगे तो पाएँगे कि साहित्य की सार्थकता के संबंध में सटीक वाणी और कुछ न होगी। प्रत्येक मनुष्य दूसरे के प्रति उत्तरदायी है। यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है। अंत में कवि दिनकर के शब्दों में कहूँ

पर जब तक जिऊँ वाणी स्वर में बोलती रहे,
वह मेरी ही नहीं सबका दर्द खोलती रहे।


नई पीढ़ी के प्रति मेरे मन में सदा स्नेह का भाव रहा है। उन्हें आगे बढ़ना ही था, बढे भी हैं। वे हमसे अच्छा नहीं लिखेंगे तो सृष्टि का क्रम नहीं बदल जायगा क्या ! पर यह याद रखना होगा कि साहित्य में पीढ़ियाँ आयु की अपेक्षा नहीं रखतीं, और फिर परंपरा से कहीं मुक्ति नहीं है। हाँ, परंपरा से जुड़नेवाली हर नई कड़ी पहली से जुड़कर भी भिन्न है। जुदा करने वाली व्यथा सदा छलिया होती है। फिर जब मूल्य इतनी तेजी से बदल रहें हों तो पैर उखड़ ही जाते हैं। पुरानी पीढ़ी ने छद्म ओढ़ा तो नई ने आक्रमण और ध्वंस की मुद्रा अपना ली। कुछ सेक्स से आतंकित होकर हर क्षण नारी के नंगे शरीर में दाँत गड़ाने को पागल रहते हैं। तो नारी के लिए नर सार्वजनिक हो गया है अर्थात सेक्स निजी नहीं रहा। कुछ हैं जो पिता के बुतों को तोड़ने में लगे हैं। कुछ को राजनीति लील गई। फैशन क्रांति का प्रतीक बन गई। हर क्षण गदा उठा लेने की मुद्रा में रहने के पीछे का मनोविज्ञान समझ में आता है; पर क्रांति कागज की नाव पर सवार होकर नहीं आती। जैसे नया वर्ष रंगीन कैलेंडरों का नाम नहीं है। मात्र संदेह नहीं, आस्था भी चाहिए। फिर भी मानता हूँ कि संक्रमण काल की धूल और धुएँ के बावजूद युग सदा आगे बढ़ता है। पर आवेश और आक्रोश शक्ति से अधिक दुर्बलता के प्रतीक हैं। छोटा करने के लिए लाइन को काटना नहीं होता। उसके समांतर बड़ी लाइन खींचनी होती है। उतना धैर्य कम लोगों में दिखाई देता है। इसलिए हर कालखंड के बाद गत्यावरोध सा आ जाता है। प्रतिभाएँ, जो सबकुछ के बाद जन्म लेती हैं, अभी कम हैं। प्रतिभाएँ कम ही होती हैं। पर मैं निराशावादी नहीं हूँ। बड़ी आशा है मुझमें नई पीढ़ी से। साहित्य उन्हीं की लेखनी का परस पाकर तो समृद्ध होगा। उन्होनें नई दृष्टि दी है। नये अर्थ दिये हैं, उनको ग्रहण करने वाली भाषा दी है। उन्हें बहुत-बहुत स्नेह, बहुत-बहुत शुभकामनाएँ मेरी।

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