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सुरजू के नाम

जयवन्ती डिमरी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :87
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2005
आईएसबीएन :81-263-1210-6

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प्रस्तुत है पहाड़ी अंचल में बसने वाले मजदूरों पर आधारित उपन्यास...

Surju Ke Naam

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उत्तरांचल की प्रसिद्ध लेखिका का महत्त्वपूर्ण उपन्यास।
सुरजू के नाम की पृष्ठभूमि पूर्वी भूटान का वह हिस्सा है जिसका चप्पा चप्पा दुर्गम है। यहाँ हाथों में छेनी और फावड़ा लिये पहाड़ तोड़ते जो मजदूर दिखाई देते हैं वे बिहार, असम आदि निकटस्थ प्रदेशों से किसी मजबूरी में आते हैं। इसी श्रमशील सर्वहारा वर्ग की स्त्री है सुकूरमनी, जो इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है।
सुकूरमनी गोद में अपने दुधमुँहें बच्चे और आँखों में खुशहाली और बेहतरी के बहुरंगी सपने लेकर भूटान के इस दुर्गम पहाड़ी प्रदेश में आ पहुँची है। यहाँ आकर उसने कितना विकट संघर्ष किया, जाने कितने अनचाहे पड़ावों को पार किया-इसकी अद्भुत गाथा है ‘सुरजू के नाम’ उपन्यास में।
आशा है, पहाड़ी अंचल की यह मार्मिक कथा हिन्दी के सहृदय पाठक को एक नयी अनुभूति देगी।

सुरजू के नाम

कांगलुंग में वह आखिरी दिन उसे आज भी याद है। उनकी बस बाजार के आखिरी छोर पर पहुँच गयी थी। अभी भोर होने में देर थी। अँधेरे में बाजार की दुकानें ठीक से नजर नहीं आ रही थीं। सड़क पर रोज नज़र आते कुत्ते भी दिखाई नहीं दे रहे थे, न ही उनके भौंकने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। निचले बाज़ार की जांग्दोपेलरी1 में गोलाकार चक्कर में जलती बत्तियाँ जरूर दिखाई दे रही थीं। उसने बस की खिड़की से सिर बाहर निकालकर सड़क के नीचे के उस दोमंजिले मकान की निचली मंजिल को देखने की एक नाकाम कोशिश की। उसकी आँखें आँसुओं से भारी होने लगीं।

इस सड़के से अब कभी दुबारा अपना नहीं होगा। यह बाजार, यह गिनती की कुल चार दुकानें, सड़क के ऊपर और नीचे के यह भोटियों के मकान, इस घाटी के यह सीढ़ीनुमा खेत, जिनमें कभी आलू, कभी धान तो कभी मकई की फलियाँ लहलहाती थीं यह छोटा छाचानुमा छोर्टन2 जो आते-जाते राहगीरों को सू3 से बचाता है, यह हवा में फड़फड़ाती सन्देशवाहक दार4, यह छोडन की दुकान के सामने का लकड़ी का वृहदाकार मणी जिसे उसने भी कई बार घुमाया, वह ऊपरी बाजार की जांग्दोपेलरी जहाँ उसने भी कई कोरे (परिक्रमाएँ कीं), कई डुबचेन5 में भाग लिया, गुरु रिम्पोचे6 की प्रतिमा के सम्मुख सिर नवाया, लाम नेतन7 से आशीष ली, सड़क के ऊपर का वह प्राइमरी स्कूल जहाँ से स्कूली समारोह इस शान्त कस्बावासियों के लिए किसी तीज-त्योहार से कम नहीं थे। भूरे माठा8 के घो पहने वे लड़के और कीरा पहने वे छोटी-छोटी स्कूली बच्चियाँ कभी मैदान में खेलते, दौड़ते मुस्कराते, शर्माते, जहाँ कहीं मिलते तो झुककर अभिवादन करते, हाथ में मणी घुमाते, माला जपते लामा और ड्रुक्पा—यह सब अब उसकी यादगार का हिस्सा भर होंगे।
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1.गुरुपद्मसम्भव का मन्दिर, 2. स्तूप, 3. दुरात्मा, 4. ध्वजपताकाएँ, 5. वार्षिक पूजा, 6. पद्मसम्भव, 7. मुख्य लामा, 8. भूरे रंग का चौक का कपड़ा, 9. भोटिया।

सड़क पर दौड़ती बस शहर को पीछे छोड़ती आगे बढ़ रही थी। इस शहर की ओर आती बस में अब दुबारा बैठना नहीं होगा। अलविदा कांगलुंग ! अलविदा कांगलुंग शहर के बाजार ! इस शहर की हवा और धरती ! जिसके बीचों-बीच से गुजरती इस सड़क पर अब दुबारा गुजरना नहीं होगा। यह खामोश सड़क जिसे उसकी मौजूदगी नामौजूदगी से कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।

सड़क के पहले मोड़ के नीचे का वह दोमंजिला मकान, जिसके निचले तले के एक छोटे, अँधेरे कमरे में वह रहती है वह आज ज़रूर उदास होगी। शायद सुरजू भी उसके लिए पूछे। रोज शाम को उसकी बाट जोहता वह दरवाजे के बाहर ही खड़ा मिलता था। उसे देखते ही उसके आने की सूचना अपनी माँ को देने के लिए अन्दर दौड़ पड़ता। फिर दरवाजे की ओट में खड़ा हो उसके अन्दर आने की अगवानी करता। वह तो बच्चा है, दो-चार दिन में भूल जाएगा। लेकिन सुकूरमनी आज जरूर मायूस होगी। शायद, कल परसों और उसके कई अगले दिनों तक वह मायूस रहे। किन्तु उसकी उदासी, मायूसी किन्हीं आँसुओं की मोहताज नहीं। उसके दुःख, परेशानियाँ किन्हीं मौखिक या कागजी शब्दों के मोहताज कभी रहे ही नहीं। न ही उसके संवादों को किसी चिट्ठी या टेलीफोन की दरकार है। यों तो उसने भी कई फून थिम्पू किये थे। और एक चिट्ठी उसने भी सुकूरमनी के बाप सरजू टूटू को लिखी थी।

वह चिट्ठी उसने सुकूरमनी के बाप सरजू टूटू को अपने हाथ से लिखकर लैटरबक्स में डाली थी। लेकिन वह चिट्ठी सुकूरमनी के बाप सरजू टूटू को मिली ही नहीं। अगर मिली भी हो तो उसका जवाब नहीं आया। ‘सरजू टूटू, निवासी मेजगुड़ी, पोस्ट आफिस पकड़ी जूली, थाना मेला बाजार, दरॅगा।’ यह पता स्पष्ट, बड़े-बड़े अक्षरों में उसने कुछ सोच-विचार के बाद अंग्रेजी में लिखा था। हिन्दी भाषा का जानकार वहाँ मेजगुड़ी गाँव में या फिर पोस्ट-आफिस पड़की जूली में कोई हो या न हो, अंग्रेजी में लिखा पता पढ़ने वाला कोई जरूर मिल जाएगा। यों एक बार असमिया में पता लिखने की भी उसने सोची थी। चिट्ठी यदि बाँची भी गयी हो तो कौन जाने कोई चिट्ठी लिखने वाला ही मयस्सर न हुआ हो। चिट्ठी असमिया में लिखने से भी कोई फायदा न था। सरजू टूटू तो बोडो था। तब तक उसे यही जानकारी थी।

बोडोवासियों का दरंगा, मेलाबाजार का इलाका उसने एक नहीं अनेक बार कभी कार, कभी टैक्सी, तो कभी बस में पार किया था। हमेशा मन में हल्का-सा डर बना रहता। यदि कहीं से आकर अचनाक कोई बोडो गोली दाग दे ! फिर तभी रास्ते से गुजरते बोडोवासियों पर निगाहें जातीं। स्कूल जाती लड़कियाँ, कहीं साइकिलों पर सवार तो कहीं पैदल फुटपाथ पर चलतीं। यह मध्यम कद के  लोग देखने से तो सीधे सादे, दुनिया से बेखबर ही लगते थे, तो फिर आतंकवादी क्या इन्हीं लोगों जैसे होंगे- ? सड़क के किनारे के वह खामोश, बन्द दरवाजों और खिड़कियों के घर, जिनके आँगन में सुपारी, ताड़ और खजूर के पेड़ अब भी पहरा दे रहे थे ? उनमें अधिकतर मकान खाली थे, सुना था भारतीय सेना ने खाली करवा दिये थे। भारतीय सेना के फौजी ट्रकों, जीपों और उनमें सवार हरी वर्दीधारी सैनिकों और उन ब्लैक कमाण्डों और उनकी हवा में तनी स्टेनगनों से पहली मर्तबा तो उसे बहुत डर लगा था, जब फौजियों ने उसकी टैक्सी रोक दी थी और दूसरी बार जब वह सब भूटान पोस्ट बस में सवार थे तो उनके बैग, अटैची, पर्स—सभी कुछ तलाशी में बेपर्द हो गये थे। अपने ही देश की सीमा में अपने ही से यों बेपर्द होना बहुत ही नागवार लगा था, लेकिन बाद में जब कभी उस सड़क से गुजरना हुआ तो वह बेपर्द करने वाले वर्दीधारी, पसीने में चमकती चेहरे की नसें, बारिश में भीगते धूप में तपते सड़क किनारे बन्दूकें हाथ में लिए—वे फौजी कितने बेबस लगे थे। साल के बारहों महीने सड़क किनारे खेतों में धान लहलहाते। सुना था, अखबारों में पढ़ा था—यहाँ के लोग गरीब हैं।
 लेकिन वह धान की लहलहाती खेती, वह नारियलों और सुपारी से लदे पेड़, सड़क से गुजरते अपने काम-धन्दों में लगे लोग तो प्रसन्नचित्त, सन्तुष्ट ही नजर आते थे। जब आजू-बाजू के सभी खेत बैरकों में तब्दील हो गये तो यह खेती कौन करता होगा ? और तब उसे सुकूरमनी के बाप सरजू टूटू का ध्यान आता। ऐसे ही किसी खेत में वह भी मेहनत-मजूरी करता रहा होगा। ऐसे ही किसी ताड़ के पेड़ से सरजू टूटू का बेटा, सुकूरमनी का दादा ताड़ी पीकर तड़ातड़ी करता होगा।

सुकूरमनी को देखते ही उसे अक्सर उसके बाप सरजू टूटू, निवासी मेजगुड़ी की लिखी चिट्ठी की इबारत याद आ जाती। ऐसी ही न जाने कितनी ही अनकही, अनबाँची, अनिलिखाई चिट्ठियाँ सुकूरमनी के अन्दर बन्द थीं। वह सूकूरमनी न होकर दूरदराज की किसी कच्ची, पथरीली, ऊबड़खाबड़ पगडण्डी के किनारे मील का पत्थर बनी महज एक पत्रपेटी थी जो आते-जाते मौसमों के बदलावों को सहती कभी बरसात में भीगती तो कभी धूप में तपती, बेरंग, बदरंग अपनी जगह पर टँगी थी। इस बदरंग, बेरंग लैटरबक्स में कितने ही मनमौजी, दूर परदेस में अपनी बिछुड़ी हुई बीवियों का दुःख बिसारते तो कभी उनकी यादें ताजा करते अपनी रातें गर्माते शख्स जब तब चिट्ठियाँ डालकर चलते बने। इन कालजयी चिट्ठियों को न किसी पोस्टमैन ने अपने थैले में डाला, न किसी ने इन्हें बाँचा, न बँचवाया, न ये चिट्ठियाँ कभी बाँटी गयीं, न कभी फाड़ी गयीं, न ही किसी रद्दी की टोकरी या आग की ढेरी के सुपुर्द हुईं। ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः’। इन चिट्ठियों को ढोती, इन चिट्ठियों के अमरत्व के गौरव से सर्वथा अनभिज्ञ, अनजान, उदासीन सुकुमनी उसी समर्पित भाव से उसके घर का चौका-बासन, झाड़ू-बुहार, साफ-सफाई करती रही।

सुकूरमनी प्रारम्भ से ही अपने बाप सरजू टूटू को भेजी चिट्ठी के प्रति उदासीन रही हो, ऐसा नहीं। चिट्ठी लिखाते समय उसकी तटस्थ दिखतीं पुतलियों में चमक आ गयी थी। आशा की चमक से वे काली पुतलियों वाली आँखें सामान्य से कहीं अधिक बड़ी लगने लगी थीं। उसने गौर किया था वे आँखें सुन्दर थीं। उनमें यदि काजल या सुरमा लगाया जाता तो वे और भी बड़ी कजरारी लगतीं। पहली बार उसके चेहरे की बनावट पर उसका ध्यान गया था। वह काली जरूर थी लेकिन इस ताँबाई काले रंग में एक चमक थी। तेल से मालिश करने के बाद की चमक। पर उस बेचारी को कहाँ मालिश का तेल मयस्सर था। उसके बाल भी उसकी खाल ही की तरह काले, चिकने, चमकीले थे, चौड़ा माथा, मोटी नाक, मोटे ओंठ-कुल चार फुट जमा दस इंच की कद काठी। क्या उमर होगी इसकी ?

‘‘कितनी उमर है तुम्हारी ?’’
‘‘ऊ तो हम नई जानता है।’’
‘‘शादी कितने साल में हुई थी ?’’
‘‘तब तो हम छोटा था।’’
‘‘अच्छा बोलो चिट्ठी में क्या लिखने का है।’’ उसी की जुबान में उसने पूछा था।
‘‘उसको लिखने का है मेमसाब’’ वह काली, कजरारी  आँखें मेजगुड़ी गाँव में अपने बाप को खोजती कहीं खो-सी गयी थीं। सन्देशों की बहुतायत, परदेश से बाप को चिट्ठी भेजने के दुर्लभ सुअवसर की प्रसन्नता में उसके स्वर में एक लचीलापन आ गया था। मुँह में जैसे किसी ने मुट्ठी भर गुड़ भर दिया हो। ओठों के दोनों कोरों में बाहर थूक रिस आया था।

‘‘हम उसको अपना आदमी का पास पीसा भेजता है। फिर इतना दिन से हम उसको पीसा भी नहीं भेजा। इतना दिन हो गया हम जाने भी नहीं सका। इस करके पीसा ही नहीं होता है। अपना घर का कैसा दुःख तकलीफ है तो अपना चिट्ठी भेजो। बच्चा लोग भी अभी तक ठीक ही है। हम सपना में उसको कैसा-कैसा करके मिलता है। हम रोज उसको सपना में देखता है। पता नहीं हम कैसा-कैसा उसको सपना में देखता है। बहुत चिन्ता लगता है। दुई साल से भी जास्ती हो गया। दुई दुर्गापूजा इदर हो गया। एक दुर्गापूजा इदर, दूसरा दुर्गापूजा कुरचू में। इतना बार हम अपना आदमी लोग का पास चिट्ठी भेजा, पताऽऽऽ नईऽऽऽ ऊ उसको मिलता है कि नहीं। चिट्ठी मिलने से तो ऊ जवाब देना सकता था। पता नई...’’ सुकूरमनी की सारी चिन्ताओं का बोझ—‘पत्रता नई’....पर पड़ गया।
‘‘तुम्हें कैसे पता तुम्हारे बाप को चिट्ठी नहीं मिली ?’’

‘‘चिट्ठी मिलता था मेमसाब’’ सुकूरमनी के स्वर में खीज थी। ‘‘तो ऊ हमकू खबर भेजने को सकता है। हमारा आदमी लोग इदर आता है। हम सबकू पूछता है। पता नई किदर गया।’’ वह अपने आप ही बुड़बुड़ायी।
‘‘अपने बाप का नाम बोलो।’’
‘‘सरजू टूटू।’’ इसके बेटे का नाम भी तो सुरजू ही है।
‘‘तुम्हारे बेटे का क्या नाम है ?’’ उसने अपनी तसल्ली के लिए पूछा।
‘‘ऊ तो सुरजू है।’’
‘‘तुम्हारे बेटे का नाम भी सुरजू। बाप का नाम भी सरजू ?’’ क्या इन लोगों में मातृप्रथा है जहाँ बेटे को दादा का नाम दिया जाता हो।

‘‘ऊ अपना बच्चा लोग तो हम इदर अपना बाप का नाम देता है।
अब इसका बाप तो नई है। उसका नाम देने से तो नई सकता। तो कलकू परदेस में हमकू कुछ होने से ई बच्चा लोग किदर जाएगा ?’’
देस, परदेस, जीवन, मृत्यु के पचड़ों से बेखबर, बच्चा लोग सुरजू की संगीत स्वरलहरी गूँजी। क्या गजब का सुर पाया था बच्चा लोग ने।

‘‘तुम्हारे गाँव में नदी है क्या ?’’ सुरजू का स्वर और ब्रह्मपुत्र का वह असीम विस्तार, उसमें नाव चलाते, मछली पकड़ते और हुन हुना, हनु हुना के माँझी गीतों की धुन से सुर मिलाने जैसा ही तो वह स्वर था।
‘‘नदीं तो ऊ हमारा गाँव में नई है मेमसाब। दरंगा के उस पार जाने से तू हे।’’ सुकूरमनी के स्वर में परेशानी, असमंजस का पुट था।
‘‘क्या ऊ नदी भी चिट्ठी में लिखने का है मेमसाब ?’’
‘‘नहीं, नहीं।’’ वह मुस्करायी।’’ ‘ऐसे ही पूछा था। अपने गाँव का नाम बोलो।’’
‘‘ऊ पोस्ट आफिस तो पड़की जूली होता है।’’


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