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कविता पहचान का संकट

नन्दकिशोर नवल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :309
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2004
आईएसबीएन :81-263-1227-0

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वैसे तो पहचान के संकट की शिकार साहित्य की सभी विधाएँ है,लेकिन कविता की आलोचना में वह सर्वाधिक प्रत्यक्ष हैं।

Kavita Pahchan ka Sankat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वैसे तो पहचान के संकट की शिकार साहित्य की सभी विधाएँ है,लेकिन कविता की आलोचना में वह सर्वाधिक प्रत्यक्ष हैं। कारण यह है कि और विधाएँ जहाँ किसी हद तक मात्र वस्तु-विश्लेषण को बर्दाश्त कर सकती है,कविता नहीं कर सकती,क्योंकि रस,सौन्दर्य या कवित्व वह आधार है,जिसमें उसका वजूद अलग नहीं हो सकता। आज हिन्दी में काव्यालोचन रचना के सौन्दर्य-निरूपण को रूपवाद मानता है और अपने को उसके सामाजिक सन्दर्भ या वैचारिक अभिप्राय तक सीमित रखने का आसान रास्ता चुन लेता है।
समकालीन काव्यालोचन अपनी धुरी से ही खिसका हुआ ही नहीं है,वह रचना के पाठ से भी हटा हुआ है। इतना ही नहीं,वह कविता को सही ढंग से पहचानने वाले हिन्दी के साधारण पाठकों से भी कट चुका है। ऐसी स्थिति में उसका विचलन स्वाभाविक है।
डा. नन्दकिशोर नवल हिन्दी के सुपरचित आलोचक है, जिनका कार्य-क्षेत्र मुख्य रूप से कविता है। प्रस्तुत कृति कविताः पहचान का संकट उनके कविता-सम्बन्धी लेखों का नया संग्रह है, जो हिन्दी काव्यालोचन को धुरी पर रखने और उसे रचना के पाठ तथा पाठक-वर्ग से जोड़ने का एक सुन्दर प्रयास है। इसमें उन्होंने कबीर से लेकर बिलकुल हाल के कवियों तक की कविता को विषय बनाया है और उसमें निहित कवित्व को संकलित करते हुए उसके मूल्यांकन की चेष्टा की है।
आशा है हिन्दी कविता के समीक्षक पाठक और अध्येता को यह कृति आलोचना के क्षेत्र में नयी दिशा देगी।

दो शब्द


‘कविताः पहचान का संकट’ मेरे आलोचनात्मक लेखों का आठवाँ संग्रह है। इधर मेरे ऐसे लेखों के दो संकलन और भी निकले हैं, यथा ‘निराला-काव्य की छवियाँ’ और ‘कविता के आर-पार’। उन्हें विभिन्न संग्रहों से लेख लेकर तैयार किया है। कुछ लेख इधर के भी लिखे हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक में पिछले चार-पाँच वर्षों में लिखे गये मेरे ऐसे लेख दिये जा रहे हैं, जो पहली बार लेख-संग्रह में संगृहीत हो रहे हैं।
प्रायः ये सारे लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं, ज्यादातर ‘कसौटी’ में और बाकी ‘आलोचना’ में। एक-दो लेख अन्य पत्रिकाओं में भी छपे हैं। ‘अर्थ-भार से तनकर...’ शीर्षक समीक्षात्मक लेख बिलकुल ताजा है और मार्कण्डेय-सम्पादित पत्रिका ‘कथा’ के लिए लिखा गया है।

जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है, इन लेखों के, जो आकार में बड़े भी हैं और छोटे भी, केन्द्र में वह संकट है, जिसके कारण कविता की पहचान लुप्त होती जा रही है। मैंने कबीर से लेकर एकदम हाल के कवियों तक की कविता पर इसी दृष्टि से विचार किया है और उसमें निहित ‘कवित्व’ को यथासम्भव संकेतित करने का प्रयास। कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘कवित्व’ एक गतिशील वस्तु तो है ही, दुर्गाह्य भी है जैसा कि तुलसीदास ने पात्र-विशेष के कथन को लेकर कहा है-‘ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी। गहि न जाइ अस अदभुत बानी।’ लेकिन इस बिम्ब को पकड़कर ही आलोचक कृतकार्य हो सकता है, अन्यथा वह कविता के रचनागत सन्दर्भों और उसके भावों-विचारों का ही विश्लेषण करता रह जाएगा, जिसकी आजकल हिन्दी काव्यालोचन क्या, साहित्यालोचन-मात्र में बहार है। चूँकि यह अपेक्षाकृत सरल है, इसलिए आलोचक उसी तरफ लपकते हैं। एक बात यह भी है कि उनके मन में एक गलतफहमी जड़ जमाए हुए है कि आलोचना में रचना के कवित्व या सौन्दर्य की पहचान रूपवाद है। वे यह मानने को तैयार नहीं कि कवित्व का सौन्दर्य अलग से कोई वस्तु नहीं, ठीक प्रकाश की तरह, जिसे हम नहीं देखते, देखते हैं तो प्रकाशित वस्तुओं को। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं है कि ‘प्रकाश’ जैसी कोई चीज नहीं होती, जो होती है, वह केवल उससे प्रकाशित होने वाली वस्तु।
इस पुस्तक को प्रकाशित करने में यशस्वी प्रकाशन-संस्था भारतीय ज्ञानपीठ ने रुचि दिखलायी है, इसलिए उसके प्रति मैं अपना आभार प्रकट करता हूँ।

कबीर की वाणीः एक निजी पाठ

मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगस्त, 1994 तक मैं कबीर से पूरी तरह से परिचित नहीं था। बस उनकी छिटपुट कविताएँ पढ़ीं थीं। अन्त में तो कबीर की बानी के रूप में मेरे पास एक ही सामग्री थी-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ के परिशिष्ट में दी गयी उनकी दो सौ छप्पन कविताएँ। मैं उन्हीं को पढ़ता था, उन्हीं का हवाला देता था और वर्ग में या बाहर उन्हीं पर अपने व्याख्यान को केन्द्रित करता था। लेकिन धीरे-धीरे कबीर की चर्चा नये सिरे से जोर पकड़ने लगी, तो मैंने उन्हें सम्पूर्णता में पढ़ने का निश्चय किया। उसके लिए सर्वप्रथम कबीर-वाणी के प्रामाणिक पाठ की समस्या सामने आयी। द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में कबीर की जो कविताएँ दी हैं, उनकी प्रामाणिकता में तो उन्हीं को सन्देह था, क्योंकि उन्होंने उसकी भूमिका में लिखा है कि उनमें से सौ कविताएँ आचार्य क्षितिमोहन सेन द्वारा सम्पादित ‘कबीर के पद’ नामक उस पुस्तक से ली गयी हैं, जो अपनी प्रामाणिकता के लिए किसी पोथी की मुखापेक्षिता नहीं रखती। कारण यह है कि उसकी सारी कविताएँ भक्तों के मुख से सुनकर संग्रह की गयी हैं। शेष एक सौ छप्पन कविताओं के स्रोत का द्विवेदी जी ने स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। आगे उन्होंने यह जरूर लिखा है कि पुस्तक में उन्होंने आचार्य सेन द्वारा संकलित कविताओं का उपयोग नहीं किया और कबीर सम्बन्धी अपने विवेचन का आधार श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित ‘कबीर ग्रन्थावली’ अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ द्वारा सम्पादित ‘कबीर वचनावली’ और युगलानन्दजी द्वारा सम्पादित ‘सत्य कबीर की साखी’ को बनाया है। ऐसी स्थिति में ‘कबीर’ के परिशिष्ट में दी गयी कविताओं से मेरा हटना स्वाभाविक था। चूँकि मैं कबीर को शोधकर्ता की नहीं, बल्कि आस्वादनकर्ता की दृष्टि से पढ़ना चाहता था, इसलिए मैंने ज्यादा छानबीन नहीं की और डॉ. माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित ‘कबीर ग्रन्थावली’ को अध्ययन के लिए चुना। यह चुनाव मैंने बहुत जल्दी कर लिया, क्योंकि डॉ. गुप्त की पाठ-निर्धारण और अर्थापन की पद्धति के वैज्ञानिक होने के कारण उनमें मेरी निष्ठा और विश्वास बहुत दृढ़ था। अध्ययन के उपरान्त मेरी यह धारणा हो गयी कि इस ग्रन्थावली में कबीर-वाणी का जो पाठ है, वह सर्वाधिक प्रामाणिक है।

यह बात दिलचस्प है कि ‘कबीर-ग्रन्थावली’ का एक परिश्रमी छात्र की तरह पारायण करने के बाद मैं किसी नये नतीजे पर नहीं पहुँचा। कबीर को उनकी कविताओं के माध्यम से मैंने जान तो लिया, लेकिन यह जानना किसी नये सत्य को जानना नहीं था। मुझे यह देखकर थोड़ी हैरानी हुई कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और द्विवेदीजी दोनों के कबीर सम्बन्धी निष्कर्ष एक ही हैं। वह यह कि कबीर मूलतः एक साधक थे और उनकी साधना बहुत कुछ एक परम्परा का अंग थी, जो सिद्धों, नाथों और नामदेव की परम्परा थी। आचार्य शुक्ल साहित्य को शिक्षित वर्ग की चीज समझते थे, इसलिए कबीर को उन्होंने साहित्यिक दृष्टि से पूरा महत्व नहीं दिया, यह सही है। उनके विपरीत द्विवेदी जी ने कबीर के माध्यम से एक नये ढंग की कविता की प्रतिष्ठा की, जिसके पीछे-साहित्य-ज्ञान नहीं, अनुभव पर आधारित एक नया काव्यशास्त्र था, यह भी सही है, लेकिन इसके बावजूद दोनों विद्वानों के कबीर-सम्बन्धी विचार मिलते हैं। मैं कबीर के अध्ययन के उपरान्त जिन नतीजों पर पहुँचा वे नये नहीं हैं, फिर भी उन्हें मैं आपके सामने रखने की धृष्टता कर रहा हूँ।

कबीर में योग, भक्ति और प्रेम तीनों ही चीजे हैं। योग का शेष दोनों चीजों से मेल नहीं है, लेकिन उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और योग साधना के साथ भक्ति तथा भक्ति के साथ रहस्यवादी प्रेमोपासना की है। आचार्य शुक्ल ने योग के साथ भक्ति को मिलाने के लिए उनकी बहुत तारीफ की है। यह जरूर है कि न तो वे गोरखनाथ-जैसे पक्के योगी थे, न वैष्णवों की तरह पक्के भक्त, जो अवतारवाद में विश्वास करता हुआ ईश्वर की लीलाओं का गान करता है। इसी तरह वे सूफी मत से प्रभावित होते हुए भी सूफी सन्त न थे। कहा जा सकता है कि यह एक विलक्षण संयोग है जो कबीर में घटित हुआ और जिसका समाज के धार्मिक वातावरण पर अच्छा ही प्रभाव पड़ा। लेकिन सवाल कविता का है। कबीर दार्शनिक या तार्किक नहीं थे, इसलिए यदि उन्होंने अपनी साधना में योग, भक्ति और प्रेम-जैसी परस्पर विरोधी चीजों को मिला दिया, तो यह बड़ी बात है। यह कवि-रूप में भी उनकी उपलब्धि है, क्योंकि विचार के स्तर पर जहाँ इन चीजों में आपस में विरोध है, वहाँ अनुभूति के स्तर पर पूरी संगति है। जहाँ योग भक्ति से शून्य है और केवल शुष्क क्रियाओं का वर्णन रह गया है, वहाँ वह काव्य के स्तर से च्युत है। दिक्कत यह है कि कबीर में वैसे स्थल बहुत ज्यादा हैं, नीरस उलटवासी सहित। यह उनके महत्व को कम करता है। कभी-कभी यौगिक क्रियाओं का वर्णन करने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े रूपक लिये हैं। यह अवश्य उनकी असाधारण कवि-प्रतिभा का प्रमाण है। भक्ति के प्रसंग में एक-दो बातें ज्ञातव्य हैं। एक तो यह कि वे ब्राह्मणों ही नहीं, शाक्तों से भी नाराज हैं और स्वभावतः पसन्द वैष्णवों को करते हैं, यद्यपि जरूरी होने पर बख्शते उन्हें भी नहीं हैं। उदाहरण के लिए वैष्णवों की प्रशंसा में कही गयी उनकी यह साखी देखी जा सकती हैः ‘मेरे संगी दोइ जण, एक बैश्नौं एक रांम।/ वो है दाता मुकति का, वो सुमिरावै नांम।।’

इसी तरह उन पर चोट करनेवाली यह साखीः ‘बैश्नौं भया तो का भया, बूझ्या नहीं बमेक।/छापा तिलक लगाई करि, दग्ध्या लोक अनेक।।’ (बमेक-विवेक-ज्ञान, दग्ध्या-ठगा, लोक-लोग) दूसरी बात यह कि कबीर में राम धनुर्धर रूप में भी हैं (‘सारंग पानि’) और उनमें ‘गोबिन्द’ भी आते हैं। मैं कबीर के निरगुनों से परिचित था और जानता था कि वे इस सांसारिक जीवन को नश्वर बतलाकर ईश्वर की ओर उन्मुख होने का उपदेश देते हैं, लेकिन उन्हें पढ़ते हुए यह बात मेरे अनुभव में पहली बार आयी कि उनका सर्वाधिक जोर सांसारिक जीवन त्यागने पर है। इसके सामाजिक-धार्मिक कारण हो सकते हैं, पर उससे जो स्थिति है, मेरे जानते, उसमें कोई परिवर्तन न होगा। उन्होंने जिन कविताओं में सांसारिक जीवन की नश्वरता का आख्य़ान किया है, उनमें से एक हैः ‘मन रे तन कागद का पुतरा।/लागै बूँद बिनसि जाइ छिन मैं, ग्रब करै क्या इतरा’ इसी तरह से एक दूसरे पद में वे प्रवृत्ति मार्ग के बेड़े पर चढ़नेवालों की निन्दा करते हुए कहते हैः ‘अवधू ऐसा ग्यांन विचारं।/भेरै चढ़े सु अधधर डूबै, निराधार भए पारं।।’ (अधधर-अद्धड़-आधे (समुद्र) में ही) लेकिन बात इतनी ही नहीं है। मुझे उनमें कई ऐसी कविताएँ भी मिली हैं, जिनमें इस संसार के प्रति उनमें निषेध-भाव के बदले स्वीकार-भाव है। एक साखी में वे कहते हैं कि मैंने चौपड़ चौराहे पर बिछाई है, जिसके ऊपर-नीचे बाजार है। तात्पर्य यह कि मेरा खेल एकान्त का नहीं, बल्कि सामान्य जीवन से सम्पृक्त है। वह साखी हैः चौपड़ि मांडी चौहटे, अरध उरध बाजार।/कहै कबीरा राम जन, खेलौ सन्त बिचारि। (मांडी-बिछाई, अरध-अध, नीचे, उरध-ऊर्ध्व, राम जन-राम का सेवक (कबीर), सन्त-ऐ सन्तो !) वे दरअसल इस संसार में रहकर भी उससे निर्लिप्त रहने पर जोर देते थे, जैसा कि एक-दूसरी साखी से पता चलता है। उसमें वे राम से कहते हैं कि जिस विधि से तुम सभी की रचना कर उनसे अलग रहते हो, वह विधि हमें भी बताओः ‘कबीर पूछै रांम सौं, सकलभवनपति राइ।/सबहीं करि अलगा रहौ, सो बिधि हमहिं बताई।।’

तुलसीदास ने घर और वन के बीच अपना आवास बनाने पर बल दिया है। कबीर भी इस मध्यमार्ग की सिफारिश करते हैं, यथा ‘मध्य अंगि जे को रहै, तौ तिरत न लागै बार’, अर्थात जो प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य में रहता है, उसे संसार-सागर को तिरते देर नहीं लगती है। अन्ततः वे इस संसार में सरल और सच्चा जीवन बिताने के लिए पक्षपाती थेः ‘सांई सेंती सचि चली, औरौ सौंसुध भाइ।/भाबै लंबै केस करि, भाबै घुड़रि मुंड़ाइ’, अर्थात स्वामी से तू सच्चाई से आचरण कर और औरों से शुद्ध भाव से, फिर चाहे तू लम्बे केश रख, चाहे उन्हें मुड़ाकर घूम।

ज्यों-ज्यों मैं कबीर को पढ़ते हुए आगे बढ़ता गया, मुझ पर यह स्पष्ट होता गया कि उन्होंने इस नाना रूपात्मक और नामात्मक जगत् के क्रिया-कलापों में न के बराबर रस लिया। इसी कारण आचार्य शुक्ल यह कहते हैं कि कबीर तथा अन्य निर्गुणपन्थी सन्तों ने नागपन्थियों की अन्तस्साधना में ज्ञान और भक्ति का योग तो कराया, लेकिन कर्म की दिशा वही रही। तात्पर्य यह है कि ईश्वर ज्ञानस्वरूप और प्रेमस्वरूप ही रहे, धर्मस्वामी यानी लोकरक्षक और लोकरंजन न हो पाए। यहीं पर तुलसी सबसे बड़े हैं। आधुनिक कवि नागार्जुन को इस युग का कबीर कहा गया है। सच्चाई यह है कि कबीर ने जहाँ विश्वप्रपंच में कोई खास रुचि नहीं ली, वहाँ नागार्जुन का मुख्य विषय मृत्युपर्यन्त वही रहा। उसमें भी विश्व की प्रमुख समस्या राजनीति, जबकि कबीर की रुचि सिर्फ धार्मिक मामलों तक सीमित थी। कुछ विद्वान मार्क्सवाद के इस सूत्र का सहारा लेकर कि आधुनिक काल के पूर्व सारे राजनीतिक आन्दोलन धार्मिक रूप से चलते रहे हैं, कबीर की धार्मिकता को सामाजिक क्रान्ति के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयास कर रहे हैं। धर्म भी समाज की पैदावार होता है और इसका भी समाज से ही सम्बन्ध होता है, यह सही है। इसके साथ यह भी सही है कि वैयक्तिक साधना का भी एक सामाजिक सन्दर्भ होता है, तथापि कबीर की धार्मिकता को सामाजिक क्रान्ति मानना सरलीकरण ही नहीं, बात को इस छोर से पकड़ने की जगह उस छोर से पकड़ना है। कबीर की धार्मिकता समाज से सम्बन्ध रखती है, पर उन्होंने उसे महत्त्व मुख्यतः आध्यात्मिक कारणों से दिया था, भौतिक कारणों से नहीं।

स्पष्टतः कबीर सामाजिक विद्रोही न थे। निस्सन्देह उनमें वर्ण-व्यवस्था का बहुत तीखा विरोध है, लेकिन वह उनका लक्ष्य न होकर उपलक्ष्य है। उसके पीछे उनकी भक्ति या दर्शन है, जो समतामूलक है। उदाहरणार्थ यह साखीः ‘कबीर यह तौ एक है, पड़दा दीया भेष।/भर्म कर्म सब दूरि करि, सबहि माँहिं अलेख।। (यह-मनुष्य-मात्र, भर्म कर्म-भ्रम के कर्म, अलेख-अलक्ष्य) ताज्जुब नहीं कि जैसे उन्होंने ब्राह्मणों पर प्रहार किया है, वैसे ही काजी मुल्ला पर भी, लेकिन यह प्रहार इसलिए नहीं है कि गलत समाज-व्यवस्था के चलते समाज में निर्धनता, विषमता, शोषण और अत्याचार है। इन चीजों से उन्हें कोई मतलब न था। उन्हें सामाजिक यथार्थ का दृष्टा मानना भूल है। उनका दुख ईश्वरीय दुख था, जिसमें वे जगते थे और रोते थे। इसी तरह उनका प्रेम भी ईश्वरीय प्रेम ही है, मानव-प्रेम नहीं। ज्ञातव्य है कि कबीर ने विस्तार से स्त्री-विरोधी विचार ही प्रकट नहीं किये हैं, भले भक्त होने के कारण, सती-प्रथा को भी गौरवान्वित किया है, भले प्रतीक रूप में उसका इस्तेमाल करते हुए। एकाध स्थल पर तो उन्होंने बहुत स्पष्ट शब्दों में शूद्रों और म्लेच्छों की भी निन्दा की हैः सुद्र मलेछ बसैं मन मांहीं। आतम रांम सुचीन्ह्यां नांही।।’ (मन-तुम्हारे मन में)

लेकिन कबीर सूर-तुलसी के साथ परिगणनीय अपने दृष्टिकोण के कारण नहीं, अपनी संवेदना के कारण हैं, जिसमें उक्त महाकवियों के समान ही गहनता और औदात्य है। यह सही है कि उन्होंने उसकी तरह रस की धारा नहीं बहाई, न जीवन की विभिन्न दशाओं से सम्पृक्त होकर उनका भावपूर्ण चित्रण किया, तथापि जब वे कवि रूप में स्थित होते हैं तो उनके मुँह से जो कविता फूटती है, वह बेजोड़ होती है। अकारण नहीं कि रवीन्द्रनाथ से लेकर दूसरे देशों के काव्यमर्मज्ञों तक ने, जो उनकी कविता के निकट आये हैं, उन्हें विश्वसाहित्य में एक विलक्षण कवि माना है। विषय योग हो या भक्ति, या प्रेम या तीनों का मिश्रित रूप, कबीर जब हृदय की गहराई से अपने आपको अभिव्यक्त करते हैं, तो उनके शब्दों में गजब की प्रभावोत्पादकता होती है। कभी उनसे सूर्य की किरणें विकिरित होती हैं, तो कभी चन्द्रमा की। इससे उनके काव्य में एक नया सौन्दर्य सम्भव हुआ है, जिसका स्तर तो सूर-तुलसीवाला ही है, लेकिन जिसका आस्वाद उनसे भिन्न है, क्योंकि कबीर भले साक्षर रहे हों, वे उनकी तरह पण्डित और भाषाविद् न थे। सूर-तुलसी जहाँ लिखित परम्परा के कवि हैं, वहाँ वे भाषित परम्परा के। इसने उनकी वाणी को वह वैशिष्ट्य प्रदान किया है, जो लिखित परम्परा के कवियों की कविता में नहीं।

सर्वप्रथम हम उनकी योग से सम्बन्धित कुछ युक्तियाँ देखें। एक साखी में वे सतगुरु की महिमा बतलाते हुए कहते हैं : ‘सतगुरु मारया बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।/अंगि उघाड़ै लागिया, गयी दवा सूं फूटि।।’ (भरि-भरपूर, सूधी-सीधी, उघाड़ै-उघरे हुए, दवा-दावानल) गुरु के वचन को तुलसी ने ‘रवि कर निकर’ कहा है। कबीर उसकी उपमा बाण से देते हैं, जो उनके खुले हुए अंग को विद्ध कर वहाँ दावाग्नि को प्रज्जवलित कर देता है ! एक दूसरी साखी में उन्होंने आदर्श सतगुरु उसे कहा है, जो सिकलीगर (आईने व मुलम्मा करने वाले) की तरह अपने शब्दों को मुलम्मा करके शिष्य की देह को दर्पण बना दे : ‘सतगुरु ऐसा चाहिए, जैसा सिकलीगर होइ।/सबल मसकला फेरि करि, देह द्रपन करै सोई।।’ (मसकला-मुलम्मा) एक साखी में योगी का वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है : ‘झल ऊठी झोली जली, खपरा फूटिम फूटि।/जोगी था सो रमि गया, आसण रहि बिभूति।।’ (झल-ज्वाला, खपरा-खप्पर (भिक्षापात्र), विभूति-राख) अर्थ स्पष्ट है कि योग की ज्वाला उठी, तो योगी की झोली जल गयी, वह स्वयं ज्वाला में लीन हो गया और उसके आसन पर सिर्फ उसकी राख रह गयी, इसी तरह एक और साखी में उनका कहना है : पंखि उड़ाणीं गगन कौं, प्यंड रहा परदेस।/पांणीं पीया चंच बिन, भूलि गया यहु देस’, यानी जब पक्षी गगन (शून्यलोक) को उड़ा, उसका पिण्ड (शरीर) अपर देश (स्थूल जगत्) में ही बना रहा। उस अशरीरी पक्षी ने शून्यलोक में चंचु के बिना ही एक दिव्यजल का पान किया और उसे यह स्थूल देश विस्मृत हो रहा। मानना पड़ेगा कि ऐसी सुसंगत उक्तियाँ कवि कर्मप्रवीण कवि के अलावा कोई और नहीं कर सकता, वह प्रवीणता शिक्षा से आयी हो, या स्वयं सिद्ध हो। एक साखी में कबीर ने गोविन्द अर्थात् ब्रह्म के प्रकाश का प्रचण्ड वर्णन किया है, जो बड़े-से-बड़े कवि को लज्जित कर सकता है। वह साखी है : चौसठि दीवा जोइ करि, चौदह चन्दा मांहि।/तिहि घरि किसको चांनिणौं, जिहि घरि गोब्यंद नांहि।।’ (तू भले चौंसठ दीपों का जोड़ा करे और चौदह चन्द्रों को अपने भीतर समाविष्ट करे, किन्तु उसके घर (घट) में किसकी चन्द्रिका होगी, जिसके घर (घट) में गोविन्द नहीं हैं ?) चौंसठ दीपों का मतलब है चौंसठ कलाएँ और चौदह चन्दा का मतलब है चौदह विद्याएँ। अपने एक पद में तो कबीर ने बड़े ठाठ से यौगिक क्रिया का रूपकात्मक वर्णन किया है, जो अपने निर्वाह के कारण ही नहीं, सौन्दर्य के कारण भी उद्धरणीय है। लिहाजा वह पूरा पद मैं नीचे दे रहा हूँ :
दूभर पनियाँ भरया न जाई।
अधिक त्रिषा हरि बिन न बूझाई।

ऊपरि नीर लेज तलिहारी। कैसैं नीर भरै पनिहारी।।
ऊधस्यौ कूप घाट भयौ भारी। चली निरास पंचपनिहारी।।
गुरु उपदेस भरीले नीरा। हरषि हरषि जल पीवै कबीरा।

( दूभर-जिसका भरना कठिन है, हरि-हरिरूपी जल, लेज-रज्जु, ऊधस्यौ-उध्वस्त हो गया, भारी-दुर्गम, पंच-पाँच, भरीले-भर लिया; कूप सहस्रार है, जल उसमें प्राप्त होने वाला अमृत, रज्जु पवन, जो कुण्डलिनी के रूप में मूलतः सहस्रार चक्र में रहता है और पाँचों पनिहारिनें पंच कर्मेन्द्रियाँ हैं।)

कबीर में जैसे एक योगी का तेज था, वैसे ही एक भक्त का समर्पण-भाव भी। उनकी यह साखी प्रसिद्ध है : कबीर कूता रांम का, मुतिया मेरा नांउं।/गले रांम की जेवड़ी, जित खैंचै तित जांउं।।’ भक्त ईश्वर गुणानुवाद में संलग्न होता है और महसूस करता है कि उनके गुणों का पार नहीं है। यही बात इस साखी में कही गयी है : ‘सात समन्द की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।/धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुंण लिख्या न जाइ।।’ जो कवि यह कह सकता है कि सातों समुद्र के जल को स्याही बनाऊँ, सम्पूर्ण वनराजि को लेखनी और पूरी धरती को कागज, तब भी ईश्वर के गुण लिखे नहीं जा सकते, उसकी कल्पना शक्ति की भव्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। यही महाकवियों का स्तर है, जिस पर कबीर अक्सरहा विचरण करते हैं। निम्नलिखित पद में उन्होंने ईश्वर के विराट् रूप का वर्णन किया है :

लोग कहैं गोबरधन धारी।
ताकौ मोहि अचम्भौ भारी।।

अष्टकुली परत जाके पग की रैंनां। सातों सायर अंजन नैंनां।।
ऐ उपमा हरि किती एक ओपै। अनेक मेर नख ऊपरी रोपै।।
धरनि अकास अधर जिनि राखी। ताकी मुगधा कहैं न साखी।।
सिव बिरंचि नारद जस गावै। कहै कबीर वाकौ पार न पावै।।

(तुम्हें लोग गोवर्धनधारी कहते हैं, इसका मुझे बड़ा अचम्भा है। अष्टकुलों के पर्वत (परत) जिसके पैरों की धूल (रैनां-रेणु) हैं, सातों सागर (सायर) जिसके नेत्रों के अंजन हैं, यह उपमा के लिए, ऐ हरि, कितना ओप देती है, जिसके नखों पर अनेक मेरु (मेर) आरोपित हैं ? धरती और आकाश को जिसने अधर में यानी निरवलम्ब रखा है, मूर्ख (मुग्ध) लोग उसका साक्ष्य नहीं कहते हैं। शिव, ब्रह्मा, नारद भी जो उसके गुणों का गान करते हैं, वे भी उसका पार नहीं पाते हैं, ऐसा कबीर कहता है।)
जहाँ तक प्रेम की बात है, कबीर उसमें अपने योगी और भक्तरूप से भी आगे हैं। एक रहस्यवादी प्रेमी की तन्मयता उन्हें एक असाधारण भावुक कवि के रूप में प्रतिष्ठित करती है। प्रेम में मिलन से भी ज्यादा महत्व विरह का है और यदि वह आध्यात्मिक प्रेम हुआ, तो उसमें तो प्रायःविरह का ही विधान है। देखिए, एक साखी में वे राम के प्रेम के विरह का वर्णन किन शब्दों में करते हैं। कहते हैं, जब विरह का भुजंग शरीर में निवास करने लगता है, तो उस पर कोई मंत्र काम नहीं करता। राम के वियोग में पड़ा हुआ व्यक्ति जीवित नहीं रहता और यदि रहता है, तो बावला हो जाता है। (‘बिरह भवंगम तनि बसै, मन्त्र न लागै कोइ।/राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ।।’) यह विरह उनके शरीर रूपी रबाब को, जिसकी ताँतें उनकी सारी नसें हैं, लगातार बजाता रहता है। कौन सुनता है उसके संगीत को ? या तो उनका स्वामी या उनका अपना चित्त : ‘सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त।/और न कोई सुणि सकै, कै सांई कै चित्त।।’ पाठकों को याद होगा, अज्ञेय के प्रसिद्ध उपन्यास ‘नदी के द्वीप’ में रेखा रवीन्द्रनाथ का यह गीत गाती है : ‘महाराज, ए कि साजे एले मम हृदय-पुर माझे/...सकल मम देह-मन वीणा सम बाजे।’ इस प्रेम से अधिक मारक कबीर का प्रेम है। कबीर के प्रेम में सरलता भी है, जैसे उनकी इस उक्ति में कि अबकी बार फिर यदि स्वामी मिलें, तो मैं अपने समस्त दुख का रो-रोकर उनसे आख्यान करूँ और उनके चरणों पर सिर रखकर मुझे जो कहना हो, वह सब कहूं : ‘अब कै जे सांई मिलै, तौ सब दुख आपौं रोई।/चरनूं ऊपरि सीस धरि, कहूं ज कहणा होइ।।’ अन्त में वह साखी भी उद्धरणीय है, जो हमें कबीर के असाधारण रूप में कोमल और संवेदनशील मन की सूचना देती है-

झिरमिरि झिरमिरि बरषिया, पांहन ऊपरि मेह।
माटी गलि सैंजल भई, पांहन वोही तेह।।

(पाषाण के ऊपर मेघ झिर-झिर बरसा, किन्तु वह पाषाण ही बना हुआ है और उसी प्रकार, जबकि उससे मिट्टी गलकर सजल (सैंजल) हो गयी।)
कबीर के काव्य की श्रेष्ठता इसी बात में है कि योग और ज्ञान की शुष्क बातों को छोड़ दें, तो वह पाठकों के मन को प्रकाश और आनन्द से भर देता है, यानी उसे अतिशय उद्दीप्त और संवेदनशील बना देता है। उस समय उसमें योग, भक्ति और प्रेम को लेकर कोई फर्क नहीं होता। प्रायः तो ये उनमें परस्पर मिले हुए भी होते हैं।

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