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आस्था के पार

वी. एस. नायपॉल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :500
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2002
आईएसबीएन :81-7315-430-9

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धर्मांतरित लोगों में इस्लामी परिवर्तन.....

Aastha Ke Par a hindi book by V. S. Naipaul - आस्था के पार -वी. एस. नायपॉल

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

इस्लाम ने इंडोनेशिया, ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया आदि देशों के इतिहासों के साथ क्या सुलूक किया है ? धर्मातरित लोग अपने अतीत और भविष्य को किस प्रकार देखते हैं ?...
इन देशों में अपनी यात्राओं के संबंध में लिखी गई पुस्तक ‘अमंग द बिलीवर्स’ के अगले भाग के रूप में श्री वी.एस.नायपॉल सत्रह वर्षों के अन्तराल के बाद फिर से उन देशों में लौटकर यह पता लगाते है कि धर्मातरित क्या उपदेश देते है। इंडोनेशिया में उन्हीं ऐसे ग्रामीण लोग मिले जो इस्लाम और प्रौद्योगिकी के समागम के द्वारा अपना इतिहास खो चुके थे। ईरान में उन्हें धार्मिक तानाशाही देखने को मिली, शाह के धर्मानिरपेक्ष शासन के समान ही दमनकारी थी। लेकिन नायपॉल बताते हैं कि पाकिस्तान से अधिक किसी भी देश में इतिहास को एक सांस्कृतिक रेगिस्तान में नहीं बदला गया। वे पूछते है कि व्यक्तिगत तानाशाही के बिना आप व्यक्तिगत आस्था को एक राष्ट्रीय सिद्धान्त में कैसे परिणत कर सकते हैं ?
वहाँ दो लोग विश्वों के बीच मानसिक, शारीरिक और भौगोलिक रूप से उलझे हुए हैं। लोक एक आध्यात्मिक शून्यता से जनमे वास्तविक धर्म के असंभव स्वप्न को जीवंत करने के लिए संघर्षरत हैं।
‘आस्था के पार’ धर्मांतरित लोगों में इस्लामी परिवर्तन से संबंधित रोमांचक और नई जानकारियाँ उद्घाटित करनेवाली पुस्तक है तथा एक कुशल पर्यवेक्षक, कहानियों के खोजकर्ता और उनके उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत करने वाले लेखक के रूप में श्री नायपॉल की प्रतिष्ठा को पुष्ट करती है।

प्रस्तावना

यह पुस्तक लोगों के बारे में है। यह किसी विचारधारा की पुस्तक नहीं है। इस पुस्तक में कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ सन् 1995 में चार गैर-अरब मुसलिम देशों—इंडोनेशिया, ईरान, पाकिस्तान और मलेशिया की पाँच माह की यात्रा के दौरान एकत्र की गईं। इसलिए इनमें एक संदर्भ और एक कथ्य है।
इस्लाम अपनी उत्पत्ति द्वारा एक अरबी धर्म है। कोई ऐसा व्यक्ति, जो अरब न होते हुए मुसलमान है, वह धर्मांतरित है। इस्लाम केवल विवेक का एक विषय या निजी आस्था नहीं है। उसकी माँगें साम्राज्यवादी हैं। एक धर्मांतरित का नजरिया विश्व के प्रति परिवर्तित हो जाता है। उसके पवित्र स्थान अरब भूमि पर हैं; उसकी पवित्र भाषा अरबी है। इतिहास के बारे में उसकी धारणा बदल जाती है। वह अपने आपको अस्वीकृत करता है। वह अरब कहानी का एक हिस्सा बन जाता है, चाहे वह उसे पसंद करे या नहीं। धर्मांतरित को अपनी सभी चीजों से मुँह फेरना पड़ता है। यह समाजों के लिए बड़ी अशांति का कारण होता है इन एक हजार वर्षों के बाद भी समस्या का समाधान नहीं मिला है। लोग इस बारे में कल्पनाएँ विकसित कर लेते हैं कि वे कौन और क्या हैं—और धर्मांतरित देशों के इस्लाम में मनोविक्षेप और शून्यवाद का एक तत्त्व है। इन देशों को बहुत जल्दी आवेश में लाया जा सकता है।
यह पुस्तक उस पुस्तक की अनुगामी है, जो मैंने सत्रह वर्ष पहले प्रकाशित की थी—‘अमंग द बिलीवर्स’, जो इन्हीं चार देशों की यात्रा के बारे में था। जब मैंने सन् 1979 में वह यात्रा आरंभ की थी तो मैं इस्लाम के बारे में कुछ भी नहीं जानता था—यह कोई साहसिक कार्य आरंभ करने का बेहतरीन तरीका था। वह पहली पुस्तक धर्म के विवरण और क्रांति की उसकी क्षमता का एक अन्वेषण थी। धर्मांतरण का विषय वहाँ हमेशा था; लेकिन मैं उसे इतनी स्पष्टता से नहीं देख पाया था जितना मैंने अपनी इस दूसरी यात्रा के दौरान देखा।
‘आस्था के पार’ पहले की पुस्तक की ही कड़ी है, यह यात्रा-वृत्तांत कम ही है; लेखक इसमें कम उपस्थित रहा है। वह लोगों के अन्वेषक, कहानियों के खोजकर्ता के रूप में अपनी अंतःप्रेरणा पर विश्वास करते हुए खुद पृष्ठ भूमि में है। ये कहानियाँ एक से दूसरे में खुलती हुई अपनी रचना स्वयं करती हैं और हर देश तथा उसकी प्रेरणाओं का विवरण देती हैं। पुस्तक के चारों भाग मिलकर संपूर्ण कहानी बनाते हैं।
मैंने अपना लेखन कैरियर एक काल्पनिक कथा-लेखक, वृत्तांत को व्यवस्थित करनेवाले लेखक के रूप में आरंभ किया। उस समय मुझे लगा कि वह सबसे बड़ी चीज है। लगभग चालीस वर्ष पहले, दक्षिण अमेरिका और कैरेबियन में कुछ औपनिवेशिक क्षेत्रों में यात्रा करके एक पुस्तक लिखने के लिए जब मुझसे कहा गया तो मैं यह यात्रा करने के लिए उत्साहित था। अजनबी स्थानों पर छोटे हवाई जहाजों द्वारा जाने तथा दक्षिण अमेरिकी नदियों के ऊपर से गुजरने की कल्पनाएँ कर-करके मैं आह्लादित था; लेकिन तब मैं इस बारे में निश्चित नहीं था कि पुस्तक को कैसे लिखा जाए; मैं जो कर रहा हूँ, उसे लेखन के रूप में कैसे प्रस्तुत किया जाए। तब मैंने आत्मकथा और प्राकृतिक दृश्यों से लेखन आरंभ किया। काफी वर्ष बाद मुझे पता चला कि लेखक के लिए यात्रा में सबसे महत्त्वपूर्ण वे लोग हैं, जिनके बीच वह स्वयं को पाता है।

इसलिए इन यात्रा-विवरणों या सांस्कृतिक अन्वेषणों में लेखक यात्री के रूप में पीछे हट जाता है, देश के लोग सामने आ जाते हैं, और मैं फिर से वही हो जाता हूँ, जो आरंभ में था—वृत्तांत का व्यवस्थापक। उन्नीसवीं शताब्दी में आविष्कृत कहानी से वह करने की उम्मीद की जाती थी, जो साहित्य के अन्य रूप—कविता, लेख—आसानी से नहीं कर पाते थे—एक बदलते समाज के बारे में जानकारी देना, मानसिक स्थिति का वर्णन करना। मुझे यह आश्चर्यजनक लगता है कि यात्रा-वृत्तांत, जो आरंभ में मेरी अपनी अंतःप्रेरणाओं से काफी दूर था, मुझे कहानी की तलाश में वापस वहाँ ले गया होगा; हालाँकि यदि वर्णन झूठे या बलपूर्वक ठूसे हुए होते तो यह पुस्तक की विशिष्टता को नष्ट कर चुका होता। इन कहानियों में पर्याप्त जटिलताएँ हैं। वे पुस्तक के बिंदु हैं। पाठक को उनमें निष्कर्षों की तलाश नहीं करनी चाहिए।
यह कहा जा सकता है कि पुस्तक के किसी भाग में विभिन्न लोग और विभिन्न कहानियाँ अलग प्रकार के देश का संकेत और आभास देते हैं। मुझे लगता है कि ऐसा नहीं है : रेलगाड़ी में कई डिब्बे और अलग-अलग श्रेणियाँ होती हैं, लेकिन वह रेलगाड़ी समान प्राकृतिक स्थानों से होकर गुजरती है। लोग समान राजनीतिक या धार्मिक या सांस्कृतिक दबावों के प्रति प्रतिक्रिया अभिव्यक्त कर रहे हैं। लेखक को केवल सावधानी और साफ दिल से सुनना है कि लोगों ने उससे क्या कहा—और फिर वह अगला प्रश्न करता है तथा फिर अगला।
धर्मांतरण के विषय को समझने का एक और तरीका है। इसे प्राचीन आस्थाओं, यथार्थवादी धर्मों शासकों के मतों और स्थानीय देवताओं से हटकर विशाल दार्शनिक, मानवीय एवं सामाजिक चिंताओंवाले उद्घाटित धर्मों—खासकर ईसाई और इस्लाम—की ओर जाने के रूप में देखा जा सकता है। हिंदू कहते हैं कि हिंदुत्व कम आक्रामक और अधिक आध्यात्मिक है। उनका यह कहना सही है; लेकिन गाँधी ने अपने सामाजिक विचार ईसाई धर्म से ग्रहण किए।
पारंपरिक विश्व से ईसाई धर्म की ओर झुकाव अब इतिहास बन चुका है। पुस्तकों को पढ़ते हुए उस बदलाव के लंबे विवादों और यंत्रणाओं में काल्पनिक रूप से प्रवेश करना आसान नहीं है; लेकिन इस पुस्तक में वर्णित कुछ संस्कृतियों में इस्लाम (और कभी-कभी ईसाई) की ओर झुकाव अब भी जारी है।

(1)
वह विलक्षण व्यक्ति


इमादुद्दीन बानडुंग इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का प्रवक्ता था। वह एक इस्लामी उपदेशक भी था। इसलिए ’60 और ’70 के दशक में वह एक असामान्य व्यक्ति था, एक विज्ञान का व्यक्ति, स्वतंत्र इंडोनेशिया के चंद ऐसे लोगों में से एक और साथ ही धर्म के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्ति। वह बानडुंग इंस्टीट्यूट के परिसर में स्थित सलमान मसजिद में छात्रों की भीड़ को आकर्षित कर सकता था।
अधिकारीगण उसके कारण चिंतित थे। और जब सन् 1979 के अंतिम दिन, तटीय जकार्ता से बानडुंग के अपेक्षाकृत ठंडे पठार पर, भीड़ और धुएँ से भरी सड़क से होते हुए मैं उससे मिलने गया, तब मैंने पाया कि वह एक तीव्र गति का व्यक्ति था। कुछ ही समय पहले उसने राजनीतिक कैदी के रूप में चौदह माह जेल में बिताए थे। बानडुंग इंस्टीट्यूट में उसका एक छोटा सा मकान था, लेकिन उसे वहाँ व्याख्यान देने की अनुमति नहीं दी गई थी। हालाँकि वह अब भी हठी था, क्योंकि वह मध्य वर्गीय युवाओं के छोटे समूहों को इस्लामी ‘मानसिक प्रशिक्षण’ देता था, वह अड़तालीस वर्ष की आयु में विदेश जाने के लिए तैयार था।
उसे कई वर्ष विदेश में व्यतीत करने थे; लेकिन फिर उसके भाग्य ने पलटा खाया और बानडुंग में उससे मिलने के लगभग पंद्रह वर्षों बाद इंडोनेशिया जाने पर मैंने पाया कि इमादुद्दीन एक धनी और प्रसिद्ध व्यक्ति बन चुका था वह रविवार की सुबह एक इस्लामी टेलीविजन कार्यक्रम चलाता था। उसके पास एक मर्सिडीज और ड्राइवर था, जकार्ता के एक अच्छे भाग में एक बढ़िया सा मकान था तथा वह कुछ और बेहतर करने की बात कर रहा था। विज्ञान और इस्लाम के मिश्रण, जिसने उसे ’70 सत्तर के दशक के अंत में अधिकारियों के शक के घेरे में ला दिया था, ने अब उसे वांछनीय और इंडोनेशियाई नई पीढ़ी का आदर्श बना दिया था तथा उसे काफी उँचाई पर और सत्ता के काफी नजदीक ला दिया था।
वह शोध और प्रौद्योगिकी मंत्री हबीबी का नजदीकी था। हबीबी सरकार में किसी भी अन्य की अपेक्षा राष्ट्रपति सुहार्तो के अधिक नजदीकी थे, जिन्होंने तीस वर्षों तक इंडोनेशिया पर शासन किया था और उन्हें सामान्यतः राष्ट्रपिता के रूप में प्रस्तुत किया जाता था।

हबीबी एयरोनॉटिकल (वैमानिकी) क्षेत्र के व्यक्ति थे। उनके प्रशंसकों के अनुसार, वह एक विलक्षण व्यक्ति थे। उनके पास एक भव्य आइडिया था। उनका कहना था कि इंडोनेशिया को उनके मार्गदर्शन में अपना हवाई जहाज बनाना चाहिए या किसी भी कीमत पर डिजाइन करना चाहिए। जैसा मैंने अखबारों में पढ़ा था, इस विचार के पीछे उद्देश्य यह था कि ऐसे उद्यम से केवल हवाई जहाज बनाने में मदद नहीं मिलेगी। यह कई हजार लोगों को एक उच्च और विविधतापूर्ण तकनीकी प्रशिक्षण भी उपलब्ध करा सकता था तथा इससे एक इंडोनेशियाई औद्योगिक क्रांति उत्पन्न हो सकती थी। ‘वॉल स्ट्रीट जर्नल’ के अनुसार, हबीबी के एयरोस्पेस संगठन के लिए उन्नीस वर्षों में लगभग डेढ़ बिलियन डॉलर दिए गए। एक स्पेनिश कंपनी के साथ मिलकर एक प्रकार का हवाई जहाज बनाया गया—सी एन-235, लेकिन यह व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हुआ। अब एक अधिक रोमांचक उड़ान शुरू होने वाली थी—एन-250, पचास सीटोंवाला एक टरबोप्रॉप, जिसे पूरी तरह हबीबी के संगठन द्वारा डिजाइन किया गया था।
इस विमान की उद्घाटन उड़ान 17 अगस्त को, इंडोनेशिया की स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ के अवसर पर, होनी थी, जिसके लिए कई सप्ताह पहले से ही जकार्ता और अन्य शहरों की सड़कें रंग-बिरंगी रोशनियों एवं झंडों व बैनरों से सजा दी गई थीं। उत्सव के इस माहौल में ‘जकार्ता पोस्ट’ ने ऐसे मानो कोई प्रवक्ता नए छात्रों की कक्षाएँ ले रहा हो, एक दिन अपने पाठकों को एन-250 के परीक्षणों के हर चरण की जानकारी दी—कम गति पर मैदानी चाल का परीक्षण, मध्यम गति पर डैनों, टेल और ब्रेक सिस्टम का परीक्षण और फिर पाँच या छह मिनटों के लिए उच्च गति पर यह सुनिश्चित करने के लिए एन-250 मैदान के ऊपर उड़ सकता है।
उद्घाटन उड़ान के चार दिन पहले एक जेनरेटर शैफ्ट मध्यम गति के परीक्षण के दौरान टूट गया। बहरहाल, एक स्थानापन्न मौजूद था और निर्धारित दिन को एन-250 दस हजार फीट की ऊँचाई पर एक घंटे तक उड़ा। ‘जकार्ता पोस्ट’ ने पहले पृष्ठ पर प्रशंसा करते हुए राष्ट्रपति सुहार्तो और हबीबी का मुसकराते और गले मिलते हुए फोटो छापा। मार्च 2004 तक मध्यम गति के एक जेट (एन-2130) के लिए योजनाएँ घोषित की गईं। इसमें दो बिलियन डॉलरों का व्यय होना था। चूँकि यह कार्यक्रम बहुत आगे का था, अतः हबीबी के बत्तीस वर्षीय पुत्र इलहाम को प्रभारी घोषित किया गया, जो बोइंग में प्रशिक्षण कोर्स कर चुका था।
तीन सप्ताह बाद स्वतंत्रता की पचासवीं वर्षगाँठ के समारोहों की चरम सीमा व फ्रांस निर्मित आतिशबाजी के प्रदर्शन के बाद, और राष्ट्रीय गौरव के वातावरण में, हबीबी ने प्रस्ताव रखा कि 10 अगस्त, जिस दिन एन-250 ने उड़ान भरी थी, को ‘राष्ट्रीय तकनीकी जागरुकता दिवस’ के रूप में मनाया जाए। उन्होंने बारहवें इस्लाम यूनिटी कॉन्फ्रेंस में यह प्रस्ताव रखा। चूँकि हबीबी का एक और पक्ष भी था कि वह एक समर्पित मुसलमान और धर्म के उत्साही प्रतिरक्षक थे। वह एक नई संस्था ‘एसोसिएशन ऑफ मुसलिम इंटलेक्चुअल्स’ के अध्यक्ष थे। जब उन्होंने इस्लाम यूनिटी कान्फ्रेंस में यह कहा कि विज्ञान व प्रौद्योगिकी में दक्षता के साथ-साथ अल्लाह में अत्यंत विश्वास होना आवश्यक है, तब यह स्वीकार कर लिया गया कि वह धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष दोनों अधिकारों से बोल रहे हैं।
यह पूरी तरह निश्चित नहीं था कि आयातित सामग्री से हवाई जहाज को डिजाइन करना और बनाना किस तरह एक तकनीकी या वैज्ञानिक सफलता का कारण बन सकता है। इसी प्रकार यह भी बिलकुल स्पष्ट नहीं था कि एन-250 की सफलता और एक व्यक्ति की प्रतिभा या रुचि के लिए खर्च किए गए सैकड़ों मिलियन डॉलरों से इस्लाम किस प्रकार गौरवान्वित हुआ है।

लेकिन यहीं पर एक वैज्ञानिक और धर्मानुयायी के रूप में इमादुद्दीन की आस्था हबीबी से मिलती थी, जहाँ दो लोगों के कैरियर मेल खाते थे और इमादुद्दीन को उसके नए संरक्षक ने राष्ट्रपति के अनुग्रह का पात्र बना दिया।
अपने निर्वासन से लौटने के कुछ समय बाद इमादुद्दीन ‘एसोसिएशन ऑफ मुसलिम इंटेलेक्चुअल्स’ में शामिल होनेवाले शुरुआती लोगों में एक था। और अब उसने एक नए रूप में हबीबी की मदद की। हबीबी या उनके मंत्रालय ने बहुत से विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए विदेश भेजा था। एक वैज्ञानिक और उपदेशक के रूप में यह इमादुद्दीन का कार्य था कि वह विदेशी विश्वविद्यालयों में इन छात्रों से नियमित रूप से मिलें और उन्हें उनकी अवस्था व वफादारी की याद दिलाते रहें। सन् 1979 में वह बानडुंग में जो इस्लामी मानसिक प्रशिक्षण कक्षाएँ चला रहा था, उन्हें सरकार ने इस कारण स्वीकृति नहीं दी थी कि यह किसी ऐसे आंदोलन की शुरुआत हो सकती है, जिसे वह नियंत्रण में नहीं कर पाएगी। अब एक असामान्य बदलाव में इमादुद्दीन के इन मानसिक प्रशिक्षण कक्षाओं या उनके जैसी कुछ संस्थाओं को सरकार द्वारा नए बुद्धिजीवियों या तकनीकी विशेषज्ञों का समर्थन प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था।
अपनी नई स्वतंत्रता और सुरक्षा, सत्ता से नई नजदीकी, जो इमादुद्दीन के लिए उसकी आस्था का एक प्रमाण था, के साथ उसने मुझे बताया कि पुराने बुरे दिनों में किस तरह एक रात पुलिस उसे ‘बानडुंग इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी’ के उसके छोटे घर से उठाकर ले गई और फिर उसे चौदह माह तक जेल में रहना पड़ा।
वह अब उस बात को अधिक तूल नहीं देना चाहता था; लेकिन उसने खुद ही मुसीबत अपने सिर बुलाई थी। उसने एक पारिवारिक मकबरे के लिए राष्ट्रपति सुहार्तो की किसी योजना के खिलाफ आवाज उठाई थी। मकबरे के कुछ भागों में स्वर्ण का इस्तेमाल होना था। इस बात ने इमादुद्दीन के इस्लामी नीतिवाद को चोट पहुँचाई और वह इसके खिलाफ बोल पड़ा।
वह अपने ऊपर संकट को महसूस कर रहा था, और जो आया भी। 23 मई 1978 को पौने बारह बजे किसी ने उसके छोटे से घर की घंटी बजाई। बाहर निकलने पर उसने इंटेलिजेंस के तीन लोगों को सादे कपड़ों में देखा। एक के हाथ में बंदूक थी। उस समय बहुत से लोग गिरफ्तार किए जा रहे थे।
उनमें से एक आदमी ने कहा, ‘हम जकार्ता से आए हैं और कुछ जानकारी प्राप्त करने के लिए आपको जकार्ता ले जाना चाहते हैं।’
‘किस प्रकार की जानकारी ?’
‘यह हम आपको नहीं बता सकते। आपको तुरत हमारे साथ चलना होगा।’
इमादुद्दीन ने कहा, ‘मुझे दो मिनट का समय दीजिए।’
उसने कुछ देर प्रार्थना की और स्नान किया। इस बीच उसकी पत्नी ने एक छोटा सा बैग तैयार कर दिया। वह उसमें ‘कुरान’ रखना नहीं भूली।

अचानक इमादुद्दीन को लगा कि वह इन लोगों के साथ नहीं जाना चाहता। उसने महसूस किया कि एक मुसलमान होने के नाते वह इन लोगों पर विश्वास नहीं कर सकता। उसका मानना था कि इंडोनेशिया में इंटेलीजेंस कैथोलिकों के कब्जे में है। उसने बानडुंग इंस्टीट्यूट के रेक्टर को फोन किया। रेक्टर ने इंटेलिजेंस के लोगों से बात करने की इच्छा जताई; लेकिन इंटेलिजेंस के लोग इस बात पर अड़े रहे कि इमादुद्दीन को उनके साथ जाना चाहिए। रेक्टर तुरत इमादुद्दीन के घर के लिए रवाना हो गया। लेकिन जब तक वह वहाँ पहुँचा, वे इमादुद्दीन को ले जा चुके थे।
इंटेलिजेंस कर्मी घंटी बजाने के पैंतालीस मिनट बाद साढ़े बारह बजे इमादुद्दीन को लेकर वहाँ से रवाना हो गए। इमादुद्दीन टैक्सी के पिछले हिस्से में दो लोगों के बीच बैठा, तीसरा व्यक्ति सामने बैठा था। वे सुबह साढ़े चार बजे जकार्ता में सेंट्रल इंटेलिजेंस ऑफिस पहुँचे। एक धर्मानुयायी के रूप में धैर्य के साथ इमादुद्दीन रास्ते में कुछ देर सो लिया था। जब वे लोग जकार्ता पहुँचे, सुबह की नमाज का समय हो चुका था। उन्होंने इमादुद्दीन को नमाज पढ़ने की इजाजत दे दी। फिर उन्होंने उसे एक प्रकार की प्रतीक्षा-कक्ष में इंतजार करने को कहा। वहीं उसे नाश्ता भी दिया गया।
आठ बजे इमादुद्दीन को एक कार्यालय में ले जाया गया। वहाँ एक वरदीधारी लेफ्टिनेंट कर्नल ने उससे पूछताछ की। असभ्यता से पेश आने या हिंसा का कोई संकेत या भय नहीं था। बानडुंग इंस्टीट्यूट में एक प्रवक्ता होने के नाते इमादुद्दीन को उच्च अधिकारी के रूप में गिना जाता था और तदनुसार उसके साथ नम्रता से पेश आना ही था।
लेफ्टिनेंट कर्नल के बाद सादे कपड़ों में एक व्यक्ति आया। उसने अपना नाम बताया। इमादुद्दीन को याद आया कि वह एक सरकारी वकील का नाम है।
उसने इमादुद्दीन से पूछा, ‘क्या आप मुसलमान हैं ?’
‘हाँ, मैं मुसलमान हूँ।’
‘क्या इसीलिए आप सोचते हैं कि यह एक इस्लामी राष्ट्र है ? क्या आप ऐसा सोचते हैं ?’
वह एक शिक्षित व्यक्ति था, एक वकील और संभवतः आयु में इमादुद्दीन से पाँच वर्ष छोटा। इमादुद्दीन ने कहा, ‘मैं नहीं जानता कि मुझे क्या कहना चाहिए। मैंने कभी कानून नहीं पढ़ा। मैं एक इंजीनियर हूँ, तुम एक वकील हो।’
वकील ने कहा, ‘सरकार ने मुसलमानों के लिए मसजिद व अन्य चीजें बनाने के लिए काफी धन खर्च किया है। उसने राष्ट्रीय मसजिद का भी निर्माण किया है। लेकिन अब भी ऐसे मुसलमान हैं, जो इस देश को मुसलिम राष्ट्र बनाना चाहते हैं। क्या आप उन मुसलमानों में से एक हैं ?’
‘आप बताएँ कि आप इस देश के बारे में क्या सोचते हैं ?’
‘यह एक धर्मनिरपेक्ष देश है, न कि धार्मिक राष्ट्र।’
इमादुद्दीन ने कहा, ‘आप गलत सोचते हैं, बिलकुल गलत।’
‘क्यों ? आपने कहा कि एक इंजीनियर होने के नाते आप कानून नहीं जानते।’

‘मैं कुछ चीजें जानता हूँ, क्योंकि मेरी पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में हुई है। अमेरिका को आप धर्मनिरपेक्ष राज्य कह सकते हैं; लेकिन आपने मुझसे कहा कि सरकार ने राष्ट्रीय मसजिद जैसी चीजें बनाने में काफी धन व्यय किया है। यह किस प्रकार की सरकार है ?’
वे दो घंटे तक बहस करते रहे, एक ही बात बार-बार दोहराते रहे। फिर इमादुद्दीन को मिलिटरी पुलिस के मुख्यालय में ले जाया गया। वहाँ उन्होंने उसकी फाइल निकाली और वहाँ से उस फाइल के साथ इमादुद्दीन को जेल भेजा गया।
यह जेल स्वतंत्र इंडोनेशिया के प्रथम राष्ट्रपति सुकर्णों ने अपने राजनीतिक शत्रुओं के लिए बनवाया था। इसमें इमादुद्दीन से पहले कई प्रसिद्ध लोग कैद रह चुके थे। वह दोहरी दीवार, कांटेदार तारों और अन्य जेल उपकरणों के साथ छह हेक्टेयर का अहाता था भवन कंक्रीट के थे।
इमादुद्दीन को छह वर्ग मीटर का एक बड़ा कमरा दिया गया, जिसके साथ एक विशेष मुसलिम बाथरूम भी था। जेल में ऐसे आठ कमरे थे। वे ऊँचे दरजे के लोगों के लिए थे और इमादुद्दीन को एक ऐसा ही व्यक्ति माना जाता था। इमादुद्दीन को पता था कि उसे वहाँ लंबा समय बिताना है, इसलिए अपने आत्मविश्वास और आस्था की जीवंतता के साथ तथा आश्चर्यजनक सरलता के साथ उसने उस स्थान की सफाई के लिए झाड़ू की माँग की। उसे लगा कि वह स्थान गंदा है एक धार्मिक व्यक्ति होने के कारण साफ-सफाई का उसका अपना मानदंड था। उसने बाथरूम की भी सफाई की। हर चीज के अलावा पाँच वक्त की नमाज से पहले धार्मिक स्नान के लिए बाथरूम बहुत महत्त्वपूर्ण था। वह जेल की दिनचर्या में व्यस्त हो गया। जेल के मध्य में एक छोटी सी मसजिद थी। शुक्रवार की नमाज के लिए वहाँ जाने पर उसकी मुलाकात जेल के सबसे प्रसिद्ध कैदी डॉ. सुबांद्रियो से हुई। वह सुकर्णो के राजनीतिक सहयोगी थे, एक बार उप-प्रधानमंत्री और एक बार विदेश मंत्री रह चुके थे। व्यवसाय से वे शल्य चिकित्सक (सर्जन) थे।
सुबांद्रियो जनरलों की हत्या करके देश का शासन अपने हाथों में लेने के एक अत्यंत गंभीर साम्यवादी षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में सन् 1965 से जेल में थे। उस षड्यंत्र की विफलता ने देश के राजनीतिक संतुलन को बदल डाला और सेना व युवा सुहार्तो को सत्ता में ला दिया। इसने इतने व्यापक खून-खराबे को जन्म दिया कि अंत में ‘इंडोनेशियाई कम्युनिस्ट पार्टी’, जो सन् 1965 में देश के बड़े राजनीतिक दलों में से एक थी, पूरी तरह नष्ट हो गई। सैकड़ों-हजारों लोग श्रम-शिविरों में भेजे गए और बाद में पूर्ण नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिए गए। सन् 1965 के षड्यंत्र की यादें फीकी नहीं पड़ने दी गईं और अप्रत्यक्ष कम्युनिस्ट खतरे के मद्देनजर राष्ट्रपति सुहार्तो के तहत सैन्य शासन के विचित्र पितृवत् व्यवहार को संस्थानीकृत कर दिया गया।

सुबांद्रियो को पहले मौत की सजा सुनाई गई थी, लेकिन उन्होंने इमादुद्दीन को बताया कि फाँसीवाले दिन महारानी एलिजाबेथ ने उनकी मौत की सजा माफ करने की अपील की, जिसके बाद सुहार्तो ने उनकी मौत की सजा को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया। सुबांद्रियो ग्रेट ब्रिटेन में पहले इंडोनेशियाई राजदूत रह चुके थे।
और उस जेल, जिसे सुकर्णो ने अलग प्रकार के राजनीतिक व्यक्तियों के लिए बनाया था, में सुबांद्रियो पिछले तेरह वर्षों से रह रहे थे; जबकि बाहर सबकुछ बदल चुका था, सुबांद्रियो और उनका दुस्साहस अतीत की बात हो चुकी थी तथा वह खुद अब वह व्यक्ति नहीं रहे थे, जो जेल में आने से पहले थे। कभी सत्ता के केंद्र में रहे सुबांद्रियो अब सामाजिक प्रेरणा के लिए जेल में आनेवाले नए कैदियों पर आश्रित थे।
सुबांद्रियो और इमादुद्दीन हर दिन मिलते थे। वे एक-दूसरे के कमरों में जाते थे। सुबह आठ बजे से पहले और दोपहर में जब पहरेदार अपने क्वार्टरों में चले जाते थे तो कैदियों को एक प्रकार की स्वतंत्रता मिलती थी। ये दोनों व्यक्ति एक समान नहीं थे। सुबांद्रियो लगभग पैंसठ वर्ष की आयु के थे, जबकि इमादुद्दीन सैंतालीस वर्ष का था। इमादुद्दीन ने सुबांद्रियो का विवरण देते समय उस बुजुर्ग व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य, छोटे कद, सर्जन के रूप में उनकी ट्रेनिंग और जावानी (जावा द्वीप का निवासी) पृष्ठ भूमि का जिक्र किया। पृष्ठ भूमि महत्त्वपूर्ण थी। जावा के निवासियों को उनकी भद्रता और कठिन बातों को कहने के विशेष तरीकोंवाले सामंती लोगों के रूप में जाना जाता है। इमादुद्दीन उत्तरी सुमात्रा का था, जहाँ के लोग मुँहफट होते थे और इस्लाम के मामले में जावानियों से अधिक नीतिवादी व आक्रामक माने जाते थे।
इमादुद्दीन को सन् 1965 से पूर्व की सुबांद्रियो की राजनीति से कोई सहानुभूति नहीं थी। उसने सन् 1979 में एक बार मुझसे कहा कि युवावस्था में समाजवादियों का व्यवहार उसके प्रति कितना भी उदार होता, वह समाजवादी नहीं हो सकता था, क्योंकि वह पहले ही एक मुसलमान था। मुझे लगता है कि उसके यह कहने का तात्पर्य यह था कि समाजवाद में जो कुछ भी मानवीय और आकर्षक है, वह इस्लाम में भी है और उसके लिए धर्मनिरपेक्ष होकर अपनी आस्था को खतरे में डालने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

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