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दिशाएँ बदल गई

नरेश भारतीय

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1945
आईएसबीएन :81-7028-649-2

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प्रवासी भारतीयों के जीवन पर आधारित मौलिक उपन्यास....

Dishyen Badal Gai Naresh Bhartiya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सुपरिचित प्रवासी लेखक नरेश भारतीय के नवीनतम उपन्यास ‘दिशाएँ बदल गई’ की कथा-भूमि विदेशों में बसे भारतीयों पर आधारित है। यह एक ऐसे प्रवासी भारतीय परिवार की कहानी है, जिसकी पहली पीढ़ी ज़माने के पहले सुख की खोज में देश छोड़ कर विदेश-गमन कर गई थी और जिसकी पहली पीढ़ी जमाने के पहले सुख की खोज में देश छोड़ कर विदेश-गमन कर गई थी और जिसकी अगली दो पीढ़ियाँ विदेश में ही जन्मीं और पली-बढ़ी। यहाँ लेखक ने स्वदेश की अवधारणा को लेकर तीनों पीढ़ियों के सोच में आये अंतर को बहुत मार्मिक रूप से उभारा और विश्लेषित किया है। उपन्यास आदि से अंत तक विचारोत्तेजक अनुभवों से भरपूर है और अपने कला-कौशल से पाठकों को बांध रखता है। प्रवासी भारतीयों के जीवन और मनोलोक पर विगत 60-70 वर्षों के दौरान काफी कुछ लिखा जाता रहा है। अब तो ‘डायस्पोरा’ शब्द ही उसके लिए अंग्रेजी में गढ़ लिया गया है और समाकालीन विमर्श में उसकी ख़ासी चर्चा है।

भूमिका


चालीस वर्षों से विदेशवास में अपने आस-पास बहुत कुछ होते देखा है। स्वदेश और विदेश के बीच की दूरी को बहुत बार नापा है। निरन्तर हो रहे परिवर्तन के प्रकार और गाति को आँका है। दोनों किनारों से उस समुद्र की गहराइयों को जाँचने का प्रयास किया है जो अब बहुधा तूफान मचाता है। पूर्वापेक्षा परिवर्तन की गति बहुत तेज़ हो गई है।
नित्य नए जीवन सत्यों को उभरते देखता हूँ। प्रवासी जीवन के भी कुछ ऐसे सत्य हैं जो आवरण हटाते ही सब दूरियों को पाटते, देश-देशान्तर को समेटते ऐसे स्पष्ट होने लगते हैं कि हर किसी को लगने लगता है कि मेरे ही जीवन के अनुभूत सत्य हैं। कोई भी उनसे अछूता नहीं।

सुख की खोज में देश को छोड़ विदेश गमन कर गए भारतीयों को पहली पीढ़ी उस ललक को कभी भी त्याग न पाई कि उसे लौट जाना है भारत। दूसरी पीढ़ी ऊहापोह ग्रस्त हुई। रास्ता भटक गई या परिवेश की चुनौतियों के साथ ऐसे जूझी कि अपने मूल की पहचान से घबराने लगी। तीसरी पीढ़ी उस जीवन सत्य के साथ साक्षात्कार करके इस निष्कर्ष पर पहुँची कि वह अपना मूल उस भूमि को ही मानेगी जहाँ वह जन्मी-पली है। पहली पीढ़ी द्वारा खींची गई उन लक्ष्मणरेखाओं को लाँघने की प्रक्रिया जारी है जो उस पीढ़ी ने अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं के अनुरूप खींची थीं।
‘दिशाएँ बदल गईं’ एक ऐसे ही प्रवासी भारतीय परिवार की कहानी है। बदलते समय की भाव-मुद्राएँ संक्रमण काल के अन्त और परिवर्तन के एक तेज़ दौर के पूरा होने का आभास भले दे रही होंगी लेकिन भविष्य की दिशा निर्धारित करने का संकेत नहीं देतीं।

कुछ रहस्यों पर से पर्दा हटता है तो कुछ नए रहस्य उनका स्थान ले लेते हैं। मेरे इस उपन्यास का एक अहम पात्र परमवीर कैसे रहस्यों को अपने हृदय में छुपाए दिशाहीनता की स्थिति में है। उसे चौराहे पर पहुँचने में अभी कुछ और समय लगेगा। तब देखना होगा कि वह कौन-सी दिशा लेता है, दिशाओं के बीच अन्तर कितना और बढ़ता है। कहाँ एकदम कम होकर एक बन सकेगी राह क्योंकि निर्दिष्ट तो एक ही है न।
जीना, बस जीना ही और हर किसी का जीवन जब अपना अपना ही हो।
बस और क्या कहूँ ? उपन्यास के पात्र स्वयं सबकुछ कहने को तत्पर हैं। मुझे विश्वास है मेरी पूर्व रचनाओं की तरह यह भी आप पसन्द करेंगे।
125, वेलबैक स्ट्रीट
हैरो, इंग्लैंड

-नरेश भारतीय

एक


कार की पिछली सीट पर बाबा की गोद में बैठे उसने अचानक फूट-फूट कर रोना शुरू कर दिया। बाबा ने अपनी बाँहों में भींच लिया और तुरन्त पूछा, ‘‘क्या हुआ परमवीर ? क्यों रो रहे हो बेटा ?’’
मात्र नौ महीने का बच्चा क्या उत्तर देता। बोलना अभी सीखा नहीं था। अपनी पीड़ा को रोकर स्वर देना और ज़रा-सा सहला दिया तो प्यार के साथ मीठी-सी मुस्कराहट अपने नन्हें से चेहरे पर बिखेर देना। यही वह कर सकता था। कह कुछ नहीं सकता था।

कैसी थी उसकी यह लाचारगी ? उस दिन का रोना शायद वह तो कब का भूल चुका होगा पर उसका बचपन शुरू होने से पहले ही उसकी माँ और बाप के बीच टूटते बिखरते रिश्ते की उलझन उसके दादा और दादी को खल रही थी। वे कभी नहीं भूले परमवीर का उस दिन इस तरह बिलख-बिलख कर रोना।

वे जानते थे उनके बेटे संजीव और जसविन्दर के बीच सम्बन्ध पनप नहीं रहा जिसका नतीजा था कि परमवीर का जन्म। वे बखूबी समझ चुके थे कि निभने वाला नहीं है यह सम्बन्ध। इसलिए, क्योंकि वह उस सूत्र में बँधा नहीं था, जिसे पुरुष और स्त्री के बीच यौन सम्बन्धों को सामाजिक मान्यता देते हुए विवाह का नाम देते आते हैं सदियों से पनपी परम्पराओं के अनुपालक।

परमवीर जब इस तरह रोया था तो कार संजीव चला रहा था और उसकी गर्लफ्रैंड, जसविन्दर, जिसे वह जस्सी कहकर पुकारता था, अगली सीट पर उसके पास बैठी थी। पीछे की सीट पर थे उनके नन्हें बेटे परमवीर के साथ संजीव के पिता राजेश और मां रूपिन्दर। पचपन की उम्र पार कर चुके थे और बुढ़ापे का द्वार खटखटा रहा थे या फिर बढ़ती उम्र उन्हें जतला रही थी कि उनकी संतान के जीवन में टिक-टिकाव का समय, सीमाएँ पार करता जा रहा है। भटकते रहे यदि वे इधर से उधर और अपने जीवन को नित्य नए खेल का अखाड़ा बनाते रहे तो न वे स्वयं सुख पाएँगे और न ही माँ-बाप को बुढ़ापे में सुख की साँस लेने देंगे।
उस नन्ही जान का तड़पना उनके लिए विस्मय नहीं था। एक भय था जो उनके मन में तभी से समाया था जब संजीव ने रहस्योद्घाटन किया था कि जस्सी पेट से है।

‘‘देखो बेटा, तुम शादी कर लो। फिर पति-पत्नी के रूप में बच्चे को जन्म दो। शादी के बिना बच्चे का जन्म लेना ठीक नहीं है।’’
‘‘क्यों उचित नहीं है ? आजकल ये सब होता है डैड।’’ संजीव ने उत्तर दिया था।
अच्छे परिवारों के लड़कों को यह शोभा नहीं देता। तुम जानते हो हमारी भी समाज में प्रतिष्ठा है। क्या कहेंगे लोग ?’’
‘‘कौन से लोग ? मुझे कोई परवाह नहीं, कौन क्या कहेगा। मुझे जो सही लगता है वही मैं करूँगा।’’
‘‘तो तुम्हें यह सही लगता है कि बिन ब्याहे बच्चा होने दो। तुमने हमेशा अपनी मर्जी की है। तुमने पहली बार जब जस्सी से मेरा परिचय कराया था तो मैंने सहर्ष उसके साथ बात-चीत की थी। तुम्हारी पसन्द को स्वीकार कर लिया था। कोई आपत्ति नहीं की थी। मुझे संतोष हुआ था यह जानकर कि लड़की भारतीय है, पंजाबी है। न भी होती पंजाबी तो भी चिन्ता नहीं थी, क्योंकि भारतीय होना ही बहुत था हमारे लिए।’’
‘‘और यदि भारतीय न होकर कोई यूरोपीय होती तो आपको आपत्ति होती ?’’

‘‘ऐसा कुछ नहीं है। इस पर भी यह स्वाभाविक है और व्यावहारिक भी कि भारतीय होने के नाते यह उम्मीद की जाए कि तुम किसी भारतीय लड़की के साथ पलने-बढ़ने का अवसर मिलता है और संस्कारों का तार जुड़ा रहता है। विवाद उभरने की सम्भावना बलवती नहीं होती।’’
‘‘ये सब पुराने ज़माने की बातें हैं डैड। कौन मानता है संस्कारों और परंपराओं को। यह भारत नहीं है, इंग्लैंड है। हम यहाँ जन्मे-पले हैं और जैसा यहाँ होता है हम वैसा ही करने को बाध्य हैं।’’
‘‘हाँ, इस देश में रहते हुए यहाँ के नियमों का पालन करना नितान्त आवश्यक है। कानून का सम्मान करते हुए जीवन जीना एक अच्छे नागरिक का कर्तव्य है। लेकिन निजी जीवन के किए जाने वाले फैसले जो परिवार और अपने समाज के आचार-व्यवहार के अनुरूप होते हैं उन्हें करते समय ये कानून आड़े नहीं आते। अपने धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के अनुसार जीने की सभी को स्वतन्त्रता है।’’

‘‘विवाह करना या न करना हर व्यक्ति का अपना मसला है। यह भी उसी को तय करना चाहिए कि वह अपना जीवन साथी किसे चुनता है।’’
‘‘तुमने यदि जस्सी को अपना जीवन साथी बनाने का फैसला कर लिया है तो हमें तो कोई आपत्ति नहीं है। तुम्हारी माँ और मैं यही चाहतें हैं कि अब तुम बस टिक जाओ। यदि उसके साथ शादी कर लो। वह गर्भवती है। अभी बहुत समय नहीं हुआ है। यदि शादी कर लोगे तो उसकी माँ, बहन और भाई को हम सभी को अच्छा लगेगा।’’
‘‘उसकी माँ भी यही कहती है। उसका कहना तो यह है कि यदि शादी नहीं करनी है तो बच्चा गिरा दो।’’ संजीव ने बताया।
‘‘क्या तुम्हारे साथ बात की है जस्सी की माँ ने ?’’
‘‘नहीं। मेरे साथ कोई बात नहीं हुई है इस विषय पर।’
‘तो क्या जस्सी अपने साथ मिली है और उसे अपने गर्भवती होने की बात बताई है ?’’

‘‘नहीं। जस्सी ने अपनी बहन बलविन्दर को इस बारे में बताया था। उसने आगे अपनी माँ को बता दिया था।
राजेश के सामने अब स्थिति स्पष्ट होने लगी थी। वह सोचने लगा कि कितना अच्छा होता यदि दोनों परिवारों के बीच किसी चरण पर आपस में कोई सम्बन्ध पनपा होता। माना कि संजीव और जस्सी दोनों ने मनमानी की थी। किसी ने भी अपने माँ-बाप की कभी नहीं सुनी थी और इश्क होते ही शारीरिक सम्बन्ध कायम कर लिए थे। इतना आगे बढ़ गए थे कि जस्सी गर्भवती हो गई थी। जस्सी अपनी माँ और भाई का घर छोड़ कर चली आई थी संजीव के साथ। संजीव उस समय एक पब का मैनेजर था और उसके पास आवास की व्यवस्था थी। जस्सी को शायद यह लगा था कि भविष्य बुरा नहीं है। वैसे भी संजीव पहली ही भेंट में दूसरों का विश्वास जीतने में माहिर था। जस्सी भी संजीव की तरह उस आजादी की लहर में गोते ले रही थी जिसमें ब्रिटेन के अधिकांश युवा बह रहे थे।

दोनों एक पब में मिले थे और गिलास टकरा कर शराब की चुस्की के साथ दोस्ती के एक ऐसे रिश्ते में बँध गए थे, जो उनका यौवन का द्वार खटखटाते पहले भी कई बार बने और बिगड़े थे। किस लड़की के कितने ब्याव फ्रैंड रहे हैं और लड़के की कितनी गर्लफ्रैंड यह पूछने का भी साहस नहीं करता, क्योंकि नवयुग की नई परम्पराओं के विकास के पाते उसे अशिष्टता घोषित किया जा चुका है। जो शरीर जिसका है वह उसे किस के हवाले करे उसका यह निजी अधिकार है और नई परिभाषाओं के अनुसार सम्भवतः मानवाधिकारों की परिधि में आता है।

नन्हें परमवीर का उस दिन अचानक फफक-फफकर रो देना और बाबा के प्रश्नों का उत्तर न दे सकना, संजीव के पिता राजेश और माँ रुपिन्दर के दिलों को दहला देने वाला था। पर वे भी परमवीर की तरह ही बेबस थे। कुछ भी कर सकने में असमर्थ। जानते थे कि परमवीर की ही तरह बेबस थे। कुछ भी कर सकने में असमर्थ। जानते थे कि परमवीर का भविष्य सुखद नहीं होगा। यह भी जानते थे कि संजीव उनकी कुछ भी नहीं सुनेगा। उसने हमेशा वही किया जो उसने चाहा। जस्सी अपने बेटे का रोना सुनकर भी चुप बैठी रही थी। बहुत देर हो चुकी थी। कार गति के साथ दौड़ रही थी।

समय ने अपनी तेज़ दौड़ जारी रखी। किसी की प्रतीक्षा नहीं की उसने। संजीव और जस्सी के बीच सिर्फ ढाई साल पहले अंकुरित हुए प्रेम का पौधा मुरझा गया था। दोनों अब अपनी-अपनी राह पर थे। साथ-साथ चल नहीं पाते थे। उनके अचानक उभरे ‘लव’ का प्रतीक नन्हा परमवीर जिधर भी खिंचा जा रहा था, बस खिंच रहा था। कुछ भी स्वयं कर करने में असमर्थ। मन जब न संभलता तो इधर-उधर भटकता। तोड़-फोड़ करने लगता। उठा-पटक में छुपी उसका व्यथा को कोई भी तो समझ नहीं पा रहा था। उसका पिता संजीव और माँ जस्सी दोनों को मात्र अपने सुख की चिन्ता थी। अपनी पीड़ाओं की चुभन थी।

राजेश और रूप रिटायर होकर ये स्वप्न ही देखते रह गए कि उनके दोनों जवान बेटे खुद को संभालेंगे। अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करेंगे। खुद सुख से जिएँगे और उन्हें भी जीने देंगे। उन्हीं की तरह संघर्षों से जूझने की संकल्पशक्ति का परिचय देंगे। सूझ-बूझ दिखाएँगे और सफल जीवन देखेंगे। प्रायः दोनों अतीत की चर्चा करते और उस दिन गहरी सोच में थे कि फोन की घंटी बजी। राजेश ने फोन उठाया।
‘‘डैड ! मैं और जस्सी आपके साथ जरूरी बातचीत करना चाहते हैं।’
‘‘क्या बात है ? सब ठीक तो है न ?’’
‘‘नहीं, सब ठीक नहीं है डैड। लेकिन मैं चाहता हूँ आप जस्सी को समझाएँ।’’
‘‘मैं जस्सी को समझाऊँ ? क्या समझाऊँ ?’’

‘‘डैड ! हमारा सम्बन्ध टूटने के कगार पर है। उसका व्यवहार सही नहीं है। पहले तो वह आपके पास आना ही नहीं चाहती थी। अब जैसे-तैसे मान गई है बात करने के लिए।’’
राजेश ने सुना तो क्षण भर थमकर सोचा, ‘‘आज तक संजीव ने मेरी एक न सुनी। अपनी मनमानी की। माँ की भी अवमानना की। अब हमारे उलझने से क्या फायदा होगा।’’
रूप जो पास ही खड़ी सुन रही थी उसने कहा, ‘‘स्वयं कह रहा है। सहायता चाहता है। आने दो।’’
‘‘हैलो डैड ! फिर पुकारा संजीव ने फोन पर।
‘‘हाँ, बोलो !’’
‘‘प्लीज़ डैड !’’ मैं जानता हूँ आप मुझसे नाराज हैं पर !’’

‘‘ठीक है आ जाओ। पर एक शर्त है जो तुम्हें पूरी करनी होगी। तुम्हें मेरी बात सबके सामने सुननी होगी। जिस तरह से मैं मामले को सुलझाने की कोशिश करूँगा तुम्हें स्वीकार करना होगा।’’
‘‘ठीक है डैड । मैं आपकी बात मानूँगा।’’
समय तय करने के बाद राजेश ने फोन रख दिया। इसके बाद संजीव की माँ रूप ने जब राजेश के माथे पर उभरती चिन्ता की रेखाएँ देखीं तो पूछा—‘‘हुआ क्या है ? सब ठीक तो है न ?’’
‘‘ठीक क्या होगा। जैसी आशंका थी संजीव और जस्सी के बीच सम्बन्ध टूटने की स्थिति में है। मुझे नहीं लगता हम इसे संभालने में कुछ कर पाएँगे। परेशानी इस बात की है कि नन्हें परमवीर का क्या होगा।’’
‘‘अब दोनों के बीच क्या हुआ ? क्या बताया है उसने ?’’

‘‘आने के लिए कह दिया है। अब देखते हैं कि क्या कहते हैं दोनों।’’
रूप भी चिन्तित हो गई। दोनों गंभीर हो गए। उस आँधी की प्रतीक्षा करने लगे जिसके आने से पूर्व संकेत संजीव और जस्सी के बीच उभरते विवादों में मिलते रहते थे। जस्सी और संजीव दोनों के साथ रूप की फोन पर बातचीत प्रायः होती रहती थी। हर छोटी-बड़ी घटना की उसे जानकारी रहती थी।

ऐसे ही तूफानों से लड़ते चले आ रहे थे राजेश और रूप पिछले कुछ वर्षों से। संजीव और हरीश दोनों ही घर से अलग होकर स्वतन्त्र जीवन जी रहे थे। कालेज पहुँचते ही पढ़ाई की बजाय उनका ध्यान मौज-मस्ती पर अधिक केन्द्रित हुआ था। राजेश और रूप इस नए स्थिति विकास में उन दिनों जो कुछ हुआ था उसकी चर्चा में फिर उलझ गए। अतीत उन्हें बार-बार संत्रस्त करता था। दोनों से ही लम्बी वार्ताएँ होती थीं। पढ़-लिख कर सभ्य बनने और सुखी जीवन जीने की सीख जब भी लड़कों को देते तो उनका उत्तर होता था—‘‘हमारी उम्र के सभी लड़के-लड़कियाँ बाहर घूमते हैं और मौज-मस्ती करते हैं। हमें क्यों रोका जाता है। हम भी एन्जौय करना चाहते हैं।’’

परिवार के नियन्त्रण से बाहर हो गए थे एक के बाद एक दोनों ही और अन्ततः उसका परिणाम भी सामने आने लगा था। खुद फैसले करने की आदत पड़ गई थी संजीव को। जीवन में टिक-टिकाव का संघर्ष चलते भूल पर भूल। जब न संभलती स्थितियाँ तो अपने माँ-बाप का ध्यान आता था।
राजेश यदि बरगद का एक पेड़ था तो रूप उसकी छाया। कड़ी धूप जब नहीं सही जाती थी तो अब संजीव और हरीश कभी-कभार उस छाया में आकर राहत महसूस करते। बरगद का पेड़ जैसे चुप-चाप खड़ा रहता है और हर पथिक को बिना किसी शर्त के छाया देता है, ठीक वैसे ही होती अपेक्षा राजेश और रूप से।

दो

...वक्त कुलाँचे भरता निकलता चला गया। बहुत कुछ होता चला गया था। और अब संजीव और जस्सी नन्हें परमवीर के साथ अपने जीवन की उलझती गुत्थी को सुलझाने की उम्मीद में राजेश के पास आ पहुँचे थे। चिन्तित मन से राजेश और रूप ने उनकी ओर देखा। परमवीर को गोद में उठाकर पूछा रूप ने—‘‘कैसा है परम बेटा ?’’ यही कहकर पुकारते थे दादा-दादी उसे।
...और परमवीर ने एक सहमी-सी मुस्कराहट देकर अपना सिर दादी के कन्धे से सटा दिया। कमरे में चुप्पी छाई थी। कहाँ से बात शुरू हो और कौन शुरू करे ? एक अजीब सी ऊहापोह थी। संजीव और जस्सी दोनों के चेहरों पर तनाव था। राजेश प्रतीक्षा में था कि पहले संजीव या जस्सी कोई तो खुलासा करे कि क्या समस्या है ?

राजेश ने संजीव की तरफ प्रश्नभरी निगाह से देखा तो संजीव ने बात शुरू की, ‘‘डैड अब हम एक साथ नहीं रह सकते।’’
‘‘क्यों ? ऐसा क्या हो गया कि तुम इस नतीजे पर पहुँचे हो ?’’ पूछा राजेश ने।
‘‘जस्सी के तौर-तरीके ठीक नहीं हैं।’’ संजीव ने कहा।
‘‘भाई स्पष्ट पता तो चले कि समस्या क्या है तभी तो विचार किया जा सकता है।’’
कुछ क्षणों के लिए चुप्पी सध गई। इस बीच राजेश ने जस्सी की तरफ देखा जो आँखें झुकाए नीचे की तरफ देख रही थी। लेकिन चेहरा संजीव के आरोपों से तमतमाया हुआ था।

‘‘स्थिति काफी गंभीर लगती है। संजीव और जस्सी तुम दोनों से एक बात मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ इससे पहले कि मैं तुम्हारे मामले में कोई दखल दूँ। और वह यह है कि जब तुम दोनों मिले थे और उसके बाद बिना विवाह किए एक साथ रहने लगे, तो हमारे परामर्श की तुमने परवाह नहीं की थी। जस्सी तुम गर्भवती हुईं तो मैंने बार-बार यह समझाने की चेष्टा की थी कि शीघ्र विवाह कर लो क्योंकि न सिर्फ हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार यह जरूरी था, बल्कि बच्चे के भविष्य को देखते हुए भी महत्त्वपूर्ण था। तुममें से किसी ने भी कोई परवाह नहीं की थी।’’

संजीव ने इस पर बीच में ही टोकते हुए कहा, ‘‘लेकिन डैड यह संभव नहीं था, क्योंकि जस्सी का किसी और के साथ विवाह तय हो चुका था और रजिस्टर तय हो चुका था। आप ये सब जानते ही हैं।’’
‘‘हाँ, यह जानता हूँ इसीलिए सावधानी से तुम्हारी इस समस्या में और अधिक उलझने से पहले तुम दोनों से यह आश्वासन चाहता हूँ कि मैं जिस भी ढंग से तुम दोनों की बात सुलझाना चाहूँगा तुम उसमें कोई व्यवधान नहीं करोगे।’’
राजेश की स्मृति पटल पर अंकित ढाई साल पहले की घटनाएँ यथावत उभर आईं।
‘‘...उस दिन राजेश को उसके बेटे संजीव ने पब में ही कोने की एक टेबल के पास आराम से बिठा दिया था और स्वयं अपने काम में यथावत व्यस्त रहा। कुछ देर बाद ज़रा अवकाश मिलने पर आया और पूछा—
‘‘डैड क्या मैं आपको अपनी गर्लफ्रैंड से मिलवा सकता हूँ ?’’

‘‘क्यों नहीं। जरूर मिलवाओ।’’ मुस्कराते हुए जवाब दिया था राजेश ने।
एक ही पल में संजीव और टेबल पर बैठी एक पंजाबी लड़की के पास पहुँचा और उससे गले लगकर प्यार करते हुए कुछ समझाया। दोनों राजेश के पास पहुँचे। लड़की ने एक हाथ उठाकर हैलो’ कहा। संजीव ने राजेश से परिचय कराया था।
‘‘डैड ! मेरी गर्लफ्रैंड ‘जस्सी’।’’
‘‘हैलो। कैसी हैं आप ?’’ राजेश ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
‘‘मैं ठीक हूँ, आप कैसे हैं ?’’

इस बीच संजीव ने कहा—‘‘अच्छा डैड आप दोनों बातचीत करो। मैं बाद में मिलता हूँ।’’ उसके जाते ही कुछ क्षण को चुप्पी रही लेकिन जस्सी ने ही बात करते हुए पूछा, ‘‘अकेले ही आए हैं ?’’
‘‘हाँ। काम से इस तरफ आया हुआ था। सोचा संजीव से मिलता चलूँ। देख रहा हूँ काफी व्यस्त है संजीव।’’
‘‘हाँ, आज शुक्रवार है और फिर शाम का वक्त है। पब में काफी भीड़ होती है।’’
‘‘तो तुम प्रायः आती रहती हो ?’’ पूछा राजेश ने।
‘‘जी, शुक्रवार को रौनक होती है। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ आती रहती हूँ।’
‘‘संजीव के साथ यहीं भेंट हुई थी पहली बार ?’’

‘‘नहीं, पहली बार तो एक क्लब में मिले थे।’’ मुस्कराते हुए जवाब दिया जस्सी ने।’’
‘‘अच्छा ! इसी इलाके में ?’’
‘‘हाँ, यहाँ से बहुत दूर नहीं है वह जगह।’’
‘‘रहती कहाँ हो ?’’
‘‘यहाँ से लगभग 20 मील दूर कैंट के एक इलाके में। मेरा घर वहीं है, पर इधर काम करने आती हूँ, इसलिए आजकल इधर ही रह रही हूँ कमरा लेकर।’’
‘‘सप्ताहांत में घर चली जाती होगी। घर में कौन-कौन है ?’’
‘‘माँ है और एक छोटा भाई बस। पिताजी का देहान्त हो गया है। बहनों में से एक की शादी हो चुकी है और दूसरी मेरी तरह से ही बाहर रहती है और काम करती है।’’


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