कविता संग्रह >> लौट आने का समय लौट आने का समयसीताकान्त महापात्र
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सीताकान्त जी की मनोहारी कविताओं का संग्रह। उड़िया से हिन्दी में रूपान्तर।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘लौट आने का समय’ कितना सरल और अनलंकृत शीर्षक है, फिर भी
अत्यन्त सारगर्भित और सच्ची कविताई से समलंकृत। प्रथम कविता
‘पदाधिकारी’ में कवि का ‘वह आदमी’ सारी
स्मृतियाँ, क्षोभ और अनुरक्ति समस्त पराजय विस्मृति और क्षति बिना दुविधा
पछतावा और तर्क के स्वीकार कर लेता है और सिर झुकाये सह जाता है सारे
निर्णय। इस काव्य संकलन का यह उपक्रम अनिवर्ती आशावादिता का अनाहत
आर्द्रनाद सुना देता है तो अन्तिम कविता ‘बाँसुरी’ लहरें रचती
हैं और मोड़ लेती है अपना मुँह आकाश की ओर। अपने समानधर्मा भावुक के अभाव
में यह निर्विराम बाँसुरी सुनसान घाट के किनारे न जाने कब से डूबी सूनी
नाव से मित्रता करने के लिए बाध्य होती है। यही बाध्यता समय, समुद्र, शब्द
और आकाश के अनुवर्ती कवि को अनिवर्ती बना देती है।
इतना सुन्दर, सरस और सार्थक काव्य संकलन भारतीय ज्ञानपीठ की राष्ट्भारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो रहा है, यह वाग्यदेवी के शिव संकल्प का ही सुखद परिणाम है।
इतना सुन्दर, सरस और सार्थक काव्य संकलन भारतीय ज्ञानपीठ की राष्ट्भारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो रहा है, यह वाग्यदेवी के शिव संकल्प का ही सुखद परिणाम है।
अनिवर्ती
कविता, सविता और सरिता में जो लीन हो जाते हैं, वे लौट नहीं आते और इसी
में संसार का योग और क्षेम है। पर जब लौट आने का समय आता है तब घर से
निकला प्राणी घर अवश्य लौट आता है, लेकिन उसी घर में लौट आए जहाँ से वह
सवेरे निकला, इसका कोई भरोसा नहीं है। लौट आने का वह समय ऐसा होता है जब
निवर्तमान व्यक्ति को न वर्तमान का बोध बोता है और न निवृत्ति की
अनिवार्यता का। ऐसी ही भाव भूमिका पर पहुँचकर अनिवर्ती सीताकान्त जी
निवृत्ति काव्यात्मा कहती है :
लौट आने की राह पर
पैरों के निशान बने होते हैं
न जाने किस-किस के
जो लौट गये हैं कहीं और
नहीं लौटे हैं घर
इंन्तज़ार करते-करते बीवी-बच्चे उनके
ऊँघ रहे हैं नींद में।
पैरों के निशान बने होते हैं
न जाने किस-किस के
जो लौट गये हैं कहीं और
नहीं लौटे हैं घर
इंन्तज़ार करते-करते बीवी-बच्चे उनके
ऊँघ रहे हैं नींद में।
लौट न आने की बात से विश्वस्त होने पर इन्तजार बराबर बना रहता है-दिन
बीतने पर, रात होने पर। सायं सन्ध्या के इन संशयात्मक क्षणों में
प्रतीक्षा के बल प्राण धारण करने वाला आशाजीवी कभी आकाश की ओर हाथ बढ़ाता
है और फिर क्षण भर में स्वयं आकाश बन जाता है, कभी हवा की ओर हाथ बढ़ाता
है और फिर हवा की प्यास बन जाता है, कभी शून्यता की ओर हाथ बढ़ाता है और
फिर स्वयं शून्य बन जाता है। इस प्रकार बार-बार हाथ बढ़ाना और फिर उसी में
एकाकार होना संसार की प्रवृत्ति और निवृत्ति की निरन्तर अनिवर्तिता का
प्रमाण है जिसे पाँचाभौतिक प्राणी प्रतिदिन प्रभात और प्रदोष के समय
प्रत्यक्ष देख पाता है, पर समझ नहीं पाता, और किसी प्रकार समझ भी लिया तो
भी समझा नहीं पाता। इसी व्यक्ताव्यक्त वाङ्मय अभिव्यंजना को कविता का रूप
दिया है समयज्ञ और वाक्यज्ञ कवि सीताकान्त महापात्र ने अपने इस संकलन
‘लौट आने का समय’ में।
कविता का जन्म कैसे होता है कवि को स्वयं मालूम नहीं होता। जीव की अल्प शक्ति से अवगत आर्ष मनीषा से ओतप्रोत सीताकान्त का वागर्थ कविता के प्रादुर्भाव की रोमांचक घटना पर चकित होकर कहता है-
कविता का जन्म कैसे होता है कवि को स्वयं मालूम नहीं होता। जीव की अल्प शक्ति से अवगत आर्ष मनीषा से ओतप्रोत सीताकान्त का वागर्थ कविता के प्रादुर्भाव की रोमांचक घटना पर चकित होकर कहता है-
इतने सपनों के लिए रातें कहाँ
दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए ?
खड़ा रहता है पेड़ अपनी जगह
नये पत्तों, फूलों में सुनाई देती है हँसी उसकी
पतझड़ में रोता है धाड़े मार-मार
दिन कहाँ इतने दृश्यों के लिए ?
खड़ा रहता है पेड़ अपनी जगह
नये पत्तों, फूलों में सुनाई देती है हँसी उसकी
पतझड़ में रोता है धाड़े मार-मार
इन पत्तियों में कवि की काव्यात्मा जड़ चेतन में एक ही अखण्ड जीवधारा का
दर्शन करती है। वृक्ष, पक्षी, वर्षा, नदी, समुद्र, आकाश, सुबह, शाम,
चाँदनी, रोशनी-ये ही आलम्बन कवि पुरुष के लिए काव्य कान्ता के कमनीय आभूषण
बन जाते हैं। कवि का काव्यार्द्र हृदय, कालिदास के शब्दों में, चेतन और
अचेतन के प्रति प्रकृति कृपण बन जाता है।
‘लौट आने का समय’ कितना सरल और अनलंकृत शीर्षक है, फिर भी अत्यन्त सारगर्भित और सच्ची कविताई से समलंकृत। प्रथम कविता पदाधिकारी में कविता का आदमी सारी स्मृतियाँ क्षोभ और अनुरक्ति समस्त पराजय, विस्मृति और क्षति बिना दुविधा, पछतावा और तर्क के स्वीकार कर लेता है और सिर झुकाये सह जाता है सारे निर्णय। इस काव्य संकलन का यह उपक्रम अनिवर्ती आशावादिता का अनाहत आर्द्रनाद सुना देता है तो अन्तिम कविता ‘बाँसुरी’ लहरें रचती है और मोड़ लेती है अपना मुँह आकाश की ओर। अपने समानधर्मा भावुक के अभाव में यह निर्विराम बाँसुरी सुनसान घाट के किनारे न जाने कब से डूबी सूनी नाव से मित्रता करने के लिए बाध्य होती है। यही बाध्यता समय, समुद्र, शब्द और आकाश के अनुवर्ती कवि को अनिवर्ती बना देती है। इस संकलन की सीतांजलि में जीवन गीता की उस स्वर लहरी का अनुवाद सुनाई देता है जहाँ पर जीवधारी को जीवधानी के राजीव नयन यह आश्वासन देते हैं कि जहाँ पहुँचकर प्राणी को लौट आना नहीं पड़ता है, वही मेरा अपना संसार है और वही कभी न लौट आने का संकल्प लिये बैठे लोगों के लिए अपने निजी घर लौट आने का सही समय है।
इतना सुन्दर, सरस और सार्थक काव्य संकलन भारतीय ज्ञानपीठ की राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो रहा है, यह वाग्यदेवी के शिव संकल्प का ही सुखद परिणाम है। वैसे, यह संकलन कुछ मास पहले ही प्रकाशित होने वाला था। पर इस बीच डॉ. सीताकान्त महापात्र का उनतीसवें ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता के रूप में चयन किया गया। इसलिए यह उपयुक्त समझा गया कि इसका प्रकाशन पुरस्कार समारोह के अवसर पर ही हो। जैसे लौट आने का समय निश्चित होता है, वैसे ही प्रकाशित और लोकार्पित करने का भी अपना समय होता है।
भारतीय ज्ञानपीठ डॉ. सीताकान्त महापात्र का अत्यन्त आभारी है कि उन्होंने अपने अमूल्य संकलन का हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित करने का अवसर दिया है। सीताकान्त जी का भारतीय ज्ञानपीठ से गहरा आत्मीय सम्बन्ध रहा है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर परिषद् के वे नौ वर्षों तक मानवीय सदस्य रहे। अब इस वर्ष के पुरस्कार समारोह के उत्सव-पुरुष के रूप में वे फिर अपने घर लौट आ रहे हैं। यह लौट आना भी महत्त्वपूर्ण है।
इस संकलन का सरल और सुबोध हिन्दी रूपान्तर किया है हिन्दी और उड़िया के विख्यात विद्वान् और कुशल अनुवादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने। डॉ. मिश्र एक प्रकार से भारतीय ज्ञानपीठ परिवार के अपने बन चुके हैं, क्योंकि कुछ वर्षों से भारतीय ज्ञानपीठ की गतिविधियों में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। हम हृदय से उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं। पुस्तक के अन्त में श्री गिरधर राठी द्वारा लिखी ‘अनुवीक्षा’ सम्मलित है। इसके लिए हम उनके प्रति सकृतज्ञ आभारी हैं।
अब यह कृति श्रुतिपरायण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। आशा है, इसका हृदय से स्वागत करेंगे।
‘लौट आने का समय’ कितना सरल और अनलंकृत शीर्षक है, फिर भी अत्यन्त सारगर्भित और सच्ची कविताई से समलंकृत। प्रथम कविता पदाधिकारी में कविता का आदमी सारी स्मृतियाँ क्षोभ और अनुरक्ति समस्त पराजय, विस्मृति और क्षति बिना दुविधा, पछतावा और तर्क के स्वीकार कर लेता है और सिर झुकाये सह जाता है सारे निर्णय। इस काव्य संकलन का यह उपक्रम अनिवर्ती आशावादिता का अनाहत आर्द्रनाद सुना देता है तो अन्तिम कविता ‘बाँसुरी’ लहरें रचती है और मोड़ लेती है अपना मुँह आकाश की ओर। अपने समानधर्मा भावुक के अभाव में यह निर्विराम बाँसुरी सुनसान घाट के किनारे न जाने कब से डूबी सूनी नाव से मित्रता करने के लिए बाध्य होती है। यही बाध्यता समय, समुद्र, शब्द और आकाश के अनुवर्ती कवि को अनिवर्ती बना देती है। इस संकलन की सीतांजलि में जीवन गीता की उस स्वर लहरी का अनुवाद सुनाई देता है जहाँ पर जीवधारी को जीवधानी के राजीव नयन यह आश्वासन देते हैं कि जहाँ पहुँचकर प्राणी को लौट आना नहीं पड़ता है, वही मेरा अपना संसार है और वही कभी न लौट आने का संकल्प लिये बैठे लोगों के लिए अपने निजी घर लौट आने का सही समय है।
इतना सुन्दर, सरस और सार्थक काव्य संकलन भारतीय ज्ञानपीठ की राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित हो रहा है, यह वाग्यदेवी के शिव संकल्प का ही सुखद परिणाम है। वैसे, यह संकलन कुछ मास पहले ही प्रकाशित होने वाला था। पर इस बीच डॉ. सीताकान्त महापात्र का उनतीसवें ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता के रूप में चयन किया गया। इसलिए यह उपयुक्त समझा गया कि इसका प्रकाशन पुरस्कार समारोह के अवसर पर ही हो। जैसे लौट आने का समय निश्चित होता है, वैसे ही प्रकाशित और लोकार्पित करने का भी अपना समय होता है।
भारतीय ज्ञानपीठ डॉ. सीताकान्त महापात्र का अत्यन्त आभारी है कि उन्होंने अपने अमूल्य संकलन का हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित करने का अवसर दिया है। सीताकान्त जी का भारतीय ज्ञानपीठ से गहरा आत्मीय सम्बन्ध रहा है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर परिषद् के वे नौ वर्षों तक मानवीय सदस्य रहे। अब इस वर्ष के पुरस्कार समारोह के उत्सव-पुरुष के रूप में वे फिर अपने घर लौट आ रहे हैं। यह लौट आना भी महत्त्वपूर्ण है।
इस संकलन का सरल और सुबोध हिन्दी रूपान्तर किया है हिन्दी और उड़िया के विख्यात विद्वान् और कुशल अनुवादक डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने। डॉ. मिश्र एक प्रकार से भारतीय ज्ञानपीठ परिवार के अपने बन चुके हैं, क्योंकि कुछ वर्षों से भारतीय ज्ञानपीठ की गतिविधियों में उनका विशिष्ट योगदान रहा है। हम हृदय से उनके प्रति आभार प्रकट करते हैं। पुस्तक के अन्त में श्री गिरधर राठी द्वारा लिखी ‘अनुवीक्षा’ सम्मलित है। इसके लिए हम उनके प्रति सकृतज्ञ आभारी हैं।
अब यह कृति श्रुतिपरायण पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। आशा है, इसका हृदय से स्वागत करेंगे।
भारतीय ज्ञानपीठ,
पहला चैत्र 1916
शक संवत् वर्षादि
पहला चैत्र 1916
शक संवत् वर्षादि
-पाण्डुरंग राव
पदाधिकारी
सारी स्मृतियाँ क्षोभ और अनुरक्ति
समस्त पराजय विस्मृति और क्षति
बिना दुविधा और तर्क के
स्वीकार लेता है वह आदमी
सिर झुकाये सह जाता है सारे निर्णय।
हवा रहित कोठरी में स्थिर
दीपशिखा-सा दाँय-दाँय जलता है
डावाँडोल काग़ज़ का सिंहासन,
वहाँ तक पहुँच जाती है सीढ़ियाँ
नीचे से ऊपर
व्यग्र दौड़तीं चुहियाँ
चींटियों के जत्थे
सरल विश्वासी असंख्य पतंगे।
कूद पड़ते हैं उस अग्निशिखा में।
रक्त-पुते दिगन्त से आकर
असंख्य अनसुलझे प्रश्नों और उलाहनों का प्रकाश
दुःस्पप्न सा मँडराता है पीले काग़ज़ पर
मानो सुन्दर शान्त सुबह
सिल-सिल बहती हवा
चिड़ियों की चहचहाहट
डूब रही हैं अपंग और अक्षम शब्दों की अतल नदी में।
असंख्य काग़ज़ी नाव की सम्भावनाओं से
कभी-कभी प्रलुब्ध प्रभु के
भीतर का शिशु जाग उठता है
अधमरी हड्डियों के नीचे रहते हुए
सपने कुरेदता है।
टूटे-गले सारे कोढ़ी हाथ
कृपा-भिक्षु सन्देही हाथ
ईर्ष्यान्वित क्रुद्ध तलवारों की उठी अँगुलियाँ
अविश्वास क्षोभ हताशा की जारज अँगुलियाँ
बढ़ आती हैं,
बढ़ आती है
सिंहासन और मुकुट की ओर।
रहती है थकान भरी मुद्रा
प्रतिहंसा की तलवार रहती है कोषबद्ध अशक्त।
बन्द कमरे की दीवारों पर
देखता है वह परछाइयों का रौंदा-मसला
वीभत्स स्वार्थों का भयंकर कुम्भमेला
एरकार वन में उन्मत यदुओं के शवों की ढेरियाँ
देखता है वह ढेरो बघनखी और ढालों के
आलिंगन और नृत्य
देखता है सपने के टूटे मन्दिर में
अंगहीन अपंग आकांक्षाओं के विभंग स्थापत्य।
सुनता है वह
अनन्त अष्टवक्र शब्दों का सघन मालकोश
सुदूर वैकुण्ठ से बह आता है
उच्छिष्ट दिव्यज्ञान
गुनगुनाकर टेलीफोन में ब्रह्मज्ञान का भग्नावशेष।
सुनसान काग़ज़ की लीक
धूप में पसरी रहती है तो पसरी रहती है
न जाने किस सुदूर ईप्सित घी-शहद के
स्वप्न संसार तक, निरीह बैलगाड़ी वाले का गीत
अस्पष्ट मन्त्र-सा बहता चला जाता है
शुष्क बादलों में
पिंगलवर्णी आकाश से झरती है सिर्फ़ आग
अंगार धूम्र और आग झरती है।
सम्राट् ब्रह्मा
गतिहीन पीलिया-शब्दों की नदी से लाकर
भर-भर कमण्डलु मन्त्रित पानी छींटते हैं,
जी-जान लगाकर छींटते हैं, पर
मर रही दूब को भी नहीं बचा पाते।
नजर चुराकर धूप चली जाती है
तारे टिमटिमाने लगते हैं धुँधले आकाश में,
कलम शून्य में लटकी रहती है त्रिशंकु बन
उतर नहीं पाती पश्चात्ताप की मरुभूमि में
निर्णय की इन्द्रनील अमरावती में।
समस्त पराजय विस्मृति और क्षति
बिना दुविधा और तर्क के
स्वीकार लेता है वह आदमी
सिर झुकाये सह जाता है सारे निर्णय।
हवा रहित कोठरी में स्थिर
दीपशिखा-सा दाँय-दाँय जलता है
डावाँडोल काग़ज़ का सिंहासन,
वहाँ तक पहुँच जाती है सीढ़ियाँ
नीचे से ऊपर
व्यग्र दौड़तीं चुहियाँ
चींटियों के जत्थे
सरल विश्वासी असंख्य पतंगे।
कूद पड़ते हैं उस अग्निशिखा में।
रक्त-पुते दिगन्त से आकर
असंख्य अनसुलझे प्रश्नों और उलाहनों का प्रकाश
दुःस्पप्न सा मँडराता है पीले काग़ज़ पर
मानो सुन्दर शान्त सुबह
सिल-सिल बहती हवा
चिड़ियों की चहचहाहट
डूब रही हैं अपंग और अक्षम शब्दों की अतल नदी में।
असंख्य काग़ज़ी नाव की सम्भावनाओं से
कभी-कभी प्रलुब्ध प्रभु के
भीतर का शिशु जाग उठता है
अधमरी हड्डियों के नीचे रहते हुए
सपने कुरेदता है।
टूटे-गले सारे कोढ़ी हाथ
कृपा-भिक्षु सन्देही हाथ
ईर्ष्यान्वित क्रुद्ध तलवारों की उठी अँगुलियाँ
अविश्वास क्षोभ हताशा की जारज अँगुलियाँ
बढ़ आती हैं,
बढ़ आती है
सिंहासन और मुकुट की ओर।
रहती है थकान भरी मुद्रा
प्रतिहंसा की तलवार रहती है कोषबद्ध अशक्त।
बन्द कमरे की दीवारों पर
देखता है वह परछाइयों का रौंदा-मसला
वीभत्स स्वार्थों का भयंकर कुम्भमेला
एरकार वन में उन्मत यदुओं के शवों की ढेरियाँ
देखता है वह ढेरो बघनखी और ढालों के
आलिंगन और नृत्य
देखता है सपने के टूटे मन्दिर में
अंगहीन अपंग आकांक्षाओं के विभंग स्थापत्य।
सुनता है वह
अनन्त अष्टवक्र शब्दों का सघन मालकोश
सुदूर वैकुण्ठ से बह आता है
उच्छिष्ट दिव्यज्ञान
गुनगुनाकर टेलीफोन में ब्रह्मज्ञान का भग्नावशेष।
सुनसान काग़ज़ की लीक
धूप में पसरी रहती है तो पसरी रहती है
न जाने किस सुदूर ईप्सित घी-शहद के
स्वप्न संसार तक, निरीह बैलगाड़ी वाले का गीत
अस्पष्ट मन्त्र-सा बहता चला जाता है
शुष्क बादलों में
पिंगलवर्णी आकाश से झरती है सिर्फ़ आग
अंगार धूम्र और आग झरती है।
सम्राट् ब्रह्मा
गतिहीन पीलिया-शब्दों की नदी से लाकर
भर-भर कमण्डलु मन्त्रित पानी छींटते हैं,
जी-जान लगाकर छींटते हैं, पर
मर रही दूब को भी नहीं बचा पाते।
नजर चुराकर धूप चली जाती है
तारे टिमटिमाने लगते हैं धुँधले आकाश में,
कलम शून्य में लटकी रहती है त्रिशंकु बन
उतर नहीं पाती पश्चात्ताप की मरुभूमि में
निर्णय की इन्द्रनील अमरावती में।
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