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गीता प्रेस, गोरखपुर >> कवितावली

कवितावली

गोस्वामी तुलसीदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 1980
पृष्ठ :225
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1858
आईएसबीएन :81-293-0129-6

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गोस्वामी जी की विविध कविताएँ।

Kavitavali

निवेदन

इन्द्रदेवनारायणजी द्वारा अनुवादित इस कवितावली के अनुवाद को संशोधन करने में श्रीयुत मुनिलालजी एवं सम्मान्य पं. श्रीचिम्मनलालजी गोस्वामी एम.ए. शास्त्री, सम्पादक कल्याण-कल्पतरुने जो परिश्रम किया है, उसके लिये हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं।

प्रकाशक

कवितावली
बालकाण्ड



रेफ आत्मचिन्मय अकल, परब्रह्म पररूप।
हरि-हर-अज-वन्दित-चरन, अगुण अनीह अनूप।।1।।
बालकेलि दशरथ-अजिर, करत सो फिरत सभाय।
पदनखेन्दु तेहि ध्यान धरि विरचित तिलक बनाय।।2।।
आनिलसुवन पदपद्मरज, प्रेमसहित शिर धार।
इन्द्रदेव टीका रचत, कवितावली उदार।।3।।
बन्दौं श्रीतुलसीचरन नख, अनूप दुतिमाल।
कवितावलि-टीका लसै कवितावल-वरभाल।।4।।


बालरूप की झाँकी


अवधेसके द्वारे सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जो न ठगे धिक-से।।
तुलसी मन-रंजन रंजित-अंजन  नैन सुखंजन-जातक-से।
सजनी ससि में समसील उभै नवनीस सरोरुह-से बिकसे।।


(एक सखी दूसरी सखी से कहती है—) मैं सबेरे अयोध्यापति महाराज दशरथ के द्वार पर गयी थी। उसी समय महाराज पुत्र को गोद में लिये बाहर आये। मैं तो उस सकल शोकहारी बालकको देखखर ठगी-सी रह गयी; उसे देखकर जो मोहित न हो, उन्हें धिक्कार है। उस बालक के अञ्जन-रञ्जित मनोहर नेत्र खञ्जन पक्षीके बच्चे के समान थे। हे सखि ! वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो चन्द्रमा के भीतर दो समान रूपवाले नवीन नीलकमल खिले हुए हों।। 1 ।।


पग नूपुर औ पहुँची करकंजनि मंजु बनी मनिमाल हिएँ।
नवनील कलेवर पीत झँगा झलकै पुलकैं नृपु गोद लिएँ।।
अरबिंदु सो आननु रूप मरंदु आनंदित लोचन-भृंग पिएँ।
मनमो न बस्यौ अस बालकु जौं तुलसी जगमें फलु कौन जिएँ।।


उस बालकके चरणों में घुँघरू, कर-कमलों में पहुँची और गले में मनोहर मणियों की माला शोभायमान थी। उसके नवीन शरीरपर पीला झँगुला झलकता था। महाराज उसे गोद में लेकर पुलकित हो रहे थे। उसका मुख कमलके समान था, जिसके रूपमकरन्दका पान कर (देखनेवालों के) नेत्ररूप भौंरे आनन्दमग्न हो जाते थे। श्रीगोशाईंजी कहते हैं—यदि मन में ऐसा बालक न बसा तो संसार में जीवित रहने से क्या लाभ है ?।।2।।


तनकी दुति स्याम सरोरुह लोचन कंजकी मंजुलताई हरैं।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंगकी दूरि धरैं।।
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि-ज्यौं किलकैं कल बाल-बिनोद करैं।
अवधेसके बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।।


उनके शरीर की आभा नील कमल के समान है तथा नेत्र  कमलकी शोभा को हरते हैं। धूलि से भरे होनेपर भी वे बड़े सुन्दर जान पड़ते हैं और कामदेव की महती छबि को भी दूर कर देते हैं उनके नन्हें-नन्हें दाँत बिजली की चमकके समान चमकते हैं और वे किलक-किलककर मनोहर बाललीलाएँ करते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथ के वे चारों बालक तुलसी दास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें।।3।।


बाललीला


कबहूँ ससि मागत आरि करैं कबहूँ प्रतिबिंबि निहारि डरैं।
कबहूँ करताल बजाइकै नाचत मातु सबै मन मोद भरैं।।
कबहूँ रिसिआइ कहैं हठिकै पुनि लेत सोई जेहि लागि अरैं।
अवधेस के बालक चारि सदा तुलसी-मन-मंदिर में बिहरैं।।


कभी चन्द्रमा को माँगने की हठ करते हैं, कभी अपनी परछाहीं देखकर डरते हैं, कभी हाथ से ताली बजा-बजा कर नाचते हैं, जिससे सब माताओं के हृदय आनन्द से भर जाते हैं। कभी हठपूर्वक कुछ कहते हैं (माँगते हैं) और जिस वस्तु के लिए अड़ते हैं, उसे लेकर ही मानते हैं। अयोध्यापति महाराज दशरथके वे चारों बालक तुलसीदास के मनमन्दिर में सदैव विहार करें।।4।।


बर दंतकी पंगति कुंदकली अधराधर-पल्लव खोलनकी।
चपला चमकै घन बीच जगैं छबि मोतिन माल अमोलनकी।।
घुँघरारि लटैं लटकैं मुख ऊपर कुंडल लोल कपोलनकी।
नेवछावर प्रान करै तुलसी बलि जाऊँ लला इन बोलनकी।।


कुन्दकली के समान उज्जवलवर्ण दन्तावली, अधरपुटों का खोलना और अमूल्य मुक्तमालाओं की छवि ऐसा जान पड़ती है मानो श्याम मेघके भीतर बिजली चमकती हो। मुख पर घुँघराली अलकें लटक रही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—लल्ला ! मैं कुण्डलों की झलक से सुशोभित तुम्हारे कपोलों और इन अमोल बोलों पर अपने प्राण न्योछावर करता हूँ।।5।।


पकदंजनि मंजु बनीं पनहीं धनुहीं सर पंकज-पानि लिएँ।
लरिका सँग खेलत डोलत हैं सरजू-तट चौहट हाट हिएँ।।
तुलसी अस बालक-सों नहिं नेहु कहा जप जोग समाधि किएँ।
नर वे खर सूकर स्वान समान कहौ जगमें फलु कौन जिएँ।।


उनके चरणकमलों में मनोहर जूतियाँ सुशोभित हैं, वे करमलों में छोटा-सा धनुष-बाण लिये हुए हैं, बालकों के साथ सरयूजी के किनारे चौराहे और बाजारों में खेलते फिरते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं—यदि ऐसे बालकों से प्रेम न हुआ तो बताइये जप, योग अथवा समाधि करने से क्या लाभ है ? वे लोग तो गधों, शूकरों और कुत्तों के समान हैं, बताइये संसार में उनके जीने का क्या फल है ? ।।6।।


सरजू बर तीरहिं तीर फिरैं रघुबीर सखा अरु बीर सबै।
धनुहीं कर तीर, निषंग कसें कटि पीत दुकूल नवीन फबै।।
तुलसी तेहि औसर लावनिता दस चारि नौ तीन इकीस सबै।
मति भारति पंगु भई जो निहारि बिचारि फिरी उपमा न पबै।।


श्रीरघुनाथजी उनके सखा और सब भाई पवित्र सरयू नदी के किनारे–किनारे धूमते फिरते हैं। उनके हाथमें छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं, कमर में तरकस कसा हुआ है और शरीर पर नूतन पीताम्बर सुशोभित है। तुलसीदास जी कहते हैं श्रीशारदाकी मति उस समय की सुन्दरता की उपमा चौदहों भुवन, नवों खण्ड, तीनों लोक और इक्कीसों ब्रह्माण्डों में जब विचारपूर्वक खोजने पर भी नहीं पा सकी, तब कुण्ठित हो गयी*।।7।।


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*उस समय शोभा की उपमा पाने के लिये शारदा दसों यामल-तन्त्र, चारों उपवेद, नवों व्याकरण, वेदत्रयी और इक्कीसों ब्रह्माण्डों में सर्वत्र फिरी, परंतु उन सबको देख और विचारकर भी उसकी बुद्धि कुण्ठित हो गयी। अर्थात् उसे उस शोभा के योग्य कोई भी उपमा नहीं मिली।

काशी-नागरी-प्रचारिणी-सभा की प्रतिमें यों अर्थ है—
दस गुण माधुर्य के (रूप, लावण्य, सौन्दर्य, माधुर्य, सौकुमार्य, यौवन, सुगन्ध, सुवेश, स्वच्छता, उज्जवलता)।
चार गुण प्रताप के (ऐश्वर्य, वीर्य, तेज, बल)।
ऐश्वर्य के नौ गुण (भाग्य, अदभ्रता, नियतात्मता, वशीकरण, वाग्मित्व, सर्वज्ञता, संहनन, स्थिरता, वदान्यता)।
सहज या प्रकृति के तीन गुण (सौम्यता, रमण, व्यापकता)।

यश के इक्कीस गुण (सुशीलता, वात्सल्य, सुलभता, गम्भीरता, क्षमा, दया, करुणा, आर्द्रता, उदारता, आर्जव, शरण्यत्व, सौहार्द, चातुर्य, प्रीतिपालकत्व, कृतज्ञता, ज्ञान, नीति, लोकप्रियता, कुलीनता, अनुराग, निवर्हणता)।


धनुर्यज्ञ



छोनीमें के छोनीपति छाजै जिन्है छत्रछाया
छोनी-छोनी छाए छिति आए निमिराजके।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु
बरिबेकों बोले बैदेही बर काजके।।
बोले बंदी बिरुद बजाइ बर बाजनेऊ
बाजे-बाजे बीर बाहु धनुत समाजके।
तुलसी मुदित मन पुर नर-नारि जेते
बार-बार हेरैं मुख औध-मृगराजके।।


जिनके ऊपर राजछत्रों की छाया शोभायमान है, ऐसे पृथ्वीभर के राजालोग झुंड-के-झुंड जनकके यहाँ आकर उनके स्थान में छाये हुए हैं। वे बड़े बलवान, प्रतापी और तेजस्वी हैं, उनके शरीर और वेष भी बड़े सुन्दर हैं और वे श्रीसीताजी को वरण करने के शुभ कार्य से बुलाये गये हैं। श्रेष्ठ वन्दीजन उनकी विरदावली का बखान करते हैं, बाजेवाले बाजे बजाते हैं तथा उस राजसमाजके कोई-कोई वीर भी अपनी भुजाएँ ठोकते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं।—इस समय जनकपुर के जितने नर-नारी हैं, वे सभी अवधकेसरी भगवान् राम का मुख बारम्बार देखते और मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं।। 8 ।।


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