कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
और...थोड़ी
देर के बाद जब छोटी मिनु बड़े जतन से और आहिस्ता-आहिस्ता चाय का प्याला रख
गयी तो उसने उसे धमक दिया ''जा...जाकर बोल दे कि मैं कुछ खाऊँगी नहीं...ले
जा यहाँ से चाय!''
अगर कोई दूसरा दिन होता
तो रूठने-मनाने की एक पाली खेली जाती लेकिन पता नहीं क्यों आज किसी ने
परेशान नहीं किया।
करेगा भी कौन?
सावित्री के दिमाग का कोई
ठिकाना है आज?
लेकिन
सोने के लिए पड़ जाते ही तो नींद नहीं आ जाती। बिछावन पर पड़े-पड़े ही वह सुन
रही है सावित्री की चीख-पुकार...छोटे भाई-बहन का रोना-धोना और साथ ही खाना
पकाने की 'छूयेंक...छूयेंक...की आवाज। बक-झक का शोर थमना नहीं चाहता।
मुँहजोर सावित्री है कि जमराज से भिड़ी हुई है...सारे देवी-देवताओं को
उलाहना सुना रही है और मुँहचोर पति और पढ़ी-लिखी...कमाऊ बेटी के खिलाफ कमर
कसकर खड़ी है। कुल मिलाकर वह सारे संसार और सारी सृष्टि के विरुद्ध
अकेली
लड़ रही है। वह चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है, ''अरे घर-गिरस्ती के काम में
इतना खरच हो जाता है लेकिन पचास पैसे की दो हाथ लम्बी रस्सी कोई नहीं ला
देता मुझे। आखिर क्यों? कोई मुझे रस्सी लाकर दो ताकि इस मुए संसार सै
पिण्ड छूटे मेरा।...लेकिन कोई रस्सी लाकर दे भी क्यों...आखिर उसके हाथ में
भी तो रस्सी वेध जाएगी-तभी तो तिल-तिलकर जला रहे हैं मुझे।...क्या हुआ?
फिर आ धमकी खाने को...चल निकल...दूर चली जा मेरी नजरों से...अच्छी मुसबित
गले पड़ी है...। नहीं तो ले...खा...खा ले मेरा माथा...अगर ऐसी ही राक्षसी
भूख है तो डस दलिद्दर घर में मरने को क्यों आयी...कँगली...।"
सावित्री के मुँह से इसी
तरह की बकवास और बेहूदी बातों का गन्दा नाला वह रहा है।
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