कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''यह
क्या...? इतनी जल्दी जा रहे हो...ऐसा नहीं होगा...आज मुँह मीठा कराये बिना
में तुम्हें जाने न दूँगी...अब जैसा भी है...खबर तो अच्छी है। अरे ओ
सनते...सुन तो बेटे...,'' कहती हुई वह अन्दर वाले कमरे में गयी और बेटे से
बड़ी धीमी आवाज में गिड़गिड़ाते हुए बोली, ''सुन बेटे...दौड़कर जा और मामाजी
के लिए दो बर्फी तो ले आ, पैसे मैं बाद में चुका दूँगी।...दूकानदार से
कहना मैं हड़बड़ी में दौडा चला आया।''
''क्या
फिर उधार लाना होगा...नहीं...भले ही तू मेरा गला काट दे...'' और यह कहकर
सनत् ने खिड़की की तरफ मुँह फेर लिया।...''क्या पता मामाजी पढ़ाई-लिखाई के
बारे में कुछ पूछ बैठें? इसी डर से तो मैं अब तक बाहर नहीं निकला था।''
''इससे
क्या हो गया बेटे'', कनक की आवाज धीरे-धीरे और भी धीमी और फीकी पड़
गयी।....तुम लोगों ने तो जैसे कसम ही खा रखी है....। जरूरत पड़ने पर क्या
मुहल्ले की दूकान से लोग सामान उधार नहीं लाते हैं?"
''वही लाते हैं जो उधार
चुका पाते हैं," सनत् ने खिड़की से बाहर ताकते हुए ही कहा।
''तो
तुम यही कहना चाहते हो कि मैं उसका उधार नहीं चुकाती। ठीक है...मैं देखती
हूँ कहीं कुछ है। आखिर बड़े बाप के बेटे जो ठहरे तुम!''
पिछवाड़े के दरवाजे से
पीछे घूमकर कनक रसोईघर में आयी।
है....अभी
भी एक रुपया बचा है। पौष-संक्रान्ति के दिन उसने एक रुपये के सिक्के के
साथ 'बाउनीं बाँधा था....खुली छप्पर के नीचे जाले में वह पोटली आज भी बंधी
हुई है। फूस से मढ़ा और सिन्दूर से पुता वह सिक्का...! अभाव के राक्षसी
पंजे ने आज तक कम-से-कम उसकी तरफ हाथ नहीं बढ़ाया था। शायद उसने बढ़ाने का
साहस किया भी न था।
कनक का हाथ वहाँ तक
पहुँचेगा? सहस्र बाहु की तरह अपना जाल फैलाये काल की सीमा में?..
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