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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''कोई जरूरी है उत्तर देना? तुम चाहो तो जवाब दे देना। मुझे उसकी कोई खुशामद नहीं करनी है।''

कनक का चेहरा ता और गुस्से से विकृत हो गया। वह चिड़चिड़े स्वर में बोली, ''मुझे पता है तुम भैया से इतना क्यों चिढ़ते हो। वे एक वड़े अफसर हैं, गाड़ी पर घूमते-फिरते हैं...तुम्हारा कलेजा सुलगता रहता है। लेकिन यह याद रखना...मैं अब तुम्हारे कहने में नहीं रहूँगी। अगर हुआ तो भैया के पास चली जाऊँगी या फिर किसी के यहाँ झाड़ू-पोंछा करूँगी। अब यही तो देखना है कि तुम्हारी अकड़ भला किस बात और बूते पर टिकी रहती है।''

भूपाल और कनक आज एक-दूसरे को काट खाने वाले खूँखार जानवर की तरह दीख रहे थे। वे एक-दूसरे को फाड़ खाने पर उतारू थे...वर्ना भूपाल की आँखों में ऐसी आग क्यों जल रही होती? उसकी वोली में ऐसी कड़वाहट क्यों थी?

''जब कमाई ही करनी है तो चाकरी करने क्यों जाओगी...और भी तो कई

तरीके हैं।''

'क्या कहा तुमने कग कहा?''

''न...मैंने कुछ कहा नहीं...लेकिन भैया-भाभी की खुशामद करते हुए उनके यहीं जाकर अड्डा जमाना भी कुछ बुरा नहीं होगा।...उनकी जूठन-कूटन से भी किसी-न-किसी तरह पेट भर ही जाएगा।''

''ठीक है....मैं वही करूँगी....अगर न किया तो मैं भी...'' कनक के होठों तक आकर एक कठोर और कड़वी कसम अटक गयी। क्योंकि ऐसी कसम खाने का अभ्यास न था। उसका गला रुँध गया।

दूसरे दिन सुबह....भूपाल घर सै बाहर निकल गया। शाम ढल गयी....रात हो आयी उसका कोई पता न था। कनक गुस्से में भरी थी।

तभी नीरू दौड़ती-हांफती माँ के पास पहुँची और बोली, ''माँ....बड़े मामा आ रहे हैं।''

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