कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''वादा
किया है? अच्छा! फिर तो ऐसा लगता है कि तुम्हारा दिमाग ही फिर गया है। कल
आएँ तो दो-टूक जवाब दै देना कि मेरे पति को यह सब पसन्द नही।"
''ऐसा भी कभी कहा जा सकता
है?''
यह
सुनकर तो श्रीपति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह फूट पड़ा, ''यह बात
नहीं कही जा सकती कि पति को यह सब पसन्द नहीं? घर की बहू हजार-पाँच सौ
लोगों के सामने स्टेज पर ठुमके लगाएगी, गाने गाएगी तो सबको बड़ा अग लगेगा
यह सब?''
''कोई
अगर इसे बुरा बताए तो बुरा ही जान पड़ेगा। मैं तो इसमें कोई बुराई नहीं
देखती।'' गायत्री ने अपने मन-प्राण की सारी शक्ति को बटोरकर कहा।
''तुम भले न देखो। मैं तो
देख रहा हूँ...समझी! और अब ज्यादा जुबान मत चलाओ।''
लेकिन सिर्फ कह देने से
ही बात बन सकती है कहीं! ताश के खेल की तरह एक पत्ते के बाद दूसरा पत्ता
फेंका जाता है।
अगर
बीवी ऐसी खूबसूरत हो तो! पति के कलेजे में हमेशा जलती रहनेवाली जंगली
आग-सा श्रीपति की बात का एक दूसरा सिरा फिर सुलग उठा, ''किसी भले आदमी के
घर में आने के लिए अच्छा समय निकाल लिया है...स्सालों ने। दोपहर के
सन्नाटे में। दूध पीते बच्चे हैं...हैं न। अभी तक दूध के दाँत नहीं टूटे।
मेरे सामने आते...ऐसा मजा चखाता...कि याद रखते।''
''कैसे...जरा मैं भी तो
सुनूँ...धक्का मारकर वाहर निकाल देते?''
''जरूरत पड़ने पर वह भी
करता। और गर्दन पकड़कर बाहर खदेड़ देना तो कुछ भी नहीं है, उन शोहदों का सही
इलाज है...चाबुक।''
घुमा-फिराकर
वह ऐसी ही बातें करता रहा। श्रीपति को होश नहीं था कि वह क्या कुछ कहता जा
रहा है। और आखिरी बात कहकर वह जो वाक्य जड़ देता था वह तो जैसे मर्म को और
भी बुरी तरह छील देता था।
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