कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''तू
भी एक नम्बर की घर-घुसरी हो गयी है रे! तभी तो घर से बाहर निकलने की जरूरत
है।''...रेखा ने आगे जोड़ा, "बड़ी भारी गिरस्थी है तेरी। मियाँ और
बीबी....और उसका ऐसा रोना। अरे तुझे तो चौबीसों घण्टे नाचते रहना
चाहिए....ता ता...धिन धिन....। और दूसरी तरफ मेरा घर....जहाँ सुलताना डाकू
के चार-चार जेबी संस्करण हमेशा ठाँय....ठाँय और ढिशुंग...ढिशुंग करते रहते
हैं....वहां भी में सिर उठाकर खड़ी हूँ और तेरे मुकाबले तो सचमुच बहुत आजाद
हूँ।''
गायत्री
उससे और कहाँ तक जूझती? फिर भी उसने एक बार कोशिश कर देखा, ''बात
मियाँ-बीवी को लेकर ही तौ है। जब वे घर पर आएँगे और देखेंगे कि पंछी
पिंजरा छोड़कर उड़ गया तो वे बेहाश ही हो जाएँगे।''
''अरे
जाने भी दे....बहुत सुन चुकी हूँ वह सब! घर वापास आकर आँचल की हवा कर
देना। एकबारगी ढेर सारा पुण्य कमा सकेगी। मैं कोई जान-बूझकर यह बात नहीं
कह रही। लेकिन सच तो यह है कि तू शादी के बाद एकदम जाम हो-गयी है। ये
पति-वति....स्साले....किसी के नहीं होतै और न तो अपनी बीवियों को प्यार ही
करते हैं....समझ ले...ही....!'' रेखा दी ने अपनी मोटी गर्दन किसी तरह
घुमायी और कहा, ''अरी कहीं मर गयी तेरी वह नौकरानी? अभी तलक तो यहीं चक्कर
काट रही थी। अरी सुन जरा....''
एक चौदह-पन्द्रह साल की
लड़की आकर खड़ी हो गयी।
''अच्छा,
तू है...सुन! तू क्या कहती है इसे....बहूरानी....राजमाता या भाभी
श्री....? खैर, जो भी बोलती हो, मैं इस दबोचकर ले जा रही हूँ। बाबू साहब
जब घर पर आएँ तो कहना घर में कुछ डाकू जबरदस्ती घुस आये थे। उनके साथ उनकी
सरदारनी रेखा बाई भी थी। वे सब उन्हें पकड़कर ले गये।''
''न....तुम्हारे साथ बहस
कौन करे? अरे बाबा...अब आज कुछ तय तो है नहीं....कल निकल पड़ूंगी तुम लोगों
के साथ।''
''अरी
ओ मोलो...ले चल अब झटपट। तेरी कसम तो टूटने से बच गयी। कल से छोरियों को
रिहर्सल भी दिलवाना है। चल....वही सब तय तमन्ना करें। किसको कैसे
सजाना-धजाना है। और ये छोकरे सब....कम्बख्त अपने-अपने गलमुच्छों पर ताव
देते फिरते हैं और यह कहकर मस्ती मारते हैं कि यह सब भार तो रेखा दी पर
है। जैसे रेखा दी की ही सास मरी है।....और अब ले-देकर सिर्फ चार दिन हाथ
में हैं।"
तो अब गायत्री क्या करे?
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