कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
विभूति ने आस-पास देखते
हुए कहा, ''लेकिन क्या तुम्हें इस बारे में पता था, मौसी?"
अन्ना
मौसी एकदम बिखर गयी...इस सवाल पर। उसने अपने टूटे स्वर में धीरे-धीरे कहना
शूरू किया, ''हां बेटा, पता कैसे नहीं था! माँ की आत्मा क्या ऐसी खबरों से
अनजान रहती है? मन ही सब बता देता है। मुकुन्द उस दिन तुमसे मिलने उतया था
और तुमसे मिलकर बाहर-ही-बाहर चला गया-तभी मुझे इस बात का अन्देसा हो गया
था रे! तभी मैं समझ गयी थी कि वह कौन-सी खबर लेकर आया है। मैं जान-बूझकर
ही मुँह बन्द किये रही। किसी से कुछ पूछने का साहस नहीं जुटा पायी रे..."
विभूति के होठों से
अनजाने मैं शायद फूट पड़ा, ''भला क्यों?''
''क्यों...,''
अन्ना मौसी ने अपना मुँह ऊपर उठाया और बोली, ''तू अ रहा, मैंने ऐसा क्यों
किया? मैं यह सोच रही थी कि शराबी, कवाबी हो ता जुआरी...आखिर है तो कोख का
जाया। उसका आसरा ऐसा था जिस पर अपना जोर था रे। अब जब कि वह नाम-धाम सब
मिट-मिटा गया, अब मुझे तीनों लोकों में भी कहीं ठौर मिलने वाला है कि मैं
अपना मुँह छिपा सकूँ। बेसहारा और बेआसरा होकर किसी पराये घर में पड़े रहना
तो डूब मरने वाली बात है।...तू गुस्सा मत होना बेटा...बात वह है कि
बहूरानी बड़ी निर्दय है...और बड़ा गुमान भी है उसे अपने पर...वह उग्रदमी को
ओटमी नहीं समझती। उसकी छवि में अपने को बहुत छोटा बनाकर ही रहना पड़ता
है।...और मैं इस बात का मानने के लिए तैयार नहीं थी कि मैं उसके पास पूरी
तरह से बेसहारा होकर पड़ा रहूँ।...और इसीलिए माँ होकर भी...मैं पिछले छह
महीनों से बेट की मौत का दुख कलेजे में दबाये...''
और आज छह महीने बाद अन्ना
मौसी का पुत्र-शोक उसकी आँखों से वह निकला।
यह
भी सम्भव है कि बेटे की मौत के चलते ही ये आसू न वह रहे हों...बल्कि इसलिए
कि इतने दिनों बाद वह सचमुच बेआसरा हो गयी है और इसे सहन नहीं कर पा रही
है। घासफूस और तिनके बटोरकर उसने जो घोंसला बनाया था और जिस झूठी दीवार के
सहारे वह इतने दिनों तक टिकी बैठी थी-रमोला की एक ही फुफकार से वह रहा-सहा
आसरा भी धूल में मिल गया।
और अब किसके बूते अन्ना
मौसी वहाँ टिकी रहेगी?
|