कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
अपने
होनहार बेटे के लिए दो जून अन्न पाने की तनिक भी उम्मीद नहीं थी अन्ना
मौसी को। दरअसल उसके बेटे का ठौर-ठिकाना गाँव के बाहर एक पिछड़ी बस्ती में
ही था। जब कभी उसे रुपये-पैसे की जरूरत पडती, वह घर आ धमकता मिल और माँ से
अनाप-शनाप बक-झक करता रहता और अगर उसे पैसे न तो वह बर्तन-भाँड़े लेकर
गायब हो जाता और फिर कुछ दिनों तक पता नहीं कहीं पड़ा रहता! अपने बेटे से
पूरी तरह निराश हो जाने के बाद ही मौसी ने अपनी मड़ैया पर साँकल चढ़ा ताला
लगा दिया और अब यहीं जमाई के घर डेरा डाले बैठी थी। बेटी-जमाई द्वारा भेजे
गये माहवारखिर्च पर ही जब सारा कुछ निर्भर था तो उनके पास जाकर रहना ही
कहीं ज्यादा अच्छा था।
कुछ
साल वहाँ बिताने के बाद अन्ना मौसी की खूबियों की बदौलत बेटी भगवान को
प्यारी हो गयी। यह बताने की जरूरत नहीं कि उसके गुजर जाने के बाद उस घर
में टिके रहना मुश्किल ही था। अपनी पत्नी के नाते बड़बोली सास को झेलना
जहाँ तक सम्भव था बहाँ तक जमाई बासू ने झेला ही था। पत्नी के मर जाने पर
इसकी कोई जरूरत नहीं रह गयी थी। इसलिए एक दिन जमाई के घर में झाड़ू मारकर
जंग खाये टिन का बक्सा उठाये अन्ना मौसी चली आयी अपनी बहन के जमाई विभूति
के घर। इस बात को आज साल भर तो हो ही गया होगा।
उस
समय रमोला की बात तो जाने भी दें-विभूति ने अन्ना मौसी के आगमन को बड़े
उत्साह से लिया था-ऐसी बात न थी। थोड़े दिनों की बात है, यही समझकर चुप ही
रहा। लेकिन अन्ना मौसी यहाँ से जल्दी ही टलने वाली है, ऐसा कोई संकेत उसे
नहीं दीख पड़ा। उसने यहाँ कदम रखते ही डस 'नवाबी ठाठ-बाट' वाली गृहस्थी का
सिरा थाम लेना चाहा। पत्नी, बेटे और दुर्निया भर के नौकर-चाकर सभी बेचारे
विभूति का बेड़ा गर्क करनें पर तुले हैं-इसें उसकी आँखों ने दो ही दिनों
में ताड़ लिया। और जैसा कि कहा भी गया है, 'माँ-मौसी एक जान'-उसो नाते क्या
अन्ना मौसी मझधार मैं डूब रहे डन बच्चों को बचाने की कोशिश नहीं करेंगी।
-''लो इस छोटी-मोटी
गृहस्थी में पचास ठो नौकर-चाकर भला काहे के लिए? इनको देखकर तो मेरे तन-मन
में आग लग जाती है।''
-''तीस
रुपये महीने पर एक वाभन रसोइया? आखिर काहे के लिए। घर की बहू दो मुट्ठी
चावल नहीं सिझा सकती?...चौबसि घण्टे सूई-पोकर लिये बैठी न जाने क्या निहाल
करती रहती है?''
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