कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''पाँच सौ में। क्यों, तू
देगी मुझे रुपये?''
''और
नहीं तो क्या? थोड़े-से रुपयों के लिए बाबा-दादा की रही-सही थाती बेच
खाओगे?'' इतना कहकर पद्मलता अपनी साड़ी के आँचल में बंधी गाँठ खोलने लगी।
''क्या बात है, पदमिया!
तू पाँच-सात सौ रुपये हमेशा अपने पल्लू से बाँधकर ही घर से बाहर निकलती है
क्या?''
''तो
फिर और क्या करती, मुरारि भैया?'' और बोली, ''लाहिड़ी नानी ने इन रुपयों को
अपने पास रखने से मना कर दिया। जो कुछ लायी थी, वह पल्लू में ही बँधा है।
खैर, रुपये तो खर्च करने के लिए ही होते हैं। वापसी का किराया साथ रहे,
यही बहुत है?''
इसके
बाद उसने बड़े आकार के पांच नोटों को एक-एक कर गिना और उसे जमीन पर रखा।
लेकिन इस बीच मुरारि यकायक गम्भीर हो गया। उसने भरे गले से कहा, ''देख
पदमी, तिलचट्टे का पंछी हो जाना तो ठीक है लेकिन वह एक वाली गरुड़ हो जाए,
ऐसा दिखावा मत करना।''
''लेकिन...''
पद्मा कहती गयी, ''भले ही तुम मुझे जी भरकर अपमानित कर लो...लेकिन यै
रुपये तो तुम्हें लेने ही पड़ेंगे। इन थोड़े-से रुपया के लिए मैं तुम्हें
अपनी ही मड़ैया से बेदखल होने नहीं दूँगी।''
''लेकिन
मैं तेरे पैसे क्यों लेने लगा? बड़ी पैसेवाली आयी है! पैसे का रौब डालकर तू
मानी बुआ जैसी औरतों का सिर अपनी झोली में डाल ले। तू मुझ पर अपना जाल मत
फैला!'' इतना कहकर मुरारि ने रुपयों को आगे. खिसका दिया। लेकिन तभी उसकी
नजर अपनी पत्नी पर पड़ी जो इतनी देर तक गायब रहने के बाद सामने आ खड़ी थी।
उसने उससे चिढ़कर कहा, ''कब से एक लौंग माँग रहा हूँ...क्या हुआ? सब-के-सब
कहौँ मर गये?''
मुरारि
की घरवाली इतनी देर तक शायद अपने को सहज रही थी और अब सबके सामने थी।
लेकिन जब उसने देखा कि बात रुपये-पैसे की चल रही है तो वह फिर आड़ में चली
गयी थी। अचानक पति के बुलाने पर वह रंगमंच पर अवतरित हुई और झूँझल भरे
स्वर में बोली, ''मर-खप जाती तभी जी को चैन मिलता! तुम्हारे हाथ से
छुटकारा तो मिलता। मुआ मेरा नसीब ही जला-भुना है। अब आप ही देखिए दीदी जब
से आप आयी हैं यह कैसी जली-कटी सुना रहा है?''
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