कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
|
5 पाठकों को प्रिय 3465 पाठक हैं |
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
डस
पुल के गिर पड़ने पर सरोजवासिनी अपने पाँव-तले की जमीन कहां से पाएँगी भला?
फिर तो एकदम गहरे अन्धकार में ही डूब जाएँगी।...और यही वजह है कि उनकी कसम
बार-बार टूटती रहती है।
दो-चार
घड़ी के लिए छायी चुप्पी तोड़कर अचानक वे कुछ बोल उठती हैं, ''अरे मुझे पता
है रे...मेरे पूछने पर भी तुम लोग कोई जवाब न दोगे लेकिन बिना पूछे मुझसे
नहीं रहा जाता है रे...। लगता है...आज मांस बन रहा है...कोई आ रहा है खाने
पर आज?''
लीला
जरा मुँहफट है। जोर से चीख पड़ती है, ''क्यों? जब तक बाहर से लोग खाने पर
बुलाये न जाएँ...घर में मछली-मांस पक नहीं सकते। क्या हम लोग खाना नहीं
जानते?''
''तू तो रणचण्डी है...''
सरोजवासिनी झिड़क देती है उसे, ''अब अगर पूछ लिया तो क्या पहाड़ टूट पड़ा?''
''हर
मामले मे इतनी पूछताछ सबको अखरती है। दुनिया भर के लोगों को बुलाकर और
उन्हें दावत खिलाकर तुम्हारे भतीजे की तमाम दौलत उड़ा नहीं रहे हैं हम लोग
यह बात गाँठ में बांध लो।"
तो भी...सरोजवासिनी को
जान पड़ता है कि लीला के दोनों मामा आये, उन्होंने खाना खाया...गपशप की और
चले गये।
सरोजवासिनी का जी भीतर से
भिन्ना गया। वे चुप ही रहीं।
इतिहास अपने आपको दोहराता
है...एक बार फिर।
हालाँकि
उन पर भी दोप मढ़ना ठीक न होगा? वे लोग भी इस बेवजह की पूछताछ और छानबीन से
तंग आ गये हैं। जब तक आँखें थीं...सब कुछ उनकी मुट्ठी में बन्द था। मजाल
क्या थी किसी की...कि कोई चूँ-चपड़ करे। अब आँखें तो रहीं नहीं लेकिन आदत
है कि वैसी ही बनी हुई है। क्या..
क्यों...कब...कौन...कहाँ...किसलिए...उफ...। इनके जवाब देते-देते तो बस
सबकी जान ही निकल जाती है।
|