कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
बात खत्म नहीं हुई। तभी
कहीं शोर-गुल हुआ। दोनों भाई घर के बाहर निकल आये।
लीलावती की कहानी यहीं
खत्म हो जानी चाहिए।
और किसी मनोरंजनधर्मा
कहानीकार के हाथ पड़ने पर डसका अन्त यहीं पर हो जाता।
इस
संसार में इन चार स्त्री-पुरुषों के घोर अपराध-बोध से पीड़ित और विवेक के
अंकुश से छलनी किये गयें हृदय की अनुभूति के ऊपर अभिमानिनी लीलावती का एक
गौरवमय स्थान होता। साथ ही, लोक और समाज की आँखों सै उस भूरे रंग की पर्ची
के ऊपर लिखा वह सारा इतिहास ओझल ही रहता।
लेकिन
लीलावती की कहानी किसी रसज्ञ-रंजक कहानीकार के हाथ में नहीं पड़ी। वह पड़ी
एक अकुशल, अक्षम और रसवोधहीन लेखक के हाथ में। इसीलिए वाहर हो-हल्ला की
आवाज सुनकर दोनों भाई, जो आपस में सलाह-मशविरा कर रहे थे, बड़ी बेचैनी से
बाहर निकले। उन्होंने देखा माँ-एक रिक्शे से नीचे उतर रही है और
रिक्शावाले से भाड़े के सवाल पर उसे डाँट-फटकार रही है।
बेटों
को सामने पाकर उसे बड़ा सहारा मिला और वह खुले गले से वाली, ''देख
तो...श्याम बाजार के मोड़ से यहाँ तक आने का कितने पैसे माँग रहा है!..
कैसी लूट मचा रखी है!''
माँ के हाथ में सिन्दूर
से पुता शाल पत्ते का एक दोना था और कमाची की डाली में पूजा की सामग्री
थी...फूल...बेल-पत्र और प्रसाद।
इसके बाद?
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