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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


वैसे शुरू की बातों को सुनकर परमेश को थोड़ी-बहुत तसल्ली हुई। डूबते को तिनके का सहारा मिला। ऊपर जिन तीन घरों के बारे में बताया गया था, उनमें से दो के यहीं टेलीफोन थे...और तीसरा बस टर्मिनल के पास था।

उसने कहा, ''ठीक है। में एक रिक्शा लेकर सबसे पहले बुबु मौसी के यहाँ निकल जाता हूँ। मैं वहाँ से देख-सुनकर बाकी दो घरों में फोन कर देखूँगा।''

उसने मन-ही-मन सोचा...इससे ज्यादा और क्या किया जा सकता है? थाना-पुलिस कर पाना तो सम्भव नहीं होगा अभी। हो सकता है परमेश के घर से निकलते ही वे वापस आ जाएँ। इन बहुओं के साथ ठन गयी होगी इसलिए जी खट्टा हो गया होगा और वे किसी के घर जा बैठी हैं। ऐसा ही कुछ हुआ होगा...बल्कि हुआ है। वह बड़ा बहू तो छोटी-मोटी तोप ही है।

लेकिन बात यह नहीं थी...लीलावती किसी के घर जाकर नहीं बैठी थी। बुबु बुआ ने हैरानी से कहा, ''आ...माँ...यह क्या कह रही हो...? लीला भाभी अकेली तो कभी भी...कहीं भी घूमने-फिरने नहीं निकलती हैं। यहीं तो बहुत दिनों से नहीं आयी हैं।''

छोटी मौसी ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया, ''नहीं तो...। पिछले सोमवार को थोड़ा देर के लिए हाल-चाल पूछने को आ गयी थी। रुकीं ही नहीं, बस...अपने घर-संसार की चिन्ता में ही घुलती रहीं...और नहीं तो क्या?''

और घण्टू मामा का भी यही जवाब था।

''लीला? महीनों से यहाँ नहीं आयी। सुबह से ही घर में नहीं है वह...इसका क्या? घर के लोग तक नहीं जानते कि कहीं गयी? धन्य है बेटे...तुम्हारा घर-संसार। कहीं किसी मठ मन्दिर में भी जाती है? वहीं अगर कोई उत्सव या समारोह हो रहा हो...पता नहीं। क्या खूब। वैसे ज्यादा परेशान होने की बात नहीं है। हो सकता है अब तक आ गयी हो। मैं शाम के समय घर आऊँगा तो उससे मिल लूँगा।''

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