कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
''तो
फिर? वात क्या हुई? गयी कहाँ? भण्डार घर में तो नहीं बैठी? या अनाज वाले
कमरे में..। तूने छत पर देखा...या फिर छत पर फूल के गमलों में खुरपी तो
नहीं चला रही हैं।''
''नहीं बाबू....छत पर भी
नहीं हैं।''
''तू एक बार जा और अच्छी
तरह देख आ।''
सोनू भरिा कदमों से ऊपर
गयी और मुँह लटकाकर वापस लौटी।
''मैंने कहा न...कि छत पर
नहीं हैं।''
''अरे कहीं अपनी चारपाई
पर ही तो नहीं पड़ा हैं। वहाँ देखा तुमने? कहीं उनकी तबीयत तो नहीं बिगड़
गयी?''
सोनू ने पाँव पटकते हुए
कहा, ''यह लग कह रहे हो...बाई के आने पर राज
की तरह दादी ने ही तो
दरवाजा खोला था। इसके बाद पम्प चलाया।''
''इसके बाद?''
''इसके बाद नहाने-धोने को
चली गयीं...बाथरूम।"
''फिर?''
''फिर मैं क्या जानूँ...?
मैं क्या दादी जी की सेवा-टहल में लगी थी...मुझे और अपना काम नहीं करना'''
''और ये बहुएँ कहीं
थी?...असीमा...और आनन्दी?''
और
उन दोनों को ही इस बारे में क्या पता? ये सब सबेरे से ही काम के दबाव से
कहीं...किसी ओर आँख उठाकर न तो देख सकती हैं और न सुन सकती हैं। बच्चों को
तैयार कर स्कूल भेजना, उनका नाश्ता तेयार करना। बाबुओं का खाना। दम मारने
तक की फुरसत नहीं...वे भला कैसे जान पाएँगी कि सास कहाँ बैठी हैं...और
कहाँ किस गोरख धन्धे में पड़ा हैं।
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