लोगों की राय

कहानी संग्रह >> किर्चियाँ

किर्चियाँ

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

Like this Hindi book 5 पाठकों को प्रिय

3465 पाठक हैं

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


''रुकिए, अरे रुकिए...भी'' बलराम ने खीज-भरे स्वर में कहा, ''अपने कुलांगार बेटे की वकालत करने की बहुत जरूरत नहीं। आग में हाथ डालेगा तो जलेगा नहीं? आग को अच्छे या बुरे से कुछ लेना-देना नहीं। समझीं आप! खून की सजा है फाँसी...मेरा दो-टूक जवाब है...फैसला है...इसे अपनी गाँठ में बाँध लीजिए...श्रीमती जी। कल घर जाते ही केस ठोंक दूँगा और मरते दम तक लड़ता जाऊँगा।''

श्रीमती कुण्डु ही नहीं...कनाई की माँ भी यह सुनकर सकते में आ गयीं। यह तो ठीक है कि इस आदमी की बाचतीत का ढंग शुरू से ही बड़ा ही उखड़ा-उखड़ा है

लेकिन यह अपनी ही बात पर टिका हुआ है...जौ भर टस-से-मस नहीं....हो रहा, ''वाह, खूब कह रही हैं आप भी, समधन जी...! अब आप ही मुझे जबरदस्ती खाने को कहें...सारा-का-सारा भोजन और माल-पकवान लाकर पटक दें...लेकिन पेट तो मेरा है न....है कि नहीं....। और खाइए....और खाइए...कहते हुए अगर आपने समधी जी का पेट ही फाडु डाला तो मेरा कहना है, कुण्डु की धरम पत्नी जी...कि इस पेट को सिलने की जिम्मेदारी किस पर है...? वह भी इसी बदनसीब बलराम पर?''

इस आदमी की बोली में अजीब-सी कड़वाहट घुली है। और उसमें कोई तालमेल भी नहीं है। इस पर उसने 'कुण्डु की धरमपत्नी' जिस विरु ढंग से कहा है-लगता है किसी ने कनपटी पर तमाचा जड़ दिया है।

लेकिन स्त्रियाँ सारा अपमान पी जाती हैं। उसने भी अपने दोनों हाथों को जोड़कर सिर पर रखा और चिरौरी के स्वर में कहा, ''अच्छा भैया, अगर मेरे बेटे को फाँसी हो गयी तो क्या आपकी बेटी वापस मिल जाएगी? आप माँ की ममता की हाहाकार की बात सोचकर...''

बलराम तेजी से पाँव पटकता वहीं टहलने लगा था। इस बात को सुनकर वह वहीं थम गया और जैसे अपने शिकार पर टूट पड़ा, ''अच्छा तो...यह सब सोच-समझकर ही बलराम साहा अदालत में अपना हलफिया बयान देगा...है न...! अरे मैं पूछता हूँ कि उसके कलेजे की जलती आग को किसने देखा है?''

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book