कहानी संग्रह >> किर्चियाँ किर्चियाँआशापूर्णा देवी
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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह
कनाई
की माँ जैसे असन्तोष में फटकर बोल उठी, ''मालकिन...यह उल्टी-सीधी बात कहाँ
से कर रही हो तुम! भाभी ऊपर अकेली सोयी थी....नींद में ही उठ पड़ी और वह
समझ नहीं पायी कि पाँव कहीं पड़ रहे हैं। सीढ़ी का दरवाजा है...यह समझकर
टूटे मुँडेरे के सुराख में पाँव डाल दिया और नीचे गिर पड़ी। बस...इतनी-सी
तो बात है।''
''चुप
कर...। इस सिखाई-पढ़ाई गयी बात को अपने पास ही रख!'' कुण्डु की घरवाली ने
रोते-रोते ही उसे बुरी तरह झिड़क दिया। ''तू क्या समझती है समधी साहब इतने
बेवकूफ आदमी हैं? उन्हें जो कहा जाएगा...वे वही समझ लेंगे? समधी साहब अपनी
बुद्धि के बल पर बड़े-बड़े वकीलों और बैरिस्टरों के कान काटते हैं।...क्या
वह इतना भी नहीं समझेंगे कि सच क्या है और झूठ क्या? अब तो इनके ही हाथ
में हमारे जीवन-मरण की डोर है...।''
''हुँ....''
बलराम
ने खोये-खोये ढंग से कहा, ''बात और घात में आप भी कुछ कम नहीं हैं, समधन
जी!....और अब काहे की समधन-वमधन? भाड़ में गये सब सम्बोधन। कुण्डु की
घरवाली...बस इतना ही काफी है। और आप इस बात को समझ रखिए....मैं उस
हरामजादे...सूअर को खतम किये बिना छोडूँगा नहीं।...मेरी प्यारी अनाथ
बिटिया को...जिसकी माँ उसे बचपन में छोड़ गयी...मेरे कलेजे के टुकड़े
को...'' बलराम साहा का गला बैठ गया था लेकिन उसने ऊँची आवाज में कहा, ''और
उस लतखोर की यह मजाल। उसे क्या मेरा डर नहीं? उसकी खाल में भूसा भरे बगैर
मैं नहीं मानूँगा...।''
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1. विवाह के समय स्त्री
की बायीं कलाई पर लोहे की पतली-सी चूड़ी जिसके सिरे मिले नहीं होते।
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