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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


दूकान की गद्दी पर बैठते ही बलराम का तन-मन जुड़ा जाता है। उसे लगता है कि उसके बाप-दादा उसे असीस रहे हैं...उसे प्यार से सहला रहे हैं।

वैसे बलराम साहा स्ग्भाव से वड़ा झक्की है। किसी ने उसके मुँह से कभी कोई मीठी बात सुनी हो...ऐसा नहीं जान पड़ता। लेकिन आदमी वह बहुत साफ दिल का है-एकदम खाँटी। लेकिन लोग उसके पीठ-पीछे कहा करते हैं, ''स्साला झक्की बलराम।''

पीछे से किसी की पुकार सुनकर बलराम ने ऊँची आवाज में फिर पूछा, ''अरे पांचू है क्या? तुमने पुकारा तो नहीं?''

ऐसा कहने के बाद बलराम ने देखा कि तीन-चार गुण्डेनुमा छोकरे उसके घर की तरफ से ही चले आ रहे हैं...तेजी से।

इसका मतलब है वे सव घर पर गये थे और जब मुलाकात नहीं हुई तो यहाँ आये हैं और यही वजह है कि शोहदे इधर दौड़े आये हैं और बीच-बीच में पीछे आ रहे साथी को पुकार भी रहे हैं।

बलराम ने उन छोकरों को तिरछी नजर से देखा। उसे लगा...इन लोगों में सब अनजाने चेहरे हैं। इन लड़कों की मंशा क्या है? चन्दा वसूलना? बलराम को उन्होंने पैसे का पेड़ समझ रखा है? और अब कौन-से देवी-देवताओं की पूजा होने वाली है?

बलराम ने पलक झपकते यह सब सोच लिया। कदमों की चाल थोड़ी सुस्त जरूर हो गयी थी लेकिन पाँव रुके नहीं।

पंचांग में किसी पूजा का हवाला हो या न हो...किसी सार्वजनीन रक्षा-काली की पूजा का बहाना ही काफी है और हो गया धूम-धड़ाका।...और अगर ढाक-ढोल न पीटकर अगर कोई नाटक का, यात्रा का ही आयोजन कर लें तो कोई बुरी बात नहीं! इसी का लालच दिखाकर अगर फुलिया को बुलाने की कोशिश की जाए। बहुत दिन हो गये, बिटिया घर में आयी नहीं है। उसकी खप्पर-तलवारवाली सास जरूरत पड़ने पर बहू को बाप के घर तक नहीं भेजती है। क्यों भेज देगी भला? फिर तो खुद को ही घर के काम-काज में झोंकना होगा। और बेचारी फुलिया, बलराम के कलेजे का टुकड़ा...अपनी बेरहम सास के पल्ले में पड़कर कैसी सूख-टटा गयी है! शादी को पाँच-छह साल हो गये आज तक कोई बाल-बच्चा भी नहीं हुआ।

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