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आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 18
आईएसबीएन :8126313927

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ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कहानी संग्रह


निताई ने मुझे बीच में ही रोकते हुए कहा, ''बात यह नहीं थी चाची...काम कोई ज्यादा नहीं था। आपके आशीर्वाद से निताई इस कमजोर शरीर से भी घोड़े दौड़ा सकता है.।''

मैं हैरान थी।'' तो काम छोड़ने के पीछे बात क्या थी?...'' मैंने पूछा।

सिर झुकाये निताई के चेहरे की मांस-पेशियाँ एक बार फिर उभर गयीं। उसकी आवाज जैसे खनक रही थी, ''वहाँ मेरी मान-मर्यादा को खतरा था।''

मान-मर्यादा? मैं उसकी बात सुनकर सकते में आ गयी। कोई बक-झक नहीं तो फिर मान-मर्यादा जैसी वह कीन-सी चीज थी, जिसकी उँगली पकड़कर निताई भाग खड़ा हुआ। मैंने उसकी वात को दोहराते हुए कहा, ''तुम्हीं तो कह रहे हो कि ऐसी कोई बक-झक या झड़प नहीं हुई तो आखिर वह कौन-सी हवाई चिड़िया थी जिसके पंखों पर तुम्हारा सारा मान-सम्मान सवार होकर उड गया...फुर्र-से?''

निताई फिर अपनी जानी-पहचानी मुद्रा में लौट गया। उसने सिर झुकाये-झुकाये ही कहा, ''मैं आपको नहीं बता सकता, चाची!''

नहीं बता सकता...यह भला क्या बात हुई।

मैं अपनी सहेली की वेटी शीला को जानती थी। यह ठीक है कि वह थोड़ी शोख है, जरा घमण्डी भी है लेकिन...। खैर...मैंने भी कुछ तय कर लिया था। मैंने उससे पूछा, ''देख निताई, बिना बताये तो बात बनेगी नहीं। अगर तुम किसी के सिर बेवजह कोई दोष मढ़ दो और काम छोड़ दो तो मैं शीला को क्या जवाब दूँगी? मुझे तो अभी तुरंत उससे पूछना पड़ेगा कि आखिर बात क्या हुई?''

नितार्ड ने अपनी गर्दन कौ सिकोड़े-सिकोड़े जवाब दिया, ''कह दीजिएगा अचानक अपनी नानी के गुजर जाने की खबर पाकर वह गाँव चला गया।"

''वाह! यह बात तो तुम्हीं उन्हें बताकर आ सकते थे। इसमें न बताने जैसी कोई दबी-छिपी बात तो नहीं है।''

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